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[वीडियो] 13 साल बाद भी बिहार में सिर्फ 121 परिवार हासिल कर पाये वनाधिकार

भारत सरकार के आदिवासी मामलों के मंत्रालय द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक बिहार में फरवरी, 2021 तक वनाधिकार को लेकर सिर्फ 8022 दावे पेश किये गये थे, दिलचस्प है कि इनमें से बिहार सरकार ने सिर्फ 121 दावों को स्वीकृत किया है। तस्वीर- जगदरी/फ्लिकर

भारत सरकार के आदिवासी मामलों के मंत्रालय द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक बिहार में फरवरी, 2021 तक वनाधिकार को लेकर सिर्फ 8022 दावे पेश किये गये थे, दिलचस्प है कि इनमें से बिहार सरकार ने सिर्फ 121 दावों को स्वीकृत किया है। तस्वीर- जगदरी/फ्लिकर

  • राज्य में कुल 6,473 वर्ग किलोमीटरका वन क्षेत्र है जिसमें एक लाख से अधिक परिवार रहते हैं। पर जब वनाधिकार की बात आई तो महज 8,022 दावे ही बिहार सरकार के समक्ष पेश हुए
  • वनाधिकार देने के मामले में बिहार नीचे से दूसरे स्थान पर है। गोवा के बाद।
  • नवंबर, 2020 में पटना हाईकोर्ट ने सरकार से चार माह में दावों की समीक्षा करने कहा था। एक साल पूरा होने को है पर अब तक इस प्रक्रिया की शुरुआत नहीं हुई है।

दीपनारायण प्रसाद कहते हैं, हमारे इलाके से सात से आठ हजार के करीब लोगों ने वनाधिकार पट्टे के लिए आवेदन दिया था। मगर मेरी जानकारी में वाल्मिकीनगर के जंगल में रहने वाले किसी आदिवासी को अब तक इस कानून के जरिये जमीन का पट्टा नहीं मिला है। इसके बदले जब से यहां टाइगर रिर्जव बना है, वन विभाग आदिवासियों की जमीन और जंगल पर उसके अधिकार को ही कम करने की कोशिश कर रहा है। दीपनारायण प्रसाद भारतीय थारू कल्याण महासंघ के अध्यक्ष हैं।

बिहार के इकलौते नेशनल पार्क वाल्मिकीनगर टाइगर रिजर्व और उसके आसपास के गांवों में बड़ी संख्या में थारू जनजाति के लोग रहते हैं। हालांकि इस इलाके में थारुओं के अलावा धांगड़, उरांव, मुंडा, लोहरा, भुइयां, मुशहर, दुसाध, रविदास और लोहार आदि जाति के लोग भी रहते हैं।

वाल्मिकीनगर जंगल का क्षेत्रफल 90 हजार हेक्टेयर से अधिक है और यहां 2011 की जनजणना के हिसाब से अनुसूचित जनजातियों की आबादी 2.5 लाख से अधिक है। 2008 में लागू हुए वनाधिकार कानून के जरिये इतनी बड़ी आबादी में से एक भी व्यक्ति को जमीन का पट्टा नहीं मिलना हैरत की बात है। मगर आप जब बिहार सरकार के हालिया आंकड़े के बारे में जानेंगे तो हैरत और बढ़ेगी।

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28 फरवरी, 2021 तक के आंकड़ों के हिसाब से राज्य में अब तक सिर्फ 121 परिवारों के जंगल में जमीन के अधिकार की पहचान की गयी है। उन्हें भी कितनी जमीन मिली इसका आंकड़ा फिलहाल उपलब्ध नहीं है। 

भारत सरकार के आदिवासी मामलों के मंत्रालय द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक बिहार में फरवरी, 2021 तक वनाधिकार को लेकर सिर्फ 8,022 दावे पेश किये गये थे, दिलचस्प है कि इनमें से बिहार सरकार ने सिर्फ 121 दावों को स्वीकृत किया है। इन आंकड़ों के हिसाब से राज्य में अभी तक एक भी सामुदायिक अधिकार संबंधी दावे पेश नहीं किये गये हैं।

हालांकि इन्हीं आंकड़ों के हिसाब से छत्तीसगढ़ और ओड़िशा में चार लाख से अधिक ऐसे दावे स्वीकृत किये गये हैं। इन आंकड़ों में जिन बीस राज्यों का जिक्र है, उनमें से सिर्फ गोवा ही बिहार से पीछे है, जहां सिर्फ 46 दावों को स्वीकृति दी गयी है।

बिहार में वनाधिकार कानून के प्रति लोगों में जागरुकता की कमी को भी इसके खराब क्रियान्वयन की वजह माना जा रहा है। तस्वीर- पी कैसियर/सीजीआईएआर/फ्लिकर
बिहार में वनाधिकार कानून के प्रति लोगों में जागरुकता की कमी को भी इसके खराब क्रियान्वयन की वजह माना जा रहा है। प्रतीकात्मक तस्वीर– पी कैसियर/सीजीआईएआर/फ्लिकर

जबकि बिहार की लगभग 6,473 वर्ग किमी भूमि वनों से आच्छादित है। यहां कैमूर में 1.13 लाख हेक्टेयर, जमुई में 93 हजार हेक्टेयर, पश्चिमी चंपारण में 92 हजार हेक्टेयर, गया में 78 हजार हेक्टेयर, रोहतास में 67 हजार हेक्टेयर और नवादा में 64 हजार हेक्टेयर वन भूमि है। इसका जिक्र प्रैक्सिस द्वारा प्रकाशित पुस्तक वन, वनवासी एवं वनाधिकार में किया गया है।

वनाधिकार के मसले पर सक्रिय भूमिका निभा रहे सामाजिक कार्यकर्ता अशोक प्रियदर्शी  के अनुसार राज्य में एक लाख से अधिक ऐसे परिवार हैं, जो वनाधिकार कानून के तहत जमीन पर मालिकाना हक पाने के हकदार हैं और उनके बीच अमूमन एक से सवा लाख हेक्टेयर भूमि का बंटवारा होना है। मगर सरकार की सुस्ती, जागरूकता की कमी और सरकार व संस्थाओं द्वारा चलाये जाने वाले दमदार अभियान के अभाव में इस कानून का पालन इसके बनने के 13 साल बाद भी न के बराबर हो पाया है।

इस कानून  के तहत यह तय हुआ था कि देश के जंगलों में रहने वाले सभी निवासियों के जमीन के मालिकाना हक की पहचान की जाये, उनके दावों को स्वीकार किया जाये और उन्हें जंगल की सुरक्षा और इसके संवर्धन की प्रकिया में शामिल किया जाये।

इसके तहत न सिर्फ जमीन के दावों को स्वीकार किया जाना था, बल्कि जंगल में उनके सामूहिक अधिकारों को भी स्वीकृति दी जानी थी। ताकि वे वनोपज का उपयोग भी कर सकें। अशोक प्रियदर्शी और वनाधिकार के लिए राज्य में संघर्ष करने वाले दूसरे एक्टिविस्ट के मुताबिक बिहार के वनवासियों के लिए यह सपना कानून की किताबों में ही बंद रह गया।

वाल्मीकि बाघ अभयारण्य में स्थित दारुआ बारी गांव में एक झील। एक शोध से पता चला है कि इस जंगल में सत्तर किस्म के वनोपज मिलते हैं। तस्वीर- प्रांशु/विकिमीडिया कॉमन्स
वाल्मीकि बाघ अभयारण्य में स्थित दारुआ बारी गांव में एक झील। एक शोध से पता चला है कि इस जंगल में सत्तर किस्म के वनोपज मिलते हैं। तस्वीर– प्रांशु/विकिमीडिया कॉमन्स

वाल्मिकीनगर में वनाधिकार कानून के पक्ष में अभियान चलाने वाले सामाजिक कार्यकर्ता सुशील शशांक आरोप लगाते हैं कि यहां के लोगों को वनाधिकार का लाभ तो नहीं ही मिला, उल्टे उनसे जमीन छीनने और वनोपज के उपयोग के अधिकार को छीनने की भी प्रक्रिया शुरू हो गयी। गौनाहा-मटियरिया के इलाके में बफर फॉरेस्ट के नाम पर वन विभाग ने सैकड़ों एकड़ रैयती जमीन पर कब्जा कर लिया। पहले तो लोगों ने इसके लिए कई जगह गुहार लगायी, मगर उन्हें अपनी जमीन नहीं मिला। अंत में हार कर 2013 में लोगों ने जनता कानून लागू कर अपनी जमीन को जोत लिया। इस पर विभाग की ओर से 11 नामित और एक हजार से अधिक अज्ञात लोगों पर मुकदमा कर दिया गया। वे कहते हैं कि वनाधिकार कानून के तहत 2008 से 2011 के बीच सात से आठ हजार आवेदन बगहा और नरकटियागंज अनुमंडल पदाधिकारी के कार्यालय में जमा किये गये थे, मगर तब उसकी पावती नहीं दी गयी और अब उसे आवेदन नहीं माना जा रहा है।

थारू कल्याण महासंघ के अध्यक्ष दीपनारायण प्रसाद कहते हैं कि हमें अधिकार तो मिला नहीं उल्टे पहले आदिवासी जंगल में जाकर साबै घास, पलवध, तीन फीट से कम चौड़ी लकड़ी आदि लाते थे। अब उस पर भी रोक लग गयी है। प्रैक्सिस संस्था द्वारा 2015 में  प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक वहां के आदिवासियों की आजीविका का बड़ा हिस्सा वनोपज पर आधारित था। इस अध्ययन के मुताबिक वनोपज से उनकी कुल आमदनी का 30-40 फीसदी हिस्सा आता था। अध्ययन में सत्तर किस्म के वनोपज का जिक्र है, जो वाल्मिकीनगर के जंगलों में मिलते हैं, मगर अब आदिवासी उन्हें जंगल जाकर ला नहीं सकते। अगर वनाधिकार कानून के तहत उन्हें सामुदायिक अधिकार मिले होते तो इन वनोपजों पर उनका अधिकार होता और ये उनकी आर्थिक समृद्धि की वजह बनते।

बिहार में वनाधिकार को लेकर सबसे संगठित अभियान गया जिले में चला। वहां जनमुक्ति संघर्ष वाहिनी नामक संगठन ने 2008 से ही वनाधिकार को लेकर अभियान शुरू कर दिया था। गया के तीस गांवों में सक्रिय इस संगठन ने जिले में 652 व्यक्तिगत और 13 सामुदायिक पट्टों के आवेदन किये। मगर सरकार की तरफ से 531 दावों को यह कहते हुए खारिज कर दिया गया कि दावा करने वालों ने अपनी भूमि पर 75 साल से अपने अधिकार के पक्ष में कोई प्रमाण प्रस्तुत नहीं किया।

आंकड़ों के मुताबिक राज्य की 20 लाख एकड़ से अधिक वन भूमि में से कम से कम पांच फीसदी पर तो वनवासियों का अधिकार बनता था। तस्वीर-जिम/फ्लिकर
आंकड़ों के मुताबिक राज्य की 20 लाख एकड़ से अधिक वन भूमि में से कम से कम पांच फीसदी पर तो वनवासियों का अधिकार बनता था। प्रतीकात्मक तस्वीर– जिम/फ्लिकर

संगठन के प्रमुख अशोक प्रियदर्शी कहते हैं कि ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि अधिकारियों को वनाधिकार कानून के बारे में सही जानकारी नहीं है। कानून के मुताबिक 13 दिसंबर, 2005 से पहले वनों में रहने वाला हर आदिवासी या परंपरागत समुदाय का व्यक्ति इस दावे का अधिकारी है। उसे 75 साल पहले का प्रमाण नहीं देना है। इन दावों के खारिज होने पर संगठन की ओर से अशोक प्रियदर्शी, परशुराम मांझी, रामरति देवी और रामस्वरूप मांझी ने पटना उच्च न्यायालय में पीआईएल दाखिल कर दिया। इस पीआईएल पर फैसला सुनाते हुए 23 नवंबर 2020 में उच्च न्यायालय ने कहा था कि अधिकतम चार महीने में इन दावों का फिर से निबटारा करना है। मगर दस माह बीतने के बावजूद अब तक सरकार की तरफ से उस दिशा में कोई कार्रवाई नहीं हुई। संगठन एक बार फिर से अदालत की शरण में जाने का मन बना रहा है। प्रियदर्शी कहते हैं कि गया में जिन 28 लोगों को वनाधिकार का पट्टा मिला है, वे घुमंतू जाति के लोग हैं, उन्हें एक एक़ड़ से भी कम जमीन पर बसाया गया है। जबकि राज्य की 20 लाख एकड़ से अधिक वन भूमि में से कम से कम पांच फीसदी पर तो वनवासियों का अधिकार बनता था।

संगठन की तरफ से अशोक प्रियदर्शी ने प्रधानमंत्री को इस बारे में एक पत्र भी लिखा है और हस्तक्षेप करने की अपील की है।वे कहते हैं, राज्य में इस कानून को लागू करने की इच्छाशक्ति की कमी तो है ही, लोगों में जानकारी का भी अभाव है। कानून के लागू होने के 13 साल बाद भी अधिकारी इसके मर्म को नहीं समझते और इसकी बारीकियों को नहीं जानते। इसलिए लोगों के बीच में जागरूकता अभियान चलाने के साथ अधिकारियों के प्रशिक्षण की भी उतनी ही जरूरत है।


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इस बारे में सरकार का पक्ष जानने के लिए जब हमने बिहार सरकार के एससी-एसटी कल्याण विभाग के सचिव दिवेश सेहरा से संपर्क किया तो उन्होंने कहा कि कानून बनाने के बाद ही सरकार के इसके लिए प्रक्रिया शुरू की थी जो 2012 तक चली। उसके बाद एक दफा 2019 में प्रक्रिया चली। इस प्रक्रिया के जरिये जिन लोगों को पट्टा मिल सकता था, मिल चुका है। जिन लोगों ने आवेदन किया था, उनमें से इतने ही वनाधिकार के पात्र थे।

यह पूछने पर कि इस कानून के तहत सरकार को आदिवासियों के बीच जागरूकता अभियान भी चलाना था, ताकि अधिक से अधिक लोग पट्टे के लिए आवेदन कर सकें, इस पर उन्होंने कहा कि हमारे विभाग और वन विभाग दोनों ने इसके लिए समुचित जागरूकता अभियान चलाये हैं। यह पूछने पर कि अब तक राज्य में कुल कितनी जमीन वनाधिकार कानून के तहत स्वीकृत की गयी है, सचिव महोदय ने कहा कि यह आपको विभिन्न जिलों के डीएम से पूछना पड़ेगा।

 

बैनर तस्वीरः बिहार के एक ग्रामीण इलाके की तस्वीर। भारत सरकार के आदिवासी मामलों के मंत्रालय द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक बिहार में फरवरी, 2021 तक वनाधिकार को लेकर सिर्फ 8,022 दावे पेश किये गये थे। प्रतीकात्मक तस्वीर– जगदरी/फ्लिकर

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