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उत्तर प्रदेश में एक ऐसा स्कूल जहां पढ़ाई के साथ लगती है कछुआ संरक्षण की क्लास

बहराइच जिले के इस स्कूल में बच्चों को कछुआ संरक्षण के लिए प्रेरित किया जाता है। स्कूल के बच्चों ने कई कछुओं की जान बचाई है। तस्वीर- अजीम मिर्ज़ा

बहराइच जिले के इस स्कूल में बच्चों को कछुआ संरक्षण के लिए प्रेरित किया जाता है। स्कूल के बच्चों ने कई कछुओं की जान बचाई है। तस्वीर- अजीम मिर्ज़ा

  • देश में कछुओं की तस्करी बड़े पैमाने पर होती है। बीते दस सालों में लाखों कछुए जब्त किए गए हैं। इससे देश में चल रहे कछुओं के अवैध व्यापार का अनुमान लगाया जा सकता है।
  • कछुओं की पाए जाने वाली प्रजाति और तस्करी, दोनों के लिहाज से उत्तर प्रदेश काफी महत्वपूर्ण है। हाल ही में 250 कछुओं के साथ एक गिरोह पकड़ा गया जिसने स्वीकार किया कि वे मछुवारों से कछुए खरीदकर उनका अवैध व्यापार करते हैं।
  • मछुवारों को कछुआ संरक्षण का महत्व समझाने के लिए उत्तर प्रदेश के बहराइच जिले में कई सालों से कोशिश चल रही है। इसके तहत पिछले दस साल से बच्चों को इसके बारे में शिक्षा दी जा रही है। इसके लिए स्कूल और चालित स्कूल चलाए जा रहे हैं।

अभी लॉकडाउन नहीं लगा था और बच्चे स्कूल जा रहे थे। उन्हीं दिनों 11-वर्षीय पवन कुमार निषाद को स्कूल से घर जाते हुए अचानक एक कछुआ दिखा। सड़क पर। उस कछुए का किसी गाड़ी के नीचे आ जाने की पूरी आशंका थी। हालांकि पवन ने सूझ-बूझ का परिचय देते हुए उस कछुए को उठाया और पास के एक तालाब में छोड़ दिया। अपने किए पर उत्साहित आदमपुर गांव का रहने वाला यह बच्चा घर आने पर सबसे पहले अपने स्कूल शिक्षक को फोन लगाया और सारी बात बताई। अपर प्राइमरी विद्यालय, आदमपुर में कक्षा 6 का यह छात्र ने कछुए की प्रजाति की पहचान भी कर ली थी। उसने बताया कि वह सुंदरी (इंडियन फ्लैपशेल) प्रजाति का कछुआ था। उसी उत्साह में उस शिक्षक ने एक वाट्सएप ग्रुप में यह बात साझा की। इस ग्रुप में 38 स्कूल के शिक्षक और कछुआ संवर्धन से जुड़े लोग शामिल हैं।  ऐसे छोटे-मोटे कई किस्से हैं, भास्कर दीक्षित कहते हैं।

टर्टल सर्वाइवल एलायन्स (टीएसए) के असिस्टेंट डायरेक्टर और एजूकेशन इंचार्ज दीक्षित कहते हैं कि 2011 से उनका स्कूल एजुकेशन प्रोग्राम चल रहा है जिसमें इस समय जरवल ब्लाक में घाघरा नदी के किनारे 5 किलोमीटर की परिधि के 38 स्कूलों को चयनित किया गया है। इन स्कूलों में अधिकतर मछुआरों के बच्चे ही पढ़ते हैं और इन मछुआरों के सहयोग के बिना आस-पास के कछुए नहीं बचाए जा सकते।

कछुओं पर मंडराते संकट से निपटने के लिए 2001 में टीएसए का गठन हुआ था। उस समय अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (आईयूसीएन) बहुत सारे सरकारी और गैर सरकारी संगठन के साथ मिलकर काम कर रहा था। इसी कड़ी में संस्था ने टीएसए का भी सहयोग किया और फलस्वरूप टीएसए अस्तित्व में आया। सात-आठ साल मिल कर काम करने के बाद 2008 से टीएसए स्वतंत्र रूप से एक गैर सरकारी संगठन के रूप में कछुआ संरक्षण कार्यक्रम चला रहा है।

हर साल देश में कम से कम 11,000 कछुओं का अवैध व्यापार होता है। तस्वीर- शार्प फोटोग्राफी/विकिमीडिया कॉमन्स
हर साल 11,000 से अधिक कछुओं का अवैध व्यापार होता है। तस्वीर- शार्प फोटोग्राफी/विकिमीडिया कॉमन्स

भास्कर दीक्षित कहते हैं कि बड़े-बुजुर्गों को समझाना मुश्किल है। पर इन बच्चों को आसानी से और खेलकूद के माध्यम से इन जीवों का महत्व समझाया जा सकता है। इसी को ध्यान में रखकर 2011 से स्कूल के बच्चों को पर्यावरण के बारे में, नदी-तालाबों के बारे में, जलीय जीवों के बारे में पढ़ाया जा रहा है। फिर ये बच्चे अपने अभिभावकों के व्यवहार को प्रभावित करते हैं।  कछुओं के प्रति बच्चों की उत्सुकता और लगाव देखकर अभिभावक भी अपने सामान्य जीवन में कछुओं को नुकसान पहुंचाने से परहेज करते हैं।  

मुश्किल में हैं कछुए

कछुए लगभग 220 करोड़ वर्षों से वैश्विक पारिस्थितिक तंत्र के अभिन्न हिस्सा रहे हैं और कम से कम 400,000 वर्षों से मानव संस्कृति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। भारतीय संस्कृति में कछुओं के महत्व का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि इसे भगवान विष्णु के एक अवतार की मान्यता मिली हुई है।

हालांकि आज के समय यह जीव संकट में हैं। 2015 में कुछ शोधकर्ताओं ने पाया कि गुजरात में इन्हीं धार्मिक मान्यताओं की वजह से इस नन्हे जीव को धार्मिक स्थलों में भी रखा जाता है। लोग कछुओं को पालतू बनाकर रखते हैं। शोध के दौरान एक घर में करीब 100 कछुए मिले।

धार्मिक मान्यता के इतर इस जीव का बड़े पैमाने पर अवैध व्यापार होता है। महज एक साल में (2014) कर्नाटक, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश के ग्रामीण लोगों ने (खासकर वनों में रहने वाले) 55,000 से अधिक छोटे-छोटे कछुए पकड़े। और इन कछुओं को 50 से 300 रुपये में बाजार में बेच दिया।

हाल में आए एक अध्ययन में भारत में कछुओं के अवैध व्यापार की एक झांकी देखने को मिलती है। ट्रैफिक नाम की एक अंतरराष्ट्रीय संस्था ने 2019 में एक अध्ययन प्रकाशित किया और दावा किया कि 10 साल की अवधि यानी सितंबर 2009 से सितंबर 2019 के बीच कम से कम 1,11,310 कछुए अवैध वन्यजीव व्यापार के शिकार हुए। इसके मतलब यह हुआ कि हर साल 11,000 से अधिक कछुओं का शिकार होता है। हर सप्ताह कम से कम 200 कछुए। यह तो पकड़े कछुओं के आंकड़े हैं। इस अध्ययन में स्पष्ट कहा गया है कि कछुओं की तस्करी इससे बड़े स्केल पर होती है।

उत्तरप्रदेश में एक ऐसा स्कूल जहां पढ़ाई के साथ लगती है कछुआ संरक्षण की क्लास

जब्त किए गए कछुओं में उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल दो प्रमुख हॉटस्पॉट के रूप में उभरे जहां सबसे अधिक तस्करी हो रही थी। इन दो राज्यों से कुल 60 फीसदी कछुए बरामद हुए थे।

हाल ही में उत्तरप्रदेश एसटीएफ ने तीन लोगों को करीब ढाई सौ कछुओं के साथ गिरफ्तार किया। रवींद्र, अरमान और सौरभ नाम के तीन आरोपियों से जब पूछताछ हुई तो आरोपी रवींद्र ने बताया कि वह बीते कई वर्षों से कछुओं की अवैध रूप से तस्करी करता है। विभिन्न जिलों में मछुआरों से संपर्क कर उनसे कछुए खरीदकर चेन्नई, पश्चिम बंगाल जैसी बड़ी जगहों पर बेचता था।

मीठे पानी में पाए जाने वाले कछुओं की 29 प्रजातियों में 15 उत्तर प्रदेश में पाए जाते हैं। कछुओं के लिहाज से बहराइच जिला महत्वपूर्ण है क्योंकि यहां से दो महत्वपूर्ण नदियां सरयू और घाघरा गुजरतीं हैं।

यही सब देखते हुए बहराइच जिले में मछुवारा समुदाय के बच्चों के बीच इस मुद्दे को ले जाने का खयाल आया, दीक्षित कहते हैं।

कछुओं की दृष्टि से उत्तर प्रदेश है खास

उत्तर प्रदेश में कछुओं की 15 प्रजातियां पाई जाती हैं। सिर्फ तराई क्षेत्र में कछुओं की 14 प्रजातियां मिलती है लेकिन इनमें से पांच प्रजातियां अति संकट ग्रस्त हैं, बताते हैं शैलेन्द्र सिंह, जो टीएसए के इंडिया प्रोग्राम डायरेक्टर हैं। कछुआ संरक्षण के लिए हाल ही में इन्हें बहलर कछुआ संरक्षण पुरस्कार से सम्मानित किया गया है।

कछुओं के अस्तित्व से जुड़ी चुनौती और मछुआरे समुदाय को इस लड़ाई में शामिल करने के लिए टीएसए तीन तरह के शैक्षणिक प्रोग्राम चला रहा है। इसके तहत कछुओं के महत्व और पर्यावरण में उनकी उपयोगिता को समझाया जाता है।

इसमें नदी के किनारे 5 किलोमीटर की परिधि में रहने वाले 38 सरकारी स्कूल में कक्षा 6 से 8 तक में पढ़ने वाले बच्चों को पर्यावरण व जलजीवन तथा खास तौर पर कछुओं को बारे में बताने के लिए प्रयोगात्मक और शैक्षणिक दोनों तरह की गतिविधियां चलाई जाती हैं, सिंह बताते हैं।

डॉक्टर शैलेन्द्र सिंह आगे बताते हैं तराई आर्क स्केप में हिमालय की घाटी में स्थित बहराइच में ही कछुए की 14 प्रजातियां मिल जाती हैं। इसलिए इस इलाके में कछुओं के दोहन, उनके शिकार और उनके शेल की तस्करी की संभावना लगातार बनी रहती हैं। इस वजह से इस इलाके में कछुओं के संरक्षण की ज़िम्मेदारी भी बढ़ जाती है। इसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए टीएसए ने तीन तरह का शैक्षणिक प्रोग्राम चला रखा है। प्रोग्राम को ऐसा  डिज़ाइन किया कि मछुआरा समाज की अगली पीढ़ी तक निःशुल्क कछुओं का संरक्षण हो सके।

उत्तर प्रदेश से गुजरने वाली चंबल नदी किनारे धूप सेंकता इंडियन टेंट टर्टल कछुआ। तस्वीर- शार्प फोटोग्राफी/विकिमीडिया कॉमन्स
उत्तर प्रदेश से गुजरने वाली चंबल नदी किनारे धूप सेंकता इंडियन टेंट टर्टल कछुआ। तस्वीर– शार्प फोटोग्राफी/विकिमीडिया कॉमन्स

वैसे तो कछुआ संरक्षण के तहत भारत के चम्बल-यमुना लैंडस्केप, सुन्दरवन लैंडस्केप, ब्रह्मपुत्र लैंडस्केप में भी शैक्षणिक कार्यक्रम चल रहे हैं, लेकिन तराई आर्क लैंडस्केप में चलने वाला शैक्षणिक कार्यक्रम सबसे वृहत और पुराना है। दूसरी जगहों पर सिर्फ सरकारी स्कूलों के साथ पर्यावरण पर शैक्षिक प्रोगाम चल रहे हैं जब कि तराई में घाघरा नदी के किनारे स्कूल एजूकेशन प्रोग्राम के साथ-साथ टर्टल स्कूल व टर्टल मूविंग स्कूल भी चल रहा है, टीएसए के एजूकेशन प्रोग्राम के इंचार्ज भास्कर दीक्षित बताते हैं। इनके दावे के अनुसार टर्टल स्कूल और टर्टल मूविंग स्कूल भारत में सिर्फ तराई के बहराइच में ही चल रहा है। टर्टल मूविंग स्कूल उन बच्चों के लिए चलाया जाता है जो किन्हीं वजहों से स्कूल नहीं जाते, भास्कर दीक्षित बताते हैं।

क्या स्कूल शिक्षा से बच पाएंगे कछुए?

यह पूछने पर कि दस साल तक आस-पास के बच्चों को कछुओं का महत्व समझाने के बाद जमीन पर कुछ असर हुआ, दीक्षित कहते हैं कि कई मछुआरों ने तो मछली मारना तक छोड़ दिया। क्योंकि उनकी लाख कोशिश के बावजूद भी एक-दो कछुए जाल में फंस ही जाते थे। बच्चों ने अपने मां-बाप के व्यवहार में परिवर्तन लाया। मां-बाप और किसी की सुने या न सुने पर अपने बच्चों की सुनते हैं।

हालांकि अभी ऐसा कोई अध्ययन नहीं हुआ है जिससे यह अनुमान लगाया जा सके कि इस क्षेत्र में कछुओं की संख्या बढ़ी है या घटी है, दीक्षित कहते हैं। उन्होंने भविष्य में ऐसे अध्ययन की जरूरत पर बल दिया।


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पर पर्यावरण के महत्व को समझाने के लिए न केवल भारत बल्कि दुनिया भर में स्कूली शिक्षा पर जोर देने की वकालत होती रही है। हाल ही में महाराष्ट्र सरकार ने पर्यावरण शिक्षा को प्राथमिक विद्यालयों के पाठ्यक्रम में शामिल करने का निर्णय लिया है।

“शिक्षा की बदौलत वर्तमान समाज को पर्यावरण के लिहाज से अधिक टिकाऊ बनाया जा सकता है। इसमें सरकार, निजी क्षेत्र और सिविल सोसाइटी की अहम भूमिका हो सकती है,” यूनेस्को के 2016 की ‘एजुकेशन फॉर पीपल एण्ड प्लानेट’ एक रिपोर्ट में यह बात कही गई है। इंसानी व्यवहार (गतिविधियों) की वजह से पर्यावरण की जो चुनौतियां उत्पन्न हुई हैं उससे निपटने में शिक्षा की जरूरत पर यह रिपोर्ट जोर देती है।

(यह स्टोरी सोल्यूशन जर्नलिज्म नेटवर्क ‘लीड’ फेलोशिप के सहयोग से की गयी है। इस फेलोशिप का उद्देश्य वैश्विक स्तर पर सोल्यूशन जर्नलिज़म का विस्तार करना है।)

 

बैनर तस्वीरः बहराइच जिले के इस स्कूल में बच्चों को कछुआ संरक्षण के लिए प्रेरित किया जाता है। स्कूल के बच्चों ने कई कछुओं की जान बचाई है। तस्वीर- श्रीपर्णा दत्त/टीएसए

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