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[वीडियो] बढ़ने लगी कश्मीर के राजकीय पशु हंगुल की आबादी, भोजन और आवास की कमी अब भी चुनौती

बैनर तस्वीर: हंगुल का झुंड। तस्वीर- ताहिरशॉल/विकिमीडिया कॉमन्स

बैनर तस्वीर: हंगुल का झुंड। तस्वीर- ताहिरशॉल/विकिमीडिया कॉमन्स

  • हंगुल, लाल हिरण की नस्ल, जम्मू-कश्मीर का राज्य पशु है। अब इस जीव की संख्या धीरे-धीरे बढ़ रही है। वर्ष 2019 में राज्य में कुल 237 हंगुल थे। अब इनकी संख्या बढ़कर 261 हो गयी है।
  • पालतू जानवरों के चरने की वजह और कश्मीर में तनाव से भी इस जीव के भोजन पर संकट रहा है। इनकी संख्या में चारागाह की कमी को एक महत्वपूर्ण वजह बताया जाता रहा है।
  • इस जीव की संख्या पर निरंतर निगरानी से ही इसके बारे में जानकारी हासिल की जा सकती है। वैसे, इनपर सालभर निगरानी रखना काफी मुश्किल काम है।

हंगुल या कश्मीरी हिरण की गिरती संख्या चिंता का सबब रहा है। पर मार्च 2021 में सामने आई संख्या उत्साहजनक है। वन्यजीव संरक्षण विभाग के अनुसार, लुप्तप्राय प्रजातियों में शामिल हंगुल की संख्या धीरे-धीरे बढ़ रही है। साल 2019 में इस जीव की संख्या 237 थी। अब यह बढ़कर 261 हो गयी है। छः साल पहले यानी 2015 में ही इनकी संख्या बढ़ने लगी थी। तब इस कश्मीरी हिरण की कुल संख्या 186 थी। 

वर्तमान जम्मू और कश्मीर के राज्य पशु, हंगुल की पहचान पहली बार 1844 में शोधकर्ता अल्फर्ड वैगनर ने की थी। माना जाता है कि यह जीव मध्य एशिया के बुखारा से कई देश होते हुए कश्मीर आया। 

“वन अखरोट या कहें इंडियन हॉर्स चेस्टनट, हिरणों का पसंदीदा भोजन है। इसे स्थानीय भाषा में ‘हान दून’ कहते हैं। माना जाता है कि इसी आधार पर इस जीव का नाम हंगुल पड़ा। इसके अतिरिक्त, हंगुल घास, झाड़ियां, पत्ते भी खाते हैं। उन्नीसवीं सदी में, हंगुल उत्तरी कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और पाकिस्तान में बहुतायत में पाए जाते थे। अब इनकी सीमा श्रीनगर के पास दाचीगाम राष्ट्रीय उद्यान तक ही सीमित है,” भारत के लुप्तप्राय और वन्यजीवों पर एक वेबसाइट के संस्थापक और संपादक अतुल गुप्ता कहते हैं।

हंगुल का लिथोग्राफ। तस्वीर- चार्ल्स हैमिल्टन स्मिथ/विकिमीडिया कॉमन्स
हंगुल का लिथोग्राफ। तस्वीर– चार्ल्स हैमिल्टन स्मिथ/विकिमीडिया कॉमन्स

हंगुल मार्च में अपना सींग गिराकर पहाड़ के ऊंचाई वाले हिस्से का रुख करते हैं। अगस्त तक उनके सींग दोबारा उग आते हैं। सितंबर-अक्टूबर तक ये पुनः नीचे चले आते हैं। इसी समय कश्मीर में इन्हें देखा जा सकता है। यही समय होता है जब नर हंगुल, मादाओं को रिझाने का काम करते है। वे अपने प्रतिद्वंद्वी से लड़ते भी हैं ताकि मादा हंगुल को अपना वर्चस्व दिखा सकें।

“हंगुल आम तौर पर 2-18 के समूहों में रहना पसंद करते हैं, लेकिन मादा को रिझाने के दौरान नर एक-दूसरे के प्रति असहिष्णु हो जाते हैं। लगभग आठ महीनों के बाद, मादा बच्चे को जन्म देती है जिसे फॉन कहते हैं। सामान्यतः एक ही बच्चा होता है पर कुछेक मामलों में जुड़वां बच्चे भी पैदा होते हैं। मादा हंगुल 16 महीने तक बच्चे के वयस्क होने तक देखभाल करती है,” स्वतंत्र वन्यजीव शोधकर्ता और हंगुल संरक्षण के लिए काम करने वाले कश्मीर के अजय सिन्हा कहते हैं। सिन्हा इस जीव के गणना में भी शामिल थे। 

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हंगुल की संख्या में गिरावट

उन्नीसवीं शताब्दी में, कश्मीर में लगभग 3,000 से 5,000 हंगुल पाए जाते थेकिशनगंगा के करेन से लेकर लोलाब घाटी में दोरुसा तक, और बांदीपोरा, तुलैल, बालटाल, अरु, त्राल और किश्तवाड़ में, हर जगह इन्हें देखा जा सकता था। लगातार शिकार के कारण उनकी संख्या में गिरावट आई है। कश्मीर के तत्कालीन महाराजा ने दाचीगाम में हंगुल के शिकार से जुड़ा एक खेल क्षेत्र भी घोषित किया जहां आमलोगों का प्रवेश वर्जित था। 

स्वतंत्रता के बाद, अभयारण्यों और राष्ट्रीय उद्यानों के निर्माण ने शिकार के खतरे को और कम कर दिया। हालांकि, कश्मीर में संघर्ष के कारण पशुओं के चरने और निवास स्थान का लगातार क्षरण हुआ। इससे एक नई चुनौती सामने आई। 

श्रीनगर के पास दाचीगाम राष्ट्रीय उद्यान। तस्वीर- एसआर साजिद रऊफी/विकिमीडिया कॉमन्स
श्रीनगर के पास दाचीगाम राष्ट्रीय उद्यान। तस्वीर- एसआर साजिद रऊफी/विकिमीडिया कॉमन्स

“गर्मी के दिनों में हंगुल के चरने के लिए  घाटी एक आदर्श बन जाया करती थी। सशस्त्र संघर्ष के बाद उनका दायरा सिमटा। घुमंतू चरवाहे भी अपने पशुओं को वहीं चराने लगे जहां हंगुल चरते थे। क्योंकि इनके चरवाही के क्षेत्र आसानी से आना-जाना संभव नहीं रहा, सिन्हा कहते हैं।

उनकी घटती संख्या का एक और तत्कालीन कारण है नर और मादा हंगुल की संख्या के अनुपात में गिरावट। 

जनगणना कैसे मददगार

तेंदुए और हिमालयी भालू जैसे शिकारी जीवों के लिए हंगुल, भोजन हैं। ऊपरी स्थानों पर अधिकांश जानवर नहीं पहुंच पाते। ऐसे में हंगुल का महत्व और बढ़ जाता है। 

“फिलहाल, हंगुल संरक्षण के लिए सबसे महत्वपूर्ण पहलू नर से मादा और फॉन से मादा अनुपात के असंतुलन को बहाल करना होगा। लेकिन यह करना मुश्किल है। हंगुल जंगल में मुश्किल से दिखता है, ऐसे में इनका अवलोकन कर आंकड़े इकट्ठा करना शोधकर्ताओं के लिए एक चुनौती है,” गुप्ता कहते हैं।

इसलिए हर दो साल में जनगणना कराना जरूरी हो जाता है। निरंतर और नियमित जनसंख्या निगरानी ही एकमात्र तरीका है जिससे शोधकर्ता और वैज्ञानिक एक ऐसी प्रजाति के बारे में सामान्य जानकारी पा सकें।

गंभीर रूप से लुप्तप्राय हंगुल का संरक्षण एक मुश्किल काम है। उनतक पहुंचना एक चुनौती है। तस्वीर- नदीम हसन / विकिमीडिया कॉमन्स
गंभीर रूप से लुप्तप्राय हंगुल का संरक्षण एक मुश्किल काम है। उनतक पहुंचना एक चुनौती है। तस्वीर- नदीम हसन / विकिमीडिया कॉमन्स

ताजा गणना वन विभाग के 350 कर्मचारी, विद्यार्थी और गैर सरकारी संगठनों से जुड़े कार्यकर्ताओं के द्वारा की गई थी। वन्यजीव अधिकारियों ने मीडिया को बताया गया कि गणना की अंतिम रिपोर्ट से इस जीव के नर और मादा का अनुपात तथा इनकी आबादी कब तक जीवित रहेगी, आदि के बारे में विस्तृत पता चलेगा।

संरक्षण का काम जारी 

हंगुल के संरक्षण को लेकर बेहद जरूरी प्रयास किए जा रहे हैं। एक परियोजना के तहत शेर-ए-कश्मीर कृषि विज्ञान और प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय ने यू.एस. के स्मिथसोनियन इंस्टीट्यूशन के वैज्ञानिकों के साथ मिलकर संरक्षण प्रजनन, संरक्षण आनुवंशिकी और सामुदायिक विकास की दिशा में काम कर रही है। उनकी योजना जंगलों से हंगुल को पकड़कर इंसानी देखरेख में उनका प्रजनन कराया जाता है। 


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गुप्ता कहते हैं, “कई चुनौतियां हैं जिन्हें तत्काल ठीक करने की जरूरत है। आवारा कुत्तों पर नियंत्रण करने की जरूरत है जो कि अक्सर हंगुल का शिकार करते हैं।  बाघ के लिए बने गलियारों की तर्ज पर हंगुल गलियारा भी बनाया जा सकता है ताकि ये घास के मैदानों तक पहुंच सकें और स्वतंत्र रूप से चर सकें।”

हंगुल कश्मीर का राज्य पशु रहा है और कुछ संकेत दिख रहे हैं कि जानवर अपने पहले के निवास स्थान पर लौट रहा है। पिछले साल मध्य कश्मीर के गांदरबल में लगभग 6 से 8 हिरणों का एक जंगली झुंड देखा गया था।

 

बैनर तस्वीर: हंगुल का झुंड। तस्वीर– ताहिरशॉल/विकिमीडिया कॉमन्स

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