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नमक की जरूरत सबको पर हाशिए पर है नमक बनाने वाला समुदाय

खारे पानी को पंप के माध्यम से पाटा पर इकट्ठा किया जा रहा है। यहां वाष्पीकरण के बाद नमक बनने की प्रक्रिया शुरू होगी। आजकल अगरिया सोलर पंप का इस्तेमाल भी करते हैं। तस्वीर- ध्वनित पांड्या/एएचआरएम

खारे पानी को पंप के माध्यम से पाटा पर इकट्ठा किया जा रहा है। यहां वाष्पीकरण के बाद नमक बनने की प्रक्रिया शुरू होगी। आजकल अगरिया सोलर पंप का इस्तेमाल भी करते हैं। तस्वीर- ध्वनित पांड्या/एएचआरएम

  • गुजरात के रण में अगरिया समुदाय के लोग नमक बनाने का काम करते हैं। जमीन पर बनने वाला देश का 30 फीसदी नमक यहीं से आता है।
  • नमक बनाने वाले मजदूरों का जीवन स्तर बेहद मुश्किल है और राज्य सरकार ने उन्हें जमीन पर कोई कानूनी अधिकार नहीं दिया है।
  • जहां नमक बनाया जाता है वहां एक स्वच्छ पानी (खारा नहीं) का झील बनाने की तैयारी हो रही है। इस परियोजना की वजह से अगरिया समुदाय का रोजगार छिन सकता है। इससे जंगली गदहों पर भी बुरा असर होगा।

मानसून ढलान पर है। इस मानसून के आखिरी महीने या कहें सितंबर के आखिरी सोमवार का दिन था। 48-वर्षीय गुणवंत रामजी कोली कच्छ के पूर्वी रण के एक पोखर में मूर्तियां रख रहे थे। पूर्वी रण को लिटल रण ऑफ कच्छ के नाम से भी जाना जाता है। मानसून के दौरान 11 नदियों और कई नालों का पानी यहां बहता है और कच्छ की खाड़ी से आने वाली लहरों के साथ मिल जाता है। सितंबर-अक्टूबर में पानी कम होने के बाद जिस पोखर में कोली ने मूर्तियों को रखा है, उसके चारों ओर बड़े पैमाने पर नमक का ढेर इकट्ठा हो जाता है।

कोली, गुजरात के अगरिया समुदाय से वास्ता रखते हैं। परंपरा से यह समुदाय नमक बनाने का काम करता रहा है। इस समुदाय के करीब 60,000 लोग, देश में जमीन पर बनने वाले नमक का 30 फीसदी उत्पादन करते हैं। इनके इस योगदान के बावजूद भी इस भूमि पर मालिकाना अधिकार प्राप्त नही हैं। कानूनी तौर पर।

अगरिया समुदाय के लोगों का जीवन भी देश के तमाम किसानों की तरह है। ये लोग भी अपने तमाम पारंपरिक त्योहारों में अच्छी फसल के लिए प्रार्थना करते रहते हैं। यह भी कि कोई प्राकृतिक आपदा न आए और उनकी फसल बर्बाद न हो। कोली की प्रार्थनाओं में अब वह मानव निर्मित आपदाएं भी शामिल हो गईं हैं जिनसे इनके नमक की फसल बर्बाद हो जाती है। नर्मदा के नहरों से अचानक छोड़ा गया पानी करोड़ों रुपए का नमक अपने साथ बहा ले जाता है।

कच्छ के पूर्वी रण में कोई रहता नहीं है। अगरिया यहां की तीन प्रतिशत भूमि का उपयोग नमक बनाने में करते हैं। हालांकि, वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक इस स्थान के आसपास 17.5 लाख लोग रहते हैं, जिनमें मछुआरे, ट्रक ड्राइवर और नमक के कारोबार से जुड़े मजदूर शामिल हैं। वर्ष 1973 में यहां जंगली गदहों के संरक्षण के लिए ‘घुड़खर अभयारण्य’ बना जो 5,000 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है।

पाटा से तैयार नमक को ढ़ोतीं एक अगरिया महिला। तस्वीर- ध्वनित पांड्या/एएचआरएम
पाटा से तैयार नमक को ढोती एक अगरिया महिला। तस्वीर- ध्वनित पांड्या/एएचआरएम

यह भारत के सबसे बड़े राष्ट्रीय बायोस्फीयर रिजर्व का हिस्सा है और एक खास पक्षी लेसर फ्लेमिंगो का आशियाना भी है। यहां स्थानीय झींगा की प्रजाति एम.कुचेंसिस भी रहती हैं। यह स्थान लुप्तप्राय सारस और अन्य प्रवासी पक्षियों को भी आकर्षित करता है। साथ ही, नमक में उगने वाली एक अनोखी खास भी यहां देखी जा सकती है। 

पर एक महत्वाकांक्षी परियोजना (मीठे पानी की झील) की वजह से यहां की परंपरा और जीवनशैली पर खतरा मंडराने लगा है।

इस परियोजना को रण सरोवर का नाम दिया गया है। पूरा होने के बाद यह एशिया की सबसे बड़ी स्वच्छ पानी की झील बन जाएगा।

वर्ष 2019 में, जयसुख पटेल ने प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) को इसका प्रस्ताव दिया था। पटेल, दीवार घड़ी बनाने के लिए प्रसिद्ध अजंता-ओरेवा समूह के प्रबंध निदेशक हैं। इस प्रस्ताव के अनुसार यहां के मीठे पानी की झील बनाने के लिए समुद्री जल को रण में प्रवेश करने से रोका जाएगा। इसके लिए नाले पर बांध बनाना प्रस्तावित है। इस क्षेत्र में खारे पानी के न आने से मीठे पानी का एक विशाल झील बन सकता है। ऐसा प्रस्तावित है। 

2019 की शुरुआत में प्रधानमंत्री कार्यालय ने इस प्रस्ताव को सेंट्रल वाटर कमिशन (सीडब्ल्यूसी) के पास भेज दिया। वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) और केंद्रीय भूजल बोर्ड (सीजीडब्ल्यूबी) के साथ कई बैठकों के बाद, सीडब्ल्यूसी ने सिफारिश की कि गुजरात सरकार को इसके लिए एक समिति बनानी चाहिए। इसमें कहा गया कि राज्य ही इस प्रस्ताव का अध्ययन करे। क्योंकि पानी राज्य का विषय है। केंद्र और राज्य सरकारें इस समय प्रस्ताव का अध्ययन कर रहीं हैं।

मोंगाबे-हिन्दी से बात करते हुए पटेल ने दावा किया कि मीठे पानी की झील से लंबे समय से चले आ रहे जमीन का खारापन खत्म होगा और भूजल स्तर में भी सुधार होगा।

हालांकि, इस परियोजना की आलोचना भी हो रही है। सामाजिक-आर्थिक और पारिस्थितिक प्रभाव के कारण। तकनीकी तौर पर यह कितना व्यावहारिक है, इस आधार पर भी। सीएसआईआर ने कहा कि यह परियोजना एक “बड़ी तकनीकी-आर्थिक चुनौती” है क्योंकि पूर्वी रण की जलवायु शुष्क है और यहां भूकंप के भी खतरे बने रहते हैं।

नमक श्रमिकों के अधिकारों के लिए काम करने वाली संस्था अगरिया हितरक्षक मंच (एएचआरएम) से जुड़े भरत सोमेरा कहते हैं, “झील से व्यापक वाष्पीकरण से नमी पैदा होगी। इससे शुष्क सौराष्ट्र क्षेत्र में उगने वाले जीरा, अरंडी और कपास के फसल प्रभावित होंगे।”

नर्मदा के जल से अक्सर यहां बाढ़ के हालात बन रहे हैं। नर्मदा के नहरों से अचानक छोड़ा गया पानी कई करोड़ रुपए के नमक को बहा ले जाता है। तस्वीर- ध्वनित पांड्या/एएचआरएम
नर्मदा के जल से अक्सर यहां बाढ़ के हालात बन रहे हैं। नर्मदा के नहरों से अचानक छोड़ा गया पानी कई करोड़ रुपए के नमक को बहा ले जाता है। तस्वीर- ध्वनित पांड्या/एएचआरएम

अगरियाओं की आजीविका के बारे में पूछे जाने पर पटेल ने कहा कि उन्होंने सरकार को प्रस्ताव दिया है कि पुनर्वास के लिए इन्हें 10 एकड़ कृषि भूमि दी जानी चाहिए। “जमीन पर नमक बनाना एक खत्म होता हुआ पेशा है। अगरिया गुजरात के सबसे गरीब लोग हैं। मैंने प्रस्ताव दिया है कि रण सरोवर आने पर उन्हें वाटर-स्पोर्ट्स और नाव चलाने का काम दिया जाए,” उन्होंने कहा।

वर्तमान में, गुजरात के जल संसाधन विभाग ने सेंटर फॉर साल्ट एंड मरीन केमिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट (सीएसएमसीआरआई) भावनगर से अध्ययन करने के लिए कहा है ताकि यह पता चल सके कि रण में मिट्टी की अंतर्निहित लवणता (खारापन) को दूर करने में कितना समय लगेगा।

“अगर खारे पानी को ताज़ा करने में 2-3 साल लगते हैं, तो परियोजना काम की है। लेकिन अगर इसमें 20 साल लगते हैं तो हम इस पर जनता का पैसा खर्च नहीं कर सकते। साथ ही, सरकार को अभयारण्य और आजीविका के मुद्दे पर भी विचार करना होगा, ” गुजरात सरकार के जल संसाधन विभाग के सचिव एम.के. जाधव ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया।

मानव निर्मित बाढ़ से अनोखे रण और लोगों की आजीविका को खतरा

अगरिया भारत के वन्यजीव संरक्षण कानून और 2006 के ऐतिहासिक वन अधिकार कानून के माध्यम से अधिकार प्राप्त कर सकते हैं। हालांकि, स्थानीय समुदाय के सदस्यों का आरोप है कि राज्य ने इन कानूनों के तहत उनके दावों का सत्यापन या तो धीमा कर दिया या खारिज कर दिया।

इस पर प्रतिक्रिया देते हुए अगरिया समुदाय से आने वाले कोली ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया, “प्रकृति के प्रकोप झेलना फिर भी आसान है। लेकिन प्रशासन की उदासीनता वास्तव में थका देने वाली होती है। सरकारी लोग हमारे अस्तित्व को पहचानने से इनकार करते हैं।”

सर्दियों में रण का पानी घटने लगता है और इसके पीछे जमीन दिखनी शुरू हो जाती है। तब 102 गांवों के अगरिया परिवार यहां अपने पानी के पंप, उपकरण और घरेलू सामान के साथ कई किलोमीटर अंदर चले जाते हैं और अगले आठ महीनों के लिए अस्थायी झोपड़ियां बनाकर वहीं रहते हैं। वे भूमिगत कुओं से मिट्टी में मिले नमकीन पानी को पंप करते हैं और इसे एक बड़े क्षेत्र में फैलाते हैं। वाष्पीकरण के बाद जमीन पर नमक के सफेद कण बच जाते हैं।

“कुओं से नमकीन पानी पंप करने के अलावा, सब कुछ हाथों से ही किया जाता है। अत्यधिक सर्दी से लेकर चिलचिलाती धूप तक, हम सब सहन करते हैं। नमक के काम में लोग चोटिल भी होते हैं,” पटदी गांव के रहने वाले धना कोली कहते हैं। वे गांव से 35 किलोमीटर दूर नमक की खेती करने जाते हैं।

कोली बताते हैं कि एक किलोग्राम नमक बनाने पर लगभग 30 पैसे की आमदनी होती है। इस नमक को खुदरा बाजार में लगभग 20 रुपये प्रति किलोग्राम में बेचा जाता है।

पाटा पर खारे पानी को बार-बार चलाना पड़ता है। वाष्पीकरण के बाद जमीन पर नमक के सफेद कण बच जाते हैं। ध्वनित पांड्या/एएचआरएम
पाटा पर खारे पानी को बार-बार चलाना पड़ता है। वाष्पीकरण के बाद जमीन पर नमक के सफेद कण बच जाते हैं। ध्वनित पांड्या/एएचआरएम

हालांकि, मानव निर्मित बाढ़ से नमक बनाये जाने वाले खेत को खतरा बना रहता है।

इस खेत को तैयार करने में 40-45 दिन लगते हैं ताकि जब हम उस पर नमकीन पानी फैलाएं, तो वह जमीन में रिसे नहीं। हम इसे तब तक रौंदते हैं जब तक कि यह सख्त न हो जाए। नर्मदा का पानी भरने से हमारी सारी मेहनत बेकार हो जाती है। इस साल जनवरी में भी यही हुआ। कभी-कभी, मई में पानी छोड़ दिया जाता है, जो तैयार नमक को भी बहा ले जाता है, ”कुडागाम गांव के सहदेव भाई कहते हैं। नमक बहने से इस साल उन्हें 80,000 रुपए का नुकसान हुआ।

“नुकसान अब हर साल की बात हो गई है। इन मानव निर्मित बाढ़ के कारण दो से ढाई करोड़ रुपये का नुकसान हो रहा है,” खरगोडा आयोडीन नमक निर्माता संघ के अध्यक्ष और व्यापारी हिंगोर रबारी ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया।

भरत सोमेरा कहते हैं कि 2015 के बाद से नर्मदा की नहरों से पानी छोड़ने के मामले बढ़ गए हैं।

“2017 में, 136 अगरिया परिवार प्रभावित हुए थे, जब रण से 10 किलोमीटर दूर मड़िया नहर से पानी छोड़ा गया था। हमने एक सर्वेक्षण किया और गांधीनगर में सरदार सरोवर नर्मदा निगम लिमिटेड (एसएसएनएनएल) को मुआवजे की गुहार लगाई। उनकी टीम ने इस क्षेत्र का दौरा किया और 90 लाख रुपए का मुआवजा स्वीकृत हुआ। लेकिन अभी तक इसका भुगतान नहीं किया गया है। हर बार ऐसा ही होता है। अपील के बाद अधिकारी आते हैं। लेकिन होता कुछ नहीं है, ” सोमेरा ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया।

रबारी का मानना है कि नर्मदा का पानी न सिर्फ खारेपन को कम करता है बल्कि इससे ताजे पानी की भी बर्बादी होती है।

हालांकि, एसएसएनएनएल के निदेशक विवेक कपाड़िया ने इसके लिए अच्छी बारिश को जिम्मेदार ठहराया। कहा कि पिछले सात वर्षों में अच्छी बारिश की वजह से ऐसा हो रहा है। बाढ़ से बचने के लिए नर्मदा जल की निकासी होती है।

नमक बनाने में पंप को छोड़कर बाकी सभी काम हाथ से ही होते हैं। अगरिया परिवार रण में अपने पानी के पंप, उपकरण और घरेलू सामान के साथ कई किलोमीटर अंदर चले जाते हैं और अगले आठ महीनों के लिए अस्थायी झोपड़ियां बनाकर रहते हैं। तस्वीर- ध्वनित पांड्या/एएचआरएम
नमक बनाने में पंप को छोड़कर बाकी सभी काम हाथ से ही होते हैं। अगरिया परिवार रण में अपने पानी के पंप, उपकरण और घरेलू सामान के साथ कई किलोमीटर अंदर चले जाते हैं और अगले आठ महीनों के लिए अस्थायी झोपड़ियां बनाकर रहते हैं। तस्वीर- ध्वनित पांड्या/एएचआरएम

“उत्तर गुजरात, सौराष्ट्र और वागर की तीन नहरें प्राकृतिक रूप से नदी के पानी को कच्छ की खाड़ी में ले जाती है। लेकिन इन नदियों में गाद बढ़ने की वजह से पानी फैलने लगा है। समाधान इन नहरों की खुदाई में है,” उन्होंने कहा। लेकिन इस मुद्दे पर कपाड़िया की रिपोर्ट को राज्य सरकार ने अभी तक स्वीकार नहीं किया है।

अगरियाओं के मुआवजे के सवाल पर कपाड़िया ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया कि “मुआवजा एक राजस्व से संबंधित मामला है। अगरिया वन्यजीव अभयारण्य में रहते हैं और उनके पास नमक बनाने का पट्टा भी नहीं है। मुआवजे के उनके अधिकार को स्थापित करना कानूनी रूप से कठिन है।”

समुदाय के अधिकारों की अनदेखी

एएचआरएम  के अनुमानों  के अनुसार, मई 2021 में आए ताउते चक्रवात ने लगभग भारी मात्रा में तैयार नामक को नष्ट कर दिया। करीब 10 लाख टन जिसकी कीमत 36 करोड़ रुपए अनुमानित है। प्रशासन ने कोई सर्वेक्षण नहीं किया और न ही मुआवजे की घोषणा की।

“जब प्राकृतिक आपदाएं आती हैं, तो किसान फसल के नुकसान के लिए बीमा/मुआवजे का दावा कर सकते हैं। लेकिन अगरिया समुदाय के लोग ऐसा नहीं कर पाते, क्योंकि नमक बनाना गैरकानूनी माना जाता है। कोई भी बैंक उन्हें कर्ज नहीं देता क्योंकि अगरिया के पास कोई दस्तावेजी सबूत नहीं है। यहां तक ​​​​कि जब अगरिया ने नमकीन पंप करने के लिए डीजल के बजाय सौर पंपों का उपयोग करने के लिए पर्यावरण के अनुकूल कदम उठाया, तो भी उन्हें बैंकों से कोई ऋण नहीं मिला,” एएचआरएम के प्रबंध ट्रस्टी हरिनेश पंड्या बताते हैं।

1948 में  नमक में आत्मनिर्भरता सुनिश्चित करने के लिए, भारत सरकार ने 10 एकड़ से कम में नमक की खेती करने वाले किसानों को बिना किसी लाइसेंस के नमक का उत्पादन करने की अनुमति दी थी। “ऐसे नमक उत्पादकों को ‘गैर-मान्यता प्राप्त’ के रूप में जाना जाने लगा। रण में अधिकांश अगरिया इस श्रेणी के अंतर्गत आते हैं, और इसलिए उनके नमक के खेतों का कोई दस्तावेजी सबूत नहीं है, ” चारुल भरवाड़ा और विनय महाजन द्वारा अगरिया नमक श्रमिकों पर 2008 में प्रकाशित एक अध्ययन में कहा गया है।

जागरुकता न होने के कारण अगरिया समुदाय से लोग वनाधिकार के लिए आवेदन भी नहीं कर पाते। सरकार ने भी ऐसा कोई सर्वे नहीं कराया जिससे रण पर निर्भर अगरिया समुदाय के लोगों की संख्या का पता चल सके।

नवंबर 2006 में नमक बनाने के दौरान ही अगरिया समुदाय के लोगों को राज्य के वन विभाग से बेदखली का नोटिस मिला। इसमें कहा गया था कि उनके वनाधिकार के दावों को खारिज कर दिया गया है। पांड्या ने कहा, “ज्यादातर अगरिया हैरान और अनजान थे क्योंकि उन्होंने पहले कभी दावा किया ही नहीं था।”

पांड्या की संस्था ने लोगों को उनके अधिकारों के बारे में सूचित करने के लिए रेडियो कार्यक्रम आयोजित किए। नए दावे किए गए, लेकिन वन विभाग ने समय अवधि समाप्त होने के आधार पर उन्हें खारिज कर दिया।

नर्मदा जल से अगरिया समुदाय के नमक बर्बाद हो गए। इसके बाद उन्होंने मुआवजे के लिए विरोध प्रदर्शन भी किया। तस्वीर- भरत सोमेरा/एएचआरएम
नर्मदा जल से अगरिया समुदाय के नमक बर्बाद हो गए। इसके बाद उन्होंने मुआवजे के लिए विरोध प्रदर्शन भी किया। तस्वीर- भरत सोमेरा/एएचआरएम

वनाधिकार के तहत सत्यापन की कार्रवाई की वजह से अगरिया समुदाय को बड़ा नुकसान हुआ। पहले सरकार अगरियाओं को अल्पकालिक पट्टे जारी करती थी और उनका नवीनीकरण करती थी। निपटान प्रक्रिया शुरू होने के बाद उन्होंने इनका नवीनीकरण बंद कर दिया।

“प्रक्रिया के अनुसार, हम समझौता होने तक अगरिया के लिए पट्टे का नवीनीकरण नहीं कर सकते हैं, लेकिन हम उन्हें अपनी आजीविका कमाने से नहीं रोक रहे हैं। इस प्रक्रिया में लंबा समय लगा है क्योंकि पूर्वी रण का हिस्सा पहले पांच जिलों में पड़ता था और सबके साथ समन्वय बनाना मुश्किल था। अब यह गुजरात के कच्छ जिले में आता है, ” घुड़खर अभयारण्य के उप वन संरक्षण प्रभनेश दवे कहते हैं।

“इस घटनाक्रम के बाद से हम लगातार डर में जी रहे हैं। वन विभाग का कहना है कि अगरिया समुदाय के लोगों की वजह से जंगली गधे खतरे में है। इसका बहाना बनाकर वे हमें बेदखल करना चाहते हैं, लेकिन उनकी खुद की संख्या बताती है कि जंगली गधे की आबादी 1976 में 700 से बढ़कर अब 5,000 हो गई है, ” तेजल मकवाना ने कहा।

समुदाय के लिए अधिकारों का दावा करने का मामला

एएचआरएम और अगरिया समुदाय के लोगों ने अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वनवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006  के तहत अधिकार प्राप्त करने का प्रयास किया है। इस अधिनियम का एक प्रावधान समुदायों को “सामुदायिक अधिकारों” का दावा करने की अनुमति देता है।

अगरिया को गैर-अधिसूचित (डी-नोटिफ़ाईड) घुमंतू जनजाति के रूप में वर्गीकृत किया गया है। लेकिन ये लोग 75 से अधिक वर्षों से रण में रह रहे हैं। इस आधार पर ये लोग एफआरए के तहत “अन्य पारंपरिक वनवासी” के रूप में अधिकार प्राप्त कर सकते हैं।

एएचआरएम ने दावा दायर करने के लिए ग्राम सभा (ग्राम परिषद) स्तर पर वन अधिकार समिति बनाने के लिए प्रयास कर रहा है लेकिन अब तक ऐसा नहीं हो पाया है। 2017 में वनाधिकार कानून पर राज्य स्तरीय निगरानी समिति ने कहा कि यह कानून घुड़खर अभयारण्य पर लागू ही नहीं होता है।


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गुजरात आदिवासी विकास आयुक्त कार्यालय के एक अधिकारी ने नाम न जाहिर करने की शर्त पर, मोंगाबे-हिन्दी को बताया कि मामला दो आधारों पर खारिज कर दिया गया था। डब्ल्यूएएस में भूमि का स्वामित्व अभी भी राजस्व और वन विभाग के बीच एक विवादास्पद मुद्दा है। दूसरा यह कि नमक की गिनती वनोपज के रूप में नहीं होती है बल्कि इसे एक खनिज के तौर पर देखा जाता हैं।

हालांकि, एफआरए की व्याख्या पर काम कर रहे विशेषज्ञ इस दावे को गलत मानते हैं।

“[एफआरए के तहत], समुदाय जंगल में पानी, मछली, पूजा स्थल आदि सहित किसी भी संसाधन का उपयोग कर सकता है। इस मामले में, अगरिया रेगिस्तान में पानी का मौसमी उपयोग नमक की खेती के लिए करते हैं,” ओडिशा स्थित एक गैर सरकारी संगठन वसुंधरा के वन अधिकार विशेषज्ञ पुष्पांजलि सत्पथी ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया।

एफआरए के अनुसार, अधिकारों को किसी भी ‘वन भूमि’ पर मान्यता दी जा सकती है, जिसमें अभयारण्य शामिल हैं और इसका राजस्व या वन विभाग की भूमि से कोई लेना-देना नहीं है। “मार्च 2007 में घुड़खर अभयारण्य के एडिशनल कलेक्टर ने मानसून के दौरान आस-पास के ग्रामीणों को उनके अधिकार को मान्यता देते हुए मछली पकड़ने का अधिकार दिया। यदि मछली पकड़ने का अधिकार दिया जा सकता है तो पारंपरिक छोटे उत्पादकों को नमक बनाने का अधिकार क्यों नहीं दिया जा सकता है?” भरवाड़ा और महाजन ने सवाल उठाया।

सत्पथी कहते हैं, ”ये लोग अपने नमक को बेहतर तरीके से पैकेज कर सकते हैं और ट्राइफेड जैसे जनजातीय विभाग की शाखाओं के माध्यम से इसकी मार्केटिंग कर सकते हैं।

 

इस खबर को लैंड कॉन्फ्लिक्ट वॉच द्वारा इंटरन्यूज़ अर्थ जर्नलिज्म नेटवर्क के समर्थन से तैयार किया गया है।

 

बैनर तस्वीरः खारे पानी को पंप के माध्यम से पाटा पर इकट्ठा किया जा रहा है। यहां वाष्पीकरण के बाद नमक बनने की प्रक्रिया शुरू होगी। आजकल अगरिया सोलर पंप का इस्तेमाल भी करते हैं। तस्वीर- ध्वनित पांड्या/एएचआरएम

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