Site icon Mongabay हिन्दी

[वीडियो] देश की राजधानी से सटा ऐसा जंगल जिसे सैकड़ों साल से बचा रहे स्थानीय लोग

असोला भट्टी वन्यजीव अभयारण्य से अधिक जैवविविधता मांगर बानी के असंरक्षित जंगल में पाई गई है। तस्वीर- संशेय विश्वास और मैनो वर्चोट।

असोला भट्टी वन्यजीव अभयारण्य से अधिक जैवविविधता मांगर बानी के असंरक्षित जंगल में पाई गई है। तस्वीर- संशेय विश्वास और मैनो वर्चोट।

  • देश की राजधानी दिल्ली से सटे इलाके में ग्रामीण कई पीढ़ियों से अपने पवित्र वनों को खनन और रियल एस्टेट की नजर से बचाते आ रहे हैं।
  • जैवविविधता के केंद्र होने के बावजूद इन स्थानों को वन संरक्षण अधिनियम के तहत संरक्षित स्थान का दर्जा अभी तक नहीं मिल सका है।
  • जानकारों को उम्मीद है कि इस स्थान पर नए पुरातत्विक खोज के बाद इसके संरक्षण के लिए समुदाय को अब कानून की मदद भी मिलेगी।

अरावली की पहाड़ियों में बसा हरियाणा का मांगर गांव इन दिनों चर्चा में है। चर्चा यहां के कंदराओं में मिले पाषाणकालीन पेंटिंग की हो रही है जिसे हाल ही में राज्य के पुरातत्व विभाग ने खोज निकाला है। दिल्ली और फरीदाबाद जैसे दो बड़े शहरों के बीच बसा यह जंगल का इलाका आसपास भीषण निर्माण के बावजूद भी अपना अस्तित्व बचाने में सफल रहा है। इसके पीछे यहां के स्थानीय लोगों का अथक प्रयास है, जिन्होंने विकास की विभिषिका से अपना जंगल बचाए रखा है।

मांगर गांव के  रहने वाले सुनील हर्षना कहते हैं कि उन्हें इन चित्रों की जानकारी पहले से थी। किशोरावस्था में सुनील मवेशी चराने के दौरान गर्मी से राहत पाने के लिए इन कंदराओं में आराम करते थे। हालांकि उस समय उन्हें अंदाजा नहीं था कि पत्थरों पर उकेरे ये चित्र इतने महत्वपूर्ण हैं।

एक रिपोर्ट के मुताबिक पुरातत्व विभाग के उप निदेशक इस स्थान को पाषाणकाल का एक बड़ा स्थान मानते हैं। अब चर्चा इस स्थान को पुरातत्विक और ऐतिहासिक महत्व का मानकर संरक्षण करने की चलने लगी है।

मांगर गांव के पास कंदराओं में मिले शैलचित्र। तस्वीर- सुनिल हर्षना
मांगर गांव के पास कंदराओं में मिले शैलचित्र। तस्वीर- सुनील हर्षना
नई दिल्ली के पास स्थित मांगर बानी का पवित्र वन। जंगल का यह छोटा सा इलाका स्थानीय लोगों के प्रयासों की वजह से बचा हुआ है। तस्वीर- गूगल मैप
नई दिल्ली के पास स्थित मांगर बनी का पवित्र वन। जंगल का यह छोटा सा इलाका स्थानीय लोगों के प्रयासों की वजह से बचा हुआ है। तस्वीर- गूगल मैप

मांगर गांव, हिमालय से भी पुराने अरावली पहाड़ श्रृंखला के बीच स्थित है। अरावली के पहाड़ शृंखला भारत के 700 किलोमीटर में फैला हुआ है। यह गांव नई दिल्ली, गुरुग्राम और फरीदाबाद के बीच स्थित है जहां गुर्जर समुदाय के लोग सदियों से निवास करते हैं। इनका  मुख्य पेशा मवेशी चराना है। इनकी ऐतिहासिक जड़े तलाशना मुश्किल है लेकिन बुजुर्गों से मिली जानकारी के मुतबिक ये सैकड़ों साल पहले यहां पलायन कर आए थे।

हर्षना के मुताबिक पहले मांगर में रहने वाले अधिकतर लोग पशुपालन से अपनी जीविका चलाते थे। उन्होंने इस इलाके में वन प्रबंधन के लिए एक तंत्र भी बनाया ताकि जंगल के संसाधनों का उपयोग इस कदर हो कि ये खत्म न हों। और उनके मवेशियों को चारा मिलता रहे।  

जंगल के प्रबंधन का आधार मांगर बनी से जुड़ा है। यह पवित्र जंगल 274 हेक्टेयर में फैला हुआ है। इस जंगल को बचाने वाले गुदरिया दास बाबा की कहानी आज भी सुनाई जाती है।

“इस स्थान पर शिकार और पेड़ों की कटाई प्रतिबंधित है और अगर ऐसा करता हुआ कोई पाया जाता है तो कोई दिव्य शक्ति है जो उस शख्स को इस पाप की सजा देती है,” हर्षना कहते हैं।

YouTube video player

“उदाहरण के लिए अगर किसी ने लकड़ी काटकर घर बनाया तो उस घर में आग लग जाती है। अगर किसी ने पत्तियां तोड़कर जानवर को खिलाई तो वह जानवर बावला हो जाता है। इस तरह की कई कहानियां इलाके में प्रसिद्ध हैं। इससे जंगल का संरक्षण हो रहा है,” वह कहते हैं।

हालांकि, इन नियमों में मुश्किल वक्त में कुछ छूट भी मिलती थी। सूखे के समय गुदरिया बाबा की अनुमति से इस जंगल से खाना लाया जा सकता था। इस दौरान भी पेड़ काटने की अनुमति नहीं होती थी। लोग पेड़ को हिलाकर उससे जो पत्ते गिरते थे उसे अपने जानवरों को खिलाने के लिए ले आते थे।

“यह महज एक परंपरा है, लेकिन अगर इसे वैज्ञानिक नजरिए से देखा जाए तो यह वन प्रबंधन का एक बेहतरीन तरीका भी है,” हर्षना कहते हैं।

मांगर गांव के पास भिंडावास में घरों से निकला कचरा डाला जाता है। स्थानीय समुदाय और पर्यावरणविद् इससे होने वाले रासायनिक प्रदूषण को देखते हुए कई बार प्रशासन से शिकायत कर चुके हैं। तस्वीर- संशेय विश्वास और मैनो वर्चोट।
मांगर गांव के पास भिंडावास में घरों से निकला कचरा डाला जाता है। स्थानीय समुदाय और पर्यावरणविद् इससे होने वाले रासायनिक प्रदूषण को देखते हुए कई बार प्रशासन से शिकायत कर चुके हैं। तस्वीर- संशेय विश्वास और मैनो वर्चोट।

स्थानीय समुदाय के प्रयासों की वजह से मांगर बनी का जंगल बचा हुआ है और इसे नेशनल कैपिटल रीजन (एनसीआर) के आखिरी वनों में से एक होने का दर्जा हासिल है। इस जंगल में 219 पक्षियों की प्रजाति, लकड़बग्घा और तेंदुआ जैसे जीव के साथ-साथ कई किस्म के पौधे भी पाए जाते हैं।  

सेंटर फॉर इकोलॉजी डेवलपमेंट एंड रिसर्च के सीनियर फेलो और स्वतंत्र पर्यावरण विश्लेषक चेतन अग्रवाल मांगर के जंगल पर 2008 से ही काम कर रहे हैं। बीते कुछ वर्षों में हरसाना और अग्रवाल ने इस जंगल पर कई अध्ययन किए हैं।

एक ताजे अध्ययन में सामने आया कि पास के असोला भट्टी वन्यजीव अभयारण्य से अधिक जैवविविधता मांगर बनी के असंरक्षित जंगल में पाई गई है। अग्रवाल कहते हैं कि इस असंरक्षित वन को बचाए रखने में समुदाय का योगदान काफी महत्वपूर्ण है।

“मांगर बनी के बाहर जब आप देखते हैं तो इसकी सीमाएं धुंधली दिखती हैं और जब आप बाहर की तरफ कदम रखते हैं पहाड़ी के दूसरे हिस्सों में जंगल की गुणवत्ता काफी खराब है। कहीं-कहीं जंगल दिखता है लेकिन अधिकतर स्थानों पर खनन, चारे और जलावन के लिए जंगल खत्म हो रहे हैं,” अग्रवाल कहते हैं।

मार्च 2021 में हरियाणा सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से अरावली में खनन दोबारा शुरू करने की अनुमति मांगी। सुप्रीम कोर्ट ने रेत और पत्थर खनन पर वर्ष 2020 में पाबंदी लगा दी थी। कोर्ट ने पाया कि बिना अनुमति के बड़े स्तर के खनन हो रहे थे जिससे अरावली को नुकसान हो रहा था।

हालांकि, अभी भी गैरकानूनी खनन जारी है। केंद्रीय अधिकार प्राप्त समिति (सेंट्रल इंपावर्ड कमेटी) द्वारा 2018 में सुप्रीम कोर्ट को सौंपी गई एक रिपोर्ट के अनुसार, पड़ोसी राज्य राजस्थान में 1967-68 की तुलना में 25 प्रतिशत अरावली के वन खत्म हो चुके हैं। गैरकानूनी खनन को इसका जिम्मेदार माना जाता है।


और पढ़ेंः दिल्ली-हरियाणा का अरावली जंगल है जैव-विविधतता का केंद्र, संरक्षण की जरूरत


वनों की कटाई और खनन के अलावा जमीन का मालिकाना हक बदलने की वजह से जमीन के मौजूदा मालिकों ने भी वनों को संकट में डाल दिया है। बीते कई वर्षों में इलाके को बांटकर निजी लाभ के लिए बेचा गया। पर्यावरणविद् मानते हैं कि जमीन के नए मालिक एक नोटिफिकेशन की वजह से वनों की कटाई नहीं कर पा रहे हैं। हरियाणा सरकार ने यह नोटिफिकेशन 2016 में जारी किया था जिसके मुताबिक मांगर बनी के 500 मीटर इलाके में कोई निर्माण नहीं किया जा सकेगा।

इसी साल एक रिपोर्ट के मुताबिक गुरुग्राम के कंर्वेटर ऑफ फॉरेस्ट ने कहा कि मांगर बनी में जमीन का मालिकाना हक गैरकानूनी है और इसे वापस समुदाय को देना चाहिए। 

“मांगर बनी के बचे रहने की वजह है लोगों के द्वारा इसका ख्याल रखा जाना,” कहती हैं गजाला शहाबुद्दीन। वे सेंटर फॉर इकोलॉजी डेवलपमेंट एंड रिसर्च की सीनियर फेलो भी हैं। “अगर आप दूसरे इलाके को देखेंगे तो इस तरह घनी हरियाली नहीं दिखती और इसकी वजह है लोगों द्वारा संरक्षण और धार्मिक भावनाएं,” उन्होंने कहा।

जैवविविधता और पारिस्थितिकी महत्वों के बावजूद मांगर बनी को कानूनी तौर पर जंगल की संज्ञा नहीं दी गई है।

दिल्ली, फरीदाबाद और गुरुग्राम तक फैले अरावली पहाड़ के इस हिस्से में अध्ययन किया गया। मानचित्र- सुनिल हर्सना
दिल्ली, फरीदाबाद और गुरुग्राम तक फैले अरावली पहाड़ के इस हिस्से में अध्ययन किया गया। मानचित्र- सुनील हर्षना

वर्ष 1995 में सुप्रीम कोर्ट ने वन को पारिभाषित करते हुए कहा कि वन संरक्षण अधिनियम के तहत कोई भी जमीन अगर वन क्षेत्र में आएगी तो उसे वन या जंगल माना जाएगा। इस आदेश की वजह से जंगल की जमीन का उपयोग गैर वन कार्यों के लिए बिना अनुमति के नहीं हो सकता।

बावजूद इसके मांगर बनी को वन संरक्षण अधिनियम के तहत संरक्षण नहीं मिला हुआ है।

“मांगर बनी को सरकार ने बनी यानि कि जंगल के तौर पर अधिसूचित किया है। यहां पर नो कंस्ट्रक्शन जोन भी बना है। हालांकि, वन विभाग ने इसे जंगल के तौर पर मान्यता नहीं दी है,” अग्रवाल कहते हैं।

पर्यावरणविद् इसी वजह से इस जंगल के संरक्षण में कानून की पूरी मदद न मिलने का मुद्दा उठाते हैं और इसकी जैवविविधता बनाए रखने में उन्हें मुश्किलें आ रही हैं।

“मांगर बनी अकेले पारिस्थितिकी तंत्र को अधिक समय तक सुरक्षित नहीं रख सकती। इसके लिए पूरे तंत्र को सुरक्षित करने की जरूरत है। एक जंगल में जानवरों के विकास के लिए उसका आकार महत्व रखता है,” गजाला कहती हैं।

शहाबुद्दीन ने कहा कि जंगल को बचाने में स्थानीय लोगों का योगदान भी महत्वपूर्ण है। उन्होंने इस जंगल को वर्षों तक बचा कर रखा हुआ है।

“अगर हम इस जंगल को समुदायिक रिजर्व या जैवविविधता वाला विरासत के तौर पर वर्गीकृत कर दें तो इसका संरक्षण और प्रभावी हो सकेगा। इस जंगल के प्रबंधन का अधिकार समुदाय के पास ही रहेगा,” वह कहती हैं।

हर्सना ने मांगर बानी में कई साल वनस्पति, जीव-जंतु और चिड़ियों की प्रजाति खोजने में लगाए हैं। तस्वीर- तस्वीर- संशेय विश्वास और मैनो वर्चोट।
हर्षना ने मांगर बनी में कई साल वनस्पति, जीव-जंतु और चिड़ियों की प्रजाति खोजने में लगाए हैं। तस्वीर- तस्वीर- संशेय विश्वास और मैनो वर्चोट।

हर्षना ने बिना सरकारी संरक्षण के इस जंग में संरक्षण का काम जारी रखा। वर्ष 2015 के बाद से वे बच्चों के साथ मांगर इको क्लब  बनाकर बच्चों को अपने जंगल के बारे में बताते हैं। कोविड-19 महामारी के पहले बच्चे जंगल जाकर पेड़-पौधे देखते और कचरे की सफाई भी करते थे। इस क्लब के सदस्यों ने पत्थर की मदद से छोटे डैम बनाए हैं जो कि मिट्टी कटाई रोकने में कारगर हैं और इसकी मदद पेड़ों की जड़ें भी नहीं उखड़ती।

“जो काम अब ये बच्चे कर रहे हैं वैसा ही काम जंगल में पारंपरिक रूप से होता आया है। इस क्लब को चलाने का मकसद बच्चों को इस काम से जोड़ना है। बच्चों के काम से अधिक परिवर्तन न भी आता हो, लेकिन वे जंगल से जुड़कर भविष्य में संरक्षण का काम आगे बढ़ा सकते हैं,” सुनील का मानना है।

हर्षना इन दिनों अरावली के जंगल की खूबियों को रिकॉर्ड कर रहे हैं। वे एक और अध्ययन कर रहे हैं जो कि अरावली के पौधों के विकास को लेकर है। उन्होंने अरावली के करीब 20 गांवों का दौरा कर इन पौधों के विकास और संख्या बढ़ने संबंधी जानकारियों को इकट्ठा किया।  

शहाबुद्दीन कहती हैं कि हर्षना ने इलाके में कुछ ऐसे स्थान खोज निकाले हैं जहां दुर्लभ प्रजाति के पेड़ों का विकास हो रहा है।

 

बैनर तस्वीरः असोला भट्टी वन्यजीव अभयारण्य से अधिक जैवविविधता मांगर बनी के असंरक्षित जंगल में पाई गई है। तस्वीर- संशेय विश्वास और मैनो वर्चोट।

Exit mobile version