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[कॉमेंट्री] बीते सदी में वन अधिकार को लेकर बदलता नजरिया और उससे जूझते लोग

मध्यप्रदेश के पन्ना जिले में जंगल से सटे गांव के खेत। ऐसे गांव में किसान पुश्तों से खेती करते आ रहे हैं, लेकिन वनाधिकार कानून के ठीक से लागू न होने की वजह से उनके अधिकार छिनने का खतरा है। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे

मध्यप्रदेश के पन्ना जिले में जंगल से सटे गांव के खेत। ऐसे गांव में किसान पुश्तों से खेती करते आ रहे हैं, लेकिन वनाधिकार कानून के ठीक से लागू न होने की वजह से उनके अधिकार छिनने का खतरा है। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे

  • कोरोना ने समाज के सभी पक्षों को कमजोर बनाया। समाज के सबसे कमजोर तबकों के लिए यह समय बहुत कठिन रहा। इनको लेकर प्रशासन और समाज के मजबूत तबके के तौर-तरीके भी उजागर हुए।
  • वनों और उनके आस-पास रहने वाले समुदाय को न केवल वो सारी समस्याएं झेलनी पड़ी जो समाज के अन्य हिस्से झेल रहे थे। बल्कि इसी दौरान उन्हें विस्थापन का डर भी सता रहा था।
  • आदिकाल से वनों में रहने वाला यह तबका करीब एक सदी से प्रशासन के बदलते परिभाषाओं और शब्दावली का शिकार होता रहा है।

कोविड-19 के दौरान न्यायालय ने स्पष्ट आदेश दिया था कि जब तक कोरोना है तब तक लोगों उनके रहवास से बेदखल नहीं किया जाए। उदाहरण के लिए जबलपुर उच्च न्यायालय द्वारा 23 अप्रैल 2021 को ऐसा आदेश दिया गया था। फिर भी लोगों को बेदखल किया जाना जारी रहा। 

ऐसे समय में अनायास ही यह बात जेहन में आती है कि सदियों से कैसे देश के वन क्षेत्र में रहने वाले देशवासियों से कैसा बर्ताव किया जा सके। जंगलों में, जंगलों के आस-पास, वन भूमि बतलायी जाने वाली ज़मीनों पर बसे लोगों/समुदायों के जीवन में कालक्रम में कुछ शब्दों की अहम भूमिका है। इन शब्दों ने उनकी नियति तय की है। सबसे पहले जंगल में बसे आदिवासी और गैर समुदायों को जंगल की ज़मीनों पर ‘क़ाबिज़’ होना बतलाया गया। इसके बाद इन्हें ‘अतिक्रमणकारी’ बतलाया जाने लगा। फिर ‘अवैध-अतिक्रमणकारी’ बतलाया गया। एक मुकाम पर आकर स्वयं वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने माना कि इनके साथ ‘ऐतिहासिक रूप से अन्याय’ हुए हैं। ये इस अन्याय के ‘उत्पीड़ित समुदाय’ हैं। इसके बाद इन्हें बजाफ़्ता उन जंगलों और जंगलों के तमाम संसाधनों मसलन, ज़मीन, वनोपज, गौड़ खनिज और पानी के स्रोतों आदि का ‘संरक्षक और दावेदार’ बतलाया गया। 

दूर कहीं पीछे चलें   

1864 से ब्रिटिश शासन द्वारा जब विधिवत भारतीय वन विभाग की स्थापना हुई और 1927 में भारतीय वन कानून लागू हुआ तब से जंगल में बसे लोगों की नियति स्थानीय परिस्थितियों से नहीं बल्कि शासकों पर निर्भर हो गयी। 25 अक्टूबर 1980 से अमल में आए भारतीय वन संरक्षण कानून का पूरा ज़ोर वन संरक्षण पर रहा और ऐसे में जंगलों में निवासरत आदिवासी और अन्य समुदायों को मुकम्मल तौर पर जंगलों का शत्रु साबित किया जाने लगा। हालांकि कुछ राज्यों में मसलन मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र  ने इस कानून के लागू होने से पहले अपने यहां जंगलों में बसे समुदायों को अस्थायी पट्टे खेती के लिए जारी किए थे जो यथावत बने रहे। महाराष्ट्र में डाली भूमि पर बसे कतकरी आदिवासी समुदायों और मध्य प्रदेश में अधिक अन्न उपजाओ अभियान के तहत पट्टे आवंटित किए गए। 

मध्य प्रदेश के बड़वानी के आदिवासी। जनजाति कार्य मंत्रालय के हवाले से मध्य प्रदेश में व्यक्तिगत दावों की कुल संख्या 5 लाख 76 हजार है जो पिछले पांच सालों से लगभग अपरिवर्तित है। तस्वीर- महिपाल मोहन
मध्य प्रदेश के बड़वानी के आदिवासी। जनजाति कार्य मंत्रालय के हवाले से मध्य प्रदेश में व्यक्तिगत दावों की कुल संख्या 5 लाख 76 हजार है जो पिछले पांच सालों से लगभग अपरिवर्तित है। तस्वीर- महिपाल मोहन

1988 में बनी नयी वन नीति ने पहली बार इन समुदायों और जंगलों के साथ उनके रिश्ते को मान्यता दी। इस नीति में पहली बार यह माना गया कि जंगलों और उसमें बसे समुदायों के बीच अन्योन्याश्रित संबंध हैं।

25 अक्टूबर 1980 से पहले की स्थिति और नई वन नीति के संदर्भ में वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने 18 सितंबर 1990 को गाइडलाइंस जारी कीं। इन गाइडलाइंस में जंगल में बसे लोगों के निस्तारी व खेती करने की चली आ रही सहूलियतों को बरकरार रखा गया। हालांकि इनमें पात्र और अपात्र दावेदारों को लेकर जो कसौटी बनाई गयी वह बहुत अस्पष्ट थी। 

1995 में इन जंगल निवासियों के जीवन में एक नया मोड़ आया। उनके सामने नयी और पहले ज़्यादा विकराल चुनौती आई। तमिलनाडु के गोदाबर्मन थिरुमुलपाद ने सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की। इसमें कहा गया कि स्थानीय लोग जंगल को बुरी तरह नुकसान पहुंचा रहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने इस याचिका पर गंभीरता से संज्ञान लिया और उनकी याचिका 202/1995 के मामले में एमिकस क्यूरी की नियुक्ति की। 23 नवंबर 2001 को इस मामले में नियुक्त एमिकस क्यूरी ने समस्त राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों में वन भूमि पर ‘अवैध अतिक्रमण’ के संबंध में एक आवेदन दिया। इस आवेदन के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय ने 18 फरवरी 2002 को एक आदेश जारी किया। इस आदेश में सर्वोच्च न्यायालय ने समस्त राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों से स्पष्ट रूप से यह पूछा कि- “उन्होंने इस अवैध अतिक्रमण को हटाने के लिए क्या क्या कदम उठाए हैं?” 

तत्कालीन वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने इस आदेश की जो व्याख्या की, वह विवाद का विषय रहा है। इस आधार पर मंत्रालय ने 3 मई 2002 को एक आदेश जारी किया कि “सर्वोच्च न्यायालय ने अवैध अतिक्रमण को तत्काल हटाने के लिए कहा है”। 

2002 में वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने माना कि तमाम राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों में लगभग 12.50 लाख हेक्टेयर वन भूमि पर अवैध अतिक्रमण है। इस अतिक्रमण को 1990 की गाइडलाइंस के अनुसार अवैध माना गया। 

इस आदेश ने पूरे देश में वन-विभाग को बर्बर कार्यवाहियों के लिए जैसे लाइसेन्स दे दिया। इस दौरान वन विभाग ने स्थानीय पुलिस प्रशासन के साथ मिलकर जंगलों में बसे आदिवासियों और गैर-आदिवासियों को बेरहमी से उत्पीड़न की सैकड़ों घटनाओं को अंजाम दिया। इसके बाद देश भर के आदिवासी इलाकों से लोगों ने आवाज़ उठाना शुरू किया। 

तेंदू यानी डायोसपायरस मेलेनोक्ज़ायलोन के पत्तों का उपयोग बीड़ी बनाने के लिए किया जाता है। तस्वीर- आलोक प्रकाश पुतुल
तेंदू यानी डायोसपायरस मेलेनोक्ज़ायलोन के पत्तों का उपयोग बीड़ी बनाने के लिए किया जाता है। आदिवासियों के लिए यह एक प्रमुख वनोपज है। तस्वीर- आलोक प्रकाश पुतुल

16 सितंबर 2004 को लोकसभा में पूछे गए एक सवाल के जबाव में वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने बताया कि मई 2002 से लेकर मार्च 2004 तक 1,52,400 हेक्टेयर वन भूमि से अवैध अतिक्रमण हटा लिया गया है। 2002 में अनुमानित रूप से बताए गए 12.50 लाख हेक्टेयर वन भूमि का दायरा भी इस जवाब में बढ़ गया और बताया गया कि 13.43 लाख हेक्टेयर वन भूमि पर अतिक्रमण में से 3,65,670 हेक्टेयर ज़मीन पर चले आ रहे अतिक्रमण को विभिन्न राज्य सरकारों ने 1990 की गाइडलाइंस के मुताबिक नियमतिकरण की प्रक्रिया कर ली है। 

फरवरी 2004 में, आम चुनावों की घोषणा से ठीक पहले, तत्कालीन राजद सरकार ने दो आदेश जारी किए। पहला आदेश वन ग्रामों को राजस्व ग्रामों में तब्दील करने का था और दूसरा आदेश 31 दिसंबर 1993 से पहले जंगलों में बसे लोगों के अधिकारों का नियमितीकरण करने का था। हालांकि 31 दिसंबर 1993 की ‘कट ऑफ डेट’ का कोई तार्किक आधार नहीं था क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय ने 1980 से पहले बसे लोगों के अधिकारों के नियामितिकरण की ही इजाजत दी थी। 

अतिक्रमण और नियमितीकरण के बीच एक बड़ा पड़ाव 21 जुलाई 2004 को आया। इस समय देश में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार सत्ता में आ चुकी थी। इस सरकार के न्यूनतम साझा कार्यक्रम के तहत आदिवासियों व अन्य समुदायों को उनके हक़ दिये जाने के लिए प्रतिबद्ध्त्ता जताई गयी थी। 

21 जुलाई 2004 को वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने सर्वोच्च न्यायालय में चल रहे गोदबर्मन केस में एक  हलफनामा दिया और स्वीकार किया कि “आदिवासियों के जंगलों पर परंपरागत अधिकारों को नियमित करने की दिशा में सरकारों की विफलताओं की वजह से जंगल में बसे समुदायों के साथ ऐतिहासिक अन्याय हुए हैं।” और यह मंशा जताई कि इस ऐतिहासिक समस्या का स्थायी समाधान होना चाहिए।

मध्यप्रदेश के पन्ना टाइगर रिजर्व से सटे गांव में महुआ का फल (गुली) इकट्ठा करती एक आदिवासी महिला। सामुदायिक वन अधिकार न मिलने की वजह से ग्रामीणों को जंगल जाकर वनोपज इकट्ठा करने में परेशानी आती है। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे
मध्यप्रदेश के पन्ना टाइगर रिजर्व से सटे गांव में महुआ का फल (गुली) इकट्ठा करती एक आदिवासी महिला। सामुदायिक वन अधिकार न मिलने की वजह से ग्रामीणों को जंगल जाकर वनोपज इकट्ठा करने में परेशानी होती है। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे

इस हलफनामे के बाद, सालों से चले रहे अवैध अतिक्रमण और बेदखली की कार्यवाहियों को ऐतिहासिक अन्यायों की स्वीकृति से एक नया नज़रिया मिला। 3 नवंबर 2005 को वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने अपनी 1990 की गाइडलाइंस को विस्तार देते हुए इसमें कई और अधिकार जोड़े और राज्यों से इसे अपनाने को कहा। इन संशोधित गाइडलाइंस में एक मुकम्मल प्रक्रिया और संरचना भी बनाई गयी। 

2006 में अंतत: वन अधिकार(मान्यता) कानून संसद ने पारित कर दिया। जिसमें भी ‘ऐतिहासिक अन्याय’ ‘अन्योन्याश्रित संबंध’ और ‘सामुदायिक अधिकारों’ को प्रमुखता से स्वीकार किया गया। 

इस तरह एक लंबे कालखंड में जंगल, जंगल के संरक्षण, वन्य प्राणियों के संरक्षण, जैव विविधता के संरक्षण से होते हुए जंगल में बसे लोगों के हक़ हुकूक उनके सुपुर्द करने का रास्ता भी साफ हो गया। 


और पढ़ेंः [कॉमेंट्री] मार्फत कामोद सिंह गोंड, मध्य प्रदेश में वन अधिकारों की जमीनी सच्चाई


मध्य प्रदेश: 13 सालों की प्रगति के आंकड़े क्या कहते हैं? 

एक मध्य प्रदेश के उदाहरण से इस 13 साल की यात्रा को समझा जा सकता है। जनजाति कार्य मंत्रालय के हवाले से मध्य प्रदेश में व्यक्तिगत दावों की कुल संख्या 5 लाख 76 हजार है जो पिछले पांच सालों से लगभग अपरिवर्तित है। इनमें से 1 लाख 56 हज़ार दावों को निरस्त होना बतलाया गया है। इन्हीं दावों की जांच वनमित्र एप के माध्यम से राज्य सरकार ने कारवाई थी लेकिन बाद में अधिकांश मामलों में (दमोह जिले के संदर्भ में) इन्हें यह बतलाया जा रहा है कि उनके दावे निरस्त हो चुके हैं लेकिन उनके पास अगर (निश्चित संख्या) में प्रमाण हों तो संलग्न करें। 

क्षेत्रफल और जनसंख्या की दृष्टि से बड़े राज्य मध्य प्रदेश में 2011 की जनगणना के अनुसार आदिवासियों की जनसंख्या कुल आबादी (7. 62 करोड़) का 21.1 प्रतिशत यानी 1.531 करोड़ है। 

2012 से जनजाति कार्य मंत्रालय के मंत्री के.सी. देव ने वनाधिकार कानून के क्रियान्वयन की मासिक प्रगति रिपोर्ट सभी राज्यों से मंगवाना शुरू किया। 2012 से अगर दावों का जायज़ा लें वह इस बात की तस्दीक करते हैं कि इस कानून के क्रियान्वयन को लेकर कितनी सुस्ती बरती गयी। जनजाति कार्य मंत्रालय की वेबसाइट पर उपलब्ध आंकड़ों को देखें तो स्थिति और स्पष्ट होती है।

स्रोत- जनजाति कार्य मंत्रालय की वेबसाइट
स्रोत– जनजाति कार्य मंत्रालय की वेबसाइट

6 जुलाई 2021 को भारत सरकार के दो मंत्रालयों क्रमश: वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रलाय व जनजती कार्य मंत्रालय ने संयुक्त रूप से एक आदेश जारी किया जिसे ‘ज्वाइंट कम्यूनिकेशन’ कहा गया। इस ज्वाइंट कम्यूनिकेशन के माध्यम से आदिवासियों के संरक्षक माने गए जनजाति कार्य मंत्रालय की हैसियत को बेहद कम कर दिया गया है और वन अधिकार कानून के क्रियान्वयन में वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की भूमिका को असीमित रूप से बढ़ा दिया गया है। 

वन एप मित्र के बहाने वन अधिकार कानून के क्रियान्वयन की यान्त्रिकी जिस तरह मध्य प्रदेश की सरकार ने बदला था उसे अब संघीय स्तर पर वैधता मिल चुकी है। ऐसे में एक कहानी जो क़ाबिज़, अतिक्रमणकारी, अवैध अतिक्रमणकारी, बेदखली से होते हुए ऐतिहासिक अन्याय से उत्पीड़न, और फिर संरक्षक, दावेदार के रूप में जंगल में बसे लोगों को मान्यता देने तक पहुंची अब वह पुन: खुद को शुरू से दोहरा रही लगती है। अब फिर विमर्श और कार्यवाहियों के केंद्र में दावों का निरस्त होना, अपात्र होना और बेदखली की मनमर्जी कार्यवाहियों तक पहुंच चुकी है। ऐतिहासिक अन्यायों का सिलसिला इन लोगों के जीवन में बदस्तूर जारी है। 

 

बैनर तस्वीरः मध्यप्रदेश के पन्ना जिले में जंगल से सटे गांव के खेत। ऐसे गांव में किसान पुश्तों से खेती करते आ रहे हैं, लेकिन वनाधिकार कानून के ठीक से लागू न होने की वजह से उनके अधिकार छिनने का खतरा है। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे

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