Site icon Mongabay हिन्दी

नेपाल में अंधाधुंध निर्माण में लगा है चीन, हिमालय के नाजुक पारिस्थितिकी को खतरा

हिमालय से गुजरती कई नदियों को नेपाल की सरकार पनबिजली उत्पन्न करने के स्रोत के रूप में देखती है जिनका दोहन अभी होना है। तस्वीर-जोनस ग्रेटजर/मोंगाबे

हिमालय से गुजरती कई नदियों को नेपाल की सरकार पनबिजली उत्पन्न करने के स्रोत के रूप में देखती है जिनका दोहन अभी होना है। तस्वीर-जोनस ग्रेटजर/मोंगाबे

  • 2015 में आए भूकंप के बाद नेपाल में चीन ने काफी सक्रिय होकर निर्माण कार्यों में निवेश किया है। सिर्फ 2019 में चीन ने नेपाल में 240 करोड़ डॉलर मूल्य के कारखानों और जल विद्युत संयंत्रों सहित परियोजनाओं की एक श्रृंखला शुरू की।
  • इनमें कई बुनियादी ढांचा जैसे सड़क मार्ग इत्यादि का निर्माण शामिल हैं। ये सड़कें राष्ट्रीय उद्यानों सहित कई संवेदनशील इलाकों से होकर गुजरती हैं। इसके अतिरिक्त चीन के द्वारा किए जा रहे पनबिजली संयंत्रों के निर्माण को नदी की पारिस्थितिकी पर खतरा बताते हुए कई पर्यावरण संगठन और स्थानीय लोग इन परियोजनाओं की आलोचना कर रहे हैं।
  • उदाहरण के रूप में चीन की बेल्ट एंड रोड पहल का हिस्सा है रसुवागढी जलविद्युत परियोजना। स्थानीय लोगों के विरोध के बावजूद इसे 2016 में फिर से शुरू किया गया। आरोप है कि इस बांध की वजह से बड़े पैमाने पर मछलियों की मौत हुई।

बजरी से भरा एक ट्रक नेपाल के स्याब्रुबेसी की सड़क पर धूल का गुबार उड़ाते हुए बेधड़क चलता जा रहा है। इलाके में सड़क को चौड़ा करने का काम चल रहा है। यह सड़क चीन की वैश्विक बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) का हिस्सा है और इसके निर्माण का खर्चा भी चीन ही उठा रहा है।  

स्याब्रुबेसी नेपाल का वह इलाका है जो चीन से सटा हुआ है। इसके 11 किलोमीटर उत्तर में चीन और नेपाल की सीमा है। 2015 में 7.8 तीव्रता के भूकंप की वजह से इस क्षेत्र में भारी तबाही हुई थी। 

सड़क किनारे कुछ नेपाली मजदूरों का समूह पहाड़ में सुंरग बनाने में जुटा है और उन मजदूरों पर निगरानी के लिए चीनी अधिकारी मौजूद हैं। इसी सड़क पर कुछ आगे, स्थानीय निवासी नीहिमा सांगबो तमांग खड़े हैं। चौड़ी होती सड़क जल्द ही उनके घर को लीलने वाली है और वे आने वाले अनिश्चित भविष्य को लेकर चिंतित हैं।  

“हमें जल्द ही यहां से आगे जाना होगा। सरकार ने मुआवजा का जो वादा किया था उससे हमारे नुकसान की भारपाई नहीं होने वाली,” वह कहते हैं। 

2015 के भूकंप के बाद चीन ने पुनर्निर्माण परियोजनाओं में निवेश बढ़ाया और इस तरह नेपाल में अपनी सक्रियता बढ़ाई। यह एक नई बात हो रही है, क्योंकि अब तक भारत, नेपाल का प्रमुख आर्थिक भागीदार रहा है। इसी तरह की भूमिका में आकर चीन भारत को चुनौती दे रहा है। सिर्फ 2019 में ही चीन ने नेपाल में परियोजनाओं की एक श्रृंखला शुरू की, जिसमें कारखाने और जल विद्युत संयंत्र शामिल हैं। इसकी कीमत 240 करोड़ डॉलर है जो कि नेपाल के सकल घरेलू उत्पाद का लगभग सात फीसदी है।

चीन की कंपनी पावर चाइना के लिए काम कर रहे नेपाली बिल्डर्स एक पहाड़ में सुरंग बना रहे हैं। तस्वीर- जोनास ग्रेटज़र/मोंगाबे
चीन की कंपनी पावर चाइना के लिए काम कर रहे नेपाली बिल्डर्स एक पहाड़ में सुरंग बना रहे हैं। तस्वीर- जोनास ग्रेटज़र/मोंगाबे

बीआरआई के तहत चीन प्रमुख व्यापार मार्गों के साथ देशों में सड़कों, रेलवे, बिजली संयंत्रों और अन्य बुनियादी ढांचे को आपस से जोड़ रहा है। इस परियोजना को लेकर चीन  2017 में नेपाल पहुंचा। इस योजना में हवाई अड्डे, जलविद्युत संयंत्र और पक्की सड़कें शामिल हैं। परियोजना में तिब्बत के ग्यारोंग से काठमांडू तक एक नियोजित 70-किमी रेलवे लाइन भी शामिल है। इस परियोजना ने नेपाल में बीजिंग के बढ़ते प्रभाव की वजह से भारत की चिंता बढ़ाई है। 

विकास और प्रकृति में संतुलन 

चीन के दखल से न सिर्फ जियो-पॉलिटिक्स प्रभावित है बल्कि इसके अतिरिक्त भी बहुत कुछ दाव पर लगा हुआ है। कोरोना महामारी से पहले नेपाल की अर्थव्यवस्था में पर्यटन का हिस्सा लगभग आठ फीसदी था। इस क्षेत्र में रोजगार पाने वालों के हिसाब से देखा जाए तो यह नेपाल का चौथा सबसे बड़ा उद्योग था। महामारी के पहले करीब 5,00,000 विदेशी सैलानी नेशनल पार्क घूमने आए थे। इनमें वे उद्यान भी शामिल हैं जो हिमालय क्षेत्र में भी हैं। 

बावजूद इसके, अति संवेदनशील इलाके जैसे दैसे राष्ट्रीय उद्यान में चल रही सुरंग और सड़क परियोजनाओं की काफी आलोचना हो रही है। इन परियोजनाओं पर स्थानीय पारिस्थितिक तंत्र को नष्ट करने का आरोप है। नेपाल के वन और पर्यावरण मंत्री शक्ति बहादुर बस्नेत का कहना है कि वह इस उभरती समस्या से अच्छी तरह वाकिफ हैं।

उन्होंने काठमांडू में अपने कार्यालय में मोंगाबे से कहा, “हमें प्रकृति को संरक्षित करने और अपने बुनियादी ढांचे के विकास के बीच एक संतुलन बनाने की जरूरत है।” उन्होंने कहा कि सरकार किसी भी परियोजना को शुरू करने की अनुमति देने से पहले संवेदनशील क्षेत्रों में पर्यावरण आकलन करती है। “उन क्षेत्रों को विकसित करना प्राथमिकता नहीं है, बल्कि उद्देश्य संरक्षित क्षेत्रों को बरकरार रखना है,” वे कहते हैं। “हमारी नीति राष्ट्रीय उद्यानों के मूल में सड़कें बनाने की नहीं है, बल्कि बफर ज़ोन में है,” बस्नेत ने कहा। 

नेपाल में भोटे कोसी नदी के किनारे एक जलविद्युत संयंत्र में निर्माण कार्य चल रहा है। तस्वीर- जोनास ग्रेटज़र/ मोंगाबे
नेपाल में भोटे कोसी नदी के किनारे एक जलविद्युत संयंत्र में निर्माण कार्य चल रहा है। तस्वीर- जोनास ग्रेटज़र/ मोंगाबे

उन्होंने कहा कि नेपाल के पास आगे की महत्वाकांक्षी योजनाएं हैं। देश का 45 प्रतिशत भाग पहले से ही विभिन्न प्रकार के वनों से आच्छादित है, और 24% राष्ट्रीय उद्यानों और संरक्षण क्षेत्रों में संरक्षित है। सरकार उस ट्री कवर को बढ़ाना चाहती है।

“हमारे पास 14% के अंतरराष्ट्रीय मानक की तुलना में संरक्षित क्षेत्रों का प्रतिशत बहुत अधिक है, लेकिन हम अभी भी अधिक वन लगाना चाहते हैं,” बस्नेत कहते हैं। 

बस्नेत कहते हैं कि सरकार देसी पेड़, साथ ही हर्बल और फलों के पेड़ भी लगाएगी।

बस्नेत का कहना है कि बुनियादी ढांचा परियोजनाएं, विशेष रूप से सड़क निर्माण इत्यादि से रोजगार पैदा होगा और परिवहन लागत और यात्रा में लगने वाला समय भी घटेगा। इन सबसे नेपाल का विकास सुनिश्चित होगा। दक्षिणी नेपाल के तराई क्षेत्र, तराई के कई हिस्सों में पहले ही निर्माण परियोजनाओं से स्थानीय अर्थव्यवस्था को लाभ हुआ है।

लेकिन देश के कम विकसित हिमालयी क्षेत्र में स्थितियां अलग है। यहां पर्यटन और पारंपरिक कार्य जैसे याक चराई और छोटे पैमाने पर खेती ही प्रमुख आर्थिक गतिविधियां हैं। यहां के लोगों की चिंता है कि इन परियोजनाओं की कीमत पर्यावरण और सामाज को चुकानी होगी। उनका मानना है कि इन परियोजनाओं की वजह पारिस्थितिकी तंत्र कमजोर होगा और और सड़कों और सुरंगों के लिए खुदाई की वजह से भूस्खलन में वृद्धि हो सकती है।

पिछले 17 वर्षों से हिमालय में एक ट्रेकिंग गाइड  राज भट्ट उन लोगों में से हैं जो इस क्षेत्र में परियोजनाओं के खतरों को समझ रहे हैं। उनका कहना है कि इससे गांव, खेत और ट्रेकिंग ट्रेल्स बर्बाद हो जाएंगे। 

“पहाड़ों के बीच सुरंग बनाने के लिए इस्तेमाल किए जा रहे विस्फोटकों से खेती की गतिविधियां बाधित होती हैं और वन्यजीवों को उनके प्राकृतिक आवास से बाहर धकेल दिया जाता है,” भट्टा कहते हैं। उन्होंने जिक्र किया कि जंगल के बंदर अब फसल को नुकसान पहुंचाते हैं और गांवों पर हमला करते हैं।

नेपाल में एक संकरी पहाड़ी सड़क के पार करने के लिए संघर्ष करती एक बस। तस्वीर- जोनास ग्रेटज़र
नेपाल में एक संकरी पहाड़ी सड़क के पार करने के लिए संघर्ष करती एक बस। तस्वीर- जोनास ग्रेटज़र

“नेपाल को सड़कों और जल विद्युत की आवश्यकता है, लेकिन साथ ही सरकार को हमारे देश को टिकाऊ रूप से विकसित करने की आवश्यकता है,” वे कहते हैं।

वह कहते हैं कि कई नेचर ट्रेल्स सड़कों की वजह से बर्बाद हो रहे हैं। पर्यटक धूल भरी सड़कों पर नहीं जाना चाहते हैं।

आलोचकों का कहना है कि नई सड़कों से अवैध लकड़ी और जीव-जंतुओं के कारोबारियों को इन सड़कों का लाभ मिलेगा और वे दूरस्थ जंगलों तक भी जा सकेंगे। इससे लुप्तप्राय प्रजातियों, जैसे कि बाघ, गैंडों और हाथियों का अवैध व्यापार बढ़ सकता है। चीन में इन जीवों की मांग काफी है।

प्राकृतिक आवास को खतरा

राज का गांव 1976 में बनाए गए नेपाल के पहले हिमालयी राष्ट्रीय उद्यान, लैंगटैंग नेशनल पार्क के पास है। काठमांडू से एक दिन की दूरी पर लैंगटैंग घाटी नेपाल की सबसे लोकप्रिय ट्रेकिंग साइटों में से एक है। यहां समृद्ध जैव विविधता है। पार्क में लाल पांडा, साथ ही हिरण, जंगली सूअर, नेपाल ग्रे लंगूर और कभी-कभी भारतीय तेंदुए जैसी प्रजातियां दिखती हैं। एक तरह की बकरी हिमालयी तहर और हिम तेंदुआ पार्क की ऊंचाई पर बसते हैं। 

लैंगटैंग नेशनल पार्क से संकरे पहाड़ी रास्ते गुजरते हैं जहां घने हरे जंगल हैं। यहां के पेड़ फर्न और काई से पटे हैं। बर्फ से ढकी चोटियों और ग्लेशियरों से कई नदियां निकलती हैं। 4,000 मीटर (13,100 फीट) की ऊंचाई पर स्थित इन जंगलों में स्थानीय तमांग समुदायों के लोग निवास करते हैं। 

अब, यह प्राकृतिक आवास आधुनिक विकास से खतरे में है।

ट्रेकिंग गाइड राज भट्ट। तस्वीर- जोनास ग्रेटर/ मोंगाबे
ट्रेकिंग गाइड राज भट्ट। तस्वीर- जोनास ग्रेटर/ मोंगाबे

“मैंने लैंगटैंग में भी सड़क बनने की बात सुनी है,” राज कहते हैं।  उन्हें चिंता है कि राष्ट्रीय उद्यान प्रसिद्ध अन्नपूर्णा सर्किट की तरह खत्म हो जाएगा, जहां सड़कें बनाई गई हैं। हिमालय में ऐसा ही एक और क्षेत्र है मानस्लु संरक्षण क्षेत्र। मानस्लु ट्रैक, लैंगटैंग की तरह, अपने लुभावने दृश्यों के लिए प्रसिद्ध हैं। दुनिया की आठवीं सबसे ऊंची चोटी के आसपास स्थित मानस्लु भी संरक्षित है और ट्रेकिंग उद्योग के लिए काफी महत्वपूर्ण है। इसके बावजूद, कई सड़क परियोजनाएं चल रही हैं जो इसके प्राचीन जंगलों और अलग-अलग घाटियों को काट देंगी।

“मुझे वाकई चिंता हो रही है। यह हमारे पर्यावरण को नष्ट कर देगा और पर्यटक भी कम हो जाएंगे,” राज कहते हैं।

बिजली का निर्यात

सियब्रुबेसी और चीनी सीमा के करीब तैमूर गांव स्थित है। 2015 के भूकंप ने इस क्षेत्र को तबाह किया। इसके बाद इस इलाके में चीनी सहायता से पुनर्निर्माण का काम शुरू हुआ। 

महामारी से पहले, यह क्षेत्र विदेशी पर्यटकों, ट्रक ड्राइवरों, चीनी व्यापारियों और अधिकारियों से गुलजार था। स्थानीय लोगों के विरोध के बावजूद रसुवागढी जलविद्युत परियोजना पर काम 2016 में पुनः शुरू हुआ। यह चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव का हिस्सा है। विरोध करने वाले लोग इस बांध परियोजना को बड़े पैमाने पर हुई मछलियों की मौत के लिए जिम्मेदार ठहराते हैं। 

नेपाल में रहने वाले लगभग 20,000 तिब्बती शरणार्थियों में से एक टैक्सी चालक नजवांग दोर्जे का कहना है कि गांव में चीनी उपस्थिति व्यवसाय के लिए अच्छी रही है, लेकिन वह अभी भी इससे नाराज़ हैं। वह कहते हैं कि पर्यावरण बर्बाद हो गया है। वह नदी के बारे में बताते हुए कहते हैं कि बांध बनने से पहले नदी का पानी शुद्ध था लेकिन अब तेजी से काला हो रहा है।

यहां 111 मेगावॉट के संयंत्र पर काम चल रहा है जिसके लिए इलाके में रह-रहकर विस्फोट किया जाता है। नजवांग दोर्जे कहते हैं कि इससे नेपाली लोगों को कोई फायदा नहीं होगा, क्योंकि बिजली भारत को बेची जाएगी।

नेपाल की पहाड़ी इलाके में चीन सड़कों का जाल बिछा रहा है। तस्वीर- जोनास ग्रेटज़र/ मोंगाबे
नेपाल की पहाड़ी इलाके में चीन सड़कों का जाल बिछा रहा है। तस्वीर- जोनास ग्रेटज़र/ मोंगाबे

“यहां केवल सरकार पैसा कमा रही है। साथ ही, चीन नदी और सड़क को नियंत्रित करता है,” वे कहते हैं।

वन और पर्यावरण मंत्री बस्नेत के लिए पहाड़ी इलाकों से गुजरने वाली नदियां बिजली पैदा करने का स्रोत भर है जिनकी क्षमता का दोहन अभी होना है। नेपाल में अभी 787 मेगावाट पनबिजली उत्पन्न होती है। लेकिन चीन की मदद से इसे एक दशक के भीतर संभावित रूप से 100,000 मेगावाट तक बढ़ाया सकता है, बस्नेत कहते हैं। यह नेपाल की आवश्यकता से अधिक ऊर्जा है, और बची हुआ ऊर्जा को वे पड़ोसी देशों को बेच सकते हैं।

“नेपाल प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग का लाभ उठाता है। इस पन बिजली का उपयोग हम अपने कारखानों में कर सकते हैं, साथ ही साथ शेष बिजली भारत और बांग्लादेश को बेच सकते हैं,” बस्नेत कहते हैं।

लेकिन नजवांग दोर्जे चीन पर नेपाल के संसाधनों को दांव पर लगाने के खिलाफ चेताते हैं और कहते हैं कि इन परियोजनाओं में पर्यावरण के लिए कोई सम्मान नहीं है।

“हम तिब्बतियों को चीन में कोई स्वतंत्रता नहीं है और अगर ऐसा ही चला तो यहां भी यही स्थिति होगी।” उन्होंने कहा। 

यह खबर मूलतः मोंगाबे डॉट कॉम पर प्रकाशित हुई है। 

 

बैनर तस्वीरः हिमालय से गुजरती कई नदियों को नेपाल की सरकार पनबिजली उत्पन्न करने के स्रोत के रूप में देखती है जिनका दोहन अभी होना है। तस्वीर-जोनस ग्रेटजर/मोंगाबे

Exit mobile version