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[वीडियो] देखने में अक्षम पर अपने नेतृत्व से गांव को चक्रवात झेलने में बनाया सक्षम

वर्ष 2020 में मैंग्रोव लगाने की अभियान चलाया गया था। तस्वीर- साबिज बाहिनी

वर्ष 2020 में मैंग्रोव लगाने की अभियान चलाया गया था। तस्वीर- साबिज बाहिनी

  • सुंदरबन के झरखाली गांव की महिलाओं ने चक्रवात के असर को कम करने के लिए मैंग्रोव लगाना शुरू किया है और अपने उद्देश्य में सफलता पायी है। इन महिलाओं का नेतृत्व अकुल बिस्वास कर रहे हैं जो अपनी आंखों से देख नहीं सकते।
  • झरखाली गांव तीन तरफ से तीन नदियों से घिरा हुआ है। गांव ने पिछले एक दशक में पांच चक्रवाती तूफानों को सफलतापूर्वक झेला है।
  • मैंग्रोव के जंगल चक्रवात से प्राकृतिक तौर पर सुरक्षा प्रदान करते हैं और ज्वार-भाटा की स्थिति में समुद्र के पानी को भी खेत और गांवों में आने से रोकते हैं। इतना ही नहीं, ये जंगल मिट्टी का कटाव कम करने में भी सक्षम हैं।

इस साल भारी बारिश से देश के विभिन्न हिस्सों में शहर और गांव बेहाल हैं। चारों तरफ मौसम के मार और उससे होने वाली तकलीफों की चर्चा है। इसी बीच देश में एक ऐसा भी गांव है जो एक दशक में पांच चक्रवात झेल चुका है और वहां कोई नुकसान नहीं हुआ। यह सब संभव हुआ है अकुल बिस्वास के नेतृत्व और गांव के महिलाओं के अथक प्रयास से। अकुल बिस्वास देखने में अक्षम हैं। 

यही नहीं, उस गांव के इर्द-गिर्द के गांव के लिए चक्रवात, कहर बनकर आए। जैसे, बीते मई महीने में आए तूफान यास ने बंगाल के सुंदरबन स्थित कई तटीय गांवों को जलमग्न कर दिया। इन गावों में जान-माल की भारी क्षति हुई। पर दक्षिण 24 परगना जिले के निचले इलाके में बसे झरखाली नाम का यह गांव काफी मजबूती से खड़ा रहा।

तूफान ने जिस कदर तबाही दूसरे गांवों में मचाई वैसा असर यहां देखने को नहीं मिला। न ही नदी का तटबंध टूटा, न गांव में कोई बेघर हुआ। यह तब है जब झरखाली गांव तीन तरफ से तीन नदियों- मतला, बिद्याधारी और हरियाभंगा से घिरा हुआ है। पिछले एक दशक में इस गांव ने ऐला (मई 2009), फानी (मई 2019), बुलबुल (नवंबर 2019), अंफान (मई 2020) और यास (मई 2021) का सफलतापूर्वक सामना किया है।

इस गांव में लगे मैंग्रोव के जंगल की वजह से यह संभव हो पाया है। ग्रामीणों ने कुछ समय से नदी के कछार पर तूफान से बचाव के लिए मैंग्रोव लगाना शुरू किया था। वर्ष 2017 से अब तक करीब तीन लाख मैंग्रोव के पौधे लगाए जा चुके हैं।

मैंग्रोव का पौधा दिखाते हुए अकुल बिस्वास। तस्वीर- पार्थो बर्मन
मैंग्रोव का पौधा दिखाते हुए अकुल बिस्वास। तस्वीर- पार्थो बर्मन

इस काम को करने में झरखाली की महिलाएं, साबुज बहिनी नामक गैर लाभकारी संस्था के नेतृत्व में आगे आईं। इस संस्था को अकुल बिस्वास ने 2005 में स्थापित किया था। विडंबना यह है कि 47-वर्षीय बिस्वास देख नहीं सकते हैं, पर उनके नेतृत्व में महिलाओं ने गांव को तूफान जैसी बड़ी मुसीबत से लड़ने की ताकत दी है।

एक किसान परिवार में जन्मे बिस्वास भाई-बहनों में सबसे छोटे थे। बहुत कम उम्र में ही ग्लूकोमा नामक बीमारी की वजह से उनकी आंख की रोशनी जाती रही। इस वजह से वह अपनी पढ़ाई भी पूरी नहीं कर पाए। जीवन के संघर्ष के दौरान उन्हें अहसास हुआ कि पर्यावरण की तरफ उनका रुझान है और उन्होंने इसे बचाने के लिए पौधारोपण का रास्ता अपनाया।

वर्ष 2009 में आए ऐला तूफान ने उन्हें एक बड़ी सीख दी। “ऐला तूफान ने हमें बुरी तरह बर्बाद कर दिया था। तूफान के जोर से नदी का तटबंध टूटा, पानी हमारे घर और खेतों में घुस आया। कई घर तबाह हुए, बिजली के खंभे, पेड़ पौधे उखड़ गए। दर्जनों मवेशी पानी के साथ बह गए। नमकीन पानी से खेत खराब हो गए और मछलियां भी मर गईं,” बिस्वास ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया। इन्होंने अपनी संस्था का नाम रखा- साबुज बाहिनी, जिसका अर्थ होता है हरियाली की रक्षा करने वाली सेना।

“तूफान के बाद मैंने पाया कि इसका असर उन इलाकों में अधिक था जहां मैंग्रोव न के बराबर थे। मैंने तभी सोच लिया कि गांव के खाली स्थानों में मैंग्रोव लगाना है, ताकि हमारा गांव सुरक्षित हो सके,” उन्होंने बताया।

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बिस्वास के इस मुहीम में घरेलू महिलाएं, बच्चों और बाघ के हमले में अपना पति खो चुकी महिलाओं ने सहयोग किया।

“हम अपनी मर्जी से पौंधे लगा रहे हैं ताकि तूफान से हमें प्राकृतिक सुरक्षा मिल सके। मैंग्रोव हमें कई नुकसान से बचा सकते हैं,” कहती हैं सांति दास। पचास वर्षीय दास इस संस्था से जुड़ी हैं।

वह बताती हैं कि उनके पति दो-तीन साल पहले बाघ के हमले में मारे गए। यह हमला तब हुआ जब उनके पति शहद निकालने नदी की तरफ गए थे। सुंदरबन के इस इलाके में इंसान और जानवरों का संघर्ष आए दिन होता रहता है, जिसमें कई महिलाओं ने अपना पति खो दिया है। बाघ के हमले की वजह से पति खोने वाली महिलाओं को बाघ विधवा का नाम दिया जाता है।

सांति दास (हरी साड़ी में) ने अपना पति बाघ के हमले में खो दिया। वे अन्य महिलाओं के साथ मिलकर मैंग्रोव के पौधे लगा रही हैं। तस्वीर- झरखाली साबुज बाहिनी
सांति दास (हरी साड़ी में) ने अपना पति बाघ के हमले में खो दिया। वे अन्य महिलाओं के साथ मिलकर मैंग्रोव के पौधे लगा रही हैं। तस्वीर- झरखाली साबुज बाहिनी

नदी कछार में पौधारोपण का काम आसान नहीं था। जंगली जानवर और सांप का डर हमेशा बना रहता है। इन सभी चुनौतियों के बावजूद महिलाओं ने अकुल बिस्वास का साथ दिया और गांव को हर तरफ से सुरक्षित बनाने के लिए मैंग्रोव के जंगल लगाए।

हरियाली के रक्षक सैनिक

सुंदरबन का जंगल पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश की सीमा से लगा हुआ है। यह इलाका 10,000 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है। इस इलाके में मैंग्रोव का जंगल लगभग 2,107 वर्गकिलोमीटर में फैला है। सुंदरबन के मैंग्रोव के जंगल में 34 प्रजाति के पेड़ पाए जाते हैं। मैंग्रोव की खासियत है कि यह खारे पानी में भी हरा-भरा रहता है। तटीय इलाकों में ये जंगल समुद्र से तट की सुरक्षा प्रदान करते हैं। नदी के तटबंधों कों इनकी जड़ें मजबूती प्रदान करती हैं। इससे भूस्खलन और मिट्टी का कटाव कम होता है।

बिस्वास और उनका समूह झरखाली में 10 तरह के मैंग्रोव लगाते हैं। ये प्रजातियां हैं सुंदरी (Heritiera Fomes), गोरान (Ceriops decandra), केओरा (Sonneratia apetala), धुंडुल (Xylocarpus granatum), पशूर (Xylocarpus mekongensis), कांकरा (Bruguiera gymnorrhiza), खलसी (Aegiceras cornicula), पियरा बैने (Avicennia मरीना), Golpata (Nypa fruticans) और भरा (Rhizophora mucronata)।

“मैंग्रोव एक ऐसी प्रजाति का वनस्पति है जो कार्बन डायऑक्साइड अधिक मात्रा में अवशोषित करता है। ताजे पानी की पत्तियों के मुकाबले इनकी अवशोषण क्षमता काफी अधिक होती है,” बिस्वास कहते हैं।

इलाके के सेवानिवृत्त शिक्षक धिमान बिस्वास ने चक्रवात तूफान से इलाके में आई तबाही का मंजर याद करते हुए बताते हैं कि उस समय तीन वर्ष तक खेतों में कुछ भी नहीं उग पाया। हालांकि, यास चक्रवात ने इस साल कोई नुकसान नहीं किया।

“आपदा से लड़ने में मैंग्रोव के जंगल हरियाली वाले फौज की तरह काम करते हैं,” धिमान बताते हैं। वह कहते हैं कि वन विभाग जंगल के अंदरुनी हिस्सों में पौधारोपण करता है।

“हम वन विभाग का मुकाबला किसी भी मामले में नहीं कर सकते, न धन से न ही श्रम शक्ति से। हमें उन्हें अपना काम करने देने के साथ अपनी तरफ से भी सहयोग करना चाहिए। हम मैंग्रोव लगाने की कोशिश खुद की सुरक्षा के लिए करते हैं,” उन्होंने आगे कहा।

मैंग्रोव लगाने के तरीके

मैंग्रोव लगाने के कई तरीके ग्रामीणों ने अपनाए हैं। इसमें सबसे प्रचलित तरीका है मैंग्रोव के फल इकट्ठा कर इससे पौधे तैयार करना। दूसरा तरीका है जंगल के पास पहले से तैयार पौधे इकट्ठा कर उसे जरूरत वाले स्थान पर लगाना। संस्था ने दो लाख से अधिक बीजों को पौधे में तब्दील किया है। हालांकि, यह काम चुनौतियों से भरा है, क्योंकि बीज की गुणवत्ता खराब होने पर इसमें अंकुरण नहीं भी होता है।

मतला नदी के किनारे मैंग्रोव लगाने का काम चल रहा है। तस्वीर- झरखाली साबुज बाहिनी
मतला नदी के किनारे मैंग्रोव लगाने का काम चल रहा है। तस्वीर- झरखाली साबुज बाहिनी

साबुज बाहिनी के सचिव प्रसांता सरकार कहते हैं कि उनके साथ जुड़े कार्यकर्ता नदी में तैरते मैंग्रोव के फल को इकट्ठा करते हैं। इनमें से अच्छे बीजों को चुनकर पौधा तैयार किया जाता है।

“अच्छे बीजों को नर्सरी में एक प्लास्टिक की थैली में मिट्टी के साथ रखते हैं। तीन महीने में 6 इंच का पौधा तैयार हो जाता है। मैंग्रोव के पौधे मीठे पानी में बच तो सकते हैं, लेकिन ये बढ़ नहीं पाते। इसलिए इन्हें खारे पानी वाले इलाके में लगाया जाता है,” सरकार ने बताया।

पौधा लगाने से पहले स्थान का चुनाव करना महत्वपूर्ण होता है। कुछ प्रजाति के पौधे उथले पानी में लगाए जाते हैं। बैने प्रजाति के मैंग्रोव घुटने तक पानी में लगा सकते हैं, लेकिन सुंदरी को कम पानी वाला स्थान चाहिए। इन पौधों को पेड़ बनने में तीन से पांच वर्ष का समय लगता है।

पौधे लगाते समय इनकी सुरक्षा का खास ख्याल रखना होता है। पानी पर्याप्त मात्रा में मिले इसके लिए गड्ढे बनाए जाते हैं और समुद्री लहरों से भी सुरक्षित रखने की कोशिश होती है। करीब 80 फीसदी पौधे पेड़ में बदल जाते हैं, और बचे हुए खराब हो जाते हैं।


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पौधे लगाने की प्रक्रिया जून से ही शुरू हो जाती है। इस समय समूह से जुड़े कार्यकर्ता बीज खोजना शुरू कर देते हैं। जुलाई से सितंबर तक नए पौधे तैयार हो जाते हैं। पौधारोपण का काम अक्टूबर से जनवरी तक चलता है।

सरकार ने बताया कि पौधारोपण के लिए महिला कार्यकर्ता रोजाना दो घंटे का समय देती हैं। इस दौरान एक महिला 200 से 250 पौधे लगा देती है।

“हम महिलाओं को उचित मजदूरी तो नहीं दे सकते हैं। हमारे समूह में 80 विधवा और 100 अन्य महिलाएं शामिल हैं। उन्हें इस काम के बदले हम कुछ राहत सामग्री देते हैं जिसमें साड़ियां, चावल, दाल, सोयाबिन, टूथपेस्ट, आटा, सत्तू, कंबल जैसी चीजें शामिल हैं,” बिस्वास ने बताया।

“हम इस काम से मजदूरी की अपेक्षा नहीं रखते हैं। सुंदरबन को बचाना हमारी सामाजिक जिम्मेदारी है,” कहती हैं मालती मोंडल, जो इस समूह से जुड़ी एक कार्यकर्ता हैं।

मैंग्रोव के बीज। झरखाली साबुज बाहिनी से जुड़ी महिलाएं इलाके में मैंग्रोव का जंगल लगाती हुईं। तस्वीर- पार्थो बर्मन
मैंग्रोव के बीज। झरखाली साबुज बाहिनी से जुड़ी महिलाएं इलाके में मैंग्रोव का जंगल लगाती हुईं। तस्वीर- पार्थो बर्मन

दूसरे गांवों में जागरुकता का अभियान

समूह से जुड़ी महिलाएं झरखाली के अलावा दूसरे गांव के लोगों को भी मैंग्रोव के फायदें समझा रही हैं। “यहां की महिलाओं ने दूसरे गांवों के लिए एक उदाहरण पेश किया है,” बिस्वास कहते हैं।

इस समय बसंती ब्लॉक के चार ग्राम पंचायत के 42 गांवों में मैंग्रोव लगाने का काम चल रहा है।

इस काम को चलाए रखने के लिए धन की जरूरत होती है। इस सवाल पर सरकार कहते हैं कि इस काम के लिए जरूरी संसाधन है- बीज और जमीन। बीज नदी के पानी में मुफ्त में मिल जाता है और इसे लगाने के लिए नदी और समुद्र का किनारा भी उपलब्ध है ही।

“ऐसा नहीं है कि हमें बिल्कुल भी धन की आवश्यकता नहीं होती। अगर इसकी व्यवस्था हो जाए तो हम अपने कार्यकर्ताओं की मदद कर सकते हैं और पौधे लगाने के लिए पॉलीथिन बैग के बजाए जैविक रूप से विघटित होने वाले बायोडिग्रेडेबल थैले का इस्तेमाल कर सकते हैं,” सरकार ने स्वीकारा।

 

बैनर तस्वीरः वर्ष 2020 में मैंग्रोव लगाने का अभियान चलाया गया था। तस्वीर- साबिज बाहिनी 

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