- जहानाबाद ज़िले का धरनई गांव 2014 में सुर्ख़ियों में था। इसे ‘बिहार का पहला सौर ग्राम’ कहा गया। इस गांव की सारी ऊर्जा जरूरतों को सौर ऊर्जा से पूरा किया जाने लगा था।
- देख-रेख के अभाव में इस गांव में लगा सौर मिनी ग्रिड कुछ साल में ही धाराशायी हो गया। तब से अब तक निष्क्रिय पड़ा है।
- कुछ सालों मे ही गांव वालों ने सौर ऊर्जा को त्याग कर कोयले से बनने वाली थर्मल बिजली को अपना लिया।
यह बिहार के एक ऐसे गांव की कहानी है जहां 1981 तक बिजली थी फिर 33 साल के लिए चली गयी। तीन दशक से भी अधिक समय के लिए गांव के लोग अंधेरे में रहने को अभिशप्त थे। सौर ऊर्जा के माध्यम से इनकी अंधेरी दुनिया में रौशनी आई तब जब यह गांव राज्य का पहला सौर ग्राम बना। इसका उद्घाटन भी बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की मौजूदगी में पूरे जोर शोर से हुआ।
जहानाबाद जिले का धरनई गांव 2014 में पूरे राज्य में चर्चा का विषय बना। पटना से गया जाने की राह में करीब 90 किलोमीटर की दूरी पर बसे, इस गांव में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने, अगस्त 2014 को एक मिनी सौर ग्रिड का, उद्घाटन किया था। इसकी मदद से पूरे गांव की ऊर्जा जरूरतें पूरी की जानी थी। इसके अतिरिक्त यह सोच भी थी कि विकेंद्रित सौर ऊर्जा के लिहाज से यह गांव पूरे राज्य के लिए मॉडल बने। पर क्या सच में ऐसा हो पाया?
उद्घाटन के ऊहापोह के बीच बना रहा अस्थायी निदान का डर
गांव वाले बताते हैं कि जब मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इस गांव में परियोजना का शुभारंभ करने आए थे तो उनका अच्छा-खासा विरोध भी हुआ था। गांव के कुछ लोग पोस्टर लेकर नारे लगा रहे थे और असली बिजली की मांग कर रहे थे। तब उनका मानना था कि सौर ऊर्जा एक नकली बिजली है। उन्हें ग्रिड से आने वाली बिजली चाहिए थी। उन्हें डर था कि 33 सालों बाद मिला समाधान कहीं अस्थायी साबित न हो।
उस समय मुख्यमंत्री ने गांव वालों को असली और नकली बिजली का मतलब समझाया। साथ ही स्थायी समाधान का वादा कर उन्हें शांत किया। मंच से दिए गए अपने वक्तव्य में उन्होंने गांव वालों को सौर ऊर्जा के फायदे गिनाए। उन्होंने समझाया कि कोयले से चलने वाली बिजली जिसे थर्मल या ताप बिजली भी कहते हैं, कुछ दिनों मे खत्म हो जाएगी। भविष्य तो सौर ऊर्जा का ही है। आने वाले दिनों में इसी से हर जगह बिजली बना करेगी। हालांकि मुख्यमंत्री ने यह भी वादा किया कि थर्मल बिजली भी जल्दी ही गांव में आ जाएगी।
शुरू के कुछ दिन तो सब सही रहा। पर धीरे धीरे इस परियोजना की चमक जाती रही। तीन साल गुजरते-गुजरते सौर प्लांट की बैटरी एक-एक कर खराब होने लगी। इन बैटरियों को दोबारा कभी बदला नहीं गया। देख-रेख की कमी के कारण यह परियोजना तीन साल के अंदर ही फेल हो गयी।
हालांकि, इसके फेल होने से लोगों को बिजली की दिक्कत नहीं हुई। तब तक गांव में ग्रिड कनेक्शन भी आ गया था और अन्य गांव की तरह यहां भी बिजली की आपूर्ति होने लगी थी।
इस परियोजना का जिक्र करते हुए गांव के 72-वर्षीय रणविजय शर्मा बताते हैं, “गांव वाले पिछले 30 सालों से अंधेरे में जीवन व्यतीत कर रहे थे। सौर ऊर्जा का आना हमारे लिए किसी चमत्कार से कम नहीं था। शुरूआती दिन तो अच्छे गुजरे। यह बिजली भी हमारे गांव में, लंबे प्रयास के बाद, आई थी। हमलोगों ने प्रशासन से बिजली देने के लिए पांच साल पहले आवेदन दे रखा था।”
बिजली के लिए इस गांव का संघर्ष भी दशकों पुराना है। यहां रहने वाले बुजुर्ग बताते हैं कि 1981 के पहले गांव में बिजली थी। एक बार ट्रांसफॉर्मर खराब हुआ तो बिजली हमेशा के लिए चली गयी। बिजली चोरी, असामाजिक तत्व और अन्य कारणों से इस गांव में अगले 32 सालों तक बिजली नहीं आई।
फिर 2014 में सौर ऊर्जा से बिजली लाने का बंदोबस्त हुआ। शर्मा बताते है कि इस परियोजना का उद्घाटन बहुत ही जोर शोर से किया गया था। मुख्यमंत्री के अलावा कई नेता, आला अधिकारी, मीडिया और आस पास के गांव के लोग भी इकट्ठा हुए थे। इसे बिहार के पहले सौर ग्राम की तर्ज पर पेश किया गया। बाद में भी कई लोग आते रहे जिसमें बड़े अधिकारी से लेकर विदेशी पर्यटक और शोध करने वाले लोग शामिल थे।
हालांकि, यह परियोजना सरकारी पैसे से नहीं बनाई गई थी। ग्रीनपीस, सेंटर फॉर एनवायरनमेंट एंड एनर्जी डेवलपमेंट (सीईईडी) और बेसिक्स जैसे स्वयंसेवी संस्थानों ने मिलकर एक प्रयोग के तहत, इसका विकास किया था। इसके तहत किसान प्रशिक्षण केंद्र, आंगनवाड़ी केंद्र, पंचायत भवन, मिनी स्टेडियम के छतों पर रुफटॉप सौर पैनल लगाए गए थे।
इस परियोजना के फायदे के बारे में धरनई गांव के ही रहने वाले अनिल कुमार कहते हैं, “इसकी वजह से यहां के सामाजिक स्तर में बहुत सकारात्मक बदलाव आया। बिजली की वजह से बच्चे देर रात तक पढ़ाई करने लगे। दिन के उजाले में ही भोजन पकाने की मजबूरी नहीं रही। रात में भी भोजन पकाया जाने लगा। असमाजिक तत्व भी गांव से दूर रहने लगे। सौर स्ट्रीट लाइट के आने से सांप और अन्य कीड़े-मकोड़ों के काटने से होने वाली मौतों की संख्या भी कम हो गयी।”
इस परियोजना के तहत गांव की गलियों में स्ट्रीट लाइट लगाया गया और घरों में सौर ऊर्जा के मीटर लगाए गए। कुल ऊर्जा उत्पादन का 70 फीसदी घरेलू जरूरतों के लिए खर्च किया जाने लगा। बाकी के 30 फीसदी का उपयोग कृषि कार्यों मे किया जाना था।
स्वच्छ ऊर्जा का एक छोटा पर महत्वपूर्ण साथ
वर्ष 2014 में आई, सौर ऊर्जा इस गांव के लिए वरदान साबित हुई। पर कुछेक सालों में ही स्थिति बदलने लगी।
“सौर ऊर्जा तो उपलब्ध करा दी गयी थी पर इसके इस्तेमाल के लिए हमें बहुत सारी शर्तों का पालन करना था। भारी उपकरण जैसे टेलीविजन, फ्रीज़, मोटर, कूलर इत्यादि चलाने की इजाजत नहीं थी। इतनी शर्तों के साथ उपलब्ध ऊर्जा से भला क्या ही फायदा होता। फिर सौर ऊर्जा से मिल रही बिजली की कीमत भी अधिक थी,” एक गांव वाले ने नाम न बताने की शर्त पर बताया।
इस परियोजना की शुरुआत के दो साल बाद, ग्रिड के माध्यम से थर्मल ऊर्जा भी आ गयी। इससे गांव वालों को फायदा यह हुआ कि वे बिना संकोच भारी उपकरण भी चलाने लगे। वह भी कम लागत पर।
सौर ऊर्जा की परियोजना के फेल होने में इन सभी मुद्दों की भूमिका रही। “शुरुआत के तीन वर्ष, सब कुछ अच्छा चला। लेकिन तीन साल के बाद बैटरी खराब हो गई जिसे कभी बदला नहीं गया। आज के दिन में हमारे गांव में सौर पैनल है। जरूरी सपोर्ट सिस्टम भी है पर बैटरी नहीं है। अब सबकुछ हाथी के दिखाने वाले दांत जैसा है बस,” रवि कुमार कहते हैं।
यह सौर मिनी ग्रिड, पटना से गया जा रहे (राष्ट्रीय राजमार्ग-83) किसी भी यात्री को दिख जाएगा। राजमार्ग के किनारे ही यह गांव बसा है।
मोंगाबे-हिन्दी ने इस गांव की यात्रा की। इस गांव में जाने पर दिखा कि जिस सौर मिनी ग्रिड का उद्घाटन नीतीश कुमार ने 2014 में किया था अब वहां मवेशी बांधे जाते हैं।
इस परियोजना में कुछ सौर पम्प भी लगे थे जो अब भी काम कर रहे हैं। जैसे कमल किशोर को करीब 2.5 लाख रुपये की लागत का सौर पम्प मुफ्त में दिया गया था। किशोर आज भी इसकी मदद से अपने खेतों की सिंचाई करते हैं।
“यह मुझे ग्रीनपीस ने मुफ्त में दिया था। 2014 से अब तक मैं इसका प्रयोग कर रहा हूं। अब तक कोई असुविधा नहीं हुई। इसमें बैटरी की जरूरत नहीं होती। इससे दिन में खेतों की सिंचाई की जाती है,” किशोर बताते हैं।
नालंदा विश्वविद्यालय के अविराम शर्मा ने अपने 2020 के एक अध्ययन में यह बताया था कि धरनई पंचायत के चार गांव में 2014 में 225 सौर कनैक्शन थे। 2016 आते-आते इनकी संख्या घटकर 126 हो गयी। महंगी सौर ऊर्जा को उन्होंने इस परियोजना के असफल होने की एक वजह माना। उन दिनों सौर ऊर्जा काफी महंगी थी। इससे बनी बिजली 9 रुपये प्रति यूनिट मिलती थी। वहीं थर्मल ऊर्जा 3 रुपये प्रति यूनिट मिल जाया करती थी।
इस परियोजना से मिली सीख
सीईईडी ने गांव के लोगों के बीच इस परियोजना को लेकर जागरूकता फैलाने का काम किया था। सीईईडी के सीईओ रमापति कुमार कहते हैं कि इसे असफल प्रयास नहीं कहा जाएगा।
“बिहार में पहली बार इस परियोजना के माध्यम से यह बताया गया कि कैसे विकेंद्रीकृत सौर ऊर्जा से गांव में बिजली की आपूर्ति की जा सकती है। इस परियोजना ने पूरे राज्य में सौर ऊर्जा के महत्व को बताया। इससे जागरूकता बढ़ी। हालांकि रख-रखाव नहीं हो पाने से यह परियोजना प्रभावित हुई। इस परियोजना ने गांव की औरतों, विद्यार्थियों को रौशनी दी। इसके पहले ये लोग अंधेरे में रहने को अभिशप्त थे,” कुमार कहते हैं।
इनके अनुसार आज भी बैटरी को बदलकर इस पूरी परियोजना मे फिर से जान फूंकी जा सकती है। सूत्रों की माने तो 2015-16 में जब बिजली कंपनी यहा थर्मल ऊर्जा ला रही थी तो मौजूद विकेंद्रीकृत सौर ऊर्जा को ग्रिड से जोड़ने का प्रस्ताव भी रखा गया था।
यही प्रस्ताव 2017 में पुनः आया। राज्य की स्वच्छ ऊर्जा नीति में इसका जिक्र है। लेकिन गांव वालों के विरोध की वजह से ऐसा नहीं किया जा सका। गांव के लोग डरे हुए थे कि कहीं ग्रिड से मिलने वाली बिजली भी, इसकी वजह से, आनी बंद न हो जाए। उनको यह भी लगता था कि अगर सौर ऊर्जा का ढांचा रहेगा तो बिजली न आने की स्थिति में, उससे रौशनी का बंदोबस्त हो जाएगा।
बैनर तस्वीरः धरनई गांव का सौर मिनी ग्रिड।यहां अब जानवरों को बंधा जाता है। तस्वीर -मनीष कुमार