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[वीडियो] राजस्थानः ऊंट के संरक्षण के लिए आया कानून ही बन रहा उसकी तबाही की वजह

राजस्थान के जैसलमेर में ऊंट के साथ पालक। राज्य में ऊंट लगातार कम हो रहे हैं। वर्ष 2012 से 2019 के दौरान राजस्थान में ऊंटों की संख्या में 35 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गयी। तस्वीर- मनोज वसंथ/फ्लिकर

राजस्थान के जैसलमेर में ऊंट के साथ पालक। राज्य में ऊंट लगातार कम हो रहे हैं। वर्ष 2012 से 2019 के दौरान राजस्थान में ऊंटों की संख्या में 35 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गयी। तस्वीर- मनोज वसंथ/फ्लिकर

  • राजस्थान के राजकीय पशु ऊंट की संख्या में काफी गिरावट दर्ज की गई है। सरकार के आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2013 से 2019 के दौरान ऊंटों की संख्या में 35 फीसदी तक कमी आई है। हालांकि, किसान मानते हैं कि ऊंटों की असल संख्या इससे कई गुना कम हैं।
  • ऊंट संरक्षण के लिए सरकार ने 2015 में एक कानून बनाया था जिसका उद्देश्य ऊंटों की कटाई और उनके पलायन को रोकना था। ऊंट पालक किसान इस कानून को ही ऊंटों की घटती संख्या की एक बड़ी वजह मान रहे हैं।
  • एक राज्य से दूसरे राज्य के बीच ऊंटों की खरीद-फरोख्त रुकने की वजह से इसकी कीमत में काफी कमी आई है। ऊंट पालक किसान इस वजह से अपने पशु को या तो खुले में छोड़ने को मजबूर हो रहे हैं या गैरकानूनी तरीके से इसे बेचने की कोशिश कर रहे हैं।

राजस्थान में ऊंट पालना कभी काफी मुनाफे का सौदा हुआ करता था और ऊंट, संपत्ति की तरह देखे जाते थे। पाली जिले के माधवराम रायका बताते हैं कि उनके पिता के पास 150 ऊंटों का झुंड था। उन दिनों ऊंटों की अच्छी कीमत मिलती थी। कम ऊम्र के ऊंट हो या उम्रदराज। इन्हीं ऊंटों के सहारे माधवराम का घर दशकों तक बड़ी आसानी से चला।

फिर राजस्थान सरकार ने एक कानून बनाया। वर्ष 2015 में राजस्थान ऊंट (वध का प्रतिषेध और अस्थायी प्रव्रजन या निर्यात का विनियमन) अधिनियम आया जिसके बाद से परिस्थितियां बदलने लगीं। यह कानून ऊंटों की संख्या बढ़ाने और उनके संरक्षण के लिए लाया गया था। पर परिणाम इसके विपरीत आए।

ऊंट पालकों के लिए इस कानून के  वजूद में आने के बाद से ही मुश्किलें बढ़ती गईं। ऊंटों की कीमत में गिरावट दर्ज की जाने लगी। कुछ इस तरह कि माधवराम जैसे ऊंट पालक अपना पशु बेचने पर मजबूर हो गए। जिनके पास ऊंट बचें हैं, उन्हें भी इस जीव को पालने में कई मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। इन सब वजहों से राज्य में लगातार ऊंटों की संख्या में कमी हो रही है।

काम न आया राजकीय पशु का सम्मान

राजस्थान सरकार ने 2014 में ऊंट को राजकीय पशु का दर्जा दिया। इस निर्णय के बारे में माधवन कहते हैं, “हमें लगा था कि ऊंट को यह सम्मान मिलने के बादे हमारे ऊंटों की किस्मत बदलेगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। उल्टा इसके राज्य से बाहर बेचने पर पाबंदी लग गई। इस पाबंदी की वजह से ऊंट की कीमत में बेतहाशा कमी आई।”

ऊंट की कीमत में 80 से 90 फीसदी तक की कमी आई है। पाली जिले के ही एक और ऊंट पालक हरिराम रायका कहते हैं, “2015 से पहले जब यह कानून नहीं था, दस महीने के ऊंट की कीमत 15,000 रुपए से अधिक मिलता था। अब 3-4 साल के ऊंट के भी तीन हजार रुपए से अधिक नहीं मिलते।”

राजस्थान में ऊंट की कीमत में 80 से 90 फीसदी तक की कमी आई है। तस्वीर- यान फॉरगेट/विकिमीडिया कॉमन्स
राजस्थान में ऊंट की कीमत में 80 से 90 फीसदी तक की कमी आई है। तस्वीर– यान फॉरगेट/विकिमीडिया कॉमन्स

ऊंट पहले पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और हिमाचल प्रदेश के लोग खरीदते थे। खरीदारों में अधिकतर किसान थे जो दूध और खेती के काम से या भारी सामान ढोने के लिए ऊंट खरीदते थे।

रायका समुदाय मूलतः चरवाहों का समुदाय है और इससे जुड़े लोग अपनी आजीविका के लिए सदियों से ऊंट पालते आए हैं। बीते समय में उनके सामने ढेरों मुसीबतें आयीं जिसका इन लोगों ने डट कर मुकाबला भी किया। पर इस बार परेशानी थोड़ी अलग है। यह, इनकी आमदनी के एकमात्र जरिया ऊंट के अस्तित्व से जुड़ी हुई है।

राजस्थान में ऊंटों की घटती संख्या का अंदाजा पुष्कर मेले की स्थिति से लगाया जा सकता है। 

“वर्ष 2019 के पुष्कर मेले में ऊंट से अधिक घोड़े बिकने आए थे। उन्हें अधिक कीमत मिल रही है,” लोकहित पशु पालक संस्थान नामक गैरलाभकारी संस्थान के निदेशक हनवंत सिंह राठौर कहते हैं। यह राजस्थान के ऊंट पालकों की संस्था है।

“पहले ऊंट का छः महीने का बच्चा 10,000 से अधिक में बिक जाता था, जो कि अब हजार से डेढ़ हजार रुपये में बिक रहा है। हताश होकर ऊंट पालक अपने ऊंट औने-पौने दामों में बेचने को मजबूर हैं,” उन्होंने कहा।

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हर साल पुष्कर में लगने वाला यह मेला पुष्कर ऊंट मेला के नाम से भी जाना जाता है। यहां बड़ी संख्या में ऊंटों की खरीद-बिक्री हुआ करती है। इसके साथ ही अन्य पालतू जानवर जैसे घोड़े, मवेशी खरीदे और बेचे जाते हैं। यहां देशभर के व्यापारी और पशुपालक आते हैं।

नए कानून की वजह से सब बदल गया है। राज्य में ऊंटों की कुल आबादी कम हो गई है, राठौर ने कहा।

20वीं पशुगणना के अनुसार 2012 में ऊंटों की संख्या 3,25,000 थी। वर्ष 2019 आते-आते यह संख्या 2,13,000 रह गई। यानी ऊंटों की संख्या में इस सात साल में 35 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गयी।

“यह तो सरकारी आंकड़ा हुआ। हमारे अनुमान के मुताबिक ऊंटों की संख्या में और भी कमी हुई होगी। राज्य में इस समय बमुश्किल डेढ़ लाख के करीब ऊंट ही होंगे और यह संख्या हर महीने कम हो रही है,” राठौर ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया।


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नाकाम हुई ऊंट बचाने की कोशिश

दुर्भाग्यवश ऊंट पालको ने ही राज्य से बाहर ऊंट न बेचे जाने की मांग की थी और राज्य सरकार ने इससे संबंधिक कानून बनाने को कहा था। हालांकि, उनकी दो विशेष मांग भी थी। उन्होंने राज्य से बाहर मादा ऊंट बेचने पर पाबंदी की मांग की थी। खासकर, कटाई के मकसद से।  

“हमने 2002 में ऊंट काटने की घटना पहली बार सुनी थी। इसलिए हमने मादा ऊंट को राज्य से बाहर बेचने पर पाबंदी की मांग की थी। हम मानते हैं कि मादा ऊंट हमारी रोजी-रोटी और जीवन का आधार है,” राठौर कहते हैं।

“जब कानून बना तो पता चला कि यह पाबंदी, नर और मादा दोनों ऊंटो के लिए थी। इसकी वजह से व्यापार प्रभावित हुआ और इसका हमें काफी नुकसान हो रहा है,” उन्होंने कहा।

ऊंट पालक सिर्फ नए कानून की वजह से ही परेशानी में नहीं हैं। राजस्थान में चारागाह वाली भूमि की कमी भी एक बड़ी वजह है। हरिराम रायका जैसे चरवाहे जो पुश्तों से इस काम में लगे हैं, उनका बयान है कि वे मानसून में कुम्भलगढ़ के जंगल में दो महीने ऊंट चराया करते थे। “इस जंगल को जब से वन्यजीव अभयारण्य घोषित किया गया है ऊंट के लिए यह स्थान उपलब्ध नहीं रहा,” वह कहते हैं।

जीवनयापन की राह मुश्किल

नए कानून की वजह से चुनौतियां बढ़ी हैं। “पहले हम ऊंट बेचकर 2,00,000 से 2,50,000 रुपये तक सालाना कमाई कर लेते थे। जबकि, अब मुश्किल से 25,000 से 30,000 रुपये तक की कमाई हो पाती है। इससे हमारी माली हालत पर असर हुआ है,” हरिराम कहते हैं। हरिराम के पास पहले 60 ऊंट थे। अब महज 30 ही बचे हैं। उन्हें इस व्यवसाय में अब बस नुकसान दिख रहा और वे बचे हुए ऊंटों को भी बेचना चाहते हैं।

माधवराम के लिए मुश्किलें और भी बड़ी हैं। वह अब दूसरे के ऊंट चराते हैं और महीने में उन्हें 8 हजार रुपए मिलते हैं। उनकी आमदनी कम होने की वजह से परिवार में कई समस्याएं पैदा हो रही हैं और उनकी पत्नी को भी दिहाड़ी मजदूरी करने पर विवश होना पड़ा है।

रायका समुदाय मूलतः चरवाहों का समुदाय है। इस समुदाय के लोग अपनी आजीविका के लिए सदियों से ऊंट पालते आए हैं। तस्वीर- नेविल जावेरी/फ्लिकर
रायका समुदाय मूलतः चरवाहों का समुदाय है। इस समुदाय के लोग अपनी आजीविका के लिए सदियों से ऊंट पालते आए हैं। तस्वीर– नेविल जावेरी/फ्लिकर

हरिराम या माधवराम की कहानी कोई असमान्य नहीं हैं। अंश की धानी गांव में 1991 में 100 परिवार रहते थे और गांव में कुल पांच हजार ऊंट थे। अब गांव में मात्र 200 ऊंट बचे हैं। जोधावर की धानी गांव में छह साल पहले 7,000 से 8,000 ऊंट हुआ करते थे, जो कि अब घटकर 300-400 हो गए हैं।

कई मामलों में पालक नर ऊंट को आवारा छोड़ रहे हैं ताकि वे अपना भोजन खुद खोज सकें। वे सिर्फ मादा ऊंट को पालने की कोशिश कर रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों में आवारा ऊंटों की संख्या में वृद्धि आई है, राठौर कहते हैं। कुछ लोगों ने हताश होकर गैरकानूनी तरीके से अपने जानवर बेचने की कोशिश की है। वे पैदल ही राज्य की सीमा पार करने की कोशिश करते हैं, उन्होंने कहा।

ऊंटों की कम होती संख्या को लेकर राज्य सरकार ने 2016 में उष्ट्र विकास योजना शुरू की। योजना के तहत हर नए ऊंट के बच्चे पर ऊंट पालकों को तीन किस्तों में 10 हजार रुपए दिए जाने थे। कई पशुपालक इस योजना का लाभ नहीं उठा पाए तो कई लोगों को अंतिम किस्त नहीं मिली और यह योजना सफल नहीं हो पाई।

जीवनयापन के लिए पशुपालकों ने ऊंटनी का दूध बेचना शुरू किया। हालांकि, इस काम में अधिक लाभ नहीं हुआ, वजह रही राजस्थान की पौराणिक मान्यताएं। ऊंट के दूध को सुपर फूड की तरह देखा जाता है जिसका लाभ ऑटिस्म, डायबिटीज, यकृत (लिवर) की बीमारियां, पिलिया और कैंसर तक में होता है। कैमल करिश्मा नामक एक ब्रांड के तहत लोकहित पशुपालक संस्थान अब ऊंटनी का दूध बेच रहा है। “एक परिवार दूध बेचकर 18,000 से 30,000 मासिक आमदनी ले सकता है,” राठौर कहते हैं।

कैमल करिश्मा 60 रुपए प्रति लीटर के हिसाब से पालकों को भुगतान करता है। वे ऊंटनी के दूध से चीज और साबुन जैसे उत्पाद बना रहे हैं। ऊंट के विष्ठा से कागज भी बनाया जा रहा है। गाय के दूध की तुलना में ऊंटनी का दूध महंगा होने की वजह से आम लोगों में इसकी मांग कम है। मार्केटिंग और कोल्ड चेन न होने की वजह से भी ऊंटनी का दूध प्रसिद्ध नहीं हो पा रहा है।

पिछले तीस वर्षों से ऊंट पर शोध करने वाले और लोकहित पशु पालन संस्थान के सह संस्थापक इल्स कोहलर-रॉलेफसन ने कहा कि भारत के बाहर विशेषकर चीन में ऊंट के दूध की काफी मांग है, लेकिन मूलभूत ढ़ांचा न होने की वजह से इसकी आपूर्ति नहीं हो पा रही है।

वर्ष 2019 के पुष्कर मेले में ऊंट से अधिक घोड़े बिकने आए थे। तस्वीर- ए वाहनवती/विकिमीडिया कॉमन्स।
वर्ष 2019 के पुष्कर मेले में ऊंट से अधिक घोड़े बिकने आए थे। तस्वीर– ए वाहनवती/विकिमीडिया कॉमन्स।

“हमे लगता है कि 2015 में आए कानून में अगर बदलाव किए जाएं तो हमारे ऊंटों की रक्षा होगी। नहीं तो अगले पांच साल काफी कठिन होने वाले हैं,” हरिराम कहते हैं।

राज्य सरकार ने इस मामले में एक कमेटी का गठन किया है। यह फैसला पुष्कर मेले के दौरान कानून के विरोध में हुए प्रदर्शन के बाद लिया गया। इस विरोध के बाद पालकों ने सरकार के सामने कुछ मांगे रखीं जिसमें कानून में संशोधन के अलावा स्कूलों मध्याह्न भोजन में ऊंटनी का दूध शामिल करने और बाजार में इसे बढ़ावा देने की मांग भी शामिल हैं। मांग में चरवाही का अधिकार भी शामिल है। 

पशुपालन विभाग के एक अधिकारी ने कहा कि मांगों पर विचार किया गया और कानून में परिवर्तन की प्रक्रिया चल रही है। “कानून मंत्रालय को कानून में संशोधन संबंधी प्रस्ताव भेजा गया है। इसे जल्द विधानसभा में लाया जाएगा। संशोधन के बाद ऊंट कटाई के अलावा दूसरे कामों के लिए पशुपालक अपने ऊंट राजस्थान से बाहर बेच सकेंगे। यह कबतक होगा इसका अंदाजा अभी नहीं लगाया जा सकता है,” एक अधिकारी ने नाम न लिखने की शर्त पर बताया।

बैनर तस्वीरः राजस्थान के जैसलमेर में ऊंट के साथ पालक। राज्य में ऊंट लगातार कम हो रहे हैं। वर्ष 2012 से 2019 के दौरान राजस्थान में ऊंटों की संख्या में 35 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गयी। तस्वीर– मनोज वसंथ/फ्लिकर

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