- मौसम विभाग में साल 2021 के लिए सामान्य मानसून की घोषणा की। लेकिन इससे दक्षिण-पश्चिम मानसून के क्षेत्रवार होने वाले बारिश का अंदाजा नहीं लगता। अगर बारीकी से देखें तो कुछ और ही बात सामने आती है।
- बेहतर समझ के लिए जून से लेकर सितंबर तक मौसम की चरम घटनाओं को देखा जा सकता है। मानसून के बीचोबीच कई जगहों पर लगातार सूखे जैसा माहौल बना रहा तो कहीं बादल फटने और बाढ़ जैसे हालात बने रहे। इस तरह की घटनाएं सामान्य होती दिख रहीं हैं।
- वैज्ञानिक लंबे वक्त से भारत में मानसून के बदले व्यवहार के लिए जलवायु परिवर्तन को जिम्मेदार मानते आए हैं। वैज्ञानिकों का अनुमान अब सच साबित होता दिख रहा है।
कभी-कभी आंकड़े सच्चाई दिखाने की बजाय छिपा ले जाते हैं। इस साल के मानसून को ही लें। बीते सितंबर महीने में, भारतीय मौसम विज्ञान विभाग ने 2021 के मानसून को सामान्य बताया। सरकारी आंकड़ों के अनुसार जून से सितंबर तक, पूरे सीजन में 870 मिलिमीटर बारिश हुई। पर क्या सच में सबकुछ सामान्य है जैसा कि बताया जा रहा है?
पहले तो सामान्य मानसून किसे कहते हैं, यह समझें। 1961 से 2010 के बीच इकट्ठा किए आंकड़ों के मुताबिक भारत में सालाना होने वाली बारिश का 70 फीसदी बरसात मानसून के दौरान ही होती है। औसतन 880 मिलीमीटर। अगर एक मानसून के मौसम में इस औसत के 96 से 104 प्रतिशत के बीच बारिश हुई तो उसे सामान्य कहा जाता है।
इस हिसाब से 2021 में औसत की तुलना में 99 प्रतिशत बारिश हुई और मौसम विभाग ने इसे सामान्य करार दिया।
बारिश का औसत देखकर भले ही मानसून सामान्य प्रतीत हो रहा हो पर देश के अलग-अलग हिस्सों में बारिश में अंतर देखें तो स्थिति कुछ और ही नजर आती है। जुलाई और अगस्त में कई स्थानों पर पानी गिरा ही नहीं। वहीं, जब सितंबर में मानसून के जाने की बारी आई तो कई जगहों पर जोरदार बारिश हो गयी।
मौसम विभाग ने भी इस बदलाव को रेखांकित किया। “माह दर माह के मौसम के उतार-चढ़ाव को देखें तो यह साल, बीते कई सालों के मुकाबले काफी अलग रहा। माह दर माह बारिश में इतनी भिन्नता एक तरह से पिछले कई सालों में नहीं देखने को मिली थी,” मौसम विभाग ने एक बयान में कहा।
अप्रत्याशित मौसम की चुनौतियां
मौसम का सटीक अनुमान लगा पाना दिनों-दिन एक बड़ी चुनौती का काम होता जा रहा है, सरकार के एक मौसम वैज्ञानिक ने नाम न जाहिर करने की शर्त पर बताया। इस तरह की चुनौती न केवल भारत की अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाती है बल्कि किसानों के जीवन को भी मुश्किल बना रही है। बारिश के आधार पर फसल बोने वाले किसानों की मुश्किलें निरंतर बढ़ती जा रहीं हैं, उस अधिकारी ने कहा।
मौसम वैज्ञानिक मानते हैं कि कई दिन बारिश न होने से लेकर मूसलाधार बारिश तक, साल 2021 का मानसून कई मायनों में मौसम की चरम घटनाओं का गवाह बना। आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक कम बारिश वाले स्थान जैसे मध्य प्रदेश, पूर्वी राजस्थान, महाराष्ट्र और विदर्भ में इस वर्ष मूसलाधार बारिश हुई। जबकि, ओडिशा, केरल, पूर्वोत्तर के राज्य जहां अधिक बारिश होती है, इस वर्ष मानसून के दौरान बारिश को तरस गए।
देश के शीर्ष मौसम वैज्ञानिक कहते हैं कि 2021 में मौसम की चरम घटनाएं साफ तौर पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों की ओर इशारा करती हैं।
“मौसम की चरम घटनाएं यह दिखाती हैं कि जलवायु परिवर्तन अपना असर दिखा रहा है,” भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) के महानिदेशक मृत्युंजय मोहापात्रा ने कहा।
“मानसून के दौरान अब तेज बरसात अधिक होती है। हल्की बारिश कभी कभार ही देखने को मिलती है,” उन्होंने कहा।
इस साल, मानसून की शुरुआत में सब कुछ सामान्य प्रतीत हो रहा था। सामान्य रूप से ही जून में मानसून आ भी गया। देश में इसके बढ़ने की गति भी पहले दो चरणों तक सामान्य ही देखी गई। लेकिन बीच में कुछ बड़े सूखे वाले दिन देखने को मिले। मानसून के आखिरी महीने में 110 फीसदी बारिश हो गयी।
मानसून की लुकाछिपी
समस्याओं की शुरुआत जुलाई से हुई। यह मानसून के लिहाज से महत्वपूर्ण महीना माना जाता है। जून में अच्छी शुरुआत के बावजूद जुलाई 11 तक देश में औसत बारिश से 92 फीसदी कम पानी गिरा।
अगस्त में स्थिति और खराब हुई और इस तरह 2021 का मानसून इतिहास में दर्ज हो गया। 1901 से अब तक, अगस्त छठी बार सूखा महीना साबित हुआ। 2009 के बाद ऐसे पहली बार हुआ। 2021 में इस महीने में 24 फीसदी कम बारिश दर्ज की गई।
इस दौरान जब पूरे भारत में सूखे जैसे हालात बन रहे थे तो हिमालय का क्षेत्र जलमग्न हो उठा। बारिश इस कदर हुई कि उत्तराखंड और हिमाचल में गांव के गांव बह गए और करोड़ों का नुकसान हो गया।
“कुछ दिनों को छोड़ दिया जाए तो, देश में रोजाना 30 से 40 फीसदी कम बारिश हुई। अगस्त में 4 से लेकर 25 तक लगातार बारिश नहीं हुई और सूखे जैसा माहौल बन गया,” स्काइमेट वेदर के मेट्रोलॉजी और क्लाइमेट चेंज विभाग के अध्यक्ष जीपी शर्मा ने कहा।
अगस्त महीने तक देश में 24 फीसदी कम बारिश दर्ज की गई थी। सितंबर में इसकी भरपाई होना लगभग नामूमकिन था। लेकिन दक्षिण-पश्चिमी मानसून जाते-जाते चौंका गया। ऐसा कम ही होता है कि बारिश में इतनी कमी आखिरी महीने में जाकर पूरी हो जाए। 2009 को ही उदाहरण के तौर पर लें। उस वर्ष अगस्त में 26 फीसदी कम बारिश हुई थी। उस साल सितंबर में 19 फीसदी कम बारिश हुई।
हालांकि, इस वर्ष कुछ अनोखा घटा। सिंतबर में इतनी जोरदार बारिश हुई कि इसने पिछले दो महीनों की कमी पाट दी। सितंबर में 135 फीसदी अधिक बारिश हुई। यह औसत से काफी अधिक है।
“इस तरह की बरसात सामान्य नहीं है। अगस्त में जिस तरह बुरा हाल था, उसी तरह सितंबर में अतिवृष्टि हुई। इसे छोटामोटा चमत्कार ही कहेंगे,” शर्मा ने कहा।
“सितंबर की बारिश से ही देशभर का औसत सामान्य मानसून की श्रेणी में आ सका,” उन्होंने कहा।
इस तरह की मूसलाधार बारिश कोई अच्छी खबर नहीं है। महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, तेलंगाना, ओडिशा के किसान जून में सूखे की वजह से फसल नहीं लगा पा रहे थे। वहीं सितंबर की बारिश ने उनकी खड़ी फसल तबाह कर दी। सितंबर में हुए नुकसान का आंकलन अब तक नहीं हो पाया है।
मौसम की चरम घटनाएं आगे भी
इस साल के मानसून ने जिस बड़ी समस्या की तरफ ध्यान आकर्षित किया है वह है मौसम की चरम घटनाएं। यानी सूखा हो या बारिश, अपने चरम पर घटित होती हैं।
हाल ही में जलवायु वैज्ञानिक स्यूकुरो मानेबे और क्लॉस हासेलमैन ने भौतिकी का नोबेल पुरस्कार मिला। इन्होंने अपने पुरस्कार राशि का आधा भौतिकी विज्ञान के विकास के लिए दान दे दिया। इन्होंने 1980 में एक क्लाइमेट मॉडल बनाया जिससे भविष्य के मौसम का अनुमान लगाया जा सके। तब से अब तक के वैज्ञानिक प्रमाण बढ़ रहे हैं कि मानव निर्मित ग्लोबल वार्मिंग, मौसम के पैटर्न को बदल देगा।
यह भारत में दो वार्षिक मानसून के मामले में सही भी प्रतीत होती है। हाल के वर्षों में दक्षिण-पश्चिम मानसून के रुझानों से स्पष्ट होता है कि बारिश के तरीकों में अनिश्चितता बढ़ रही है। यह दर्शाता है कि मौसम की चरम घटनाएं अब हर सीजन की बात हो गई है।
2021 का मानसून कोई अतिश्योक्ति नहीं है। जून में पश्चिमी हिमालय में अत्यधिक वर्षा उस समय हुई जब मध्य और दक्षिणी भारत के बड़े हिस्से सूखे जैसी परिस्थितियों का सामना कर रहे थे। यह भी वही दर्शाता है कि भारत में चरम मौसम की घटनाएं बढ़ रहीं हैं।
गैर-लाभकारी संस्था दक्षिण एशिया नेटवर्क ऑन डैम्स, रिवर एंड पीपल (एसएएनडीआरपी) के विश्लेषण से पता चलता है कि ऐसे कई मौके आए जब हिमालयी राज्य उत्तराखंड में जून से सितंबर के बीच मानसून के दौरान बादल फटे।
1926 से 2015 तक पिछले 126 वर्षों में पहाड़ी राज्यों में बादल फटने और छोटे बादल फटने की संख्या में तेज वृद्धि हुई है, इस संस्था ने पुणे में भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान के वैज्ञानिकों के शोध का हवाला देते हुए कहा है। पुणे स्थित इस संस्था ने बादल फटने की घटना को दोबारा पारिभाषित करने की सिफारिश की है। फिलहाल छोटे बादल फटने की घटना तब मानते हैं जब दो घंटे में 50 मिलीमीटर से अधिक बारिश हो।
इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी गांधीनगर के सिविल इंजीनियरिंग और पृथ्वी विज्ञान विभाग के विमल मिश्रा ने एक मीडिया रिपोर्ट में कहा, “इस बात के सबूत हैं कि विश्व स्तर पर कम समय में अधिक, तीव्र और लगातार बारिश की घटनाएं बढ़ रहीं हैं।”
“गर्म जलवायु या जलवायु परिवर्तन के साथ, हम निश्चित रूप से भविष्य में बादल फटने की घटनाओं में बढ़ोतरी देखेंगे,” उन्होंने कहा।
नई दिल्ली स्थित स्वयंसेवी संस्था काउंसिल फॉर एनर्जी, इनवायरनमेंट एंड वाटर (सीईईडब्ल्यू) द्वारा दिसंबर 2020 के विश्लेषण के अनुसार, भारत के 75 प्रतिशत से अधिक जिलों में अब चरम मौसम की घटनाएं होने लगी हैं। विश्लेषण में पाया गया कि 40 प्रतिशत से अधिक जिले जलवायु संबंधी व्यवधानों का सामना कर रहे हैं।
मौसम के मिजाज में वैश्विक बदलाव का भी असर दिख रहा है। समुद्र के भीतर हो रहे परिवर्तन भी इसके जिम्मेदार हैं। “जुलाई और अगस्त के दौरान मानसून के अनिश्चित होने के पीछे अटलांटिक के अल नीनो को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। इस मौसम में, उष्णकटिबंधीय पूर्वी अटलांटिक के ऊपर समुद्र की सतह का तापमान सामान्य से अधिक गर्म था। पिछले 40 वर्षों की सबसे मजबूत अटलांटिक नीनो घटना जून-अगस्त के दौरान हुई,” संयुक्त राज्य अमेरिका में मैरीलैंड विश्वविद्यालय में वायुमंडलीय और महासागरीय विज्ञान विभाग में वैज्ञानिक रघु मुर्तुगुडे ने कहा।
इस बात के प्रमाण बढ़ रहे हैं कि दक्षिण-पश्चिम मानसून में बारिश के दिनों की संख्या कम होती है लेकिन कुछ दिनों में अत्यधिक बारिश होती है। इससे शहरी क्षेत्रों में बाढ़ आती है और गांवों में फसलों को नुकसान होता है। इस तरह की अत्यधिक वर्षा के कारण उत्तर में उत्तराखंड से लेकर दक्षिण में केरल तक के स्थानों में भूस्खलन होता है।
बरसात के दिनों के कम होने के कारण लंबे समय तक सूखा मौसम भी रहता है। स्काईमेट वेदर के उपाध्यक्ष (मौसम विज्ञान और जलवायु परिवर्तन) महेश पलावत ने कहा,” 2021 में बारिश के बीच बड़े अंतराल थे, जिससे सूखे का मौसम बना रहा।”
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इसका अर्थव्यवस्था पर गंभीर प्रभाव पड़ता है। किसान अपनी खेती की ठीक से योजना नहीं बना पा रहे हैं। नतीजतन वित्त मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 16 से 20 प्रतिशत का योगदान देने वाला कृषि क्षेत्र नुकसान झेलता है। हालांकि, कुल कृषि उत्पादन भले ही प्रभावित न हो लेकिन फसल नष्ट होने पर छोटे और सीमांत किसान प्रभावित होते हैं।
एक और महत्वपूर्ण बदलाव जो विशेषज्ञों ने पाया है, वह है पूर्वोत्तर भारत पर होने वाला असर। पश्चिमी तट के बाद देश में सबसे अधिक वर्षा का योगदान देता है। अब इस वर्ष मानसून के बाद यहां भी असर दिखना शुरू हुआ है। पिछले एक दशक में, पूर्वी और पूर्वोत्तर भारत में 2020 को छोड़कर हर साल सामान्य से कम बारिश हुई है।
स्काईमेट के शर्मा ने कहा, “बारिश की लगातार कमी को बदलते मौसम के मिजाज के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।”
इस साल की एक और दुर्लभ घटना थी चक्रवात गुलाब। यह इस सदी का केवल तीसरा उष्णकटिबंधीय तूफान था जो सितंबर में बंगाल की खाड़ी में बना था। बंगाल की खाड़ी में चक्रवात आमतौर पर अक्टूबर और दिसंबर के बीच बनते हैं, और इस प्रकार चक्रवात गुलाब एक अपवाद था।
बैनर तस्वीरः महाराष्ट्र के सतारा में बाढ़ के दौरान बह चुकी सड़क। इस बात के प्रमाण बढ़ रहे हैं कि दक्षिण-पश्चिम मानसून में बारिश के दिनों की संख्या कम होती है लेकिन कुछ दिनों में भारी से अत्यधिक बारिश होती है। इससे शहरी क्षेत्रों में बाढ़ आती है और गांवों में फसलों को नुकसान होता है। तस्वीर– वर्षा देशपांडे/विकिमीडिया कॉमन्स