- चंडीगढ़ देश का पहला योजनाबद्ध तरीके से बसाया गया शहर है। यहां स्थित सुखना झील को बचाया जाना जरूरी है। वजह, सुखना वन्यजीव अभयारण्य के संरक्षण के लिहाज से इसका महत्व। इसके लिए एक प्रभावी सुरक्षा कवच यानी इसे इको सेंसेटिव जोन (पर्यावरण-संवेदनशील क्षेत्र) घोषित किया जाना जरूरी है।
- अभयारण्य के आसपास तेजी से हो रहे शहरीकरण की वजह से बेलगाम निर्माण कार्य चल रहा है। सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के बावजूद भी हरियाणा और पंजाब की सरकारों ने इको सेंसेटिव जोन बनाने संबंधित अधिसूचना जारी नहीं की है।
- अभयारण्य का अधिकांश हिस्सा पंजाब और हरियाणा में पड़ता है। बावजूद इसके, पंजाब 100 मीटर से अधिक इको सेंसेटिव जोन बनाने के पक्ष में नहीं है। हरियाणा ने भी इस मुद्दे को अधिक तरजीह नहीं दी है।
चंडीगढ़ को देश के पहला सुनियोजित तरीके से बसाये गए शहर का खिताब हासिल है। इस शहर की बाहरी सीमा में सुखमा वन्यजीव अभयारण्य बसा है जो कई दुर्लभ वनस्पतियों और जीवों की वजह से आकर्षण का केंद्र है। पर इस आकर्षण पर खतरा मंडरा रहा है। इसकी सुरक्षा के लिहाज से हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने इको सेंसेटिव जोन घोषित करने का स्पष्ट आदेश दिया हुआ है। बावजूद इसके पंजाब और हरियाणा की सरकारें इसे संवेदनशील क्षेत्र घोषित करने में देरी लगा रही हैं।
सुखना वन्यजीव अभयारण्य मार्च 1988 में वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 के तहत अस्तित्व में आया था। इसका मकसद था चंडीगढ़ की सुंदरता में चार चाँद लगाने वाले सुखना झील और उसके कैचमैंट इलाके को सुरक्षित करना।
इस कैचमेंट इलाके में मौजूद घने जंगल में दुर्लभ वनस्पतियों और जीव-जंतुओं का बसेरा है। यह अभयारण्य शिवालिक पर्वत के तलहटी इलाके में 2,600 हेक्टेयर में फैला हुआ है। यहां बड़ी संख्या में जलप्रपात हैं जो कि वर्षाजल को झील तक लेकर आते हैं। गर्मियों में झील का जलस्तर तेजी से कम होता है और मानसून के बाद इसकी स्थिति ठीक हो जाती है। यह जलस्रोत प्रवासी पक्षियों के लिए भी जीवनरेखा है।
इन सब के बावजूद इस अभयारण्य को बचाना चुनौतीपूर्ण होता जा रहा है। वजह है तेजी से हो रहा शहरीकरण और साथ में अभयारण्य के संरक्षण को लेकर सरकारों में बेरुखी।
देश के तमाम अभयारण्य के किनारों को एक अतिरिक्त सुरक्षा कवच प्रदान करने के उद्देश्य से केंद्र सरकार 2002 में इको सेंसेटिव जोन (इएसजे) की संकल्पना लेकर आई।
चंडीगढ़ के मास्टर प्लान-2031 के मुताबिक इस अभयारण्य का 10 फीसदी किनारा चंडीगढ़ से सटा हुआ है और 90 फीसदी हिस्सा पंजाब और हरियाणा से लगा हुआ है।
चंडीगढ़ प्रशासन ने सबसे पहले अपने इलाके में पड़ने वाले 2.75 किलोमीटर क्षेत्र को अभयारण्य को बफर जोन के रूप में अधिसूचित किया था। यह फैसला 2017 में लिया गया जब केंद्र सरकार ने चंडीगढ़ के लिए इको सेंसेटिव जोन बनाने का निर्णय लिया।
हालांकि, पंजाब 100 मीटर से अधिक इको सेंसेटिव जोन बनाने को राजी नहीं है। यह स्थिति तब है जब पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन विभाग ने राज्य के इस प्रस्ताव को पहले ही खारिज कर दिया है।
मोंगाबे-हिन्दी से बात करते हुए पंजाब के मुख्य वन्यजीव प्रतिपालक (वार्डन) आरके मिश्रा ने कहा कि पंजाब 100 मीटर से अधिक इको सेंसेटिव जोन बनाने की स्थिति में नहीं है। इसकी वजह है सुखना वन्यजीव अभयारण्य के आसपास की इंसानी बसाहट।
हालांकि, जो दिखता है मामला उससे कुछ अलग ही है। अभयारण्य से सटा हुआ पंजाब का कंसल इलाका रियल एस्टेट के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण है। कंसल इलाके में कई रसूखदार लोगों की संपत्ति है। अगर अभयारण्य के बाहरी क्षेत्र में 100 मीटर से अधिक का इको सेंसेटिव जोन बनाया तो निर्माण पर कड़ी पाबंदियां लगा दी जाएंगी।
इस तरह सुप्रीम कोर्ट का अभयारण्य को लेकर फैसला कागजों तक ही सिमटकर रह गया है।
कंसल इलाके में ही टाटा हाउंसिंग डेवलपमेंट कंपनी ने अपना 2,000 करोड़ रुपए का रियल एस्टेट का प्रोजेक्ट 2007 में शुरू किया था। इस प्रोजेक्ट के साझेदार पंजाब के विधानसभा सदस्य थे जिनके पास 21 एकड़ की सहकारिता की जमीन और 31 एकड़ की दो निजी संपत्ति पर मालिकाना हक था।
सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रोजेक्ट को नवंबर 2019 में यह कहते हुए निरस्त कर दिया था कि प्रोजेक्ट सुखमा वन्यजीव अभयारण्य के काफी करीब है। अपने आदेश में कोर्ट ने कहा था कि यह प्रोजेक्ट अभयारण्य से 123 मीटर की दूरी पर है और इसे इसलिए अनुमति नहीं मिल सकती है।
इस केस के मुख्य याचिकाकर्ता और अधिवक्ता आलोक जग्गा ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में कहा कि संरक्षित क्षेत्र के आधे किलोमीटर के दायरे में किसी भी तरह का व्यवसायिक या रहवासी निर्माण कार्य पर पाबंदी होगी।
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आधे किलोमीटर से 1.25 किलोमीटर के दायरे में प्लॉट के क्षेत्रफल के आधे से कम में ही निर्माण किया जा सकेगा। साथ ही 15 फीट से कम ऊंची इमारत ही बनाई जा सकती है। 1.25 किलोमीटर के बाद निर्माण के लिए मौजूदा नियम कायदों के तहत अनुमति होगी, जग्गा ने जानकारी दी।
“लेकिन सुप्रीम कोर्ट के आदेश को पूरी तरह से लागू नहीं किया गया है। पंजाब और दूसरे संबंधित विभागों को सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन करना चाहिए और टिकाऊ विकास को ध्यान में रखते हुए वन्यजीव अभयारण्य को सुरक्षित बनाए रखने में योगदान देना चाहिए, जहां प्रकृति की चिंताओं को नजरअंदाज किए बिना लोग रह सकें,” जग्गा का कहना है।
सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अलावा हरियाणा हाई कोर्ट ने 2 मार्च 2020 को सुखना झील को सजीव घोषित किया था और पंजाब और हरियाणा के सुखना वन्यजीव अभयारण्य के एक किलोमीटर के दायरे को तीन महीने के भीतर इको सेंसेटिव जोन के रूप में अधिसूचित करने को कहा। इस आदेश के बाद नयागांव और कंसल इलाके में निर्माण के ध्वस्त करने की आशंका फैल गई। इन इलाकों में कुछ आलिशान रहवासी कैंपस भी बने हैं।
बाद में दिसंबर 2020 में हाईकोर्ट के दूसरे बेंच ने इस आदेश पर रोक लगा दी। रहवासियों की एक समिति ने कोर्ट में याचिका दायर कर कहा था कि पुराने आदेश में कोर्ट ने उन्हें पक्षकारों में शामिल नहीं किया था।
केंद्रीय मंत्रालय ने हरियाणा सरकार को लगाई फटकार
इको सेंसेटिव जोन बनाने को लेकर हरियाणा सरकार की नीति स्पष्ट नहीं है। पिछले साल हरियाणा के वन और वन्यजीव विभाग ने सुखना वन्यजीव अभयारण्य के 100 मीटर से डेढ़ किलोमीटर के दायरे में इको सेंसेटिव जोन बनाने को लेकर कई विभागों से टिप्पणियां मांगी।
इस साल जनवरी में पर्यावरण मंत्रालय ने इको सेंसेटिव जोन बनाने में देर करने की वजह से 18 जनवरी, 2021 को हरियाणा सरकार को फटकार लगाई। यह आसपास पर्यावरण-संवेदनशील क्षेत्र की घोषणा के लिए विशेषज्ञ समिति की बैठक के दौरान हुआ।
मंत्रालय के विशेषज्ञ पैनल ने बैठक के अपने मिनट्स में दर्ज किया कि राज्य सरकार द्वारा प्रस्ताव जमा करने की निर्धारित समय अवधि पिछले साल जारी पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के निर्देशों के अनुसार मात्र तीन महीने थी।
“मंत्रालय ने इस मुद्दे को बार-बार हरी झंडी दिखाई, लेकिन राज्य सरकार द्वारा कोई विश्वसनीय कार्यवाही नहीं की गई,” मिनट्स में दर्ज है।
चंडीगढ़ वन और वन्यजीव विभाग के प्रमुख देबेंद्र दलाई ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया, “मुझे लगता है कि नया प्रस्ताव (इको सेंसेटिव जोन के संबंध में) अभी तक पंजाब और हरियाणा द्वारा मंत्रालय को प्रस्तुत नहीं किया गया है। अगर ऐसा होता तो हमें फीडबैक के लिए केंद्र से उनका प्रस्ताव मिल जाता।”
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सुखना अभयारण्य को पर्याप्त सुरक्षा की जरूरत: केंद्रशासित प्रदेश
दलाई ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया कि इको सेंसेटिव जोन की संरक्षित क्षेत्रों के लिए एक अतिरिक्त सुरक्षा कवच या शॉक एब्जॉर्बर के रूप में परिकल्पना की गयी है। इसका पर्याप्त सीमांकन भी अभयारण्यों के भीतरी हिस्से सुरक्षित रखने के अलावा मानव-प्रकृति के संघर्ष को भी कम करता है।
जहां तक सुखना वन्यजीव अभयारण्य का संबंध है, इसके क्षेत्र का अधिग्रहण 1963 में सुखना झील में मिट्टी के कटाव को रोकने के उद्देश्य से किया गया था।
दलाई कहते हैं कि झील को बचाने के लिए इसके कैचमेंट को बचाने का कार्यक्रम शुरू हुआ था। इस वजह से वहां जंगल घना होता गया और वनस्पति और जीव-जंतुओं का घर बन गया। इस प्रक्रिया में कई जलप्रपात भी बन गए।
शहर के साथ-साथ झील के लिए इसके पारिस्थितिक मूल्य को ध्यान में रखते हुए, झील कैचमेंट के आसपास के क्षेत्र को 1998 में वन्यजीव अभयारण्य घोषित किया गया।
“इसलिए, इस अभयारण्य का शहर की समग्र पारिस्थितिकी के लिए अत्यधिक महत्व है। चंडीगढ़ ने पहले ही अपने दायरे में आने वाले क्षेत्र को इको सेंसेटिव जोन घोषित कर दिया है। हम चाहते हैं कि पंजाब और हरियाणा भी इसे पर्याप्त सुरक्षा दें, ”दलाई कहते हैं।
उन्होंने कहा कि केंद्र शासित प्रदेश का रुख बिल्कुल स्पष्ट है। वे पंजाब और हरियाणा में पड़ने वाले अभयारण्य क्षेत्र के आसपास महज 100 मीटर इको सेंसेटिव जोन बनाने के खिलाफ हैं। यह काफी नहीं होगा।
दलाई ने कहा, ” इको सेंसेटिव जोन का दायरा कितना हो यह राज्यों को तय करना है।”
पिछले अगस्त में मोंगाबे-इंडिया ने रिपोर्ट किया था, जिसमें सामने आया कि रहवासी कॉलोनी और बुनियादी ढांचा विकास परियोजनाओं के दबाव के कारण वन्यजीव अभयारण्यों के आसपास कम से कम क्षेत्र को इको सेंसेटिव जोन घोषित करने का चलन आम हो चला है।
संरक्षित क्षेत्रों के इको सेंसेटिव जोन को केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की एक विशेषज्ञ समिति द्वारा अंतिम रूप दिया जाता है, जिसमें राज्य सरकारों द्वारा प्रस्तुत प्रस्तावों पर चर्चा की जाती है और उन्हें ठीक किया जाता है।
बैनर तस्वीर: सुखना वन्यजीव अभयारण्य। तस्वीर- विशेष प्रबंध