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हिंद महासागर के ऊपर बिना रुके सबसे लंबी दूरी तक पलायन करते हैं ड्रैगनफ्लाई पतंगे

ग्लोब स्किमर के पंख। समुद्री जीवविज्ञानी चार्ल्स एंडरसन का कहना है कि ग्लोब स्किमर एक ऐसी उड़ान मशीन है जिसका डिजाइन उच्च कोटि का है। तस्वीर- Harum.koh/विकिमीडिया कॉमन्स

ग्लोब स्किमर के पंख। समुद्री जीवविज्ञानी चार्ल्स एंडरसन का कहना है कि ग्लोब स्किमर एक ऐसी उड़ान मशीन है जिसका डिजाइन उच्च कोटि का है। तस्वीर- Harum.koh/विकिमीडिया कॉमन्स

  • हिंद महासागर के आकाश में वैज्ञानिकों को एक उड़ने वाले पतंगे के हवाई रास्ते का पता चला है। वे मानते हैं कि ड्रैगनफ्लाई प्रजाति का ग्लोब स्किमर नामक पतंगे भारत से लेकर पूर्वी अफ्रीका और मध्य एशिया तक सदियों से उड़ते आए हैं।
  • ड्रैगनफ्लाई की लंबाई महज पांच सेंटीमीटर होती है। वैज्ञानिकों को अनुमान है कि ये बिना रुके ही समुद्र के ऊपर लंबी उड़ान भरते हैं। इस तरह ये कीट दुनिया में बिना रुके सबसे लंबी दूरी तक पलायन करने वाला एक अनोखा जीव है।
  • इस लंबी उड़ान में इन्हें मौसमी हवा का सहयोग मिलता है। अगर हवा का साथ न हो तो ये हिंद महासागर पार नहीं कर सकते। इस तरह की हवा शरद ऋतु में भारत से अफ्रीका तक और वसंत ऋतु में अफ्रीका से भारत तक बहती हैं।
  • जलवायु में परिवर्तन के कारण हवा बहने के पैटर्न में व्यवधान पैदा हो रहा है। इससे न केवल इस पतंगे का प्रवास प्रभावित हो रहा है बल्कि अन्य पक्षी प्रजातियों जैसे अमूर फाल्कन्स पर भी असर हो रहा है। यह पक्षी ड्रैगनफ्लाई की तरह उसी रास्ते पर पलायन करते हैं।

समुद्री रास्ते से मालदीव जाने के दौरान जीवविज्ञानी चार्ल्स एंडरसन ने झुंड के झुंड पतंगे देखे। इसे अंग्रेजी में ड्रैगनफ्लाई कहते हैं। ये पतंगे पूर्वी अफ्रीका की ओर उड़ान भर रहे थे। यह शरद ऋतु का समय था। एंडरसन ने इन पतंगों की पहचान ग्लोब स्किमर के रूप में की।

वर्ष 2009 में हुए इन अनुभवों के आधार पर एंडरसन एक अनोखे नतीजे पर पहुंचे। उन्होंने पाया कि पांच सेंटीमीटर लंबे ये ड्रैगनफ्लाई भारत से पूर्वी अफ्रीका तक हिंद महासागर के ऊपर उड़ान भरते हैं। वापस भी आते हैं। वह भी बिना रुके हुए।  

ऐसा माना जाता है कि ड्रैगनफलाई समुद्र पार करने के लिए ऊंचाई वाली मौसमी हवाओं का सहारा लेते हैं। ड्रैगनफ्लाई के छोटे शरीर के आकार को ध्यान में रखते हुए, यह यात्रा दुनिया की सबसे लंबी नियमित नॉन-स्टॉप माइग्रेशन यानी बिना रुके पलायन मानी जाएगी। उत्तरी अमेरिका में प्रसिद्ध मोनार्क तितलियां भी इन्हीं की तरह दूर तक उड़ान भरती हैं।

लेकिन यह यात्रा का महज एक छोटा सा हिस्सा है। आकाश में हर साल ऐसे अनोखे पलायन होते हैं। इसकी वजह से आकाश में एक सर्किट बनता है। ऐसा माना जाता है कि सदियों से, ग्लोब स्किमर्स भारत, पूर्वी अफ्रीका और मध्य एशिया के बीच 14,000 किलोमीटर से अधिक की दूरी तय करते हैं। हालांकि अब जाकर इस सर्किट का अध्ययन होना शुरू हुआ है। अध्ययन में पता लगाने की कोशिश हो रही है कि यह छोटा कीट आखिर किस तरह हिंद महासागर पार कर पाता है।

मालदीव में ग्लोब स्किमर्स के आगमन का अध्ययन करने वाले एंडरसन कहते हैं, “यह महज पलायन नहीं है। यह पलायन का एक पूरा ताना-बाना है।”

मोनार्क तितलियों के प्रवास का अच्छी तरह से अध्ययन किया गया है। ग्लोब स्किमर ड्रैगनफ्लाई (पेंटला फ्लेवेस्केंस) के वार्षिक प्रवासी चक्र के बारे में अपेक्षाकृत कम जानकारी है। इसी प्रवासी व्यवहार के कारण, इन्हें ग्लोब स्किमर्स या वांडरिंग ग्लाइडर के तौर पर जाना जाता है। यूरोप और ध्रुवीय क्षेत्रों को छोड़कर दुनिया भर में इन्हें देखा जा सकता है। 2016 के एक आनुवंशिक अध्ययन से इनके जीन को दुनियाभर में देखा गया।

“विश्व में ग्लोब स्किमर्स में केवल एक प्रकार की आबादी होने की संभावना है। हालांकि, इसकी पुष्टि नहीं हुई है। कुछ अनिश्चितता है। यह हो सकता है कि दो प्रकार की आबादी हो और अगर ऐसा है, तो एक प्रजाति अमेरिका की होगी और बाकी दूसरे हिस्सों की,” एंडरसन कहते हैं।

लुंड विश्वविद्यालय से जुड़े पारिस्थितिकीविद् जोहाना हेडलंड कहते हैं, “ग्लोब स्किमर” मोनार्क तितली की तुलना में बहुत हल्का है। इसका वजन लगभग 300 मिलीग्राम है। वहीं मोनार्क का वजन लगभग 600 मिलीग्राम होता है। “मोनार्क मुख्य रूप से भूमि पर प्रवास करता है और इनका पलायन भी सतह पर ही होता है। जबकि, भारत का ग्लोब स्किमर समुद्र के ऊपर पलायन करता है, जहां बीच में आराम करने का कोई स्थान नहीं होता।”

ग्लोब स्कीमर, लाओस के इलाके में उड़ान भरते हुए। फोटो, Basile Morin/विकीमीडिया कॉमनस
ग्लोब स्कीमर, लाओस के इलाके में उड़ान भरते हुए। फोटो, Basile Morin/विकीमीडिया कॉमनस

उन्नीसवीं सदी में भी नाविकों ने एक ऐसे ही पलायन का अनुभव किया था। सैकड़ों किलोमीटर दूर समुद्र के बीच उन्होंने पतंगों का झुंड पाया। लोगों ने इन्हें हिंद और प्रशांत महासागरों में दूरस्थ द्वीपों पर भी देखा है। हिमालय में पर्वतारोहियों ने 6000 मीटर से अधिक ऊंचाई पर उड़ने वाले ग्लोब स्किमर्स को देखा है।

एंडरसन इसे असाधारण मानते हैं।

कुछ अन्य प्रवासी कीटों के विपरीत ग्लोब स्किमर्स का मानव स्वास्थ्य या कृषि पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है, एंडरसन कहते हैं। “वे लोगों को नुकसान नहीं पहुंचाते। वे फसल नहीं खाते और उनसे बीमारियां भी नहीं फैलती,” एंडरसन कहते हैं।

ग्लोब स्किमर्स मच्छरों जैसे अन्य कीड़े खाते हैं।

“लार्वा के रूप में, वे मच्छरों के लार्वा खाते हैं” और “वयस्कों के रूप में, वे वयस्क मच्छरों और अन्य कीट खाते हैं,” उन्होंने आगे कहा। 

ड्रैगनफ्लाई को ओडोनेट्स नामक प्रजाति से होना माना जाता है जिसके दायरे में 5,000 प्रजातियों के मौजूद होने का अनुमान है। विशाल ड्रैगनफलीज़ के इस समूह के सबसे पुराने जीवाश्म 32.5 करोड़ वर्ष पुराने हैं।

ग्लोब स्किमर पलायन क्यों करता है?

ग्लोब स्किमर के आकार के छोटे कीट के लिए खुले समुद्र में उड़ना कोई सामान्य काम नहीं है। इसके लिए अत्यधिक धीरज की आवश्यकता होती है और यात्रा के दौरान कई लोग नष्ट हो जाते हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि इतना खतरा मोल लेकर यह जीव झुंड में खतरनाक यात्रा क्यों करते हैं?

अन्य ड्रैगनफ्लाई प्रजातियों की तुलना में, ग्लोब स्किमर्स में असामान्य रूप से लार्वा कम अवधि तक ही रहता है। अंडे से वयस्क होने तक उन्हें 5 से 7 सप्ताह लगता है। ड्रैगनफ्लाई की अधिकांश प्रजातियां अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा, कुछ मामलों में कम से कम 10 महीने तो सिर्फ लार्वा के रूप में बिताती हैं।

“लार्वा का महज पांच से सात सप्ताह में ड्रैगनफ्लाई बन जाना वाकई उल्लेखनीय है,” एंडरसन कहते हैं।

“वे ऐसा इसलिए कर सकते हैं क्योंकि उन्हें गर्म, अस्थायी पानी में अंडे देने में महारत हासिल है।

ऐसे अस्थायी स्थान उथले होते हैं।  उष्णकटिबंधीय वातावरण में यह जगह अपेक्षाकृत गर्म होती है। यही वजह है कि ग्लोब स्किमर के लार्वा तेजी से बढ़ते हैं,” एंडरसन बताते हैं।

“इनका कोई शिकारी लंबे समय तक जीवित नही रहता इसलिए इनके बचने की संभावना भी रहती है। ये लार्वा चट्टानों और पेड़ की शाखाओं और छेदों के नीचे छिपकर अपना जीवन व्यतीत नहीं करते हैं। बल्कि सक्रिय रूप से भोजन की खोज करते हैं,” उन्होंने कहा।

अफ्रीका में ग्लोब स्किमर का प्रवास स्थल। मैप- हेडलंड एट अल
अफ्रीका में ग्लोब स्किमर का प्रवास स्थल। मैप- हेडलंड एट अल

जब तक लार्वा वयस्क का रूप लेता है, मानसून या तो खत्म हो चुका होता है या जा रहा होता है। वयस्क होने के बाद उन्हें प्रजनन के लिए मीठे पानी की जरूरत होती है। बारिश की वजह से बने तालाबों की तलाश में हवा की मदद से उड़ते जाते हैं।

सितंबर से दिसंबर के बीच भारत में मानसून के बाद ग्लोब स्किमर्स बहुतायत में होते हैं। इसके बाद वे गायब हो जाते हैं। माना जाता है कि इस पतंगे की एक नई पीढ़ी वसंत ऋतु में पूर्वी अफ्रीका से भारत आती है।

लंबी उड़ान की तैयारी

खुले समुद्र में उड़ते समय ग्लोब स्किमर्स को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। ये छोटे कीट अपनी मंजिल कैसे पाते हैं? इस उड़ान के लिए उन्हें कई तरह से खुद को तैयार करना होता है।

“ग्लोब स्किमर एक तरह के फ्लाइंग मशीन हैं और समय के साथ इतने विकसित हो गए हैं कि इसे ‘चरम विकास’ की संज्ञा दी जा सकती है। इनके पंख का डिजाइन अद्भुत होता है। हवा में उड़ने के लिए जो जरूरी लिफ्ट चाहिए वह इन्हें इनके खास पंखों की वजह से मिल जाता है,”एंडरसन कहते हैं।

“हम यह भी जानते हैं कि ड्रैगनफ़्लाई जो लंबी दूरी की यात्रा करते हैं वह विशेष रूप से ग्लाइड या हवा के साथ तैरते हैं। इससे ऊर्जा की खपत कम होती है और दूर तक उड़ने की संभावना बनी रहती है। इनके पंख त्रिकोणीय और नुकीले सिरे वाले होते हैं जो कि इस तरह की उड़ान में सहायक है, ”एंडरसन बताते हैं।

कई समुद्रों के ऊपर उड़ान

माना जाता है कि इस पतंगे की एक पीढ़ी हिंद महासागर को शरद ऋतु में पार करती है। इसके लिए 900 से 2400 किलोमीटर का सफर करना होता है। वसंत ऋतु में इनकी वापसी होती है। हालांकि, शरद ऋतु में अफ्रीका में भारतीय ग्लोब स्किमर्स के आगमन और वसंत में भारत में अफ्रीकी ग्लोब स्किमर्स के आगमन की अभी पुष्टि नहीं हुई है।

माना जाता है कि ग्लोब स्किमर्स एक ऐसे रास्ते का अनुसरण करते हैं जहां ऊंचाई वाली हवाएं चलती हैं, जिसे इंटर-ट्रॉपिकल कन्वर्जेंस ज़ोन के रूप में जाना जाता है।

अपने छोटे आकार के कारण इस कीट पर ट्रांसमीटर टैग करना मुमकिन नहीं है। ऐसा पक्षियों के लिए किया जाता है ताकि उनका पलायन का रूट पता लग सके। इसके बजाय, वैज्ञानिकों को इनके प्रवास को मैप करने के लिए पंखों में रडार, मॉडलिंग और आइसोटोप जैसे उपकरणों पर निर्भर रहना पड़ता है।

एफ्रो-एशियाई क्षेत्र में पतंगे का अनुमानित प्रवासन। मैप- बोरिसोव एट अल
एफ्रो-एशियाई क्षेत्र में पतंगे का अनुमानित प्रवासन। मैप- बोरिसोव एट अल

मालदीव में लैंडिंग

एंडरसन ने भारत से 430 किमी दूर मालदीव में उतरते हुए ग्लोब स्किमर ड्रैगनफ्लाई के बड़े झुंड को देखा। यह अक्टूबर से दिसंबर के बीच का समय था। लेकिन द्वीपसमूह में प्रजनन के लिए मीठे पानी की कम उपलब्ध होता है।

तो, अब सवाल है कि मालदीव में ड्रैगनफलीज़ क्यों उतरते हैं?

वैज्ञानिक अभी तक नहीं जानते हैं लेकिन कुछ संभावित वजहों का जिक्र करते हैं।

एंडरसन कहते हैं, ग्लोब स्किमर्स की वैश्विक आबादी सभी हवाओं के साथ घूम रही है। “भारत से कुछ हवा का अनुसरण करेंगे और ऐसा होता होगा कि यह हवा उन्हें मालदीव के पार लेकर चली जाती हो। ऐसे में ये पतंगे एक बार नीचे आकर देखते हों और पाते हों कि यह स्थान उनके लायक नहीं है। फिर वे नई जगह की तलाश में उड़ान भरते हों। यही हवा उन्हें पूर्वी अफ्रीका तक ले जाएगी।”

यदि ड्रैगनफलीज़ उत्तर भारत से आ रहे हैं तो “क्या ड्रैगनफ़लीज़ कई स्थानों पर रुककर ईंधन भरते हैं? ठीक उसी तरह जैसे अन्य प्रवासी पक्षी करते हैं,” हॉब्सन पूछते हैं।

हेडलंड इसमे आगे जोड़ते हैं, “यह कहना कठिन है कि ये पतंगे मालदीव में सुस्ताने के लिए रुकते हैं। अन्य प्रवासी पक्षियों की तरह ताकि अगली उड़ान आसानी से हो सके। प्रवासी पक्षी ऐसा न करें तो यात्रा में मृत्यु होने की आशंका बढ़ जाएगी।”

जलवायु परिवर्तन का खतरा

चूंकि ग्लोब स्किमर्स को हिंद महासागर में उड़ने के लिए मौसमी रूप से अनुकूल हवाओं की जरूरत होती है, इसलिए हवा के पैटर्न में कोई भी व्यवधान उनके उड़ान को प्रभावित कर सकता है। एंडरसन कहते हैं कि अगर हवा तेज बहने लगे या समय के अनुरूप न हो तो इसका असर होगा। दूसरी ओर, यदि जलवायु परिवर्तन वर्षा को प्रभावित करता है, तो एंडरसन का मानना ​​है कि यह ड्रैगनफलीज़ को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकता है।

“कई ऐसे कीट हैं जो कि धान के पौधे पर हमला करते हैं। उनमें फॉल आर्मीवर्म जैसे कीट प्रमुख हैं। इनमें से कई हानिकारण कीट ही ड्रैगनफ्लाई का भोजन है। अगर हवा की वजह से इनकी आवाजाही प्रभावित हुई तो इससे नुकसान ही होगा,” एंडरसन कहते हैं।

बैनर तस्वीर: ग्लोब स्किमर और उसके पंख। समुद्री जीवविज्ञानी चार्ल्स एंडरसन का कहना है कि ग्लोब स्किमर एक ऐसी उड़ान मशीन है जिसका डिजाइन उच्च कोटि का है। तस्वीर– Harum.koh/विकिमीडिया कॉमन्स

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