- जलवायु परिवर्तन और मौसम की अनियमितताओं की वजह से खेती में नित नए प्रयोग हो रहे हैं। ऐसा ही एक प्रयोग हो रहा है तालाबों के साथ खेती करने का।
- मेघालय में हुए एक शोध में सामने आया कि किसानों ने खेती में तालाब का इस्तेमाल समझदारी के साथ किया और फसल अच्छी हो गई। इस प्रयोग को इंटिग्रेडेट फार्मिंग सिस्टम (आईएफएस) या समन्वित खेती का तरीका कहते हैं।
- पूर्वी हिमालय और बंगाल के तटीय क्षेत्र में किसानों ने इस तरीके से अपनी आय भी बढ़ाई है।
खेती-किसानी पर जलवायु परिवर्तन का असर सबसे अधिक होता है। मौसम की अनिश्चितता से किसान काफी परेशानी झेल रहे हैं। पर खेती में नए तरीकों को शामिल करने से इनकी परेशानी कुछ कम हो सकती है। इन नए तरीकों में एक तरीका है इंटीग्रेटेड फार्मिंग सिस्टम या समन्वित खेती। यानी, खेती के साथ कई अन्य गतिविधियों को अपनाकर आमदनी बढ़ाई जा सकती है।
इसमें अनाज के साथ सब्जी, फल, कुक्कुट और मछली पालन करके किसान अपनी आमदनी बढ़ा रहे हैं और जलवायु परिवर्तन के असर को कम करने में सफल हो पा रहे हैं।
हाल ही में इसके बारीकियों को समझने के लिए इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च (आईसीएआर) ने एक शोध किया। इसके लिए पूर्वी हिमालय क्षेत्र को चुना गया जहां के किसान मौसम की बढ़ती अनिश्चितता की वजह से काफी परेशान हैं। उनकी आमदनी भी दिनोदिन घट रही है। इसी क्षेत्र में तालाबों को खेती में शामिल कर इंटीग्रेटेड फार्मिंग सिस्टम पर काम किया गया।
साल 2009 से लेकर 2014 के बीच चले इस शोध में 22.5 हेक्टेयर में फैले 11 तालाब वाले खेत शामिल किए गए। इसमें 150 किसानों के साथ अध्ययन किया गया। अध्ययन के लिए दो तरह के मॉडल अपनाए गए। पहले मॉडल में धान, सब्जी और कुक्कुट पालन को एकसाथ किया गया और दूसरे मॉडल में सब्जी, कुक्कुट और फल को शामिल किया गया। इन दोनों तरीकों से किसानों को साल में 81 दिन रोजगार मिला और इससे सालभर पोषण और आमदनी की व्यवस्था भी हुई। इससे पहले साधारण खेती में वे 42 दिन का रोजगार भी नहीं जुटा पाते थे।
खर्चा घटाकर आमदनी बढ़ाई
खेती के इस तरीके में संसाधनों का अधिकतम इस्तेमाल किया गया। खाद और कीटनाशक का इस्तेमाल खत्म किया गया ताकि खेती की लागत भी कम हो सके। इस पद्धति में किसानों को धान, सब्जी और सुअर पालन से 8 गुना अधिक फायदा हुआ।
शोध के एक लेखक और आईसीएआर के वैज्ञानिक अनुप दास ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया कि पहले भी किसानों के पास छोटे तालाब थे जिसमें वे मछलीपालन करते थे। इसी पानी से अपने फसल की सिंचाई भी करते थे।
“हालांकि, ज्यादातर तालाबों का सीमित उपयोग ही होता था। उनकी मरम्मत भी यदा-कदा ही होती थी,” दास कहते हैं।
दास ने कहा कि वैज्ञानिक तरीके से मछलीपालन और पानी का इस्तेमाल सब्जी और मवेशी के लिए होने से यहां का उत्पादन बढ़ने लगा। फलस्वरूप आमदनी भी बढ़ी और रोजगार भी बढ़ा। खेती के इस तरीके से सालभर आमदनी का रास्ता भी मिला। साथ ही, जलवायु परिवर्तन के दौर में किसानों की अनिश्चितता कुछ कम हुई।
दास कहते हैं कि जहां पानी की कमी है वहां बारिश के पानी को सहेजकर उसका उपयोग करना काफी सामान्य बात है। ऐसे इलाकों में खेती का यह तरीका काफी कारगर साबित हो सकता है। यहां कम पानी की खपत करने वाली फसल जैसे मोटे अनाज, दालें उगाई जा सकती हैं। तालाब में पानी अधिक दिन टिके, इसके लिए एक खास अंतराल पर उसकी मरम्मत जरूरी है।
दास ने आगे कहा कि खेती-किसानी की समझ बढ़ने से खेती में लागत कम करने में मदद मिलती है। हालांकि, तालाब बनाने, जानवर पालने, कंपोस्ट बनाने और सिंचाई के लिए किसानों को मदद की जरूरी होती है।
इसी पद्धति पर एक दूसरी रिपोर्ट आईआईटी खड़गपुर के वैज्ञानिकों के साथ रामकृष्ण मिशन ने मिलकर बनाई है। यह बंगाल के तटीय इलाके में टिकाऊ कृषि पर आधारित है। इस रिपोर्ट का कहना है कि एकीकृति खेती या समन्वित खेती के माध्यम से किसानों की दशा सुधर रही है।
इस रिपोर्ट को तैयार करने के लिए सुंदरबन इलाके के 140 छोटे स्तर पर खेती करने वाले किसानों पर अध्ययन किया गया। यहां के किसान कारगर तरीके से मीठा पानी इकट्ठा करते हैं और खेती में उसका इस्तेमाल करते हैं। इस तरीके से समुद्र के खारे पानी के पास खेत होने के बावजूद खेती संभव हो पाती है।
“आने वाले समय में शोध से तटीय इलाकों में टिकाऊ खेती के और मजबूत तरीकों की पड़ताल की जाएगी,” इस रिपोर्ट में कहा गया है।
हालांकि, जलवायु परिवर्तन पर इस रिपोर्ट में सीधे तौर पर कुछ नहीं कहा गया है। “इतना तय है कि खेती के इस तरीके से जलवायु परिवर्तन की मार झेलने में भी आसानी होगी,” रामकृष्ण मिशन से जुड़े वैज्ञानिक रूपक गोस्वामी ने कहा। वे इस रिपोर्ट के लेखकों में से एक हैं।
गोस्वामी ने कहा कि समुद्री इलाके में सिंचाई के लिए किसान मीठे पानी को इकट्ठा करते हैं। यहां जमीन की संरचना में बदलाव कर बारिश के पानी को जमा किया जाता है।
चाहे समुद्री इलाका हो या सूखाग्रस्त इलाका, हर जगह एकीकृत खेती का यह मॉडल कारगर साबित हो सकता है। सूखाग्रस्त इलाके में पानी की मौजूदगी से मवेशी को पालने में आसानी होती है। इससे भी किसानों की आमदनी बढ़ती है। समुद्री इलाके में तालाब के साथ खेती से मीठे पानी की उपलब्धता बनी रहती है।
प्रकृति में समाधान की तलाश
खेती को टिकाऊ बनाने की कवायद में वैज्ञानिकों ने संयुक्त राष्ट्र के इकोसिस्टम रिस्टोरेशन दशक को भी ध्यान में रखा है। साल 2021 से यह दशक शुरू हुआ है। जलवायु परिवर्तन संबंधित चुनौती से लड़ने के लिए शोधकर्ता प्रकृति के बीच से ही समाधानों की खोज कर रहे हैं। इन समाधानों की मदद से खेती को बेहतर बनाने की कोशिश हो रही है। अगस्त 2021 में पर्यावरण विज्ञान पर फ्रॉन्टियर में प्रकाशित एक रिपोर्ट में नेचर बेस्ड सॉल्यूशन यानी प्रकृति आधारित समाधान को दशक के समाधानों में प्रमुखता से शामिल किया गया है।
इस रिपोर्ट में खेती में इन तरीकों के उपयोग की सिफारिश की गयी है। उनका कहना है कि पारिस्थितिकी को बचाने के लिए खेती के तौर तरीकों को भी बदलना होगा। इस पद्धति में टिकाऊ तरीके से उत्पादन बढ़ाना, हरियाली के लिए ढांचा तैयार करना, मिट्टी और पानी का संरक्षण और जलवायु परिवर्तन से निपटने की अन्य तैयारियां शामिल है।
भारत इस क्षेत्र में कई कोशिशें कर रहा है। उदाहरण के लिए ओडिशा में खेती, पशुपालन और मछलीपालन के लिए रेनफेड एग्रीकल्चर नेटवर्क को पुनः तैयार किया गया है।
दूसरे देश भी इस दिशा में अग्रसर हैं। जैसे चीन में मलबेरी प्लॉट फिश पॉन्ड से मछलीपालन किया जाता है।
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इसी तरह केन्या में खेतों के बीत बने तालाब से सूखे से निजात मिल रहा है। नैरोबी में वर्ल्ड एग्रोफॉरेस्ट्री सेंटर के अधीन ड्राइलैंड डेवलपमेंट प्रोग्राम के तहत पौधे की नर्सरी लगाई जा रही है।
एकीकृत पद्धति को साधारण शब्दों में समझें तो इसमें किसान धान की खेती के साथ मछलीपालन और सब्जियों की खेती भी करते हैं। यह कहना है शिव नादर यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ सोशल साइंसेज एंड ह्यूमेनिटी की कृषि अर्थशास्त्री राजेस्वरी रैना का। यह पद्धति पूरी तरह से आमदनी और उत्पादन बढ़ाने की पद्धति है, उन्होंने कहा।
“हमें उत्पादकता को मापने के लिए अलग मानदंडों की भी जरूरत है,” वह कहती हैं। उदाहरण के लिए प्रति हेक्टेयर में कितना उत्पादन हुआ, यह मापने के बजाए इसमें कितना पानी खर्च हुआ यह देखना होगा। इससे असल तस्वीर सामने आएगी।
पारंपरिक ज्ञान पद्धति में इसे आंकने के तरीके अलग हैं। उदाहरण के लिए आंध्रप्रदेश की महिला किसान फसल को वजन के अलावा उसकी मोटाई और गुणवत्ता के लिहाज से आंकलन करती हैं।
सरकार को भी रासायनिक खाद पर खर्च करने के बजाए इन तरीकों की खेती को बढ़ावा देने के लिए बजट बढ़ाना चाहिए, रैना कहती हैं।
बैनर तस्वीरः भारत के अरुणाचल प्रदेश में धान के खेत में मछलीपालन भी होता है। यह समन्वित खेती का एक उदाहरण है। तस्वीर– अश्वनी कुमार/विकिमीडिया कॉमन्स