- उत्तराखंड के आसमान में 280 दिन सूरज चमकता है। इसका मतलब यहां सौर ऊर्जा की कोई कमी नहीं, बशर्ते इसे सहेजने की कोशिश हो।
- सौर ऊर्जा के बूते उत्तराखंड अपने निवासियों के लिए बिजली उत्पन्न कर सकता है। पर्यावरण को कोई नुकसान पहुंचाए बिना। लेकिन, राज्य अभी इस लक्ष्य को हासिल करने से कोसों दूर है।
- विवादों के बावजूद, उत्तराखंड में हाइड्रोपावर पर बहुत अधिक जोर रहा है। विशेषज्ञों का मानना है कि सौर ऊर्जा की क्षमता को देखते हुए यह इस आपदा-संभावित राज्य के लिए अधिक भरोसेमंद ऊर्जा स्रोत हो सकता है।
- राज्य की प्रचुर अक्षय ऊर्जा क्षमता का दोहन करने के लिए बेहतर योजना बनाना और कार्यान्वयन में आने वाली गड़बड़ियों पर काबू पाना महत्वपूर्ण है।
उत्तराखंड में प्राकृतिक आपदाओं का डर हमेशा बना ही रहता है। वैसे तो इसके लिए अन्य प्राकृतिक वजहें भी हैं पर अब इसके साथ यहां जलवायु परिवर्तन का प्रभाव भी नजर आने लगा है। इन वजहों से पारिस्थितिक रूप से नाजुक हिमालयी क्षेत्र में हाइड्रो पावर (पन बिजली) की नई योजनाओं पर हमेशा सवाल खड़ा होता रहा है। पर्यावरण पर काम कर रहे लोगों का मानना है कि सौर ऊर्जा, यहां की ऊर्जा की जरूरतों को पूरा करने के लिए एक टिकाऊ समाधान हो सकता है। वे राज्य की वर्तमान ऊर्जा नीति का विरोध करते हुए सौर ऊर्जा की तरफ जोर देने की मांग कर रहे हैं।
गैर सरकारी संस्थान टेरी के ग्रामीण ऊर्जा और आजीविका विभाग के निदेशक देबजित पालित ने कहा,”राज्य में प्रचुर मात्रा में धूप और अनुकूल तापमान के कारण बिजली उत्पादन की भरपूर संभावनाएं हैं।” उत्तराखंड में 4-7 किलोवाट आवर/मीटर2/प्रतिदिन सौर ऊर्जा उत्पन्न होता है। रोजाना नौ घंटे सूरज रहने के साथ धूप लगभग 287 दिन खिली रहती है।
“राजस्थान, गुजरात और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों ने बड़े-बड़े भूमि के हिस्से पर सोलर पावर प्लांट स्थापित किया है। पर उत्तराखंड जैसे राज्य के लिए छोटे और विकेंद्रीकृत सौर ऊर्जा संयंत्र ही उपयोगी होंगे,” पलित ने मोंगाबे-हिन्दी से बात करते हुए कहा। राज्य के 13 जिलों में से दस पहाड़ी इलाके हैं। उन्होंने जोर देकर कहा कि इमारतों की छतों पर छोटे सौर संयंत्र, उत्तराखंड के ऊर्जा क्षेत्र के भविष्य को दिशा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
दून विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं और जी.बी. पंत कृषि और प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय का कहना है कि उत्तराखंड के सभी जिले रूफटॉप सोलर (आरटीएस) का उपयोग करके आधे से अधिक (57%) बिजली की मांग पूरी कर सकते हैं।
छत पर बिजली उत्पादन से उत्तराखंड में बिजली के बिलों को कम करने में काफी मदद हो सकती है। जरूरत से अधिक बिजली उत्पन्न होने पर ग्रिड को भेजा जाता है और महीने के बिजली बिल से इस हिस्से को घटा दिया जाता है। इससे बिजली के बिल में कमी आती है। बिजली दरों में भारी कटौती की वजह से बड़े संस्थान और कॉर्पोरेट घराने रूपटॉप सोलर की तरफ आकर्षित हो रहे हैं।
परिणामस्वरूप, अधिक घरों में सोलर पैनल (फोटोवोल्टिक पैनल) स्थापित किया जा रहा है। इस समय घरों में तीन किलोवॉट के सौर पैनल लगाने के लिए 40 फीसदी तक सब्सिडी मिल जाती है। हालांकि, क्षमता बढ़ने के साथ सब्सिडी घटती जाती है।
पर इन सबके बावजूद उत्तराखंड में रूफटॉप सोलर के विकास की जितनी क्षमता है उसके मुकाबले वर्तमान स्थिति को बहुत संतोषप्रद नहीं कहा जा सकता।
राष्ट्रीय स्तर पर भी कहानी कुछ ऐसी ही है। केंद्र सरकार का लक्ष्य है कि 2022 तक 40 गीगावॉट ग्रिड-कनेक्टेड रूफटॉप सौर ऊर्जा स्थापित की जाए। लेकिन अक्टूबर 2021 तक केवल 6.012 गीगावॉट की क्षमता स्थापित की जा सकी है। इसमें से उत्तराखंड का योगदान लगभग 4.4 प्रतिशत है, जिसकी कुल स्थापित क्षमता 0.262 गीगावॉट है। राज्य का लक्ष्य, अगले साल के अंत तक 0.350 गीगावॉट तक हासिल करने का है।
केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण के अनुसार, अक्टूबर 2021 तक, उत्तराखंड की कुल स्थापित बिजली उत्पादन क्षमता 3.924 गीगावॉट थी। इसमें हाइड्रोपावर से 1.975 गीगावॉट, थर्मल पावर से 1.011 गीगावॉट और नवीकरणीय संसाधनों का योगदान 0.906 गीगावॉट है। नवीन ऊर्जा में रूफटॉप सोलर, ऑफ-ग्रिड और ग्राउंड-माउंटेड प्लांट मिलाया जाए तो 0.552 गीगावॉट के साथ सोलर शीर्ष पर है।
उत्तराखंड के रूफटॉप सोलर प्रोग्राम में बाधाएं
अच्छी क्षमता होने के बावजूद उत्तराखंड सूर्य की किरणों से अधिक बिजली पैदा करने से क्यों चूक रहा है? विशेषज्ञ और जमीनी स्तर पर काम करने वाले लोग बताते हैं कि बाधाओं से भरी प्रक्रिया, एक बड़ी वजह है। उत्तराखंड पावर कॉरपोरेशन लिमिटेड (यूपीसीएल) से अनापत्ति प्रमाण पत्र प्राप्त करने के लिए ऑनलाइन आवेदन और कागजी कार्रवाई थका देने वाला है। इसके अतिरिक्त सोलर वेंडर एक-एक कर के यंत्र स्थापित करते हैं। चूंकि एक वेंडर एक साथ कई जगह काम कर रहा होता है तो हरेक प्रोजेक्ट में देरी होती है।
सौर सेवा प्रदाता एस एंड एन मर्चेंडाइज़र के साथ काम करने वाले सूरज गौरव शर्मा ने कहा,”ग्राहकों को अक्सर एक साल से अधिक समय तक इंतजार करना पड़ता है।” देरी के साथ भ्रम की स्थिति बनी रहती है क्योंकि ग्राहक जानकारी के लिए विक्रेताओं पर ही निर्भर होते हैं।
सौर ऊर्जा का संयंत्र लगा लेने के बाद भी परेशानियां खत्म नहीं होती।
उदाहरण के लिए, उत्तराखंड के देहरादून शहर के निवासी आशीष कुंवर ने अपने नए घर में 5 केवी ऑन-ग्रिड सौर ऊर्जा पैनल स्थापित किया। उन्हें इस काम में लगभग एक साल का समय लग गया। इसकी लागत लगभग 250,000 रुपए आई। उन्होंने 160,000 रुपये का भुगतान किया और 78,240 सब्सिडी के माध्यम से मिले। पिछले अक्टूबर से उनके आवास पर सौर ऊर्जा उत्पन्न होने के बावजूद, नियमित नेट बिलिंग शुरू होने में आठ महीने लग गए। कुंवर ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया कि संविदा कर्मचारी जो रीडिंग लेने के लिए घर आए थे, वे शुरू में नए मीटरिंग सिस्टम के बारे में अनजान थे।
बख्शी इंजीनियरिंग वर्क्स के अनिल बख्शी ने इसकी पुष्टि की और कहा कि नेट बिलिंग में बड़े सुधार की जरूरत है। “कई बिलों में ग्रिड से निर्यात और आयात की जाने वाली बिजली इकाइयों को सही ढंग से समायोजित नहीं किया गया था। उपभोक्ताओं को बढ़े हुए बिल भी प्राप्त हुए हैं।”
उपभोक्ता यही सोचकर सौर ऊर्जा को अपनाता है कि इससे बिजली के बिल में कमी आएगी। बाद में बढ़े बिल जैसी चुनौती आती है तो उनका उत्साह कम हो जाता है।
“जब उपभोक्ताओं को नियमित बिल नहीं मिलते हैं, तो औसत अनुमान लगाकर भुगतान करने को कहा जाता है। भुगतान में देरी करने पर अतिरिक्त जुर्माना देना होता है,” बख्शी ने कहा। अधिकारियों के पास अपील दायर कर लोग समस्या का समाधान खोज रहे हैं। पर इसमें काफी दौड़-भाग करना पड़ता है।
“ऐसी जटिलताओं से बचने के लिए लोग अब ऑफ-ग्रिड संयंत्र की ओर रुख कर रहे हैं,” उन्होंने कहा।
अप्रैल 2021 में प्रकाशित एशियन डेवलपमेंट बैंक इंस्टीट्यूट के एक वर्किंग पेपर में रूफटॉप सोलर के विकास में कुछ मुश्किलों की तरफ इशारा किया गया था। इसमें नेट मीटरिंग से जुड़ी पॉलिसी महत्वपूर्ण हैं।
यह पूछे जाने पर कि आखिर इसका समाधान क्या है, शर्मा ने कहा कि सुव्यवस्थित संचालन और आम लोगों की समस्या को ध्यान में रखकर काम किया जाए तो ग्राहकों के लिए भविष्य की राह आसान हो सकेगी। उन्होंने कहा, “यूपीसीएल को नवीनतम सौर प्रौद्योगिकी, बिल की ठीक गणना और ग्राहकों की शिकायतों के तेजी से निवारण के लिए और अधिक सक्षम कर्मचारियों की आवश्यकता है।”
बख्शी का कहना है कि यूपीसीएल को उपभोक्ताओं को अधिक बिजली उत्पादन के लिए राशि देना चाहिए। या अगले बिलिंग चक्र में उतने यूनिट को समायोजित करके प्रोत्साहित करना चाहिए। उत्तराखंड में वर्तमान योजना के साथ, बिलिंग चक्र हर बार नए सिरे से शुरू होता है। वह बिलिंग में देरी से बचने के लिए यूपीसीएल में तकनीक को बेहतर करने की सलाह भी देते हैं।
उत्तराखंड के उपभोक्ताओं को उम्मीद है कि इन मुद्दों को पढ़ने-समझने के लिए सरकार की तरफ से कुछ बुकलेट वगैरह उपलब्ध कराया जाए। ताकि वे खुद उसे पढ़कर अपनी जानकारी बढ़ा पाएं। खासकर नेट मीटरिंग या पूरी प्रक्रिया को लेकर।
ग्राहकों में समुचित जानकारी न होने का खामियाजा अन्य जगहों पर भी देखने को मिला है। दिल्ली में रुफटॉप सोलर की प्रगति को लेकर भारतीय तकनीकी संस्थान, दिल्ली ने एक अध्ययन किया। इसमें कहा गया है कि ग्राहकों और वेंडर के बीच कम जानकारी होने की वजह से अविश्वास का माहौल बन गया। इस अध्ययन में जागरूकता बढ़ाने पर जोर दिया गया था।
व्यापक योजना की आवश्यकता
राज्य में रूफटॉप सोलर के विस्तार के लिए, सरकार को चाहिए कि सोची-समझी रणनीति बनाये और उसमें निवेश करे, अभिषेक नाथ कहते हैं जो सेंटर फॉर स्टडी ऑफ साइंस, टेक्नोलॉजी एंड पॉलिसी (सीएसटीईपी) के ऊर्जा और बिजली विशेषज्ञ हैं।
“सरकार राज्य की वास्तविक रूपटॉप क्षमता की गणना के लिए हवाई सर्वेक्षण कर सकती है। इसे बाद में विभिन्न उपभोक्ता ब्लॉक में विभाजित किया जा सकता है। ग्रिड से जुड़े और ऑफ-ग्रिड सिस्टम के लिए ब्लॉक का चयन किया जा सकता है,” उन्होंने कहा। इससे सौर ऊर्जा के क्षेत्र में निवेश के लिए लोग आगे आएंगे।
ऊर्जा इंटरप्राइजेज के अश्विनी चौधरी चाहते हैं कि उत्तराखंड, पंजाब और हरियाणा की राह पर चले और नए हाउस-प्लान में रूफटॉप सोलर को अनिवार्य करे। वह उत्तराखंड के लिए धार्मिक पर्यटन क्षेत्र को ऊर्जा दक्ष बनाने पर बल देते है। यहां हर साल लाखों की संख्या में श्रद्धालु आते हैं।
“बद्रीनाथ जैसे स्थलों पर होटलों में पानी गरम करने के लिए अभी भी डीजल पंप इत्यादि का इस्तेमाल होता है। यह देखकर दुख होता है। उन्हें आसानी से नवीनतम सोलर हीटिंग सिस्टम से बदला जा सकता है। ये नए संसाधन न केवल बिजली की खपत कम करते हैं बल्कि इनके इस्तेमाल से टैरिफ में भारी कटौती भी होती है,” चौधरी कहते हैं।
अर्थशास्त्री और पर्यावरणविद् भरत झुनझुनवाला तेजी से ऊर्जा क्षेत्र में बदलाव के लिए नए समाधान खोजने की सलाह देते हैं। “रूफटॉप सोलर अच्छा है लेकिन यह सीमित मात्रा में ही बिजली उत्पन्न कर सकता है।”
उन्होंने सिफारिश करते हुए कहा कि उत्तराखंड एक पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर किसी अन्य सौर-समृद्ध राज्य में सोलर प्लांट स्थापित कर सकता है और वहां से बिजली ले सकता है। उन्होंने कहा कि हाल के वर्षों में सौर ऊर्जा उत्पादन की लागत कम हुई है, इसलिए ऐसा करना संभव है।
हालांकि, सौर ऊर्जा का विस्तार अभी शुरुआती चरण में है। पर ऊर्जा उत्पादन के साथ-साथ मौजूदा संयंत्रों को बनाए रखना, मरम्मत, पुराने और खराब हो चुके पैनलों और बैटरियों के निपटान सहित कई काम पर ध्यान देना भी उतना ही महत्वपूर्ण है, झुनझुनवाला ने कहा।
पालित कहते हैं, “रुफटॉप सोलर से स्थानीय स्तर पर नया रोजगार भी पैदा होता है। पर्यावरण की रक्षा तो होती ही है।” काउंसिल ऑन एनर्जी एनवायरनमेंट एंड वॉटर (सीईईडब्ल्यू) द्वारा एक विश्लेषण में पता चला कि रूफटॉप सोलर सबसे अधिक नौकरी देने वाला क्षेत्र है। इस क्षेत्र में प्रति मेगावॉट प्रति वर्ष 24.72 नौकरी पैदा होती है। जबकि ग्राउंड-माउंटेड सोलर के लिए मात्र 3.45 नौकरी पैदा होती है। पवन ऊर्जा के क्षेत्र में प्रति वर्ष प्रति मेगावॉट 1.27 नौकरी पैदा होती है।
[यह रिपोर्ट टेरी और अर्थ जर्नलिज्म नेटवर्क द्वारा समर्थित फेलोशिप के तहत तैयार की गई है।]
बैनर तस्वीरः उत्तराखंड की वादियों में लगे सोलर पैनल्स। तस्वीर- वर्षा सिंह।