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गांव छोड़ब नहीं: खनन से जुड़े प्रतिरोध में कला के सहारे बुलंद होती आवाज

खनन के खिलाफ स्वदेशी समुदायों के सदस्यों के लिए कला का इस्तेमाल एक सशक्त हथियार है। तस्वीर- अमोल के. पाटिल। कॉपीराइट © प्रभाकर पचपुते, कोलकाता।

खनन के खिलाफ स्वदेशी समुदायों के सदस्यों के लिए कला का इस्तेमाल एक सशक्त हथियार है। तस्वीर- अमोल के. पाटिल। कॉपीराइट © प्रभाकर पचपुते, कोलकाता।

  • अपने अधिकार की लड़ाई में खनन से प्रभावित लोग प्रदर्शन और धरने का आयोजन तो करते ही रहे हैं। पर इसके अतिरिक्त गीत-संगीत, कविता इत्यादि का इस्तेमाल कर अपनी आवाज बुलंद करने की भी एक समृद्ध परंपरा रही है।
  • विरोध प्रदर्शन या लोगों को साथ लाने के लिए विभिन्न विधाओं के माध्यम से अपनी बात कहने की परंपरा पुरानी हो चली है। इस परंपरा में एक नया अध्याय जुड़ा है। अब विश्व की बड़ी आर्ट गैलरी में इनकी प्रदर्शनी भी लगाई जा रही है।
  • कलाकारों का मानना है कि इन विधाओं के इस्तेमाल करने से उनकी आवाज को धार मिलती है। कविता, गीत-संगीत, पेंटिंग और अन्य तरीकों का इस्तेमाल कर वे खनन, उद्योग और सुरक्षाबलों के गठजोड़ का पर्दाफाश बेहतर तरीके से कर पाते हैं।

“आगे मशीनीकरण के राज, जुच्छा कर देही सबके हाथ,

बेरोजगारी हे अइसे बाढ़े हे, अउ आघु बढ़ जाही रे,

मेहनतकश जनता हा, बिन मौत मारे जाही रे,

फिर होही अनर्थ बात, सब पीटत रबो माथ।

जागो मजूर किसान हो।”

छत्तीसगढ़ी में लिखे इस गीत का भावार्थ है, “मशीनीकरण का राज आया है। सबके हाथों से काम छीनने के लिए। बेकारी तो है ही, आगे और बेकारी बढ़ने वाली है। मेनतकश लोग मारे जायेंगे। तब सर कूटने से कोई फायदा नहीं होगा, जागो मजदूर किसानों।”

करीब पंद्रह वर्षों से यह गीत दल्ली राजहारा लौह अयस्क खदान मजदूरों के बीच गुनगुनाया जाता रहा है। इस गीत के माध्यम से वे अपनी आवाज बुलंद करते रहे हैं और अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ते रहे हैं। ये मजदूर सामान्यतः आदिवासी और अन्य वंचित समुदाय से आते हैं। इन तमाम लड़ाईयों में एक प्रमुख लड़ाई थी जब ये मजदूर खदान प्रबंधन के मशीनीकरण की कोशिशों के खिलाफ लामबंद हुए थे।

आज भी यह गीत, खनन प्रभावित जन समूह को इकट्ठा करने और अपनी आवाज उठाने का सशक्त तरीका है। इस गीत के जरिए वे खनन से हो रहे विनाश के खिलाफ आवाज उठाते हैं। कई समूह कविता, कहानी, ग्राफिक्स की किताबें, वीडियो, गीत, मीम और तरह-तरह के प्रदर्शनों जैसे सांस्कृतिक अभिव्यक्ति से कई ज्वलंत मुद्दों को उठा रहे हैं। ये रचनात्मक समूह आंदोलनों में ऊर्जा का संचार करने और इसे जीवंत बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। समय के साथ प्रतिरोध के रचनात्मक तरीकों में भी बदलाव होता रहा है।

उदाहरण के लिए दल्ली राजहरा लौह-अयस्क खदानों में हुए संघर्ष को ही लें। इसकी शुरुआत 1978 में हुई। यह तब की बात है जब इस खदान में भिलाई स्टील प्लांट ने भारी मशीनरी के इस्तेमाल करने शुरुआत की। इस खदान का स्वामित्व भिलाई स्टील प्लांट के पास ही थी। श्रमिकों को अपने रोजगार खो देने का डर सताने लगा। फिर प्रदर्शन का दौर चला और इस तरह से 1994 तक मशीनीकरण के इस प्रयास को रोकने में सफलता भी हासिल हुई। उस आंदोलन में शामिल रहे कई नेता उन गीतों, कविता, नाटक इत्यादि को याद करते हैं और कहते हैं कि इससे आंदोलन को ऊर्जा और विस्तार देने में उन्हें मदद मिलती रही।

“इस आंदोलन में प्रदर्शनकारियों पर पुलिस फायरिंग में शहीद हुए मजदूरों की शहादत को याद करने वाले गीत थे। खनन से बर्बाद किये गए जंगल और खेतों की दास्तान सुनाने के लिए गीत गाए जाते थे। इन गीतों के माध्यम से श्रमिकों और किसानों को एक साथ आने की अपील भी की जाती थी। सभी गीत छत्तीसगढ़ के स्थानीय भाषा में गाए जाते थे। लेकिन आंदोलन का सबसे प्रासंगिक गीत था-आगे मशीनीकरण के राज, जुच्छा कर देही सबके हाथ। यह लगभग हर सभा में गाया जाता था और सभी कार्यकर्ता साथ गाते थे,” छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के पुण्यब्रत गुन ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया।

मजदूर नेता शंकर गुहा नियोगी पर केंद्रित एक डॉक्यूमेंट्री है-‘अ डेथ- फ्यू आर्ग्युमेंट्स (एक मौत- कुछ सवाल)। इसमें 1980 के दशक के अंत में भिलाई में मशीनीकरण विरोधी रैली के वीडियो फुटेज शामिल किए गए हैं। इसमें सैकड़ों खदान श्रमिकों को लाल शर्ट और हरे रंग की शॉर्ट्स पहने, छंद गाते हुए दिखाया गया है। गाने की लय पर सही कोरस में आगे बढ़ते कार्यकर्ता कदम से कदम मिलाकर चलते हुए दिखते हैं।

इस गीत को लेखक और कलाकार फगुराम यादव ने लिखा था। इन्होंने दल्ली खदान में एक मजदूर के रूप में काम किया और उनकी शिक्षा केवल चौथी कक्षा तक ही हुई थी।

“इस गीत ने लोगों को बहुत उम्मीदें और ताकत दी। क्योंकि इसमें उनके जीवन, उनकी समस्याओं और उसके समाधान का जिक्र था। इसने लोगों को एकजुट किया। मैंने खुद कई रैलियों और सभाओं में यह गीत गाया है,” कलादास डेहरिया कहते हैं। इन्होंने अस्सी के दशक के उत्तरार्ध में, एक सांस्कृतिक कार्यकर्ता के रूप में, सांस्कृतिक मंडली ‘नया अंजोर’ में फगुराम, लखन और अन्य लोगों के साथ काम किया।

2020 में, भारत ने कोयला खनन को प्रोत्साहित करने के लिए कई उपाय किए लेकिन बड़े पैमाने पर खनन प्रभावित समुदायों की चिंताओं को नजरअंदाज कर दिया। तस्वीर- स्टीफन कोडिंगटन/विकिमीडिया कॉमन्स
2020 में, भारत ने कोयला खनन को प्रोत्साहित करने के लिए कई उपाय किए लेकिन बड़े पैमाने पर खनन प्रभावित समुदायों की चिंताओं को नजरअंदाज कर दिया। तस्वीर- स्टीफन कोडिंगटन/विकिमीडिया कॉमन्स

कला के जरिए पीड़ा व्यक्त करते खनन प्रभावित लोग

खनन प्रभावित समुदाय अपनी पीड़ा व्यक्त करने के लिए कला के विभिन्न विधाओं का उपयोग करते हैं। इन विरोध प्रदर्शनों को जिन्होंने नजदीक से देखा है उनका मानना है कि गीत, कविताएं या अन्य तरीके बहुत प्रभावी होते हैं।

“जिस तरह से आदिवासी समुदाय गीत और नृत्य के माध्यम से खुद को अभिव्यक्त करते हैं, वह बहुत प्रभावी है। वैसे इन गीतों को कोई रिकार्ड नहीं रखा जाता। इन गीतों में कॉर्पोरेट लूट, सरकारी तंत्र की कारगुजारी को बखूबी उजागर किया जाता है। उन सरकारी नीतियों को जो लोगों के विस्थापन और बर्बादी की वजह बनता हैं। इन गीतों को लोगों ने कंठस्त कर रखा है,” कमल शुक्ला कहते हैं। इन्होंने अपनी 30 साल से अधिक पत्रकारिता के अनुभव में भारत में खनन और संबंधित मुद्दों को नजदीक से देखा-जाना है।

इन आंदोलनों को देखने वाले अन्य लोगों ने भी शुक्ला की बात से सहमति जताई। अलग संदर्भ में ही सही पर परफ़ॉर्मेंस स्टडीस के स्कालर रहे डायना टेलर के काम में भी इसकी मिसाल मिलती है। टेलर बताते हैं कि जब 19वीं शताब्दी में उपनिवेशवाद का विस्तार हो रहा था तो लैटिन अमेरिका का स्थानीय आदिवासी समाज कैसे इसके खिलाफ लड़ाई छेड़े हुए था। उनकी भी कला की परंपरा वाचिक ही थी पर उन्होंने उपनिवेशवाद के साथ लड़ाई में इसका बखूबी इस्तेमाल किया।

खनन-उद्योग-सैन्यीकरण गठजोड़ के खिलाफ मुहीम

सांस्कृतिक मंडलों का एक संयुक्त मंच रेला के संस्थापक सदस्य कलादास ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया कि हमारे लिए खदानें और उद्योग एक बड़े परिवार का हिस्सा थे। भिलाई में स्टील प्लांट, दल्ली राजहरा के अयस्क के बिना काम नहीं कर सकता था। हमने गाने और नाटकों के माध्यम से इस बड़ी तस्वीर को दिखाने की कोशिश की। हम यह बताना चाहते थे कि इस ‘विकास’ की कहानी में हम कहां खड़े हैं। हमारे साथ क्या किया जा रहा है।

इस संबंध में सबसे प्रसिद्ध गीतों में से एक है गांव छोडब नहीं (हम अपना गांव नहीं छोड़ेंगे।) ओडिशा के काशीपुर में बॉक्साइट खनन के खिलाफ आंदोलन के नेता भगवान मांझी के एक गीत से प्रेरित होकर, गांव छोडब नहीं को डॉक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता के.पी. ने 2000 के दशक की शुरुआत में संगीतबद्ध किया। मेघनाथ द्वारा लिखित और झारखंड के प्रशंसित लोक गायक मधु मंसूरी द्वारा गाया गया यह गीत दुनिया भर में खनन प्रभावित समुदायों द्वारा उठाए गए सवालों को उठाता है।

गीत इस प्रकार है:

गांव छोडब नहीं, जंगल छोडब नहीं,
माय माटी छोडब नही लड़ाय छोडब नहीं।

बांध बनाए, गांव डुबोए, कारखाना बनाए,
जंगल काटे, खदान खोदे, सेंक्चुरी बनाए,
जल जंगल जमीन छोड़ी हमिन कहा कहा जाए,
विकास के भगवान बता हम कैसे जान बचाए॥

जमुना सुखी, नर्मदा सुखी, सुखी सुवर्णरेखा,
गंगा बनी गंदी नाली, कृष्णा काली रेखा,
तुम पियोगे पेप्सी कोला, बिस्लरी का पानी,
हम कैसे अपना प्यास बुझाए, पीकर कचरा पानी?॥

पुरखे थे क्या मूरख जो वे जंगल को बचाए,
धरती रखी हरी भरी नदी मधु बहाए,
तेरी हवस में जल गई धरती, लुट गई हरियाली,
मछली मर गई, पंछी उड़ गए जाने किस दिशाएं॥

मंत्री बने कंपनी के दलाल हम से जमीन छीनी,
उनको बचाने लेकर आए साथ में पल्टनी
हो… अफसर बने है राजा, ठेकेदार बने धनी,
गांव हमारी बन गई है उनकी कॉलोनी ॥

बिरसा पुकारे एकजुट होवो छोड़ो ये खामोशी,
मछवारे आवो, दलित आवो, आवो आदिवासी,
हो खेत खालीहान से जागो, नगाड़ा बजाओ,
लड़ाई छोड़ी चारा नही सुनो देशवासी॥

ऐसा ही एक गीत है ‘छत्तीसगढ़ के कोरा में’, जिसे कलादास ने नब्बे के दशक में लिखा था। इस गीत में छत्तीसगढ़ को कीमती खनिजों की भूमि के रूप में चित्रित किया गया है, जिस पर कॉरपोरेट्स और सरकारें नजर गड़ाए हुए हैं। ताकि वे खदानें स्थापित कर सकें और गाढ़ा मुनाफा कमा सकें। इससे स्थानीय आदिवासी समुदायों के लोगों के विस्थापित होने का डर है। साथ ही उनके जंगल और खेत नष्ट होने का भी।

“ओडिशा में भी नियमगिरि में वेदांता की खदान के खिलाफ आंदोलन हो या कलिंगनगर में टाटा कारखाने के खिलाफ। ओडिशा में भी हरे बड़े आंदोलन में खनन से प्रभावित लोगों अपना दुख, डर और चिंताओं के साथ-साथ कॉर्पोरेट और सरकार के गठजोड़ को बेहतर तरीके से बताने के लिए गीत लिखे, नाटक खेले और अन्य विधाओं का सहारा लिया,” ओडिशा के बारगढ़ जिले में रहने वाले रेला के सदस्य अजीत पाणिग्रही ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया।

सिर की जगह चिमनी वाला आदमी। कलाकार- प्रभाकर पचपुते। कॉपीराइट © प्रभाकर पचपुते, कोलकाता।
सिर की जगह चिमनी वाला आदमी। कलाकार- प्रभाकर पचपुते। कॉपीराइट © प्रभाकर पचपुते, कोलकाता।

हाल के दिनों में लिखे गए कई गीतों में खनिज समृद्ध क्षेत्रों में बढ़ते सैन्यीकरण की तीखी आलोचना की गयी है। उदाहरण के लिए एक आंदोलन में कार्यकर्ताओं द्वारा सुरक्षाबलों के कैंप को वापस लेने की मांग और छत्तीसगढ़ के सिलगर में प्रदर्शनकारियों पर अकारण पुलिस फायरिंग की वजह से चार लोगों की मौत पर गीत लिखे गए। इन गीतों के माध्यम से ‘हत्या और हिंसा’ को समाप्त करने की मांग की गयी। एक गीत के बोल का अर्थ है, “हम मरेंगे लेकिन लड़ेंगे, अपना पानी, जंगल और ज़मीन नहीं छोड़ेंगे।,”

“इनमें से कई गाने खनन के बारे में नहीं हैं, क्योंकि इस क्षेत्र में अभी तक कोई खदान नहीं है। लेकिन ग्रामीणों को पता है कि सुरक्षा शिविर और चार लेन की सड़कें उनके लिए नहीं, बल्कि बड़े ट्रकों और सेना के लिए है। ये सड़कें लकड़ी, खनिज संसाधनों की निकासी के उद्देश्य से बनाई जा रही हैं। उन्होंने यह भी देखा है कि सैन्यीकरण का विरोध करने पर उनके करीबी लोगों को पुलिस की गोली और मौत मिली। इसी वजह से ये गीत बस्तर में पुलिस शिविरों को खाली करने का आह्वान करते हैं,” समाजसेवी और वकील शालिनी गेरा कहती हैं। वे छत्तीसगढ़ में उन ग्रामीणों का प्रतिनिधित्व करती हैं जो अपनी जमीन और जंगलों को सरकारी एजेंसियों और निजी हितों द्वारा कब्जा किए जाने से बचाने की मांग कर रहे हैं।

बदलते वक्त के साथ बदली धुन

हालांकि गीतों में खनन प्रभावित समुदायों की चिंताओं और आकांक्षाओं का सबसे बड़ा भंडार है। पर इस समुदाय के अनुभव और आकांक्षाओं को आवाज देता साहित्य भी बड़ी मात्रा में उपलब्ध है। इसमें किस्से-कहानी, कविता और नॉन-फिक्शन भी शामिल है।

“झारखंड में इस संबंध में सबसे पहले उल्लेखनीय हस्तक्षेप कुमार सुरेश सिंह द्वारा किया गया था। उनकी पुस्तक  ‘मुंडास एंड देयर कंट्री’  में मुंडाओं और अन्य समुदायों के इतिहास और संस्कृति का वर्णन किया। इसके बाद ऐसी कई किताबें प्रकाशित हुईं। हिंदी पत्रिका हंस के पूर्व संपादक संजीव कुमार जैसे कई लोगों ने खनन प्रभावित क्षेत्रों और लोगों का चित्रण करते हुए कहानियां और कविताएं लिखी हैं, ” रांची में रहने वाले लेखक और समाजसेवी अलोका कुजूर ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया।

छत्तीसगढ़ में आदिवासी सैकड़ों किलोमीटर पैदल मार्च करके रायपुर पहुंचे और सरकार से कोयले खनन की इजाजत न देने की मांग की। तस्वीर- आलोक प्रकाश पुतुल
छत्तीसगढ़ में आदिवासी सैकड़ों किलोमीटर पैदल मार्च करके रायपुर पहुंचे और सरकार से कोयले खनन की इजाजत न देने की मांग की। तस्वीर- आलोक प्रकाश पुतुल

हाल के दशकों में खनन प्रभावित समुदायों द्वारा निर्मित डॉक्यूमेंट्री फिल्मों और वीडियो में भी तेजी देखी गई है। सुलभ डिजिटल तकनीकी सुविधाओं के आने से ऐसा संभव हो पा रहा है।

“2003-04 के आसपास हम फिल्म निर्माताओं के रूप में खनन क्षेत्रों में युवा कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित करने के लिए गए थे। इस प्रशिक्षण का मकसद था उन्हें अपने आसपास की गतिविधियों का दस्तावेजीकरण करने के लिए सक्षम बनाना,” पिछले 17 वर्षों से फिल्म निर्माण समूहों से जुड़े भुवनेश्वर के एक कार्यकर्ता सूर्य शंकर दास ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया।

दास बताते हैं कि स्थानीय लोगों के लिए गए शॉट देखकर तो कभी कभी आश्चर्य होता है।

“मुझे काशीपुर में बॉक्साइट खनन के खिलाफ आंदोलन के दौरान एक कार्यकर्ता द्वारा लिया गया एक लंबा, शॉट याद है। इसमें कैमरा 20 मिनट तक सिर्फ वाहनों के एक काफिले को रिकॉर्ड करता है। वहां लोग खनन स्थल पर एक आधिकारिक समारोह के लिए पहुंचे थे। उस 20 मिनट में, स्थानीय तहसीलदार से लेकर जिला अधिकारी, बड़े नेता और कॉर्पोरेट अधिकारी सब दिखते हैं। यही लोग तो खनन पारिस्थितिकी तंत्र का गठन करते हैं,” दास ने आगे कहा।

कलिंग नगर में टाटा स्टील के खिलाफ आंदोलन पर एक डॉक्यूमेंट्री ‘रिप्रेशन डायरी में इस शॉट को शामिल किया गया था। इस दौरान बनाई गई कई फिल्में बाद के कई महीनों और वर्षों तक ऑनलाइन जारी की गईं और देश के कई हिस्सों में इनका प्रदर्शन किया गया।

खनन प्रभावित समुदायों के कलाकार भी हाल के वर्षों में दृश्य कला के क्षेत्र में अपनी पहचान बना रहे हैं। उनके कार्यों को कई कला दीर्घाओं और प्रदर्शनियों में शामिल किया गया है। सबसे उल्लेखनीय उदाहरण प्रभाकर पचपुते हैं, जिनका जन्म महाराष्ट्र के चंद्रपुर जिले में कोयला खनिकों के परिवार में हुआ था।

दुनिया भर में कई शीर्ष कला दीर्घाओं में एकल शो के साथ एक प्रशंसित कलाकार, पचपुते का काम बड़े पैमाने पर खनन के विभिन्न आयाम को दर्शाता है।

“मैंने अपने बचपन के कुछ ही साल चंद्रपुर में बिताए। क्योंकि मेरी पढ़ाई-लिखाई खैरागढ़ (छ.ग.) और बाद में वडोदरा में हुई। लेकिन मैं छुट्टियों में अक्सर अपने परिवार से मिलने जाता था। मैंने इस इलाके को बदलते देखा। खनन गतिविधियों की वजह से जमीन का बड़ा हिस्सा बंजर जमीन में बदल गया। वहां उत्तर भारतीय राज्यों से प्रवासी श्रमिकों की आमद और आय बढ़ने के साथ सांस्कृतिक परिवर्तन भी देखा गया। बाद में, जब मैंने ब्राजील और कोलंबिया जैसे देशों की यात्रा की। वहां भी खनन एक बड़ा उद्योग है। मैंने देखा कि भूमि और श्रम का शोषण हर जगह था,” पचपुते कहते हैं।

बैनर तस्वीरः खनन के खिलाफ स्वदेशी समुदायों के सदस्यों के लिए कला का इस्तेमाल एक सशक्त हथियार है। तस्वीर- अमोल के. पाटिल। कॉपीराइट © प्रभाकर पचपुते, कोलकाता।

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