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कॉप-26 और भारत: वैश्विक कार्बन बजट, न्याय की लड़ाई और विकासशील देशों का नेतृत्व

तमिलनाडु स्थित एक ताप ऊर्जा संयंत्र। कोविड-19 महामारी का प्रकोप कम होने पर ऊर्जा जरूरत की पूर्ति के लिए भारत में कोयले की खपत बढ़ी है। तस्वीर- राजकुमार/विकिमीडिया कॉमन्स 

तमिलनाडु स्थित एक ताप ऊर्जा संयंत्र। कोविड-19 महामारी का प्रकोप कम होने पर ऊर्जा जरूरत की पूर्ति के लिए भारत में कोयले की खपत बढ़ी है। तस्वीर- राजकुमार/विकिमीडिया कॉमन्स 

  • पिछले साल कोविड महामारी की वजह से लगे लॉकडाउन के कारण उत्सर्जन में कमी आई थी। हालांकि, ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन फिर से बढ़ रहा है। इसमें चीन का योगदान लगभग एक तिहाई है।
  • भारत ने वर्ष 2070 तक नेट जीरो का लक्ष्य हासिल करने की घोषणा की है। इस कदम के बाद भारत, दुनिया के अमीर देशों से समता के सिद्धांत पर कदम उठाने का दबाव बनाने की स्थिति में आया है। इसकी वजह से भारत, न केवल अपने बल्कि अन्य विकासशील देशों के न्याय के लिए आवाज बुलंद कर सकता है।
  • सिर्फ बचे हुए कार्बन स्पेस पर ध्यान देने की बजाय, भारत को ग्रीन फायनेंस और वैश्विक स्तर तकनीकी के बढ़ते परिदृश्य में एक बड़ा हिस्सा सुनिश्चित करने पर ध्यान देना चाहिए।

कोविड-19 महामारी की वजह से विश्व भर में लगे लॉकडाउन ने कार्बन उत्सर्जन में थोड़ी कमी जरूर की थी। पर वैश्विक अर्थव्यवस्था खुलने के साथ उत्सर्जन भी तेजी से बढ़ा है। हाल ही में आए एक शोध में इसकी चर्चा की गयी है। इस शोध में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन की समस्या इसलिए विद्रुप होती जा रही है क्योंकि सही समय पर नीतिगत कार्यवाहियां नहीं की गईं। दूसरे ग्लोबल वार्मिंग से निपटने के लिए आर्थिक सहयोग नहीं किया गया। इस आर्थिक सहयोग को क्लाइमेट फाइनैन्स कहते हैं। 

ग्लोबल कार्बन प्रोजेक्ट नामक एक रिसर्च समूह ने अपनी 16हवीं रिपोर्ट में पाया कि संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोपीय संघ जैसे प्रमुख उत्सर्जक देश, कार्बन उत्सर्जन के मामले में कोविड-19 से पहले की स्थिति में पहुंच रहे हैं। यानी कोविड-19 महामारी आने से पहले इन देशों में जितना उत्सर्जन होता था, वह स्तर एकबार फिर आ गया है। यह रिपोर्ट ग्लासगो जलवायु शिखर सम्मेलन में पेश की गई। 

भारत में भी कार्बन उत्सर्जन फिर से बढ़ रहा है। वजह है महामारी के कम होते ही अर्थव्यवस्था का पटरी पर लौटना। रिपोर्ट में चीन के लिए कहा गया है कि इसने महामारी के बाद उत्सर्जन में और वृद्धि की है। चीन में ऊर्जा और उद्योगों को रफ्तार देने की वजह से ऐसा हुआ है।

दुनिया भर में लगे कोविड लॉकडाउन के बीच 2020 में जीवाश्म कार्बन उत्सर्जन में 5.4 प्रतिशत की गिरावट आई थी। लेकिन नई रिपोर्ट में 2021 में 4.9 प्रतिशत की वृद्धि की बात की गयी है। 3640 करोड़ टन कार्बन उत्सर्जन। 

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रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में उत्सर्जन 2020 की तुलना में 12.6 प्रतिशत बढ़ने का अनुमान है। यह 2019 यानी माहमारी से पहले की तुलना में 4.4 अधिक होगा। भारत 2021 में कुल 270 करोड़ टन कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन कर सकता है, जो वैश्विक उत्सर्जन का 7 प्रतिशत है।

शोधकर्ताओं ने कहा कि चीन कुल उत्सर्जन के 31 प्रतिशत हिस्सेदारी के लिए जिम्मेदार होगा। इसके बाद अमेरिका वैश्विक उत्सर्जन का 14 प्रतिशत और यूरोपीय संघ 7 प्रतिशत कार्बन, वातावरण में छोड़ेगा। 

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जीवाश्म आधारित अर्थव्यवस्था की ओर

अध्ययन का नेतृत्व करने वाले यूनिवर्सिटी ऑफ एक्ज़ीटर के ग्लोबल सिस्टम्स इंस्टीट्यूट के पियरे फ्राइडलिंगस्टीन के अनुसार दुनिया कोविड से पहले वाली जीवाश्म-आधारित अर्थव्यवस्था की ओर लौट रही है। इस तरह की अर्थव्यवस्था की धूरी जीवाश्म ईंधन जैसे कोयला पर आधारित होती है। 

फ्राइडलिंगस्टीन ने एक बयान में कहा, “महामारी से उबरने के साथ उत्सर्जन में तेजी को देखते हुए जलवायु परिवर्तन को लेकर वैश्विक स्तर पर, तत्काल कार्रवाई की जरूरत है।”

शोधकर्ताओं ने 2022 में उत्सर्जन में और अधिक वृद्धि से इनकार नहीं किया है। उत्सर्जन में वृद्धि हो सकती है अगर सड़क परिवहन और विमान परिचालन महामारी के पहले के स्तर पर वापस आ जाए। साथ ही, अगर कोयले की खपत में कमी नहीं की जाती है तो। 

यह अध्ययन कॉप-26 अंतरराष्ट्रीय शिखर सम्मेलन के दौरान आया जहां वैश्विक नेता मिलकर जलवायु संकट से उबरने के लिए भविष्य का रास्ता तय कर रहे हैं। 


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वैश्विक तापमान वृद्धि को पेरिस समझौते के तहत 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रोकने के लिए दुनियाभर के देशों को और अधिक आक्रामक तरीके से उत्सर्जन रोकना होगा। शोधकर्ताओं का अनुमान है कि पृथ्वी के पास अब महज 4200 करोड़ का कार्बन बजट शेष है। यानी 2022 की शुरुआत से 11 साल के बराबर। 

कार्बन बजट से तात्पर्य वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की वह मात्रा है, जिसके बाद बढ़ने से पृथ्वी का तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक होने लगेगा। 

फ्रिडलिंगस्टीन ने कहा, “2050 तक नेट जीरो उत्सर्जन तक पहुंचने से वैश्विक उत्सर्जन में हर साल औसतन 140 करोड़ टन की कटौती होनी चाहिए।”

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भारत की चिंताएं

ये निष्कर्ष भारत के लिए विशेष रूप से चिंताजनक हैं। भारत के सामने दोहरी चुनौती है। एक तो यहां करोड़ों लोग अभी भी गरीबी रेखा से नीचे हैं। इन्हें गरीबी से बाहर निकालने के लिए आर्थिक विकास जरूरी है। दूसरी तरफ ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन पर लगाम लगाना है। ये दोनों लक्ष्य अपनेआप में विरोधाभासी हैं। 

क्लाइमेट एक्शन नेटवर्क साउथ एशिया (सीएएनएसए) के निदेशक संजय वशिष्ठ ने कहा, “कोविड लॉकडाउन और आर्थिक मंदी भारत के लिए एक मौका है। अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए देश को चाहिए कि स्वच्छ ऊर्जा पर ध्यान दें न की जीवाश्म ईंधन पर।“ 

“सौर और पवन ऊर्जा के विस्तार से न केवल अर्थव्यवस्था पटरी पर आएगी बल्कि लाखों लोग न्यायसंगत बदलाव  का हिस्सा बनेंगे,” उन्होंने कहा। 

पर्यावरण मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि इस अध्ययन के नतीजों से भारत की स्थिति मजबूत होती है। विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के पास बढ़ने के लिए कुछ कार्बन उत्सर्जन का बजट होना चाहिए। उन्होंने कहा, “प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेट जीरो घोषणा ने हमारे इरादे स्पष्ट कर दिए हैं। अब गेंद विकसित देशों के पालें में है कि वे अपने उत्सर्जन में तेजी से कटौती करके जिम्मेदारी से जवाब दें।” 

इंटरनेशनल फोरम फॉर एनवायरनमेंट, सस्टेनेबिलिटी एंड टेक्नोलॉजी (आईफॉरेस्ट) के मुख्य कार्यकारी अधिकारी चंद्र भूषण ने कहा कि अब शायद ही कोई कार्बन स्पेस बचा हो।


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नई दिल्ली स्थित थिंक टैंक काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वॉटर (सीईईडब्ल्यू) के प्रोग्राम एसोसिएट अंकुर माल्यान ने सहमति जताते हुए कहा कि कार्बन स्पेस का कम होना चिंता का विषय बना हुआ है। उन्होंने कहा कि अर्थव्यवस्था के पटरी पर आने के साथ उत्सर्जन में वृद्धि होने की उम्मीद थी।

लगातार कम होते कार्बन बजट के लिए लड़ना अब पुरानी बात हो गई है, भूषण कहते हैं। “अब विकाशशील देशों को वैश्विक ग्रीन फायनेंस और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अपनी हिस्सेदारी तय करने के लिए संघर्ष करना चाहिए,” उन्होंने कहा। 

उन्होंने कहा कि अंतरराष्ट्रीय वार्ता में कार्बन उत्सर्जन में हिस्सेदारी पर चर्चा करने का गंभीर प्रयास कभी नहीं किया गया। भूषण ने कहा, “इक्विटी और कार्बन स्पेस का चैंपियन भारत ग्रीन फायनेंस और प्रौद्योगिकी के विस्तार के क्षेत्र में भी चैंपियन साबित होगा।”

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जलवायु समानता और न्याय की मांग

माल्यान ने कहा, “कम समय के लिए उत्सर्जन बढ़ सकता है। हालांकि नेट जीरो की नई घोषणा से स्पष्ट है कि लंबे समय में इसमें गिरावट को लेकर हम गंभीर हैं। भारत ने हमेशा जलवायु समानता और न्याय के सिद्धांत पर जोर दिया है। हमारी मजबूत स्थिति अब अन्य विकासशील देशों को अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाने का विश्वास दिलाती है।”

भूषण ने कहा, “विकासशील देशों को हरित और सतत विकास के अपने अधिकार की मांग करनी चाहिए।”

सीएएनएसए के वशिष्ठ ने बचे हुए कार्बन बजट पर बारिकी से विचार करते हुए कहा, “जलवायु परिवर्तन का नुकसान दिखने लगा है। ऐसे में वैश्विक कार्बन बजट का उपयोग पहले की तरह प्रासंगिक नहीं रहा।” 

वह आगे कहते हैं, “अब समय जल्द से जल्द नेट जीरो की तरफ जाने और कार्बन उत्सर्जन बजट को बचाए रखने का है।”

ग्लासगो में कॉप 26 आयोजन स्थल से सटे एक पुल पर विरोध प्रदर्शन करता एक आदमी। जलवायु परिवर्तन को रोकने संबंधित बैनर-पोस्टर के साथ ग्लासगो शहर में ऐसे कई प्रदर्शनकारी देखे जा सकते हैं। तस्वीर- सौम्य सरकार
ग्लासगो में कॉप-26 आयोजन स्थल से सटे एक पुल पर विरोध प्रदर्शन करता एक आदमी। जलवायु परिवर्तन को रोकने संबंधित बैनर-पोस्टर के साथ ग्लासगो शहर में ऐसे कई प्रदर्शनकारी देखे जा सकते हैं। तस्वीर- सौम्य सरकार

हाल के दिनों में, जलवायु विशेषज्ञों ने विभिन्न प्रकार के उत्सर्जन के बीच अंतर करने की मांग की है, जिसे “विलासिता (लक्जरी) और “सर्वाइवल (अस्तित्व)” के रूप में बांटा गया है। यह खराब जीवन शैली की वजह से उत्सर्जन और जीने की न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उत्सर्जन के बीच का अंतर है।

उन्होंने कहा कि भारत और अन्य विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तनों के प्रभाव को कम करने और वित्तीय आवश्यकताओं के लिए धनी देशों पर दबाव बनाए रखना चाहिए। वशिष्ठ ने कहा, “भारत को जलवायु परिवर्तन से प्रभावित लोगों के मुद्दे को उठाना जारी रखना चाहिए।”

“अब हम बातचीत का नेतृत्व कर रहे हैं। हम अब दबाव में नहीं रह सकते,” माल्यान ने कहा।

 

बैनर तस्वीरः तमिलनाडु स्थित एक ताप ऊर्जा संयंत्र। कोविड-19 महामारी का प्रकोप कम होने पर ऊर्जा जरूरत की पूर्ति के लिए भारत में कोयले की खपत बढ़ी है। तस्वीर– रामकुमार/विकिमीडिया कॉमन्स 

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