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बिहार: रोज 34 हजार किलो मेडिकल कचरा का नहीं हो रहा निपटान, बड़ी आबादी को खतरा

बिहार में रोजाना 34 हजार किलो से अधिक मेडिकल कचरा पैदा होता है। इसका प्रबंधन न होने की वजह से राज्य के कई जिलों में खुले में कचरा फेंका जाता है। तस्वीर- समीर वर्मा

बिहार में रोजाना 34 हजार किलो से अधिक मेडिकल कचरा पैदा होता है। इसका प्रबंधन न होने की वजह से राज्य के कई जिलों में खुले में कचरा फेंका जाता है। तस्वीर- समीर वर्मा

  • बायो-मेडिकल वेस्ट मैनेजमेंट नियम, 2016 के तहत अस्पतालों, नर्सिंग होम, पैथोलॉजिकल लैब, क्लीनिक, डिस्पेंसरी, ब्लड बैंक आदि को नियम 10 के तहत बोर्ड द्वारा अधिकार पत्र (ऑथराइजेशन) और सहमति (कंसेंट) लेना आवश्यक है।
  • बिहार में ऐसे करीब 5,000 डिफॉलटर्स हैं जिनमें अस्पतालों/पैथ लैब्स सब शामिल हैं। यानी, उनके पास प्रदूषण बोर्ड का अधिकार पत्र और सहमति नहीं है। पूरे बिहार में रोजाना 34 हजार किलो से भी अधिक मेडिकल कचरा पैदा होता है। इस कचरे का समुचित निदान न होना बिहार के लोगों के लिए खतरनाक हो सकता है।
  • विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के मुताबिक स्वास्थ्य संस्थानों से निकलने वाला 15 फीसदी कचरा हानिकारक होता है जिसका उचित निपटान नहीं होने पर मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।

साल 2020। दौर कोरोना महामारी का। बिहार विधान सभा के चुनाव होने थे। चुनाव हुए। चुनाव के लिए प्रशासनिक तैयारियों के अलावा, सबसे महत्वपूर्ण तैयारी यह करनी थी कि कैसे कोरोना के बीच सुरक्षित चुनाव करवाया जाए। इसके लिए बाकायदा चुनाव आयोग ने 18 लाख फेस शील्ड, 70 लाख फेस मास्क, सिंगल यूज वाले 5.4 लाख दस्ताने, मतदाताओं के लिए पॉलिथीन के 7.21 करोड़ दस्ताने और सैनेटाइजर की 29 लाख बोतलें खरीदीं। चुनाव पूरे हुए। बिहार को नई सरकार मिली और साथ में मिला 160 टन बायो-मेडिकल कचरा। अब सवाल है कि इतनी बड़ी मात्रा में पैदा हुए मेडिकल कचरे का निष्पादन कैसे हुआ होगा? 

मेडिकल कचरे का सही से निष्पादन होना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि इसमें सिर्फ फेस मास्क, दास्ताने इत्यादि ही नहीं होते बल्कि इसमें सीरिंज, खून से सनी रूई या अन्य सिंगल यूज उपकरण शामिल है जिसके संपर्क में आने से अन्य लोगों  को बड़ी बीमारी हो सकती है। इसमें इलाज या जांच के दौरान मानव या जानवरों के शरीर से निकालने वाले अनावश्यक पदार्थ भी शामिल हैं। वैसे तो विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) कहता है कि स्वास्थ्य संस्थानों से पैदा होने वाले कचरे का लगभग 85 फीसदी खतरनाक नहीं होता है। पर बाकी 15 फीसदी काफी खतरनाक हो सकता है। इसमें संक्रामक, जहरीला या फिर रेडियोएक्टिव पदार्थ भी होता है। डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट कहती है कि दुनियाभर में हर साल 16 अरब इंजेक्शन दिए जाते हैं, लेकिन सभी सुई का उचित तरीके से निपटान नहीं होता है। डब्ल्यूएचओ के अनुसार खुले में बायोमेडिकल कचरा जलाने से कुछ परिस्थितियों में हानिकारक गैस भी निकलती हैं। 

यही नहीं। डब्ल्यूएचओ का कहना है कि बायो मेडिकल कचरे को गड्ढे में डालने से भूमिगत जल प्रदूषित हो सकता है। वहीं रासायनिक कचरे से वातावरण में रासायनिक पदार्थ फैल सकता है। साथ ही उपयोग की गई सुइयां नुकीली होती हैं। इनका उचित तरीके से निपटान नहीं होने पर चोट लगने और संक्रमण होने का खतरा बना रहता है। रिपोर्ट के मुताबिक साल 2010 में असुरक्षित सुइयों के चलते 33,800 नए एचआईवी संक्रमण के मामले आए। वहीं हेपेटाइटिस बी के 17 लाख और हेपेटाइटिस सी के तीन लाख 15 हजार मामले आए। 

बिहार विधानसभा का चुनाव कोरोना महामारी के दौरान हुआ। इस दौरान मतदान केंद्रों से भारी मात्रा में बायोमेडिकल वेस्ट इकट्ठा हुआ। तस्वीर- मुख्य निर्वाचन अधिकारी, बिहार
यह तस्वीर बिहार के औरंगाबाद जिले के एक निर्वाचन केंद्र की है। बिहार विधानसभा का चुनाव कोरोना महामारी के दौरान हुआ। इस दौरान मतदान केंद्रों से 160 टन बायो-मेडिकल कचरा इकट्ठा हुआ। तस्वीर- मुख्य निर्वाचन अधिकारी, बिहार

पांच हजार अस्पताल, लैब बिना अधिकार-पत्र के

मेडिकल कचरे के लिए पूरे देश में बायो-मेडिकल वेस्ट मैनेजमेंट नियम, 2016 लागू है। बायो मेडिकल कचरे के सही प्रबंधन के लिए बिहार में भी अस्पतालों, नर्सिंग होम, पैथोलॉजिकल लैब, क्लीनिक, डिस्पेंसरी, ब्लड बैंक समेत सभी स्वास्थ्य देखभाल सुविधाओं पर ये नियम लागू होते हैं। पर्यावरण सुरक्षा के लिए मेडिकल सुविधाएं देने वाले सभी संस्थानों को इसके नियम 10 के तहत अपने-अपने राज्यों के बोर्ड से अधिकार-पत्र और सहमति लेना आवश्यक है। लेकिन बिहार में हजारों की संख्या में मेडिकल संस्थान बिना इस अधिकार-पत्र के काम कर रहे हैं। बिहार राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने एक सूची जारी की है, जिसमें जिलावार सैकड़ों डिफॉल्टर्स अस्पतालों/पैथ लैब के नाम दर्ज हैं। यानी, उनके पास प्रदूषण बोर्ड की सहमति नहीं है। यह स्थिति पूरे बिहार की है। राज्य में ऐसे करीब 5 हजार से अधिक अस्पताल/क्लिनिक, नर्सिंग होम, पैथ लैब हैं। राज्य में रोजाना 34 हजार किलो से अधिक मेडिकल कचरा पैदा होता है। 

पूरे बिहार में सिर्फ चार शहरों पटना, मुजफ्फरपुर, गया और भागलपुर में ही मेडिकल कचरे के उचित निपटान की व्यवस्था है। लेकिन, इन शहरों में भी मेडिकल कचरे का निष्पादन सही तरीके से नहीं किया जाता, जैसा कि प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के आंकड़े से ही जाहिर होता है। ऐसे में बिहार के बाकी शहरों की स्थिति की सिर्फ कल्पना की जा सकती है। उदाहरण के लिए इस खबर के साथ संलग्न तस्वीर (मोतिहारी के मोतीझील में डंप किए जा रहे मेडिकल कचरे) को देख कर स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है।

मोतिहारी के मोतीझील में बायो-मेडिकल कचरा डंप किया जाता है। तस्वीर- शशि शेखर
मोतिहारी के मोतीझील में बायो-मेडिकल कचरा डंप किया जाता है। तस्वीर- शशि शेखर

एनजीटी के आदेश का क्या हुआ? 

बिहार में छपरा के रहने वाले विंग कमांडर डॉक्टर बीएनपी सिंह वेटरंस फोरम फॉर ट्रांसपैरेंसी इन पब्लिक लाइफ नाम की संस्था चलाते हैं। डॉक्टर सिंह ने 2017 में नेशनल ग्रीन ट्रीब्यूनल में एक याचिका डाली थी। यह याचिका बिहार में स्वास्थ्य सुविधाएं देने वाले संस्थानों द्वारा बायो-मेडिकल वेस्ट रूल के अनुपालन के संबंध में थी। इसमें बिहार राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को भी एक पक्ष बनाया गया था। याचिका पर सुनवाई करते हुए एनजीटी ने मार्च, 2019 में अपने ऑब्जर्वेशन में कहा था, “बायो-मेडिकल वेस्ट नियम के उल्लंघन से नागरिकों के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले गंभीर असर को देखते हुए कड़ी कार्रवाई किए जाने की जरूरत है। साथ ही उल्लंघन करने वालों से मुआवजा राशि वसूली जाए ताकि उल्लंघन करना मुनाफे का सौदा न बन सके। यह मानना होगा कि प्राधिकरण (प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड) को उल्लंघन का पता है, फिर भी किसी उल्लंघनकर्ता के खिलाफ कार्रवाई होती नहीं दिख रही है।” 

मेडिकल कचरे का सही से निष्पादन होना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि इसमें सिर्फ फेस मास्क, दास्ताने इत्यादि ही नहीं होते बल्कि इसमें सीरिंज, खून से सनी रूई या अन्य सिंगल यूज उपकरण शामिल है जिसके संपर्क में आने से अन्य लोगों को बड़ी बीमारी हो सकती है। तस्वीर- तौम (हर्वे एग्नौक्स)/विकिमीडिया कॉमन्स
मेडिकल कचरे का सही से निष्पादन होना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि इसमें सिर्फ फेस मास्क, दास्ताने इत्यादि ही नहीं होते बल्कि इसमें सीरिंज, खून से सनी रूई या अन्य सिंगल यूज उपकरण शामिल है जिसके संपर्क में आने से अन्य लोगों को बड़ी बीमारी हो सकती है। तस्वीर– तौम (हर्वे एग्नौक्स)/विकिमीडिया कॉमन्स

विंग कमांडर डॉक्टर सिंह ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया, “इस साल 23 नवंबर को मैंने एक पत्र लिख कर बिहार राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को एनजीटी का आदेश लागू कराने के लिए कहा है। लेकिन, अब तक कोई कार्रवाई होती नहीं दिख रही है।”

नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने डॉक्टर सिंह की याचिका पर आदेश दिया था कि बायो-मेडिकल वेस्ट रूल का पालन न करने वाले अस्पतालों को बंद किया जाए। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, अकेले पटना में 4290 अस्पताल हैं, जिनमे से 326 इन नियमों का पालन नहीं करते। हालांकि, बाकी के अस्पताल इन नियमों का कितना पालन करते है, यह भी सवालों के घेरे में हैं। लेकिन, कार्रवाई के नाम पर क्या हुआ?

मोंगाबे-हिन्दी ने इस पर बात करने के लिए बिहार राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के चेयरमैन डॉक्टर अशोक घोष से संपर्क करने के लिए कई बार फोन किए, लेकिन बात नहीं हो सकी। मोंगाबे-हिन्दी ने उन्हें एक ईमेल भेज कर इस बारे में कुछ सवाल किए हैं, उनका जवाब मिलते ही इस खबर को अपडेट किया जाएगा। 


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देशव्यापी है समस्या जिसमें बिहार की स्थिति सबसे खराब

केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की साल 2019 की एक रिपोर्ट भी इस पर मुहर लगाती है। बोर्ड की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में हर साल 48.5 हजार किलो बायो-मेडिकल कचरे का निपटान बिना उपचार (ट्रीटमेंट) के कर दिया जाता है। इसमें भी बिहार का स्थान अव्वल है। बिहार में रोजाना पैदा होने वाले चौंतीस हजार किलो कचरा में से तीन-चौथाई (76%) से अधिक कचरे का निपटान नहीं किया जाता है। ऐसे में बिना उपचारित मेडिकल कचरे के निपटान का मानव स्वास्थ्य पर क्या असर होता है?

पटना के सामाजिक और पर्यावरण कार्यकर्ता विकासचन्द्र उर्फ गुड्डू बाबा मोंगाबे-हिन्दी को बताते हैं, “बायो-मेडिकल कचरा वायु प्रदूषण का बहुत बड़ा कारण है। बिहार के ज्यादातर अस्पतालों से निकलने वाले इस खतरनाक कचरे का निष्पादन सही तरीके से नहीं किया जाता है। गुड्डू बाबा कहते हैं, “10 साल कोर्ट में केस लड़ने के बाद, पटना में मृत पशुओं के लिए एक शवदाह गृह बन सका। पहले इसे सड़क किनारे फेंक दिया जाता था। लेकिन, अभी भी बायो-मेडिकल कचरे को ऐसे ही सड़क किनारे डंप कर दिया जाता है। खुले में जलाया जाता है।”

बिहार में खुले में कचरा जलाने का चलन काफी सामान्य है। तस्वीर- रोहिण कुमार
बिहार में खुले में कचरा जलाने का चलन काफी सामान्य है। तस्वीर- रोहिण कुमार

केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की साल 2019 के मुताबिक साल 2018-19 के बीच देशभर में हर दिन 619 टन कचरा पैदा हुआ। इसमें से करीब 88 फीसदी यानी  544 टन कचरे का ही निपटान हो पाया। इसी रिपोर्ट के मुताबिक स्वास्थ्य सुविधाएं देने वाले 29,062 संस्थानों ने साल 2019 में बायो मेडिकल वेस्ट मैनेजमेंट नियमों का उल्लंघन किया। इनमें से 17,435 संस्थानों को नोटिस कारण बताओ नोटिस जारी कर जवाब मांगा गया। रिपोर्ट कहती है कि असम, बिहार, छत्तीसगढ़, जम्मू-कश्मीर, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, मणिपुर, नागालैंड, ओडिशा और राजस्थान में बायो मेडिकल कचरे के उत्पादन और निपटान में अंतर है। इन राज्यों के बोर्ड को मामले को देखने और नियमों के तहत कचरे का निपटान कराने को कहा गया है। साथ ही सभी राज्यों से बोर्ड से नियमों की अनदेखी करने वालों पर सख्त कार्रवाई करने को कहा गया है।

बहरहाल, सीपीसीबी, एनजीटी और खुद बिहार राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के आंकड़े यह बताने के लिए काफी हैं कि बिहार में फिलवक्त बायो-मेडिकल वेस्ट निपटान की जमीनी हकीकत क्या है। इसका मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण पर क्या असर हो रहा है, इसे लेकर पर्यावरण कार्यकर्ता और पर्यावरण विज्ञानी बार-बार चेताते रहे हैं। ऐसे वक्त में जब पूरी दुनिया में पर्यावरण और इससे जुड़े मुद्दों पर चिंता जताई जा रही हैं, पर्यावरण को सुरक्षित रखने के उपाय तलाशे जा रहे हैं, तब एक राज्य में 5 हजार से अधिक अस्पतालों, नर्सिंग होम, पैथोलॉजिकल लैब, क्लीनिक, डिस्पेंसरी, ब्लड बैंक द्वारा बायो-मेडिकल वेस्ट मैनेजमेंट नियम, 2016 का उल्लंघन एक गंभीर मुद्दा है।

 

बैनर तस्वीरः बिहार में रोजाना 34 हजार किलो से अधिक मेडिकल कचरा पैदा होता है। इसका उचित प्रबंधन न होने की वजह से राज्य के कई जिलों में खुले में कचरा फेंका जाता है जो आम लोगों के लिए जानलेवा हो सकता है। तस्वीर- समीर वर्मा

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