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[वीडियो] कहां चले गए भालू-बंदरों का खेल दिखाने वाले मदारी?

मदारी समुदाय के लोग अब ऐसे ही कॉस्टयूम से काम चलाते हैं। तस्वीर- माधव शर्मा

मदारी समुदाय के लोग अब ऐसे ही कॉस्टयूम से काम चलाते हैं। तस्वीर- माधव शर्मा

  • 1972 में वन्यजीव संरक्षण अधिनियम लागू होने के बाद धीरे-धीरे मदारियों से उनके जानवर सरकार ने ले लिए। तब से इस समाज के लोग आजीविका के लिए संघर्षरत हैं।
  • पूरे भारत में आगरा, बेंगलुरू, भोपाल, पुरुलिया (प. बंगाल) और हैदराबाद में भालू रेस्क्यू सेंटर स्थापित किए गए। देश के कई हिस्से से सैकड़ों भालूओं को यहां लाया गया।
  • मुफलिसी में जीवन जी रहे कलंदर समुदाय के इन लोगों को उम्मीद है कि सरकार अगर उन्हें भी घुमंतू समुदाय में शामिल कर ले और वन विभाग में ही छोटी-मोटी नौकरी दे दे तो इनका संघर्ष कुछ कम हो जाए।

राजस्थान के टोंक शहर के एक मोहल्ले में डमरू बजाते हुए नूर मोहम्मद, भालू को निर्देश दे रहे हैं। मदारी का खेल दिखाने वाले नूर के कहने पर भालू कभी उठ-बैठ रहा है तो कभी साइकिल चला रहा है और कभी सिलाई मशीन। भालू की इन हरकतों पर वहां मौजूद बच्चे खुश हो रहे हैं, ताली पीट रहे हैं तो कभी डर के दूर भाग जा रहे हैं। खेल के आखिर में मौजूद लोग और बच्चों ने नूर मोहम्मद की बिछाई चादर पर कुछ पैसे रखे। उधर भालू थककर दूर जाकर बैठ गया। भीड़ थोड़ी कम होती देख भालू का चोला हटाकर जमील अहमद बाहर आ गए। इतनी देर की उछल-कूद और पसीने से परेशान जमील को तो राहत मिली पर कुछ बच्चे जो अब तक यहीं मौजूद थे, भालू के भेष में इंसान को देखकर, मायूस हो गए। यह देखकर नूर मोहम्मद और जमील भी थोड़े  निराश हुए।

‘क्या करें! बचपन से यही काम देखा और सीखा। पहले रूबी (भालू) की मदद से रोजी-रोटी चलती थी। अब जब सरकार ने उसे, हमसे छीन लिया तो यह सब करके जीवन चला रहे हैं,” नूर मोहम्मद कहते हैं। रूबी परिवार के सदस्य जैसी थी जिसे सरकार ने ले लिया। आजकल वह भोपाल के भालू संरक्षण केन्द्र में है, जमील इस बातचीत को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं।   

राजस्थान के टोंक शहर के मोहल्ला बहीर में रह रहे मदारियों की यही कहानी है। वन्यजीव संरक्षण कानून के प्रभाव में आने के बाद धीरे-धीरे इनके भालू-बंदर वन विभाग ने जमा कर लिए।

नूर मोहम्मद कलंदर समुदाय के उन आखिरी लोगों में से हैं, जिन्होंने अपनी उम्र गांव-गांव जाकर भालूओं का खेल दिखाने में गुजारी है। 1972 में वन्यजीव संरक्षण अधिनियम लागू हुआ। एक्ट के बाद वन विभाग की जैसे-जैसे सख्ती बढ़ी, कलंदर समाज का खानादानी पेशा और पेट भरने का जरिया भी खत्म होता गया।

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नूर उन आखिरी 6 कलंदरों में से हैं, जिन्होंने 2006 में अपना भालू एसएसओ नाम के एक एनजीओ को जमा कराया। मुआवजे के तौर पर इन 6 कलंदरों को 50-50 हजार रुपए दिए गए ताकि वे कोई नया रोजगार शुरू कर सकें।

इसपर नूर मोहम्मद कहते हैं कि रोजगार शुरू करना इतना आसान भी नहीं है। हमने बचपन से जो सीखा वह तो अवैध घोषित हो गया। नया जो भी करने की कोशिश की उसमें नुकसान ही हुआ।  

रूबी से अपने जीवन के तार जुड़ने की बात बताते हुए नूर कहते हैं, “तारीख और महीना तो याद नहीं, लेकिन साल 1972 का ही था। इसी साल वन्यजीव संरक्षण को लेकर कानून बना था। विडंबना यह कि उसी साल मैं एक जमूरे के तौर पर अपना जीवन शुरू कर रहा था।”

“मेरे पिता सवाई माधोपुर में रणथंभौर के जंगलों से किसी सहरिया व्यक्ति से दो दिन के एक भालू के बच्चे को 800 रुपए में खरीद कर लाए थे। उस समय वयस्क भालू की कीमत 4-5 हजार रुपए होती थी। दो महीने का होते ही उसकी नाक में एक बड़ी सूई से एक धागा डाल दिया गया। हर चौथे-पांचवे दिन उस धागे में एक सूत बढ़ा दिया जाता और उस पर हल्दी-घी का मरहम लगाया जाता। एक-डेढ़ साल का होते ही पूरी रस्सी की नथनी भालू को पहना दी गई। दो-तीन महीने का होते ही भालू की ट्रेनिंग शुरू हो जाती। उसे रोजाना घुमाने, साइकिल और सिलाई मशीन चलाने, दो पैरों पर खड़े होने, बैठने, सिर हिलाने जैसी शुरूआती चीजें सिखाई जाने लगीं,” नूर मोहम्मद अपने बचपन के दिन याद करते हैं।

नूर मोहम्मद भालू का खेल दिखाते हुए। तस्वीर-माधव शर्मा
राजस्थान के टोंक शहर के एक मोहल्ले में नूर मोहम्मद भालू का खेल दिखाते हुए। तस्वीर-माधव शर्मा

रूबी की मदद से नूर मोहम्मद ने अपनी आजीविका शुरू की। “साल में 8-10 महीने हम अपने परिवार के साथ दूसरे राज्यों में खेल दिखाते थे। गधे-खच्चर पर अपना सामान लाद कर जगह-जगह घूमते थे। भालू-बंदर का खेल दिखाकर जिंदगी गुजारने लायक पैसा आराम से मिलता। गांव में इज्जत मिलती सो अलग,” नूर बताते हैं। 

कौन हैं ये मदारी लोग?

कलंदर समुदाय को लेकर समझ स्पष्ट नहीं है। बारहवीं शताब्दी में जलाली कलंदर मुल्तान के रास्ते पंजाब पहुंचे। फिर पानीपत, करनाल होते हुए आखिर में बंगाल तक गए, नूर मोहम्मद कहते हैं।

घूमंतु जातियों की गहरी जानकारी रखने वाले मानवाधिकार कार्यकर्ता नवीन नारायण भी इसको दोहराते हैं पर यह भी कहते हैं कि हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि वर्तमान कलंदर समुदाय का मूल यही है। क्योंकि इस समुदाय पर लिखित में ज्यादा कुछ मौजूद नहीं है। पर इतना स्पष्ट है कि कलंदर या मदारी घूमंतु जीवन जीने वाला एक समुदाय है जो देशभर में भालू-बंदरों का खेल दिखाकर अपना जीवन बसर कर रहा था।

चूंकि वन्यजीव संरक्षण अधिनियम के कारण अब कलंदरों का सदियों पुराना पेशा खत्म हो गया तो इस समुदाय ने राजस्थान के टोंक जिले के मोहल्ला बहीर को अपना स्थाई और सबसे बड़ा ठीया बनाया है। करीब 200 परिवारों की इस बस्ती में 10-15 परिवार ही हैं जिनके पक्के घर हैं। बाकी सभी सरकारी जमीन पर तिरपाल की झुग्गी बनाकर दिन गुजार रहे हैं।

टोंक के अलावा ये लोग राजस्थान में कई जगह बस गए हैं। नवीन नारायण ने अपने एक शोध के सिलसिले में एक यात्रा की और पाया कि राजस्थान के भरतपुर, दौसा, अजमेर, कोटा, बारां, बूंदी, भीलवाड़ा में करीब 17 जगहों पर इनकी बस्तियां हैं। जिनमें 550 से ज्यादा परिवार हैं और 5 हजार से ज्यादा इनकी जनसंख्या है। भरतपुर के नगर में 80 परिवार, जयपुर 100, कोटा 12, बूंदी 100, बारां 50 और टोंक में करीब 200 परिवार रहते हैं। घूमंतु जातियों पर काम करने वालों के अनुसार देशभर में 2 लाख से ज्यादा कलंदर समुदाय के लोग हैं।

कानून ने जीव बचाए पर मदारियों को अनाथ छोड़ दिया

1972 में वन्यजीव संरक्षण अधिनियम लागू होने और इसके प्रभाव में आने के बाद कलंदरों की समस्याएं शुरू होने लगीं। 1995-2000 आते-आते वन विभाग, पशु क्रूरता जैसी कई धाराओं में इन पर केस दर्ज करने लगा। वन्य जीव रखने को लेकर भी दो-तीन मदारियों पर केस दर्ज हुए थे। इसीलिए जैसे-जैसे इनके भालू-बंदर जमा होते गए या मरते गए, नए जानवर लाना मदारियों ने बंद कर दिया। 2006 में नूर और इनके साथ के सिर्फ 5 लोग थे, जिन्होंने अपना भालू एनजीओ को जमा कराया। 

नूर के साथ बैठे मदारी जमील अहमद कहते हैं, “सिर्फ 6 लोगों को ही ये पैसा मिला जबकि हमारी बस्ती के 100 से ज्यादा लोग भालू-बंदर का खेल दिखाते थे। किसी को भी पैसा नहीं दिया गया। हमारी मांग है कि उन सभी मदारियों को वन विभाग में सबसे छोटी से छोटी नौकरी दी जाए जो इस काम से जुड़े हुए थे।”

देश के कई हिस्सों में घूम घूम कर भालू और बंदर का खेल दिखाने वाला घुमक्कड़ समुदाय अब एक जगह ठहर गया है। इनकी वर्तमान स्थिति अच्छी नहीं है। तस्वीर- माधव शर्मा
देश के कई हिस्सों में घूम घूम कर भालू और बंदर का खेल दिखाने वाला घुमक्कड़ समुदाय अब एक जगह ठहर गया है। इनकी वर्तमान स्थिति अच्छी नहीं है। तस्वीर- माधव शर्मा

राजस्थान वन विभाग के चीफ वाइल्ड लाइफ वार्डन अरिंदम तोमर इसे विभाग की जिम्मेदारी नहीं मानते। वे कहते हैं, “वन्यजीव संरक्षण अधिनियम में कलंदर या मदारियों के पुनर्वास का कोई प्रावधान नहीं है। वन विभाग की जिम्मेदारी सिर्फ इतनी थी कि जानवरों को लेकर भालू संरक्षण केन्द्र में भेज दिया जाए। राजस्थान वन विभाग ने कानून के अनुसार ही काम किया है।”

पुश्तैनी काम छिनने के बाद कलंदर समुदाय के हजारों लोग बेरोजगार हुए हैं। कोई और काम नहीं आने के कारण धीरे-धीरे गरीबी के दुष्चक्र में फंस गए। बच्चे और बुजुर्ग शहरों में आकर कचरा बीनने तक का काम कर रहे हैं। महिलाएं आरा-तारी (साड़ी, सूट पर कढ़ाई-बुनाई का काम) करने लगीं। युवा दंत मंजन बनाकर बेचने के लिए आज भी महीनों तक घर से बाहर रहते हैं।

मदारी का खेल: पशू क्रूरता या जानवरों से परिचय की जिम्मेदारी!

पूरे भारत में कलंदर समुदाय से भालूओं को वापस लेने का काम वाइल्ड लाइफ- एसओएस नाम की एक संस्था ने किया। मोंगाबे-हिन्दी ने संस्था में कार्यक्रम समन्वयक पद पर काम कर रही राखी शर्मा से जमा किए गए भालूओं की स्थिति के संबंध में बात की। उन्होंने बताया, “ उस समय पूरे भारत में आगरा, बेंगलुरू, भोपाल, पुरुलिया (प. बंगाल) और हैदराबाद में भालू रेस्क्यू सेंटर स्थापित किए गए। हैदराबाद सेंटर फिलहाल बंद हो चुका है। सबसे ज्यादा भालू अभी आगरा रेस्क्यू सेंटर में हैं। 2001 से 2009 के बीच यहां 300 भालू लाए गए। इनमें से 250 जिंदा हैं। बंगलुरू में 70, भोपाल में 25 भालू हैं जो कलंदरों से लिए गए थे।”

“कलंदरों से भालू आने के वक्त सेहत के पैमाने पर उनकी स्थिति बेहद खराब थी। वे काफी कमजोर थे। पोषण की कमी के कारण कई भालूओं को टीबी की बीमारी भी थी। बहुत से भालूओं के नाखून और दांत भी नहीं थे। कुछ भालू, त्वचा रोग से भी ग्रस्त थे। इसके अलावा ऐसी भी जानकारी सामने आई कि भालूओं के हिंसक होने पर कलंदर उन्हें अंधा कर देते थे। हालांकि राजस्थान में इस तरह को कोई केस नहीं था, लेकिन सेंटर्स में कुछ अंधे भालू भी आए थे,” राखी शर्मा बताती हैं। मदारी भालूओं को डांस ट्रेनिंग देने के लिए क्रूरता की सारी हदें तक पार करते थे, राखी दावा करती हैं। 

अपनी आजीविका चलाने के लिए अब मदारी का खेल खेलाने वाले लोग या तो नकली कॉस्टयूम का इस्तेमाल करते हैं या फिर मंजन इत्यादि बेचने का काम करते हैं। तस्वीर- माधव शर्मा
अपनी आजीविका चलाने के लिए अब मदारी का खेल खेलाने वाले लोग या तो नकली कॉस्टयूम का इस्तेमाल करते हैं या फिर दंत-मंजन इत्यादि बेचने का काम करते हैं। तस्वीर- माधव शर्मा

भोपाल के वन विहार नेशनल पार्क में वेटनरी ऑफिसर अतुल गुप्ता उस समय के अधिकारियों में शामिल हैं जब मदारियों के भालू-बंदर यहां लाए जा रहे थे। मोंगाबे-हिन्दी से बातचीत में वे दूसरी तस्वीर पेश करते हैं। “ वर्ष 2006 तक भोपाल में राजस्थान से 8 भालू रेस्क्यू किए गए थे। भालूओं की सेहत अच्छी नहीं थी। चूंकि वे जंगल के माहौल से बिलकुल अनजान थे, इसीलिए उनका व्यवहार भी काफी अजीब था। वे इंसानों से डर कर रहने वाले जानवर में बदल चुके थे।”

हालांकि कलंदर, भालू-बंदरों पर क्रूरता करने के आरोपों को नकारते हैं। फिलहाल दंत मंजन बेचने वाले मदारी निज़ाम कहते हैं, “अगर हमारे घर में बच्चा और भालू दोनों एक साथ बीमार होते थे तो हम पहले भालू का इलाज कराते थे। क्योंकि उसके ठीक होने से ही बच्चे के इलाज के पैसे आएंगे। उनकी सेहत के लिए दरगाहों पर चादर, मन्नत और धागा बांधते थे।”

घूमंतु समुदायों के साथ काम कर रहे सामाजिक कार्यकर्ता अश्वनी शर्मा पशु क्रूरता के आरोप को सरकारों का मदारियों को परेशान करने का जरिया मानते हैं। “सरकार का पशु क्रूरता के मामले में दोहरा रवैया रहा है। हिमाचल में बंदर, बिहार में नीलगाय, यूपी में सूअर मारने के आदेश सरकारों ने ही दिए हैं। क्या वो पशु क्रूरता में नहीं आता? बल्कि मारने वालों को इनाम भी दिया गया। जयपुर में आमेर किले पर हाथी सवारी पशु क्रूरता के दायरे में क्यों नहीं आता? जबकि इसी राजस्थान में भालू-बंदरों से अपना पेट भरने वाले साधारण मदारियों पर वन विभाग और पुलिस तरह-तरह के धाराओं में केस दर्ज कर लेती है,” अश्वनी कहते हैं।

इनका कहना है कि ये घुमंतू प्रजाति के लोग दूर दराज के गांवों में जाकर आम लोगों को भालू इत्यादि से परिचय कराते थे। आज भी देश की बड़ी आबादी के पास इतना पैसा नहीं है कि वे चिड़ियाघर या वन क्षेत्र में जाकर जानवरों को देखें।

ऐसा ही कुछ दावा नूर भी करते हैं। अपनी परेशानी बताते हुए कहते हैं, “हमारी लंबे समय से मांग है कि कलंदरों को राजस्थान की 32 घूमंतू (डि-नोटिफाइड) जातियों में शामिल किया जाए। हमें शिक्षा, नौकरियों में आरक्षण मिले ताकि बिना अस्तित्व के रह रहे हमारे लोगों को समाज की मुख्यधारा में आने का मौका मिले।”

नूर सरकार से मांग करते हैं कि वन विभाग में अगर सबसे छोटी नौकरी भी मिल जाए तो हम दर-दर भटकने से बच जाएं।

पारसराम खुद बंजारा समुदाय से हैं जो राजस्थान की 32 डि-नोटिफाइड घूमंतु जातियों में शामिल हैं। वे कहते हैं, “घूमंतु लोग अपना ज्ञान, विज्ञान, संस्कृति सब कुछ अपने साथ लेकर चलते हैं। सरकारें कोई नीति बनाते वक्त इन बातों का ख्याल नहीं रखती। इससे इनके अस्तित्व पर ही खतरा मंडराने लग जाता है। मदारियों या कलंदरों के साथ भी यही हुआ है।”

 

बैनर तस्वीर: पहले गांव-गांव घूमकर मदारी का खेल दिखाने वाला समुदाय आज मुफलिसी की जिंदगी जी रहा है। वन्यजीवों के संरक्षण के नाम पर बने कानून ने इनके भालू, बंदर ले लिए। तस्वीर- माधव शर्मा

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