- 60 वर्ष की जानकीअम्मा दक्षिण भारत के आदिवासी समुदाय कुरुंबा से वास्ता रखती हैं। वे जड़ी-बूटी के जरिए कई मर्जों का इलाज भी जानती हैं। पर उन्होंने औपचारिक शिक्षा नहीं ली है।
- कभी शहद इकट्ठा करने वाली जानकीअम्मा इन दिनों किसानों से संबंधिक एक कंपनी की डायरेक्टर हैं। यह कंपनी प्रकृति आधारित खेती को बढ़ावा देकर पर्यावरण को बचाने में अपने सहयोग कर रही है।
- इस पहल के लिए कंपनी को हाल ही में यूनाइटेड नेशन डेवलपमेंट प्रोग्राम ने इक्वेटर पुरस्कार से नवाजा है।
जीवन के 60 वसंत देख चुकी जानकीअम्मा आज एक कृषि उत्पाद कंपनी की डायरेक्टर हैं। दक्षिण भारत के आदिम जनजाति कुरुंबा से वास्ता रखने वाली अम्मा कभी शहद इकट्ठा करने का काम किया करती थीं। जड़ी-बूटियों और पारंपरिक ज्ञान के सहारे अम्मा लोगों का इलाज करती हैं। पर इन्होंने कोई औपचारिक शिक्षा नहीं ली है। तमिलनाडु स्थित नीलगिरि पहाड़ी पर रहने वाली अम्मा को इस वर्ष संयुक्त राष्ट्र का एक महत्वपूर्ण सम्मान मिला है।
अम्मा जिस कंपनी की निदेशक हैं उसके सारे सदस्य आदिवासी समुदाय से आते हैं। इस कृषि उत्पाद कंपनी का नाम है आदिमलाई पझनगुडिनियकर प्रोड्यूसर कंपनी लिमिटेड (एपीपीसीएल)। इस कंपनी में आदिम जनजाति से सात डायरेक्टर शामिल किए गए हैं।
आर्थिक रूप से कमजोर समुदाय से आने वाली एक महिला का औपचारिक शिक्षा के बिना इस कंपनी का निदेशक बनना एक मीक्षाल है। इस कंपनी में कुल 1600 शेयरधारक हैं। जानकीअम्मा की कहानी अनोखी है। इसी तरह उस कंपनी की कहानी भी अनोखी है जिसकी ये निदेशक हैं। इस कंपनी के काम को देखते हुए हाल ही में यूनाइटेड नेशन्स डेवलपमेंट प्रोग्राम ने इसे इस साल का इक्वेटर पुरस्कार दिया है।
एक गैर लाभकारी संस्था कीस्टोन फाउंडेशन ने एपीपीसीएल की शुरुआत की। प्रकृति आधारित समाधान को अपनाने और महिला सशक्तिकरण के लिए इस कंपनी को ग्रीन इकोनॉमी की श्रेणी में पुरस्कार मिला है।
“मैं कीस्टोन संस्था के लिए शहद की आपूर्ति करती थी। अब मैं उनकी कंपनी की एक डायरेक्टर हूं। मेरा काम गांव वालों से शहद इकट्ठा करना है। ये गांव वाले ही कंपनी के शेयरधारक भी हैं। मेरी तमाम जिम्मेदारियों में इन शेयरधारकों को समय-समय पर बोनस देना भी शामिल है। कंपनी से जो लोग नहीं जुड़े वे अब एक शेयरधारक के तौर पर इसका हिस्सा बनना चाहते हैं। इसे मैं सफलता मानती हूं,” जानकीअम्मा कहती हैं।
प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाकर जीने वाली जनजातियों की इस कंपनी को ग्रीन इकोनॉमी के सभी मापदंडों पर खरा पाया गया। बिना पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए ही यह कंपनी आगे बढ़ रही है।
ग्रीन इकोनॉमी- आदिवासियों में आपस में ही खरीद-बिक्री
“ग्रीन इकोनॉमी को ध्यान में रखते हुए हमने गांव में ही वनोपज का प्रसंस्करण किया। यहां से सीधे इन उत्पादों को बाजार पहुंचाया गया। इस तरह जो आमदनी हुई वह इसी अर्थव्यवस्था को मजबूत करने में लगी। हम कुदरत को किसी भी तरह से प्रदूषित नहीं कर रहे और न ही इसका दोहन कर रहे हैं। इस प्रक्रिया में कार्बन उत्सर्जन भी नहीं हो रहा। यह अर्थव्यवस्था खड़ी करने का एक ग्रीन मॉडल है,” जस्टिन पॉल ने कहा। वे एपीपीसीएल के सीईओ हैं और कंपनी में इकलौते गैर आदिवासी कर्मचारी हैं।
वर्ष 2000 में इस कपनी को फार्मर्स कलेक्टिव नाम से शुरू किया गया था और 2013 में इसे किसान उत्पादक कंपनी (एफपीओ) की तरह पंजीकृत किया गया। इसे शुरू करने वाली संस्था कीस्टोन की संस्थापक-डायरेक्टर स्नेहलता नाथ कहती हैं कि इलाके के शहद इकट्ठा करने वाले लोगों की स्थिति बेहतर करने के लिए यह कंपनी (फार्मर्स कलेक्टिव) अस्तित्व में आई थी। इसके पहले ये आदिवासी औने-पौने दाम दाम में शहद बेचने को मजबूर थे।
“हम एकबार गांव के बाजार गए और वहां उन्हें 15 से 17 रुपए में बोतल भरकर शहद बेचते देखा। हमें लगा कि यह गलत हो रहा है। हमलोग भलीभांति जानते थे कि शहद निकालने में काफी मेहनत लगती है। फिर हमलोग कोशिश करने लगे कि इन्हें शहद का सही दाम मिले। थोड़ी कोशिश करने पर एहसास हुआ कि शहद को वैसे ही बेचने पर अधिक पैसा नहीं मिलेगा। इसलिए ग्रामीणों को शहद प्रसंस्कृत करने के लिए प्रोत्साहित करने लगे। इस तरह हमारी शुरुआत हुई,” नाथ ने कहा।
एपीपीसीएल अब शहद के साथ मधुमक्खियों के छत्ते से बने लिप बाम, साबुन, अचार, आंवला कैंडी वगैरह भी बेचती है।
इन्हें बेचने के लिए गांवों में कई केंद्र स्थापित किए गए और ग्रीन शॉप नाम से एक और ऑर्गेनिक बाजार को विकसित किया गया। शुरुआत में स्वसहायता समूहों के माध्यम से उत्पादन शुरू किया गया। उत्पाद इकट्ठा करने के लिए भी गांवों में केंद्र बनाये गए।
एपीपीसीएल और आधिमलाई ने 2013 में चार उत्पादन केंद्र स्थापित किए। यहां कंपनी के शेयरधारकों में शामिल वरिष्ठ लोगों की सहमति से ही सारा काम होता है। बोर्ड ऑफ डायरेक्टर की बैठक के बाद उत्पादों की कीमत और व्यापार का भविष्य तय होता है। सभी निर्णयों में लोगों की सहभागिता सुनिश्चित की जाती है।
कंपनी में कुदरत भी एक शेयरधारक
महज ग्रीन इकोनॉमी ही नहीं बल्कि उत्पादन के टिकाऊ तरीके भी इक्वेटर पुरस्कार मिलने की वजह रही। जस्टिन कहते हैं कि उनकी कंपनी के सदस्य उत्पादन के दौरान प्रकृति को नुकसान नहीं पहुंचाते। एपीपीसीएल शहद के अलावा आंवला, शिकाकाई (सेनेगलिया रगाटा), हरीतकी (टर्मिनलिया चिबुआ), पूचक्कई या सोप नट (सपिंडस मुकोरोसी) आदि भी बेचती है।
शहद या फिर कोई उत्पाद निकालने के लिए आदिवासी पारंपरिक तरीके ही अपनाते हैं जिसमें कुदरत को नुकसान नहीं होता। बदलते समय में बाजार की मांग ने उन्हें परंपराओं से दूर कर दिया था।
एपीपीसीएल ने यहां हस्तक्षेप किया और किसानों को पारंपरिक तरीकों को अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया। इसके लिए उन्हें आश्वस्त किया गया कि पारंपरिक तरीकों से समझौता किए बिना भी पर्याप्त कमाई हो जाएगी। इसके लिए बेहतर मार्केटिंग करने की जरूरत पड़ेगी जो किया जाएगा।
उदाहरण के लिए, शिकाकाई एक कांटेदार चढ़ाई वाली झाड़ी है। इसके फल को इकट्ठा करना आसान नहीं है। हड़बड़ी में अधिक से अधिक फसल निकालने के लिए लोग इसके पेड़ को ही काट देते थे। लेकिन एपीपीसीएल के शेयरधारकों और उत्पादकों ने फैसला किया कि वे ऐसा नहीं करेंगे और इसके बजाय पेड़ के नीचे जाल बांधकर उसे हिला देंगे। इससे केवल पके फल ही टूटकर गिरेंगे और साथ में पौधा भी नष्ट नहीं होगा। आंवले जैसी उपज के मामले में भी इसी तरह की प्रथा को प्रोत्साहित किया जाता है।
जेस्टिन का कहना है कि इससे उपज की गुणवत्ता भी सुनिश्चित हुई है। “किसान अब कॉफी के पके हुए फल को तोड़ते हैं। इससे कॉफी की उपज और गुणवत्ता में वृद्धि हुई है। पहले 450-500 किलो कॉफी इकट्ठा करते थे लेकिन अब कंपनी को लगभग 22 टन कॉफी मिलती है, ” वह कहते हैं।
शहद इकट्ठा में अत्यधिक कुशलता की जरूरत होती है। जंगली शहद एक बहुत ही मूल्यवान उत्पाद है, इसलिए एपीपीसीएल इसे इकट्ठा करने के काम को पूरी तरह से टिकाऊ बनाने में अत्यधिक सावधानी बरतती है। ग्रामीणों को अपने शहद की आपूर्ति करते समय, यह जानकारी देनी होती है कि उन्होंने कितने छत्ते देखे हैं। वे किन चट्टानों पर थे, कौन से फूल और पेड़ थे, और उन्होंने उनमें से कितने छत्ते काटे।
“मान लीजिए कि उन्होंने 12 छत्ते देखे। कंपनी के प्रोटोकॉल से पता चलता है कि वे केवल आठ छत्ते से ही शहद निकाल सकते हैं,” जस्टिन कहते हैं।
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सात साल तक शेयरधारक रहे कलियप्पन का कहना है कि शेयरधारक होने के कई फायदे हैं। एपीपीसीएल से बाजार मूल्य से अधिक दाम देने के साथ, कीस्टोन शेयरधारकों को वित्तीय और अन्य सहायता प्रदान करती है।
“वे हमारे खेत को साफ करने, बीज, पौधे और दूसरी लागत की आपूर्ति करने में हमारी मदद करते हैं। जब हमें उनकी आवश्यकता होती है और खेती और उत्पादन में सुधार के लिए विभिन्न प्रशिक्षण आयोजित करते हैं। शेयरधारकों को अपनी उपज की बिक्री के लिए कंपनी के माध्यम से वार्षिक बोनस भी मिलता है,” वे कहते हैं।
एपीपीसीएल के पास हनी हंटर्स के लिए एक बीमा योजना भी है। “पिछले साल हमसे 136 किसान जुड़े थे,” जेस्टिन साझा करते हैं।
महिला सशक्तिकरण: आदिवासी महिलाओं ने कैसे पाई अपनी आवाज
यूएन इक्वेटर पुरस्कार मिलने में कंपनी की महिला सशक्तिकरण के क्षेत्र में किए काम ने बड़ी भूमिका निभाई। जस्टिन का कहना है कि एपीपीसीएल के 60 कर्मचारियों में से 52 महिलाएं हैं। स्नेहलता स्वीकार करती हैं कि बड़े प्रयास के बाद यह संभव हो पाया। “हमने महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित की हैं,” वह कहती हैं।
“शुरुआत में सबसे बड़ा मुद्दा यह था कि वे शिक्षित नहीं हैं। इस उद्यम के प्रत्येक चरण में कई ऐसे काम थे जिसमें शिक्षित होना जरूरी था जैसे मापन, आंकड़ों को सही से दर्ज करना और लाभ और हानि को समझना इत्यादि। शुरू में, हमें बार-बार प्रशिक्षण देना पड़ा। सुमित्रा और जानकीअम्मा ने महिलाओं को संगठित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। फिर पढ़ाई-लिखाई कर रही छोटी लड़कियां भी इस काम के लिए आगे आईं, ” स्नेहलता कहती हैं।
कुन्नूर के पुदुकाडु में उत्पादन इकाई की प्रमुख सुमित्रा कहती हैं कि इसमें कम से कम दस गांव की महिलाओं को काम पर रखा गया है। “हमारी इकाई गांव में महिलाओं के लिए शिकाकाई, आंवला और जमीन पर गिरे रेशमी कपास जैसे वनोपज बेचने में मदद करती हैं। पुरुष काम पर जाते हैं। पर अधिकतर घरों महिलाओं को मुश्किल से ही पैसा मिल पाता था। अब वे खुद कमाती हैं,” वह कहती हैं।
सुमित्रा को लगता है कि आदिमलाई कंपनी में आदिवासी महिलाओं को उनकी आवाज मिल गई है।
एपीपीसीएल के सामने सबसे बड़ी चुनौती फंडिंग की है। उचित कोल्ड स्टोरेज सुविधा की कमी के कारण दो साल पहले एपीपीसीएल को हुए एक महत्वपूर्ण नुकसान को याद करते हुए, जस्टिन कहते हैं कि उन्हें बेहतर बुनियादी ढांचे की जरूरत है लेकिन उनके पास पूंजी की कमी है।
बैनर तस्वीरः 60 वर्षीय जानकीअम्मा कभी शहद इकट्ठा करने का काम करती थीं, लेकिन आज वे एक अवॉर्ड विनिंग कंपनी की डायरेक्टर हैं। तस्वीर- आरथी मेनन