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कॉप-26: बढ़ते प्राकृतिक आपदा के बीच क्या ग्लासगो भी एक खानापूर्ति का मंच बनकर रह जाएगा?

ग्लासगो शहर में चल रहे कॉप 26 शिखर वार्ता के दौरान कई तरह के विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं। ब्ला ब्ला ब्लाह के पोस्टर यहां काफी देखे जा रहे हैं, जिसका अर्थ है सम्मेलन में वैश्विक नेता बे मतलब की बातें कर रहे हैं, जबकि युवा तत्काल जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए कार्रवाई चाहते हैं। तस्वीर- प्रियंका शंकर/मोंगाबे

ग्लासगो शहर में चल रहे कॉप 26 शिखर वार्ता के दौरान कई तरह के विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं। ब्ला ब्ला ब्लाह के पोस्टर यहां काफी देखे जा रहे हैं, जिसका अर्थ है सम्मेलन में वैश्विक नेता बे मतलब की बातें कर रहे हैं, जबकि युवा तत्काल जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए कार्रवाई चाहते हैं। तस्वीर- प्रियंका शंकर/मोंगाबे

  • 1.5 डिग्री सेल्सियस वैश्विक तापमान वृद्धि के लक्ष्य को हासिल करना, ग्लासगो जलवायु शिखर सम्मेलन का अनौपचारिक तौर पर ही सही, पर मुख्य मुद्दा बन गया है। वैसे तो वार्ता दूसरे सप्ताह में पहुंच गयी है पर कुछ ठोस परिणाम आता अभी नहीं दिख रहा है।
  • सम्मेलन के पहले सप्ताह में बहुत सारी घोषणाएं हुई हैं। भारत, 2070 तक नेट ज़ीरो हासिल करने की घोषणा कर चुका है। वन क्षेत्र के विस्तार के साथ-साथ मीथेन के उत्सर्जन को कम करने पर भी सहमति बन गयी है। पर विकासशील देशों से आए राजनयिकों और कार्यकर्ता मानते हैं कि अभी तक कुछ सार्थक हासिल नहीं हो पाया है।
  • इस ग्लासगो शिखर सम्मेलन की सफलता दो मुद्दों पर टिकी है- क्लाइमेट फाइनैन्स और लॉस एण्ड डैमेज। अगर इन दो मुद्दों पर कुछ सहमति बनती है तो पिछड़े और विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन से लड़ने में मदद मिलेगी। ग्लासगो में हो रहे सम्मेलन को कॉप-26 के नाम से भी जाना जाता है।

शनिवार और रविवार को ग्लासगो की सड़कों पर खासा रौनक थी। दुनिया भर से आए हजारों हजार लोग रंगीन पोस्टर, गीत-संगीत, नारेबाजी के माध्यम से कॉप-26 में मौजूद राजनीतिज्ञों, उद्योगपतियों और राजनयिकों से विनाशकारी जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए तत्काल कदम उठाने का आग्रह कर रहे थे। इनकी बात सुनी जाएगी कि नहीं यह संयुक्त राष्ट्र जलवायु शिखर सम्मेलन के इस दूसरे और आखिरी सप्ताह में पता चल जाएगा। 

दुनिया के शीर्ष नेताओं ने इस सम्मेलन के पहले सप्ताह में ढेरों घोषणाएं की हैं। हालांकि विरोध प्रदर्शन में शामिल लोगों का मानना था कि ग्लोबल वार्मिंग को रोकने के लिए कुछ गंभीर प्रयास नहीं किया जा रहा। विकासशील देशों से आए अधिकतर राजनयिक इनकी बातों से सहमत दिखते हैं।  

इस जलवायु शिखर सम्मेलन को कॉप-26 के रूप में भी जाना जाता है। इसकी शुरुआत बड़े जोर शोर से हुई है। कई देशों ने अपने नई राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं की घोषणा की जिसमें उन्होंने अपने भविष्य के प्रयास का लेखा-जोखा दिया। इन प्रयासों से होने वाले ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में सालाना 90,00,000 टन की कमी होगी। कॉप-26 बैठक के दौरान ही एनर्जी ट्रांजिशन कमिशन के द्वारा जारी एक रिपोर्ट में यह बात कही गयी है। विश्व समुदाय को इसके अतिरिक्त सालाना उत्सर्जन में करीब 1,300 करोड़ टन की कमी करनी होगी तब जाकर पृथ्वी के बढ़ते तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस के भीतर रोका जा सकता है। 

उत्सर्जन कम करने की नई प्रतिबद्धताओं में ही भारत का 2070 तक नेट-जीरो का लक्ष्य हासिल करना भी शामिल है। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इस घोषणा ने पूरी दुनिया को चौंका दिया।  अमीर देशों को कम से कम 1 लाख करोड़ अमरीकी डालर का निवेश करना होगा तभी जलवायु संकट से निपटने के प्रयासों में तेजी लायी जा सकती है, मोदी ने क्लाइमेट फाइनैन्स के महत्व पर जोर देते हुए यह मांग रखी। 

ग्लासगो में COP26 स्थल के बाहर प्रदर्शन करते प्रदर्शनकारी। तस्वीर- सौम्य सरकार / मोंगाबे
ग्लासगो में कॉप 26 आयोजन स्थल के बाहर प्रदर्शन करते लोग। तस्वीर- सौम्य सरकार/मोंगाबे

प्रधानमंत्री के इस घोषणा का महत्व समझाते हुए पर्यावरण मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, “करोड़ों लोगों की गरीबी दूर करने के लिए आर्थिक विकास हमारी जरूरत है। बावजूद इसके, भारत ने इतनी बड़ी घोषणा कर के कॉप-26 में अपने नेतृत्व क्षमता का प्रदर्शन किया है। अब अमीर देशों को आगे आने की जरूरत है।” 

वन और मीथेन पर समझौते

कॉप-26 के पहले सप्ताह में उत्सर्जन में कटौती के अतिरिक्त भी बहुत कुछ हुआ। 5 नवंबर को 133 देशों ने मिलकर वन और भू-क्षरण को लेकर भी काम करने का निर्णय लिया। इसके लिए ये देश स्थायी और समावेशी ग्रामीण विकास पर काम करेंगे। 

वन को लेकर हुआ यह समझौता, भारत के प्रयासों के अनुरूप ही था। पर भारत ने खुद को इस समझौते से दूर रखा क्योंकि इसमें वनोपज के व्यवसाय को टिकाऊ बनाने पर जोर दिया गया था। भारत को डर है कि टिकाऊ के नाम पर इस क्षेत्र के विकास में भी कई तरह की बाधाएं खड़ी की जाएंगी। भारत ने हमेशा वैश्विक मंचों पर पर्यावरण से जुड़े व्यापार संबंधित बाधाओं का विरोध किया है।

संयुक्त राष्ट्र ने भी कॉप 26 में मीथेन के उत्सर्जन को कम करने की एक पहल की। मीथेन उत्सर्जन कार्बन उत्सर्जन के मुकाबले कहीं अधिक खतरनाक है। इस पहल में मीथेन उत्सर्जन को 2030 तक 30 फीसदी तक कम करने की बात की गयी है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के कार्यकारी निदेशक इंगर एंडरसन ने एक बयान में कहा, “अगले 25 वर्षों में जलवायु परिवर्तन की गति को धीमा करने का सबसे अच्छा तरीका है मीथेन उत्सर्जन में कटौती करना।”

संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोपीय संघ के नेतृत्व में, 100 से अधिक देशों ने इस प्रयास पर अपनी सहमति जताई। हालांकि चीन, रूस और भारत जैसे प्रमुख उत्सर्जक देशों ने खुद को इससे बाहर रखा। पशुधन से जुड़ी खेती, मीथेन उत्सर्जन का एक प्रमुख कारण है। मीथेन उत्सर्जन में भारत तीसरे स्थान पर है। भारत की विशाल ग्रामीण अर्थव्यवस्था इसका मुख्य कारण है और यहां दुनिया में सबसे अधिक मवेशी मौजूद हैं। 

ग्लासगो शहर के मध्य में स्थित स्कॉटिश इवेंट कैंपस (SEC) में कॉप 26 जलवायु परिवर्तन शिखर सम्मेलन का आयोजन हो रहा है। तस्वीर- सौम्य सरकार/मोंगाबे
ग्लासगो शहर के मध्य में स्थित स्कॉटिश इवेंट कैंपस में कॉप-26 जलवायु परिवर्तन शिखर सम्मेलन का आयोजन हो रहा है। तस्वीर- सौम्य सरकार/मोंगाबे

नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय के अनुसार, देश ने बायोगैस उत्पादन बढ़ाने और मीथेन उत्सर्जन को कम करने के उद्देश्य से राष्ट्रीय नीति बनाई है और इसमें भारी निवेश भी किया है। भारतीय वार्ताकारों ने कहा कि भारत के मीथेन उत्सर्जन को कम करने के समझौते पर सहमत होने का मतलब है लाखों किसानों की आजीविका को खतरे में डालना। 

इसके अतिरिक्त एक और महत्वपूर्ण मुद्दे पर सहमति बनी। कम से कम 23 देशों ने 4 नवम्बर को मिलकर कोयले के इस्तेमाल को खत्म करने का निर्णय लिया। हालांकि यह समझौता विवादों में हैं। इसपर सहमति देने वाले एक महत्वपूर्ण देश इंडोनेशिया ने कहा कि कोयले का इस्तेमाल बंद होना आर्थिक मदद पर निर्भर करता है। इसी तरह पोलैंड ने भी कहा है कि उसे विकासशील देशों की तरह लिया जाए और कोयले के इस्तेमाल को बंद करने के लिए अधिक समय दिया जाए। पोलैंड ने इसके लिए 2040 तक का समय मांगा। अभी यह लक्ष्य 2030 तक हासिल करने की बात की गयी है। 

इस शिखर सम्मेलन की तैयारियों में ‘कोयले को इतिहास की चीज’ बनाने की बात की गयी थी। हालांकि तमाम देशों के सुस्त रवैये से इस मुहिम को धक्का लगा है। खासकर बड़े कोयला-उत्पादक देश जैसे अमेरिका, चीन, ऑस्ट्रेलिया और भारत ने कोयले पर हुए समझौते से खुद को दूर रखा है। 

जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए जरूरी आर्थिक मदद को लेकर संघर्ष

ग्लासगो शिखर सम्मेलन में मौजूद उद्योगपति अपने काम का खूब प्रचार-प्रसार कर रहे हैं कि कैसे उनके द्वारा लिए गए प्रयासों से ग्लोबल वार्मिंग को रोका जा सकता है। दुनिया के कम से कम 40 फीसदी पूंजी को नियंत्रित करने वाले बैंक और ऐसेट मैनेजर ने अपने निवेश में कार्बन उत्सर्जन वाले क्षेत्र से दूर रहने का निर्णय लिया है। 

नेट जीरो के लिए समर्पित ग्लासगो फाइनेंशियल एलायंस ने कहा कि करीब 130 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर से अधिक की निजी पूंजी, अर्थव्यवस्था को नेट जीरो की तरफ ले जाने के लिए तय की गयी है। 3 नवंबर को जारी एक रिपोर्ट में कहा गया है कि करीब 45 देशों में 450 से अधिक संस्थाओं ने अगले तीन दशकों में नेट जीरो  के लक्ष्य के लिए 100 लाख करोड़ अमेरकी डॉलर उपलब्ध कराने का वादा किया है। 

भारत के प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने 01 नवंबर, 2021 को ग्लासगो, स्कॉटलैंड में कॉप 26 में वक्तव्य दिया। तस्वीर- प्रेस सूचना ब्यूरो
भारत के प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने 01 नवंबर, 2021 को ग्लासगो, स्कॉटलैंड में कॉप 26 में वक्तव्य दिया। तस्वीर- प्रेस इंफॉर्मेशन ब्यूरो

सुनने में तो यह रकम बहुत बड़ी लगती है पर जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए पूंजीपतियों की ईमानदारी पर संदेह होता है। ब्लूमबर्ग के आंकड़ों के अनुसार, 2015 के ऐतिहासिक पेरिस समझौते के बाद से, अंतरराष्ट्रीय ऋणदाताओं ने तेल, गैस और कोयले में 4 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर से अधिक का निवेश किया है। इसमें से 50 हजार करोड़ तो अकेले 2021 में निवेश हुआ है। 

जहां तक कॉप-26 की सफलता का सवाल है तो इसके सामने सबसे बड़ी चुनौती है- कार्बन ट्रेडिंग के तरीकों पर सहमति बनना। वार्ता में सक्रिय लोग अभी तक किसी सहमति पर नहीं पहुंच पाएं हैं और इसी आधार पर विकासशील देशों को मिलने वाला 1 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर का सहयोग टिका है। यह बात इंटरनेशनल एमिशन ट्रेडिंग एसोसिएशन की नवीनतम रिपोर्ट में कही गयी है। यह लॉबी करने वाली एक संस्था है। 

एक यूरोपीय देश के एक वार्ताकार के अनुसार, यह कहना जल्दबाजी होगी कि कार्बन उत्सर्जन व्यापार पर होने वाली बातचीत सफल होगी या नहीं। “वैश्विक कार्बन बाजार को लेकर अगर कोई सहमति बनती है तो यही कॉप-26 की असली उपलब्धि होगी,” उस राजनयिक ने नाम न छापने की शर्त पर बताया। 

हालांकि विकासशील देश इससे सहमत नहीं दिखते। बांग्लादेश स्थित इंटरनेशनल सेंटर फॉर क्लाइमेट चेंज एंड डेवलपमेंट के निदेशक सलीमुल हक कहते हैं, “ग्लासगो शिखर सम्मेलन में नुकसान और क्षति पर बातचीत के लिए आधिकारिक तौर पर कोई एजेंडा तय नहीं है। लोग पहले से ही जलवायु संकट के प्रभावों से पीड़ित हैं। इस पर तत्काल ध्यान देने की जरूरत है।”


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अगर अमीर देश उन विकासशील देशों को आर्थिक मदद करने पर सहमति नहीं जताते हैं जो देश जलवायु परिवर्तन से अधिक प्रभावित होंगे, तो इस पूरे सम्मेलन से कुछ खास हासिल नहीं होगा, भारत  से आए एक अधिकारी ने कहा। 

ये सारे राजनयिक ग्लासगो की सड़कों पर प्रदर्शन कर रहे लोगों की मांगों से सहमत दिखते हैं।  क्लाइमेट ऐक्टिविस्ट ग्रेटा थनबर्ग ने बीते सितंबर में मिलान शहर में आयोजित यूथ4क्लाइमेट कॉन्फ्रेंस में कहा था कि इन सम्मेलनों में सिर्फ बाते होती हैं और काम कुछ नहीं होता।   

‘सिर्फ बड़े बड़े शब्द जो सुनने में अच्छे लगते हैं पर उनसे धरातल पर कुछ भी नहीं होता। हमारी उम्मीदों के बदले में सिर्फ कोरे शब्द और वादे परोसे जाते हैं,” थनबर्ग ने कहा था।  

थनबर्ग और ग्लासगो और दुनिया भर में हजारों युवा उत्सुकता से देख रहे हैं कि क्या दुनिया के शीर्ष नेता और वार्ताकार जलवायु आपातकाल को टालने के लिए कुछ ठोस कदम उठाते हैं। यदि ऐसा नहीं होता है तो ग्लासगो भी सिर्फ खानापूर्ति का एक मौका बनकर रह जाएगा।

 

बैनर तस्वीरः ग्लासगो शहर में चल रहे कॉप-26 शिखर वार्ता के दौरान कई तरह के विरोध प्रदर्शन भी हो रहे हैं। तस्वीर- प्रियंका शंकर/मोंगाबे

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