- पिछले दो सप्ताह के दौरान भारत में कोयले को लेकर गहन चर्चा हो रही है। कोयले की कमी की वजह से कई स्थानों पर बिजली संकट भी पैदा हो रहा है।
- कई विशेषज्ञ मानते हैं कि कोयला संकट के पीछे की असल वजह पावर प्लांट की माली हालत और ढुलाई से जुड़ी दिक्कतें हैं। वे मानते हैं कि देश के ऊर्जा क्षेत्र में कोयले की कमी कोई नई बात नहीं है।
- पर्यावरणविद् चिंता जताते हैं कि कोयला संकट का बहाना कर कोयला क्षेत्र को नियंत्रित करने वाले, पर्यावरण और जंगल की रक्षा करने वाले कानूनों को कमजोर किया जा सकता है। जबकि, कोयला संकट उत्पादन में कमी की वजह से नहीं, बल्कि अन्य वजहों से आया है।
- वे आशंका जताते हैं कि केंद्र सरकार, खनन क्षेत्र को बढ़ावा देने में लगी है। इस संकट की आड़ में खनन क्षेत्र को और अधिक प्रोत्साहित किया जाएगा। यह पर्यावरण के अनुकूल नहीं होगा।
पिछले कुछ दिनों से, देश के ताप विद्युत संयत्रों में कोयले की कमी की चर्चा जोरों पर है। यह अनुमान लगाया जा रहा है कि इसकी वजह से देश में बिजली को लेकर बड़ा संकट आ सकता है। हालांकि, सरकार ने इस आशंका को बेबुनियाद बताया है। ऊर्जा क्षेत्र के जानकारों का भी मानना है कि देश में पर्याप्त कोयला है। कुछ जानकारों का मानना है कि कोयले की कमी को जानबूझकर तैयार किया गया है ताकि कोयला खनन और वन क्षेत्र संबंधित महत्वपूर्ण कानूनों को कमजोर किया जा सके।
वैसे तो केंद्र सरकार ने बार-बार जोर देकर कहा है कि देश में कोयले की कमी नहीं है। पर इसी दौरान दिल्ली समेत कई राज्यों ने संभावित बिजली कटौती की तरफ इशारा भी किया है। थर्मल पावरप्लांट्स में कोयले की कमी का हवाला देकर।
कोयला क्षेत्र पर बारीकी से नज़र रखने वाले वकील सुदीप श्रीवास्तव ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया कि खदानों और बिजली संयंत्रों में कोयले की उपलब्धता, दो अलग-अलग चीजें हैं। “हालात यह है कि कोयला खदानों में स्टॉक है लेकिन प्लांटों में नहीं है,” श्रीवास्तव कहते हैं जो पर्यावरण से जुड़े अन्य मुद्दों पर सक्रिय हैं।
श्रीवास्तव जो बात कह रहे हैं वैसा ही कुछ बयान केंद्रीय ऊर्जा मंत्रालय की तरफ से भी आया है। इस महीने की शुरुआत में 9 अक्टूबर को एक बयान में, केन्द्रीय मंत्रालय ने कहा कि बिजली संयंत्रों पर कोयले के स्टॉक में कमी के कई कारण हैं। इसमें अर्थव्यवस्था के पटरी पर आने की वजह से बढ़ी बिजली की मांग, प्रमुख वजह है।
इस साल सितंबर में काफी बारिश हुई है। इससे कोयला उत्पादन और कोयले की ढुलाई, दोनों प्रभावित हुई है। विदेश से आयात होने वाले कोयले की कीमत में अभूतपूर्व वृद्धि दर्ज की गयी है। इससे घरेलू कोयले पर निर्भरता बढ़ी है। मानसून की शुरुआत से पहले पर्याप्त कोयला स्टॉक न रखना भी संकट की एक वजह है। इसके अलावा महाराष्ट्र, राजस्थान, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, राजस्थान और मध्य प्रदेश जैसे कुछ राज्यों पर कोयला कंपनियों का भारी बकाया है जिससे सप्लाई में दिक्कतें आईं। मंत्रालय ने संकट के कारण बताते हुए इन मुद्दों का उल्लेख किया है।
मंत्रालय ने कोयले के स्टॉक की कमी को खारिज कर दिया और स्पष्ट किया कि कोल इंडिया लिमिटेड (सीआईएल) और रेलवे सहित कोयला आपूर्ति सुनिश्चित करने वाली सभी सभी संस्थाएं, स्थिति पर लागातार नजर बनाये हुए हैं।
बाद में कोयला मंत्रालय का एक अक्टूबर को एक बयान आया जिसमें बताया गया कि बिजली संयंत्रों की मांग को पूरा करने के लिए देश में पर्याप्त कोयला उपलब्ध है। “बिजली आपूर्ति में व्यवधान का डर, पूरी तरह से गलत है। बिजली संयंत्र में कोयला उपलब्ध है। चार दिनों की जरूरत से अधिक कोयला मौजूद है,” केंद्र सरकार ने कहा।
हालांकि एक बिजली संयंत्र को खदान से उनकी दूरी के आधार पर 15-30 दिनों का कोयला स्टॉक होना चाहिए। अगर बिजली सयंत्रों में एक सप्ताह से कम का कोयला होता है तो इसे गंभीर माना जाता है।
श्रीवास्तव ने कहा कि कोयले की यह कमी लॉजिस्टिक से संबंधित मुद्दा है। “सीआईएल बिना किसी भुगतान के कोयले की आपूर्ति क्यों करेगी? कई राज्यों के सार्वजनिक उपक्रमों पर पहले से ही भारी मात्रा में बकाया है। तात्पर्य यह कि समस्या बकाये की है,” उन्होंने कहा।
कोयले की कमी भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए कोई नया संकट नहीं है। देश को 2014 और 2018 में भी कोयले की कमी का सामना करना पड़ा था।
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), दिल्ली में बतौर सहायक प्रोफेसर कार्यरत रोहित चंद्रा देश में ऊर्जा के मुद्दों पर बारीकी से नज़र रखते हैं। उन्होंने मोंगाबे-हिन्दी को बताया कि देश में मौजूदा संकट कोयले की अंतरराष्ट्रीय कीमत में वृद्धि की वजह से है।
“मानसून के दौरान कोयले का खनन और परिवहन, दोनों प्रभावित होता है। इसके अलावा संकट की बड़ी वजह कोयले की खरीद के लिए एक अग्रिम लागत का भुगतान न होना या बिजली कंपनियों की भुगतान करने की क्षमता न होना भी है,” उन्होंने कहा।
राज्यों और केंद्र सरकार के बीच विश्वास की कमी की तरफ इशारा करते हुए चंद्रा कहते हैं, “इन सब दिक्कतों के साथ केंद्र सरकार और राज्यों सहित अन्य संस्थाओं के बीच कोयले से संबंधित समस्याओं को हल करने के लिए सहयोग की भावना भी क्षीण हुई है। पिछले एक दशक में।”
ऊर्जा क्षेत्र के विशेषज्ञों का मानना है कि कोई भी इस तरह के संकट का निर्माण नहीं करना चाहेगा। क्योंकि ऐसा करना राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय दोनों स्तरों पर राजनीति के लिए बुरा है।
जानकारों ने इस बात पर जोर दिया कि ढुलाई का मुद्दा भी एक एक बड़ी समस्या है। विशेष रूप से रेलवे के पास कोयला ढुलाई के लिए समर्पित फ्रेट कॉरिडोर की कमी है। कुछ राज्यों में कोयला की कमी की बड़ी वजह ढुलाई से जुड़ी है। विशेषकर ऐसे राज्य जिनके पास अपने क्षेत्र में कोई कोयला खनन नहीं है और वे दूसरे राज्यों पर निर्भर हैं।
सरकार ने यह भी दावा किया कि कोविड-19 की दूसरी लहर के बाद अर्थव्यवस्था और उद्योग का पटरी आना शुरू हुआ। इससे बिजली की मांग और खपत में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। मंत्रालय ने कहा, “बिजली की दैनिक खपत प्रति दिन चार अरब यूनिट से अधिक हो गई है। इसका 65-70 प्रतिशत मांग कोयले से होने वाले बिजली उत्पादन से आता है। ऐसे में कोयले की मांग बढ़ना स्वाभाविक है।”
केंद्र सरकार के अनुसार, अंतरराष्ट्रीय बाजार में कोयले की कीमत बढ़ने की वजह से आयात रुका हुआ है। इससे घरेलू कोयले की मांग बढ़ी है। केंद्र सरकार देश में कोयला उत्पादन बढ़ाने पर जोर दे रही है और इंडोनेशिया जैसे देशों से आयात में भी कटौती कर रही है।
कोयले की कमी को न स्वीकारते हुए भी केंद्र सरकार ने ताप विद्युत संयंत्रों से कहा है कि वे 10 फीसदी कोयला बाहर से मंगाकर उसे घरेलू कोयले के साथ मिलकार इस्तेमाल करें।
भारत के ऊर्जा क्षेत्र का विकास
पिछले एक दशक में, भारत सरकार का बिजली उत्पादन की क्षमता बढ़ाने को लेकर काफी सक्रिय है। 2014 से, केंद्र सरकार लगातार अगले कुछ वर्षों में कोयले के आयात को समाप्त करने और 2024 तक घरेलू कोयला उत्पादन को एक अरब टन तक ले जाने की बात कर रही है।
इसके लिए सरकार ने पिछले छह वर्षों में खनन क्षेत्र में सुधार जैसे कई नीतिगत सुधार किए गए हैं। इन उपायों में 2020 में वाणिज्यिक कोयला खनन (कमर्शियल कोल माइनिंग) की अनुमति देना शामिल है। कोविड-19 लॉकडाउन के बाद साल 2020 में केंद्र सरकार ने अर्थव्यवस्था को गति देने की घोषणा की। खनन सुधारों को बढ़ावा देने के लिए कई उपाय किए गए। इसमें कोयला खानों की नीलामी भी शामिल है।
यहां तक कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि एक मजबूत खनन और खनिज क्षेत्र के बिना (भारत की) आत्मनिर्भरता संभव नहीं है। क्योंकि खनिज और खनन हमारी अर्थव्यवस्था के महत्वपूर्ण स्तंभ हैं। सरकार ने अगले कुछ वर्षों में भारत को पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने की बात बार-बार की है। सरकार के अनुसार, खनन और ऊर्जा क्षेत्र में विकास उन योजनाओं के लिए भी महत्वपूर्ण है।
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विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि सीआईएल को बढ़ने नहीं दिया गया। यह दुनिया की सबसे बड़ा कोयला उत्पादक कंपनी है। इनका मनाना है कि वाणिज्यिक खनन को बहुत पहले ही मंजूरी दे दी जानी चाहिए थी।
स्वच्छ ऊर्जा की तरफ हो रहे परिवर्तन का हवाला देते हुए सीआईएल के पूर्व अध्यक्ष, पार्थ एस भट्टाचार्य ने कहा कि आगे भी कोयला और नवील ऊर्जा के संयोजन के लिए काम करते रहना होगा। भारत के लिए।
उन्होंने कहा कि विभिन्न कारणों से बिजली संयंत्रों के साथ कोयला स्टॉक मार्च में 28 दिनों से गिरकर अक्टूबर में एक सप्ताह से भी कम का रह गया। इसके लिए अर्थव्यवस्था का पटरी पर लौटना, एक प्रमुख कारण है।
“पिछले तीन वर्षों में, लगातार बढ़ती ऊर्जा मांग का एक महत्वपूर्ण हिस्सा अक्षय ऊर्जा द्वारा तेजी से पूरा किया जा रहा था, लेकिन इस साल अचानक बढ़ी मांग को अक्षय ऊर्जा से पूरा नहीं किया जा सकता था। हमें यह भी समझने की जरूरत है कि सीआईएल का बकाया जो कि (लगभग 20,000 करोड़ रुपये / 200 अरब रुपये) है। यह बकाया लंबे समय से है। इससे कंपनी का काम करने की क्षमता प्रभावित हुई है। कोयला एक ज्वलनशील पदार्थ है इसलिए इसको अधिक मात्रा में स्टॉक करना खतरनाक भी हो सकता है,”भट्टाचार्य ने कहा।
हालांकि, अगले कुछ वर्षों के भीतर एक अरब टन घरेलू कोयला उत्पादन के सरकार के लक्ष्य के बारे में एक सवाल का जवाब देते हुए उन्होंने कहा कि निकट भविष्य में ऐसा होता नहीं दिख रहा है।
“इसके कई कारण है। हम 2030 तक 100 गीगावॉट से 450 गीगावॉट तक, अक्षय ऊर्जा का विकास करने की सोच रहे हैं। यदि ऐसा होता है तो बढ़ती मांग का एक महत्वपूर्ण हिस्सा स्वच्छ ऊर्जा द्वारा पूरा किया जाएगा। उस स्थिति में इतनी मांग ही नहीं होगी कि एक अरब टन कोयला उत्पादन का औचित्य साबित कर सके। इसके अलावा भारत में एक जिम्मेदार देश होने के नाते प्रति व्यक्ति उत्सर्जन कम है, लेकिन कार्बन का उत्सर्जन काफी अधिक है। ऐसे हालात में अलग-अलग क्षेत्रों से ऊर्जा जरूरत को पूरी करना भी देश की प्राथमिकता होगी। ऐसे में कोयले के उत्पादन की वृद्धि छोटी अवधि के लिए एक अरब टन तक हो सकती है, लेकिन लंबे वक्त तक ऐसा नहीं होगा,” भट्टाचार्य ने कहा।
गौतम सोलर के प्रबंध निदेशक गौतम मोहनका ने कहा, ” इसमें दो राय नहीं है कि वैश्विक ऊर्जा संकट के बीच भारत पर भी प्रभाव पड़ा है। विशेषकर देश में मौजूदा कोयला संकट ने खासा असर किया है।”
“कोयला संकट को आंशिक रूप से अर्थव्यवस्था और बड़े औद्योगिक क्षेत्रों को फिर से खोलने के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। यह देखते हुए कि ऊर्जा की समस्या भविष्य में और बढ़ सकती है, समाधान के तौर पर सौर ऊर्जा का महत्व बढ़ सकता है। भारतीय ऊर्जा क्षेत्र में सौर ऊर्जा की वास्तविक क्षमता का मूल्यांकन करने का यह एक सही अवसर है। भारत में घरेलू और व्यावसायिक दोनों जरूरतों के लिए ऊर्जा के इस अक्षय और स्वच्छ स्रोत का उपयोग करना फायदेमंद होगा, ”मोहनका ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया।
क्या कोयले की कमी पर्यावरण कानूनों को कमजोर करने का कारण बनेगी?
कोयले की कमी और बाद में बिजली कटौती को लेकर पर्यावरणविदों की एक प्रमुख चिंता यह है कि इसे कोयले से संबंधित कानूनों को कमजोर करने और वन और पर्यावरण नियमों को कमजोर करने के पक्ष में इस्तेमाल किया जा सकता है।
सुदीप श्रीवास्तव ने कहा, “इस कमी का खदानों या नई खदानों की तत्काल आवश्यकता से कोई लेना-देना नहीं है। हालांकि, डर यह है कि कोयला क्षेत्र को नियंत्रित करने वाले मौजूदा कानूनों और विनियमों को कमजोर करने के लिए मंच तैयार किया जा रहा है। संकट दिखाकर बड़ी कंपनियों के लिए खदान आसान कर दिया जाएगा। खनन से प्रभावित समुदाय की चिंताओं का समाधान किए बिना।
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श्रीवास्तव की यह चिंता के पीछे जायज वजहें भी हैं। पिछले एक वर्षों के दौरान केंद्र सरकार ने खनन प्रभावित समुदायों की गंभीर आपत्तियों के बावजूद कोयला क्षेत्र सहित खनन सुधारों को आगे बढ़ाया है। उन्होंने यह भी चिंता जताई कि खनन को गति देने का मतलब खनन के लिए और अधिक प्राचीन और पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों में इसका विस्तार करना होगा।
उदाहरण के लिए छत्तीसगढ़ के स्थानीय समुदाय के लोग खनन के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं। वे हसदेव अरण्य क्षेत्र को खोदने के खिलाफ हैं। इस क्षेत्र में कोयला खनन करने की पुरजोर कोशिश हो रही है। केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने हाल ही में वन संरक्षण अधिनियम 1980 में संशोधन के लिए सुझावों को आमंत्रित किया है। पर्यावरणविदों को डर है कि प्रस्तावित संशोधन के परिणामस्वरूप अधिक वन क्षेत्रों को खनन और कई दूसरी परियोजनाओं के लिए खोला जा सकता है।
आठ अक्टूबर को, केंद्रीय खदान मंत्रालय ने खनिजों की नीलामी में अधिक लोगों की भागीदारी को प्रोत्साहित करने के लिए खनिज नियम 2015 और खनिज (नीलामी) नियम 2015 में संशोधन का प्रस्ताव रखा।
सरकार कोयला क्षेत्र (अधिग्रहण और विकास) संशोधन विधेयक, 2021 को संसद में पारित करने पर भी जोर दे रही है। इस संशोधन के बाद सफल बोली लगाने के बाद कंपनी को किसी और को भूमि और कोयला खनन अधिकारों को पट्टे पर देने की अनुमति होगी। इसके अलावा कंपनी कोयला खनन और संबद्ध गतिविधियों के लिए अधिनियम के तहत अधिग्रहित भूमि के उपयोग को निर्धारित करेगा, और अधिनियम के तहत लिग्नाइट वाले क्षेत्रों के अधिग्रहण का प्रावधान करेगा।”
श्रीवास्तव ने चेतावनी दी कि कोयला संकट के पीछे “छिपा हुआ एजेंडा” हो सकता है ताकि कोयला क्षेत्र में अधिग्रहण के कठोर कानून को जल्द से जल्द जमीन पर लाया जा सके।
“एक बार ऐसा हो जाने के बाद निजी कंपनियां उन लोगों के लिए मुआवजा तय होने से पहले ही जमीन पर कब्जा कर सकेंगी, जिनकी जमीन छीनी जा रही है। कोयला आधारित अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार भूमि सरकारी कंपनियों के पास है लेकिन संशोधन के बाद निजी कंपनियों के लिए भी यह दरवाजा खोल दिया जाएगा। कोयले की कमी के बहाने, सरकार केवल उन सुरक्षा उपायों को प्रभावित करने जा रही है जो कि पर्यावरण या प्रभावित समुदायों की चिंताओं की रक्षा के लिए किए गए हैं,” उन्होंने आगे कहा।
बैनर तस्वीरः साबरमती नदी किनारे स्थित थर्मल पावर स्टेशन। देश में कोयले की कमी की चर्चा के बीच कई ऊर्जा संयंत्र बंद होने की कगार पर हैं। तस्वीर– कोशी/विकिमीडिया कॉमन्स