Site icon Mongabay हिन्दी

नदियां कैसे बन गई प्लास्टिक कचरे की हाइवे, हरिद्वार, आगरा और प्रयागराज में हुआ सर्वे

  • गंगा और उसकी सहायक नदियां प्लास्टिक कचरे से पटी हुई हैं। नदी के सहारे यह कचरा समुद्र में जा मिलता है।
  • अध्ययनकर्ता गंगा के अलावा दूसरी नदियों और तालाबों में प्लास्टिक की मौजूदगी पर अध्ययन कर रहे हैं। यहां के पानी में माइक्रोप्लास्टिक (पांच मिलीमीटर से कम) की मौजूदगी का पता चल रहा है।
  • मछली पकड़ने के काम में प्लास्टिक से बने जाल और दूसरे उपकरणों की मदद ली जाती है जो कि जलस्रोतों में प्लास्टिक प्रदूषण की एक बड़ी वजह है।

गंगा नदी में प्लास्टिक कचरे के स्रोत को समझने के लिए हाल ही में उत्तर भारत के तीन शहरों में एक सर्वे किया गया। इससे सामने आया कि 10 से 25 फीसदी प्लास्टिक कचरा न रिसाइकल होता है न ही उसका सही तरीके से निपटारा होता है। 

यह कचरा शहर के प्रमुख स्थानों पर फेंका जाता है जो कि मॉनसून की बारिश के साथ बहकर नदियों में जा मिलता है। नदियां, इन कचरों को बहाकर समुद्र तक ले जाती हैं, या यूं कहें कि ये नदियां प्लास्टिक कचरा ढोने के लिए हाइवे की भूमिका निभाती हैं। 

इस कचरे में प्लास्टिक के पैकेट, बोतल, चम्मच, नायलॉन के बोरे और पॉलीथिन बैग वगैरह शामिल हैं। हाल ही में इसको लेकर एक अध्ययन सामने आया है। 

समस्या के समाधान के लिए यूनाइटेड नेशन्स एनवायरनमेंट प्रोग्राम (यूनेप) ने जापान के साथ मिलकर 2020 में एक परियोजना शुरू की जिसका उद्देश्य एशिया और इससे जुड़े समुद्र में कचरे के स्रोत को खोजना था।  परियोजना को विशेष तौर से गंगा पर केंद्रित किया गया।

गंगा नदी तट पर बसे शहर हरिद्वार, आगरा और प्रयागराज के किनारे प्लास्टिक प्रदूषण के स्रोत की पड़ताल की गई। शहर के उन इलाकों की पहचान की गई जहां कचरे का अंबार लगा रहता है और वहां से नदी में उसके बहने की आशंका अधिक रहती है।

भारत में एक नदी तट पर प्लास्टिक का कचरा। तस्वीर- पीजेगनाथन / विकिमीडिया कॉमन्स
भारत में एक नदी तट पर प्लास्टिक का कचरा। तस्वीर– पीजेगनाथन / विकिमीडिया कॉमन्स

हरेक शहर में जमीनी सर्वे की मदद के साथ भौगोलिक आंकड़ों के लिए जियोग्राफिकल इंफॉर्मेशन सिस्टम (जीआईएस) की मदद ली गई। इससे इलाके में इंसानों द्वारा जमीन के इस्तेमाल का तरीका और पानी के बहाव के आंकड़े इकट्ठा किए गए। इस आधार पर नेशनल प्रोडक्टिविटी काउंसिल (एनपीसी) ने यूनेप के साथ मिलकर एक रिपोर्ट प्रकाशित की।

सर्वे के बाद कचरे के साफ करने का अभियान भी चलाया गया और इस दौरान एकत्रित किए आंकड़ों से शहरों में कचरे के लिहाज से प्रमुख स्थलों की पहचान भी की गई। 

सफाई अभियान के दौरान कचरे के प्रकार का भी पता चला।

“हरेक सफाई अभियान के लिए चालीस से पचास कार्यकर्ताओं और नगर निगम के सफाई कर्मचारियों की मदद ली गई। वे पूरे दिन कचरा इकट्ठा करते फिर उसका वर्गीकरण करते। कचरे के नमूनों की लैब में जांच की जाती,” यूनेप के इस परियोजना में बतौर प्लास्टिक प्रदूषण कंसलटेंट और टेक्निकल एनालिस्ट के रूप में कार्यरत अमित जैन ने बताया। 

एनपीसी टीम के एक सदस्य ने कहा कि साफ-सफाई अभियान वैज्ञानिक तरीके से स्पष्ट रूप से चिन्हित स्थानों पर आयोजित किए गए थे। इसमें शामिल लोगों को नई जानकारियां भी हासिल हुईं। उन्होंने कहा, “यमुना नदी के पास आगरा में हमारे एक सफाई अभियान में एकत्र किए गए कचरा को रखने के लिए हमें 40-50 बारदानों की जरूरत पड़ी थी” 

हरिद्वार, उत्तराखंड का दूसरा सबसे बड़ा शहर है। यहां नियमित रूप से लगभग 11 टन प्लास्टिक कचरा इकट्ठा होता है। परियोजना के दौरान सर्वे में पाया गया कि हिंदू धर्म के एक पवित्र स्थान के रूप में माना जाने वाले इस शहर में त्योहारों के दौरान प्लास्टिक कचरे की मात्रा दोगुने से अधिक हो जाती है। इस प्लास्टिक कचरे में से अधिकांश को या तो सीधे गंगा के घाटों पर फेंक दिया जाता है। इसके अलावा कचरे को अवैध रूप से खाली जगहों पर फेंक दिया जाता है। परियोजना ने हरिद्वार में 17 रिसाव वाले हॉटस्पॉट की पहचान की, जिनमें खाली प्लॉट, झुग्गी-झोपड़ी, खुले नालों वाले क्षेत्र और बैराज शामिल हैं। रिसाव वाले हॉटस्पॉट का मतलब वे क्षेत्र जहां से बहकर कचरा नदी में पहुंच जाता है।

हरिद्वार में नियमित रूप से लगभग 11 टन प्लास्टिक कचरा उत्पन्न होता है। तस्वीर- विज़ एम/विकिमीडिया कॉमन्स
हरिद्वार में नियमित रूप से लगभग 11 टन प्लास्टिक कचरा उत्पन्न होता है। तस्वीर– विज़ एम/विकिमीडिया कॉमन्स

पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश के आगरा शहर में 9 ऐसे हॉटस्पॉट चिन्हित किए गए हैं जहां से अनुमानित 10-30 टन प्लास्टिक कचरा यमुना नदी में जाता है। यमुना गंगा की एक प्रमुख सहायक नदी है। ऐसा लगता है कि ज्यादातर रिसाव नदी के किनारे की झुग्गियों से होता है जहां कचरा संग्रह करने की सुविधा दुरुस्त नहीं है। ऐसे इलाकों में प्लास्टिक कचरा खुली नालियों के माध्यम से नदी में प्रवेश करता है। नदी में प्लास्टिक की मात्रा में सबसे अधिक पतले प्लास्टिक की चादरें पाई गईं, जो कि मिठाई की दुकानों में उपयोग की जाती हैं। यह औद्योगिक क्षेत्र से सिंथेटिक चमड़े और फुटवियर उद्योग से सिंथेटिक रबर के टुकड़े के रूप में भी आता है।

वहीं, आगरा से लगभग 500 किलोमीटर दूर प्रयागराज में प्रतिदिन लगभग आठ टन प्लास्टिक कूड़े का भूमि और नदी के पारिस्थितिकी तंत्र में रिसाव होने का अनुमान है। इसमें से अधिकांश घरेलू प्लास्टिक कचरा है जिसे अक्सर खुले क्षेत्रों में फेंक दिया जाता है। ये खुले क्षेत्र अक्सर बाढ़ वाले इलाके होते हैं जहां से बारिश के पानी के साथ कचरा नदी में जा मिलता है। प्रयागराज में बाढ़ वाले इलाके इन दोनों शहरों से अधिक हैं। शहरे की सीमा में ऐसे 100 हॉटस्पॉट चिन्हित किए गए हैं जहां से कचरा नदी में समाता है। 

प्लास्टिक सूप में बदल रहे विश्व के जलस्रोत

प्लास्टिक अब पृथ्वी पर लगभग हर महासागर, समुद्र, नदी, वेटलैंड और झील में पाया जाता है। स्विट्ज़रलैंड में अल्पाइन झील सासोलो जैसे दूरदराज के इलाके भी प्लास्टिक से दूषित हो गए हैं। इन इलाकों की खासियत यह है कि यह मानव निवास से सैकड़ों किलोमीटर दूर हैं।

महासागरों में प्लास्टिक की पहली रिपोर्ट का पता 1965 में लगाया गया था। तब प्लवक (समुद्र की धारा के साथ तैरने वाले जीव) की निगरानी के लिए धातु का बक्सा इस्तेमाल किया जाता था। इस बक्से में आयरलैंड के तट से एक प्लास्टिक बैग गुम हो गया था। हालांकि, 1997 में ग्रेट पैसिफिक गारबेज पैच की खोज के साथ समुद्री प्लास्टिक कूड़े का मुद्दा वास्तव में सुर्खियों में आया। यह पैच 1.6 मिलियन वर्ग किलोमीटर में फैला है। 

शोध से पता चला है कि नदियां हाइवे की तरह हैं जो 0.4-4 मिलियन मीट्रिक टन प्लास्टिक को इंसानी आबादी से महासागरों में ले जाती हैं।

इस साल अप्रैल में प्रकाशित एक हालिया अध्ययन में कहा गया है कि लगभग 1000 नदियां समुद्र में बहने वाली तमाम प्लास्टिक कचरे का 80% के लिए जिम्मेवार हैं। जबकि 2018 के शोध ने दुनिया की दस सबसे बड़ी नदियों को शीर्ष प्लास्टिक अपशिष्ट वाहक के रूप में पहचाना – जिसमें भारत से सिंधु, ब्रह्मपुत्र और गंगा शामिल हैं। यह नया अध्ययन एक अधिक जटिल तस्वीर पेश करता है। इससे पता चलता है कि छोटी नदियां जो भारी आबादी वाले क्षेत्रों से होकर गुजरती हैं, अक्सर बड़ी नदियों की तुलना में अधिक प्लास्टिक ले जा सकती हैं।

केरल के कन्नूर जिले में नदी के मुहाने पर मैंग्रोव के दलदल में मौजूद प्लास्टिक कचरा। तस्वीर- एस गोपीकृष्ण वारियर / मोंगाबे
केरल के कन्नूर जिले में नदी के मुहाने पर मैंग्रोव के दलदल में मौजूद प्लास्टिक कचरा। तस्वीर- एस गोपीकृष्ण वारियर / मोंगाबे

शोध ज्यादातर महासागरों में प्लास्टिक प्रदूषण पर केंद्रित है। ताजे जल निकायों पर शोध कम हुआ है, नतीजतन इस बारे में बहुत कम जानकारी है कि प्लास्टिक कैसे नदियों तक पहुंचता है। 

2018-2019 में गंगा में बहने वाली प्लास्टिक की मात्रा का आंकलन करने के लिए भारत और बांग्लादेश में वैज्ञानिकों और इंजीनियरों ने एक शोध किया था। नेशनल जियोग्राफिक सोसायटी के सहयोग से सी टू सोर्स- गंगा रिवर एक्पोडिशन नामक परियोजना को पूरा किया गया। 

गंगा में मैक्रोप्लास्टिक और माइक्रोप्लास्टिक

प्लास्टिक कूड़े के अलावा, गंगा में प्लास्टिक प्रदूषण का एक अन्य स्रोत मछली पकड़ने के उपकरण हैं। मछली पकड़ने में प्रयोग किया जाने वाला जाल उपयोग के बाद फेंक दिया जाता है। कई बार ये जाल खो जाते हैं जिसे घोस्ट नेस्ट या भूतिया जाल भी कहते हैं। इस तरह के प्लास्टिक प्रदूषण की बड़ी वजह हैं। 

मछली पालन से नदी के प्लास्टिक प्रदूषण पर 2020 के एक अध्ययन में बांग्लादेश तट से भारत में हिमालय तक गंगा जल का नमूना लिया गया। समुद्र के पास मछली पकड़ने के उपकरणों को भारी मात्रा में पाया गया। यह संभवतः मछली पकड़ने की गतिविधि के बढ़ने और इन क्षेत्रों में इन उपकरणों के बहकर आने का संकेत है। अबतक यह पता चल चुका है कि जाल, रस्सी, स्ट्रिंग, फ्लोट्स और लाइन, जिसमें मछली पकड़ने के उपकरण गंगा के डॉल्फ़िन, कछुए और ऊदबिलाव जैसे मीठे पानी के जानवरों को उलझा सकते हैं जिससे उनकी जान भी जा सकती है। 

नदी में कचरा पहुंचाने वाले स्थानों का विश्लेषण कर जो जानकारी हासिल हुई है वह काफी कम है। यह अध्ययन सिर्फ मैक्रोप्लास्टिक की जानकारी देता है। मैक्रोप्लास्टिक का आकार में 5 मिमी से अधिक होता है जिसे आमतौर पर नंगी आंखों से देख सकते हैं। 


और पढ़ेंः प्लास्टिक प्रदूषण रोकने के लिए रिसाइकल के साथ प्लास्टिक निर्माताओं की जिम्मेदारी भी करनी होगी तय


मैक्रोप्लास्टिक हर साल लाखों जलीय जानवरों को उलझाता है, गला घोंटता है और मार डालता है। समुद्र की सतह पर तैरने वाले मैक्रोप्लास्टिक सतह के तापमान और पानी के गुणों को भी प्रभावित कर सकते हैं और उनके माध्यम से अप्रत्याशित जलवायु परिवर्तन प्रभाव पैदा कर सकते हैं। इन प्रभावों के अलावा, मैक्रोप्लास्टिक्स, छोटे टुकड़ों में विभाजित होकर और भी समस्याएं पैदा करते हैं। इन छोटे छोटे टुकड़ों को माइक्रोप्लास्टिक्स के रूप में जाना जाता है। 

माइक्रोप्लास्टिक कण आकार में 5 मिमी से छोटे होते हैं और या तो मैक्रोप्लास्टिक विघटन से उत्पन्न होते हैं या माइक्रोबीड्स (आकार में 1 मिमी से कम) के रूप में निर्मित होते हैं जिनका उपयोग बायोमेडिकल उपकरणों और फेस वाश, स्क्रब और टूथ पेस्ट जैसे जरूरत की चीजों में किया जाता है।

हालांकि, प्लास्टिक के इन महीन टुकड़ों का बड़ा प्रभाव पड़ता है। माइक्रोप्लास्टिक्स अक्सर एंटीबायोटिक प्रतिरोध की वजह भी बनते हैं।

 

बैनर तस्वीर: यमुना नदी में तैरते प्लास्टिक कचरा इकट्ठा करता एक आदमी। तस्वीर- कोशी/विकिमीडिया कॉमन्स

 

Exit mobile version