- ग्लासगो समझौता, मानवता पर मंडराते विनाशकारी ग्लोबल वार्मिंग से निपटने के लिहाज से आधा-अधूरा प्रयास माना जाएगा। हालांकि विशेषज्ञ मानते हैं कि यह समझौता सुरक्षित भविष्य की दिशा में बढ़ा हुआ कदम है।
- जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों से निपटने के लिए कमजोर देशों को अमीर देशों का सहयोग नहीं करना, सबसे निराशाजनक रहा। पहले के जलवायु समझौतों में क्लाइमेट फाइनैन्स पर सहमति होने के बावजूद भी अमीर देश अपनी जिम्मेदारी निभाने में हीलाहवाली कर रहे हैं।
- यद्यपि कॉप-26 में शामिल वार्ताकारों ने जलवायु आपदाओं के कारण होने वाले नुकसान और क्षति पर चर्चा की। इससे उन कमजोर देशों में जो जलवायु परिवर्तन का दंश झेल रहे हैं, उनके बीच लॉस एंड डैमेज को लेकर एक उम्मीद जगी थी। पर आखिरी रिपोर्ट में इसको लेकर किसी भी ठोस कार्रवाई का प्रस्ताव नहीं आया।
दो सप्ताह की बातचीत के बाद ग्लासगो में चल रहा संयुक्त राष्ट्र जलवायु शिखर सम्मेलन शनिवार को समाप्त हो गया। आखिर में जो हासिल हुआ उसे आयोजकों ने उपलब्धि बताई तो अन्य लोगों ने इसपर निराशा व्यक्त किया। इन लोगों की शिकायत रही कि जलवायु संबंधित आपात स्थिति से निपटने के लिए जरूरी मुद्दों पर या तो बात नहीं हुई या बस खाना-पूर्ति से काम चला दिया गया। ऐसा ही एक मुद्दा है क्लाइमेट फाइनैन्स।
इस दो सप्ताह की वार्ता में कई बड़े-बड़े मुद्दे उठे और वादे किये गए। ऐसा ही एक खास वादा था भारत का कि यह वर्ष 2070 तक नेट-जीरो का लक्ष्य हासिल कर लेगा। बैठक की शुरुआत में ही भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसकी घोषणा कर सबको चौंका दिया। इससे भारत को, जलवायु परिवर्तन को लेकर अपने प्रयास तेज करने के अंतर्राष्ट्रीय दबाव से, कुछ हद तक राहत मिली।
भारत के पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव ने वार्ता के अंत में एक ब्लॉग लिख कर अपनी बात रखी। उन्होंने लिखा, “शिखर सम्मेलन भारत के दृष्टिकोण से सफल साबित हुआ। क्योंकि हम विकासशील दुनिया का पक्ष स्पष्ट रूप से व्यक्त करने में सफल रहे।”
कॉप-26 यानी ग्लासगो सम्मेलन का एक मुख्य उद्देश्य था कि 2015 में हुए पेरिस समझौते के लक्ष्य को हासिल करने के बाबत कदम उठाए जाएं। पेरिस समझौते में यह लक्ष्य रखा गया था कि पृथ्वी के बढ़ते तापमान को किसी तरह औद्योगिक युग की शुरुआत की तुलना में 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक न बढ़ने दिया जाए। ग्लासगो जलवायु समझौते में “तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के प्रयासों को आगे बढ़ाने का संकल्प लिया गया।”
हालांकि, आलोचक इससे संतुष्ट नहीं हैं। उनके अनुसार शिखर सम्मेलन में सिर्फ इस बयान के आ जाने भर से काम नहीं चलने वाला। अंतर्राष्ट्रीय स्वयंसेवी संस्था ग्रीनपीस इंटरनेशनल के कार्यकारी निदेशक जेनिफर मॉर्गन ने कहा, “इस कमजोर बयानबाजी से 1.5 सेल्सियस का लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सकता। ग्लासगो में आयोजित सम्मेलन से यह उम्मीद थी कि इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए ठोस कदम उठाए जाएंगे। पर ऐसा नहीं हुआ।”
“ग्लासगो के सम्मेलन में 1.5 सेल्सियस के लक्ष्य को हासिल करने के लिए कुछ नहीं किया गया। अगर तमाम देश सघन प्रयास करते हैं तो यह जरूर है कि इस लक्ष्य को हासिल करने की उम्मीद जिंदा रहती है। पर कागजों पर लक्ष्य को बार-बार लिखने भर से काम नहीं चलने वाला। अब जमीन पर काम करना होगा,” ग्रीनपीस ईस्ट एशिया के वरिष्ठ वैश्विक नीति सलाहकार ली शुओ कहते हैं।
फॉसिल फ्यूल को लेकर कमजोर बयान
इस शिखर सम्मेलन का एक प्रमुख उद्देश्य था कि कोयले के इस्तेमाल को खत्म करने के लिए एक स्पष्ट दिशानिर्देश तैयार हो। इसमें भी सीमित सफलता हासिल हुई। इसमें कोयले के भविष्य को लेकर फेजआउट की जगह फेजडाउन लिखा गया। फेजआउट से तात्पर्य कोयले की खपत को खत्म करना था जबकि फेजडाउन का तात्पर्य कोयले की खपत को कम करना है। इन शब्दों में उलटफेर भारत और चीन के आपत्ति की वजह से किया गया। इन दोनों बड़े देशों की अर्थव्यवस्था कोयले पर आधारित है।
अपने इस आपत्ति की वजह से कुछ हलकों में भारत की आलोचना भी हो रही है। हालांकि, वाशिंगटन स्थित गैर-लाभकारी संस्था एक्शनएड-यूएसए में पॉलिसी निदेशक ब्रैंडन वू का मानना अलग है। अपने ट्विटर अकाउंट से इन्होंने लिखा, “समस्या भारत नहीं है। बल्कि असली समस्या यह है कि अमेरिका और अन्य अमीर देश वैश्विक बराबरी के संदर्भ में, जीवाश्म ईंधन को चरणबद्ध तरीके से बंद करने के लिए, प्रयास नहीं कर रहे हैं।”
शिखर सम्मेलन में कार्बन ट्रेडिंग और ऑफ़सेट के लिए कुछ नियम बने। यह पेरिस समझौते का अहम हिस्सा था पर बीते दो कॉप (पोलैंड और मैड्रिड में आयोजित) की बैठकों में इस पर कुछ प्रगति नहीं हो पायी। हालांकि जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर सक्रिय ऐक्टिविस्ट इन नियमों से संतुष्ट नहीं हैं।
मॉर्गन कहते हैं, “संयुक्त राष्ट्र महासचिव ने घोषणा तो कर दी कि विशेषज्ञों का एक समूह (कार्बन) ऑफसेट बाजारों पर निगरानी करेगा। हालांकि, इस पूरे व्यवसाय में संभावित धोखाधड़ी और बड़े उत्सर्जकों और निगमों के पक्ष में मिलने वाली छूट के बेजा इस्तेमाल को रोकने के लिए अभी बहुत काम किये जाने की जरूरत है।”
फिर भी, कार्बन ट्रेडिंग पर दिशानिर्देशों को इस कॉप की उपलब्धियों में गिना जाएगा। खासकर भारत के लिए, विशेषज्ञ मानते हैं। वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टिट्यूट में क्लाइमेट प्रोग्राम की निदेशक उल्का केलकर कहती हैं, “अब जब कॉप-26 में कार्बन ट्रेडिंग के नियमों को अंतिम रूप दे दिया है, तो पिछले वर्षों में जमा दस लाख से अधिक कार्बन क्रेडिट को भारत बेच पाएगा। इससे कार्बन ट्रैडिंग के लिए घरेलू बाजार बनाने में भी मदद मिलेगी।”
लॉस एंड डैमेज पर निराशा
लॉस एंड डैमेज को लेकर कॉप-26 से बड़ी उम्मीदें थीं। पर निराशा हाथ लगी। कॉप-26 की शुरुआत के पहले कई विशेषज्ञों ने कहा था कि इसकी सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों से निपटने के लिए क्या बातचीत होती है। कई कमजोर देशों में जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभाव दिखने शुरू हो गए हैं और वे अमीर देशों से आर्थिक मदद की उम्मीद कर रहे हैं।
ग्लासगो समझौता, इस मुद्दे पर कुछ भी हासिल करने में नाकाम रहा। इसमें बस इतना कहा गया कि इस पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। इस वजह से कॉप-26 की काफी आलोचना हो रही है। “कॉप-26 इन पीड़ित लोगों को तत्काल सहायता प्रदान करने में विफल रहा है,” यूरोपियन क्लाइमेट फाउंडेशन के मुख्य कार्यकारी अधिकारी लॉरेंस टुबियाना कहते हैं।
कुछ शिकायतें तो अधिक तल्ख रही हैं। नैरोबी स्थित थिंक टैंक पॉवरशिफ्ट अफ्रीका के निदेशक मोहम्मद अडो ने कहा, “दुनिया के कमजोर लोगों की जरूरतों को अमीर दुनिया के स्वार्थ की वेदी पर बलिदान कर दिया गया है। विकसित देश, न केवल गरीब देशों को लंबे समय से वादा किया गया 10 हजार करोड़ अमरीकी डालर देने में विफल रहे हैं बल्कि, क्लाइमेट फाइनैन्स के तत्कालीन महत्व को भी समझने में असफल रहे हैं।”
क्लाइमेट एक्शन नेटवर्क दक्षिण एशिया के निदेशक संजय वशिष्ठ कहते हैं, ” कॉप-26 ने अमीर और प्रभावशील देशों के लिए उपयुक्त एजेंडा तैयार किया है। इस तरह दक्षिण एशिया में सबसे गरीब और सबसे कमजोर लोगों को धोखा दिया गया है।”
“जो देशों जलवायु परिवर्तन से जुड़ी घटनाओं से सबसे अधिक प्रभावित हैं उनके सहयोग के लिए आर्थिक मदद के तरीकों पर सहमति न होना, एक बड़ी विफलता है। इससे निपटना होगा,” क्लाइमेट वल्नरेबल फोरम के वित्त सलाहकार, सारा जेन अहमद ने कहा। यह संस्था उन देशों का एक समूह है जो जलवायु परिवर्तन से अधिक त्रस्त हैं।
क्लाइमेट एक्शन नेटवर्क इंटरनेशनल के वरिष्ठ सलाहकार हरजीत सिंह ने कहा, “कॉप-26 में जलवायु परिवर्तन से होने वाली वर्तमान चुनौतियों से निपटने में असफल रहे हैं। इस समस्या से बड़ी संख्या में लोग त्रस्त हैं। अंतरराष्ट्रीय समुदाय, इन लोगों के तबाह घर, खेत-खलिहान के पुनर्निर्माण में मदद करने में असफल रहा है। जबकि शिखर सम्मेलन के मूल दस्तावेज में विकासशील देशों को लॉस एंड डैमेज को एक मुख्य मुद्दा माना गया है। फिर भी इसको लेकर कोई ठोस कदम नहीं उठाया जा सका।”
स्वास्थ्य पर भी इस शिखर सम्मेलन में कुछ हासिल नहीं हुआ। लैंसेट काउंटडाउन की शोध निदेशक मरीना रोमानेलो ने कहा कि यह ग्लासगो समझौता “सबसे बड़े वैश्विक स्वास्थ्य खतरे का सामना करने के लिए अपर्याप्त है।”
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विशेषज्ञों का मानना है कि ग्लासगो शिखर सम्मेलन में यद्यपि बातें बड़ी-बड़ी की गईं पर कुछ ठोस परिणाम नहीं निकला। इसका एक मुख्य कारण यह है कि अमीर देश, विकासशील देशों को ग्लोबल वार्मिंग के प्रतिकूल प्रभावों को कम करने के लिए, आर्थिक मदद देने को इच्छुक नहीं हैं। क्लाइमेट फाइनैन्स पर कुछ भी नहीं हुआ जिसे इस सम्मेलन के सार्थक होने का पैमाना माना जा रहा था।
अहमद ने कहा, “विकसित देशों को जल्दी से बढ़ा हुआ क्लाइमेट फाइनैन्स उपलब्ध कराना चाहिए। आने वाले कॉप में लॉस एंड डैमेज की प्रगति पर भी ध्यान देना होगा।”
कॉप-26 में अधिकांश सार्थक कदम पहले हफ्ते में ही उठाए गए। वनों की कटाई को नियंत्रित करना हो या कार्बन डाइऑक्साइड की तुलना में कई गुना अधिक हानिकारक मीथेन के उत्सर्जन को रोकना हो। इन मुद्दों पर हस्ताक्षर पहले ही हफ्ते में हो गए। जैसे-जैसे सम्मेलन आगे बढ़ा, जटिल मुद्दों पर मुश्किलें बढ़ती गईं। वह क्लाइमेट फाइनैन्स हो या लॉस एंड डैमेज का मुद्दा।
“अब जब कॉप-26 के बाद के दृश्य पर बात हो रही है, सबको इस पर ध्यान देने की जरूरत है कि जो वादे किये गए हैं उनको जमीन पर कैसे उतारा जाए, अनी दासगुप्ता कहती हैं। दासगुप्ता वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट के अध्यक्ष और मुख्य कार्यकारी हैं।
बैनर तस्वीरः फ्राइडे फॉर फ्यूचर नामक समूह ने कॉप-26 सम्मेलन स्थल के बाहर मार्च में हिस्सा लिया। तस्वीर- प्रियंका शंकर/मोंगाबे