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बेरोजगारी के साथ जलवायु परिवर्तन से जंग में भी मददगार है मनरेगा

उत्तरप्रदेश के चित्रकूट में यह तालाब मनरेगा के तहत महिला मजदूरों ने मिलकर बनाया है। तस्वीर- यूएन वुमन/ गगनजीत सिंह चंडोक

उत्तरप्रदेश के चित्रकूट में यह तालाब मनरेगा के तहत महिला मजदूरों ने मिलकर बनाया है। तस्वीर- यूएन वुमन/ गगनजीत सिंह चंडोक

  • महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के तहत देशभर के ग्रामीण क्षेत्र में प्राकृतिक संपदा बचाने की कोशिश से कार्बन का अवशोषण भी होता है। अनुमान है कि 2030 तक इस योजना की वजह से 24.9 मीट्रिक टन कार्बन डायऑक्साइट का अवशोषण किया जा सकता है।
  • इस योजना से होने वाले कुल कार्बन अवशोषण का 40 फ़ीसदी तो सूखे से बचने की कवायद से हो गयी। इसमें पौधारोपण, वनीकरण जैसी गतिविधियां शामिल हैं।
  • इसकी अतिरिक्त इस कार्यक्रम से जाहिर तौर पर कमजोर तबके के लोगों को आर्थिक मदद भी मिलती है। सनद रहे कि जलवायु परिवर्तन से सबसे अधिक प्रभावित भी यही तबका रहने वाला है।

जब भी देश की अर्थव्यवस्था पर दबाव बनता है तो महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के तहत काम की मांग बढ़ जाती है। वह सूखे जैसी प्राकृतिक आपदा हो, नोटबंदी हो या कोविड महामारी की वजह से लगाया गया लॉकडाउन हो। इससे पता चलता है कि ग्रामीण इलाकों में गरीबी उन्मूलन और रोजगार के लिए चलाया जाने वाले विश्व का सबसे बड़ा कार्यक्रम मनरेगा का क्या महत्व है। अब नए शोध में पता चला है कि यह कार्यक्रम देश को कार्बन अवशोषण में भी मदद कर रहा है। 

जलवायु परिवर्तन से संबंधित पेरिस समझौते के तहत भारत के लिए कार्बन अवशोषण का लक्ष्य भी निर्धारित है। इसके तहत, वर्ष 2030 तक 250-300 करोड़ टन कार्बन अवशोषित किया जाना है। इसमें मनरेगा जैसे कार्यक्रम की महती भूमिका हो सकती है। 

एक शोध में पाया गया कि मनरेगा के तहत चली गतिविधियों से वर्ष 2017-18 में 10.2 करोड़ टन कार्बन डायऑक्साइड का अवशोषण हुआ। 

इंडियन इंस्टीट्यूट साइंस, बैंगलुरु के शोधकर्ताओं के द्वारा किये इस अध्ययन में पता चला कि वर्ष 2030 तक कार्बन अवशोषण की यह मात्रा 24.9 करोड़ मीट्रिक टन तक हो जाने की संभावना है। 

ग्राफ- रविंद्रनाथ एनएच, मूर्ती आईके
ग्राफ– रविंद्रनाथ एनएच, मूर्ती आईके

शोधकर्ताओं ने इस जानकारी को हासिल करने के लिए मनरेगा के तहत काम होने वाले 158 गांवों में मिट्टी का परिक्षण किया। देश के कुछ 18 एग्रो इकोलॉजिकल जोन में स्थित इन गांवों की मिट्टी में कार्बन की अवशोषित मात्रा को परखा गया। ये इलाके हैं पश्चिमी हिमालय, लदाख, पूर्वी कश्मीर, अंडमान और निकोबार, लक्षद्वीप आदि। 

मनरेगा के तहत वर्ष 2006 से ही असंगठित और अकुशल मजदूरों को काम दिया जाता है, जिससे आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग को रोजगार मिल रहा है। सूखा प्रभावित इलाकों में मनरेगा काफी महत्वपूर्ण योजना है। इस योजना का महत्व तब और बढ़ गया जब कोविड-19 के लिए लगाए गए देशव्यापी तालाबंदी के दौरान मजदूरों को मजबूरी में शहर छोड़कर गांव जाना पड़ा। तब उनके रोजगार का मनरेगा एक प्रमुख साधन बना। 

आईआईएससी के शोधकर्ताओं ने पाया कि सूखे की समस्या से निजात के लिए मनरेगा में कई काम किए गए। इसके तहत पौधरोपण हुआ और घास के मैदानों का विकास भी किया गया। मनरेगा के तहत होने वाले कुल कार्बन अवशोषण का 40 फीसदी अवशोषण, वृक्षारोपण या घास के मैदानों के विकास से हो गया।

सूखे से निपटने को लेकर की गई गतिविधियों की वजह से कार्बन उत्सर्जन अलग-अलग इलाकों में 0.29 टन प्रति हेक्टेयर से लेकर 4.50 टन प्रति हेक्टेयर तक हो रहा है। जमीन के विकास के लिए किए गए काम, मिट्टी के बाड़बंदी और मिट्टी को सपाट करने के काम में भी 0.1 से 1.97 टन प्रति हेक्टेयर प्रति वर्ष का कार्बन अवशोषण हता है। इसके अलावा सिंचाई के लिए किए गए प्रबंध से 0.08 से 1.93 टन प्रति हेक्टेयर का कार्बन अवशोषण होता है। 

मनरेगा एक रोजगार प्रदान करने वाली योजना है पर इससे पर्यावरण को भी फायदा होता है। खासकर मनरेगा के तहत होने वाले पानी, जमीन और पेड़ लगाने से संबंधित काम, पर्यावरण के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण हैं। पहली बार हमने मनरेगा के तहत होने वाले काम के पर्यावरण पर पड़ने वाले सकारात्मक प्रभावों की राष्ट्रीय स्तर पर गणना की है,” कहते हैं इंदु के मुर्ती जो सेंटर फॉर स्टडी साइंस, टेक्नोलॉजी एंड पॉलिसी (सीएसटीईपी) के प्रिंसिपल साइंटिस्ट हैं। वह इस अध्ययन के सह लेखक भी हैं। 

मनरेगा के तहत उत्तरप्रदेश में काम करती एक महिला। तस्वीर- यूएन वुमन/ गगनजीत सिंह चंडोक
मनरेगा के तहत उत्तरप्रदेश में काम करती महिलाएं। तस्वीर– यूएन वुमन/ गगनजीत सिंह चंडोक

भारत ने कार्बन अवशोषण में मनरेगा का योगदान मानते हुए जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (यूएनएफसीसीसी) को इस साल की शुरुआत में सौंपी एक रिपोर्ट में इसका जिक्र किया गया है।   

यह शोध मनरेगा के माध्यम से हुए कार्बन अवशोषण के अतिरिक्त लाभ को दिखाता है। यह ऐसे वक्त में काफी महत्वपूर्ण है जब वैज्ञानिक जलवायु परिवर्तन को देखते हुए ऐसे विकास को प्रोत्साहित करने की बात कर रहे हैं जो जलवायु के अनुकूल हो। यानी निवेश ऐसी विकास परियोजनाओं में हो जो जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करे और टिकाऊ विकास के लक्ष्यों की पूर्ति करे,इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ह्यूमन सैटलमेंट्स की शोध सलाहकार चांदनी सिंह कहती हैं। वह आईपीसीसी की विशेष रिपोर्ट 1.5 डिग्री की सह लेखिका भी हैं। 

अगर हम और ऐसी योजनाओं को चिन्हिंत कर सकें तो हमारे कई लक्ष्य एक साथ ही पूरे हो जाएंगे। इस तरह हम दूसरे विकास और जलवायु परिवर्तनों से संबंधित लक्ष्यों पर सक्रिय रूप से काम कर पाएंगे, वह कहती हैं। 

पेरिस समझौते के तहत भारत ने अपने लिए तीन लक्ष्य तय किये हैं। इसमें वर्ष 2030 तक ऊर्जा क्षेत्र में 40 प्रतिशत गैर जीवाश्म ईंधन से बिजली उत्पादन तथा कार्बन उत्सर्जन की तीव्रता में 2005 की तुलना में जीडीपी का 33 से 35 प्रतिशत तक की कमी शामिल है। इन लक्ष्यों को देखें तो भारत की गति सही है और समयसीमा के भीतर इन लक्ष्यों के हासिल हो जाने की संभावना है। पर तीसरा लक्ष्य जिसमें जिसमें 2030 तक 250 से 300 टन कार्बन अवशोषण किया जाना है, इसमें देश पिछड़ रहा है। 

पिछले दो वर्ष में वनों के द्वारा कार्बन अवशोषण में महज 0.6  की वृद्धि हुई है। इस लक्ष्य को पाने के लिए अगले 10 वर्ष तक हर साल 15 से 20 प्रतिशत की वृद्धि जरूरी है। मनरेगा के तहत चल रहे सूखे से निपटने के प्रयासों से 56.1 करोड़ टन कार्बन का अवशोषण हो सकता है जो कि समूचे लक्ष्य का महज 18 प्रतिशत है। 

अकेले वन क्षेत्र से इस लक्ष्य को पूरा करने में मुश्किल होगी। इसलिए हमें मनरेगा के तहत पौधारोपण, विशेषकर फलदार पौधे लगाने को भी इसमें शामिल किया जाना चाहिए, मुर्थी कहते हैं। 

मध्यप्रदेश के उमरिया जिले में मनरेगा के तहत पौधरोपण करती महिलाएं। तस्वीर- यन फॉरगेट/विकिमीडिया कॉमन्स
मध्यप्रदेश के उमरिया जिले में मनरेगा के तहत पौधरोपण करती महिलाएं। तस्वीर– यन फॉरगेट/विकिमीडिया कॉमन्स

इनका कहना है, इससे किसानों का आय भी बढ़ेगी और जीवनयापन का एक दूसरा साधन भी मिलेगा। साथ ही, कार्बन अवशोषण अतिरिक्त फायदे की तरह है। कार्बन अवशोषण की समय-समय पर निगरानी और उसकी रिपोर्ट तैयार करने की बाध्यता पेरिस समझौते के आर्टिकल 7 में शामिल है,

मनरेगा के तहत होने वाले कार्बन अवशोषण का आंकड़ा इस योजना के तहत होने वाले कामों के आधार पर अनुमानित है और यह अभी पूरी तस्वीर नहीं दिखा रहा है। 

उन्होंने कहा कि यह अच्छा होगा कि आने वाले समय में मनरेगा के फायदों को जलवायु परिवर्तन से आगे भी देखा जाए, जैसे सूखे से बचने के उपायों से किसान किस तरह लाभान्वित हो रहे हैं। 

जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से बचने में योगदान 

कार्बन अवशोषण मनरेगा से होने वाले लाभ का मात्र एक पहलू है। इससे समाज के हाशिए पर खड़े लोगों को मिलने वाला समाजिक सुरक्षा और कई वर्षों तक जलवायु परिवर्तन से निपटने की तैयारी जैसे दूसरे महत्वपूर्ण फायदे भी हैं।  

आईआईएससी ने वर्ष 2013 में एक शोध किया जिससे पता चला कि मनरेगा का पर्यावरण पर काफी अच्छा प्रभाव हो रहा है। इससे चार राज्य के 40 गांव में पानी की समस्या खत्म हो गई और जमीन की हालत भी ठीक हुई।

गुजरात के राजकोट जिले के ढांक गांव में रहने वाले भरतभाई गुघल एक खेतिहर किसान हैं। वह याद करते हुए कहते हैं कि उनके गांव में पहले दो ही तालाब थे। अब तस्वीर बदली है। हमारे इलाके में एक ही फसल लगाई जाती थी। किसान गेहूं, कपास और मूंगफली में से कोई एक फसल लेते थे। मेरे पिता पलायन कर राजकोट जाते और वहां मजदूरी करते थे, वह कहते हैं। 

ढांक गांव गुजरात के सौराष्ट्र क्षेत्र में आता है जहां बेहद गर्मी पड़ती है। अनियमित बारिश और वाष्पिकरण की तेज रफ्तार की वजह से इलाका सूखाग्रस्त रहता है। यहां सालाना 709 मिलिमीटर बारिश होती है। 

करीब 20 वर्ष पहले ढांक में आठ नए तालाब खोदे गए। इन तालाबों का संरक्षण मनरेगा के काम के तहत होने लगा है। गांव में अब 10 तालाब हैं जिसमें अच्छी मात्रा में पानी भरा रहता है। भूजल की स्थिति भी ठीक हुई है जिससे कुएं और बोरवेल में पानी आने लगा है। इससे किसानी की हालत सुधरने लगी है। अब इलाके में  गेहूं, मोटा अनाज, कपास, सोयाबीन, मूंगफली, प्याज और मिर्च सहित कई फसलों की खेती होने लगी है, गुघल कहते हैं।  

अब गांव छोड़ने की जरूरत नहीं है क्योंकि इलाके में ही सालभर रोजगार मिल जाता है। अगर तालाब न होते तो यह संभव नहीं हो पाता, वह कहते हैं। 


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कोविड-19 महामारी के समय भी जब देश में रोजगार का संकट था, मनरेगा ने शहर से लौटे लोगों को सहारा दिया। जून 2019 की तुलना में जून 2020 में इस योजना से 50 प्रतिशत अधिक परिवार जुड़े। अप्रैल से जून 2020 के दौरान 35 लाख नए जॉब कार्ड बनाए गए थे। हालांकि, 2.1 करोड़ लोग ऐसे भी थे जिन्होंने काम मांगा पर उन्हें काम मिल न सका। योजना में 40 हजार करोड़ की राशि बढ़ाने के बाद भी महज 9.5 प्रतिशत परिवारों को ही 100 दिन का रोजगार मिला। 

जलवायु परिवर्तन की वजह से गरीबी बढ़ने की आशंका है ऐसे में खाद्य और सामाजिक सुरक्षा के लिए ऐसी योजनाएं कारगर साबित हो सकती हैं। हालांकि, भारत सरकार ने इस वर्ष मनरेगा फंड से 73,000 करोड़ की कटौती की है। राजस्थान की समाजिक कार्यकर्ता मधुलिका का मानना है कि इस कटौती से लोगों की समस्याएं बढ़ेंगी। वह कहती हैं कि अभी भी कोविड-19 महामारी से खत्म हुए रोजगार की मार से लोग उबरे नहीं हैं।

बैनर तस्वीर- उत्तरप्रदेश के चित्रकूट में यह तालाब मनरेगा के तहत महिला मजदूरों ने मिलकर बनाया है। तस्वीर– यूएन वुमन/ गगनजीत सिंह चंडोक

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