- बिहार का सुखेत मॉडल पिछले दिनों चर्चा में था। इस मॉडल में किसान न केवल गोबर बेचकर स्वच्छ ईंधन पाता है बल्कि उसे जैविक खेती के लिए भी प्रोत्साहित किया जाता है।
- इतने के बावजूद भी इस मॉडल का विस्तार उम्मीद के मुताबिक नहीं हो पा रहा है। किसानों को लगता है कि जैविक खेती की तरफ जाने से खेती की लागत बढ़ जाती है और उपज भी कम हो जाती है।
- जलवायु परिवर्तन, खेत की गुणवत्ता और स्वास्थ्य संबंधी चुनौतियों का इलाज जैविक खेती में खोजा जा रहा है। न केवल भारत के घरेलू बाजार बल्कि विदेशी बाजारों में भी जैविक उत्पादों की मांग बढ़ी है।
बिहार के जैविक पंचायत के नाम से मशहूर सुखेत पंचायत के रहने वाले सत्तन यादव खेत खाली होने के बाद भी कई दिनों तक गेंहू की बुआई नहीं कर पाये क्योंकि उनको समय पर डीएपी (डाय-अमोनियम फॉस्फेट) खाद नहीं मिल पाया।
मोंगाबे-हिन्दी से अपनी पीड़ा बताते हुए सत्तन यादव कहते हैं, “30 नवंबर को लगभग मेरे 3 बीघा खेत (0.37 हेक्टेयर) का पूरा धान कट गया था। उसके बाद से करीब बीस दिन तक हम डीएपी की खोज में एक से दूसरी दुकान घूमते रहे। बिना डीएपी के गेहूं की बुवाई संभव नहीं है। गांव के छोटे दुकानदारों के पास डीएपी की किल्लत थी और ब्लैक से 1500-1600 रूपए में डीएपी का एक बोरा मिल रहा था।”
सत्तन यादव की बात इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इनका गांव जैविक खेती के एक मॉडल के तौर पर पिछले दिनों चर्चा में रहा। इसकी चर्चा देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी 29 अगस्त के अपने ‘मन की बात’ कार्यक्रम में की।
पटना से 200 किलोमीटर दूर मधुबनी जिले के झंझारपुर अनुमंडल में स्थित सुखेत पंचायत में डॉ राजेंद्र प्रसाद केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय की तरफ से गांव में गोबर और कचरे से वर्मी कम्पोस्ट बनाने की परियोजना की शुरुआत 2021 के फरवरी में हुई।
इस विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ रमेश चंद्र श्रीवास्तव बताते हैं, “जैविक खाद और उज्जवला योजना को मुख्य आधार बनाकर इस योजना की शुरुआत की गई थी। मतलब पंचायत की खेती जैविक खाद पर निर्भर हो और पंचायत के गरीब लोगों भोजन पकाने के लिए गैस मिले।”
कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक व प्रोजेक्ट डायरेक्टर डॉ रत्नेश कुमार झा विस्तार से इस परियोजना के बारे में बताते हैं, “4 फरवरी 2021 को इस परियोजना की शुरुआत की गई थी। इसके तहत गांव के किसानों से 1200 किलो गोबर और खेतों-घरों से निकलने वाला कचरा लिया जाता है। इन किसानों को बदले में रसोई गैस सिलेंडर के लिए पैसे दिए जाते हैं। गांव से एकत्रित कचरे और गोबर से जैविक खाद तैयार किया जाता है। तैयार जैविक खाद को 6 रुपए प्रति किलो के हिसाब से बेचा जाता है।”
कितना सफल है जैविक खेती का यह मॉडल!
जैविक खेती को एक स्थायी कृषि अभ्यास के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिससे न केवल खेत और मिट्टी की गुणवत्ता बरकरार रहती है बल्कि उपज भी खाने वाले के स्वास्थ्य के हिसाब से बेहतर होती है। बड़े फलक पर देखा जाए तो मिट्टी में कार्बन अधिक अवशोषित होता है जिसे ग्रीनहाउस प्रभाव और ग्लोबल वार्मिंग को कम करने में सहयोग मिलता है।
देश में जैविक उत्पादों की मांग बढ़ रही है। 2016 में इसका घरेलू बाजार 53.3 करोड़ रुपये का था जो 2021 में 17% की दर से बढ़कर 87.1 करोड़ रुपये का हो गया। जैविक उत्पादों के निर्यात में 42% की वृद्धि दर्ज हुई है।
भारत सरकार अभी तीन योजनाओं के माध्यम से जैविक खेती को बढ़ावा दे रही है। इसमें परंपरागत कृषि योजना, मिशन ऑर्गैनिक वैल्यू चैन डेवलपमेंट इन नॉर्थ पूर्वी और राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन शामिल है। इसके अतिरिक्त राष्ट्रीय कृषि विकास योजना भी है जिसके तहत जैविक खेती को बढ़ावा दिया जाता है।
हालांकि बिहार के इस खास मॉडल को देखने से ऐसी अच्छी तस्वीर नहीं उभरती। कृषि विज्ञान केंद्र के शोधकर्ता आशुतोष यादव बताते हैं कि इस गांव में कुल 400 घर हैं और अभी तक इस गांव के 56 परिवारों को ही इसका लाभ मिल रहा है। एक साल में 100 परिवारों को इस योजना से जोड़ने की लक्ष्य रखा गया था।
इस मॉडल पर गांव वालों की प्रतिक्रिया भी उत्साहजनक नहीं है। सुखेत गांव के पूर्व मुखिया विनोद शर्मा बताते हैं कि गांव के कई लोगों के पास इतनी जमीन नहीं है कि वह मवेशी रखें और उन्हें चारा उपलब्ध कराएं। मतलब यह कि बड़ी संख्या में लोग इस योजना में भाग नहीं ले सकते। वहीं 68-वर्षीय लाल राय कहते हैं कि जैविक खाद का उत्पादन इतना भी नहीं होता है कि गांव और पंचायत से बाहर जा सके।
जैविक खाद के उत्पादन के बारे में कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक डॉ. शंकर झा बताते हैं, “इस परियोजना को शुरू हुए 11 महीने हो गए हैं। अभी तक सिर्फ 350 क्विंटल खाद बेचा गया है। स्टॉक में 80 क्विंटल खाद पड़ा हुआ है।”
गेहूं की बुवाई के समय एक कट्ठा में 20 किलो जैविक खाद देना पड़ता है। मतलब 350 क्विंटल खाद, फरवरी से अभी तक जितना बेचा गया है, उससे सिर्फ 88 बीघा क्षेत्र में ही खेती की जा सकती है। सिर्फ सुखेत पंचायत के मच्छधी गांव में किसानों के पास खेती के लिए 600 बीघा से ज्यादा जमीन है।
डॉ राजेंद्र प्रसाद केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय, पूसा के कुलपति डॉ रमेश चंद्र श्रीवास्तव बताते हैं, “गांव के लोगों के पास मवेशी की कमी और कुछ संसाधन की वजह से खाद नहीं बन पा रहा है। लेकिन कई बार जैविक खाद का उत्पादन किया, तो उसको खरीदार नहीं मिल पाया। नतीजा काम कर रहे किसानों ने अपने ही खेतों में वर्मी कंपोस्ट डाल दिया। लोग आज भी पूरी तरह रसायन खाद पर ही निर्भर हैं। हमलोग सरकार के साथ किसानों व पशुपालकों को प्रोत्साहित करने की कोशिश कर रहे हैं।”
यही बात आस-पास के खाद विक्रेता भी दोहराते हैं। सहरसा जिला के खाद व्यवसायी सुरेश चौधरी बताते हैं, “वर्मी बेचने में कई तरह-तरह की परेशानियां सामने आती हैं। एक तो खरीदार नहीं है और दूसरा, अगर वर्मी कुछ दिन गोदाम में रह जाता है तो खराब हो जाता है। फिर कोई लेने को तैयार नहीं होता।” सुपौल जिला के वीणा बभनगामा गांव के छोटू यादव गांव में दो साल पहले हरीत हीरा नाम से जैविक खाद का प्लांट लगाए थे। छोटू यादव बताते हैं, “लगभग 10 लाख रुपए की लागत से जैविक खाद प्लांट की शुरुआत की थी। शुरुआत के कुछ महीने तो लागत और मजदूरों का खर्च भी नहीं निकलता था। लोगों को जागरूक करने की भी कोशिश की पर कोई फायदा नहीं हुआ। कम से कम 7 से 8 लाख रुपए का नुकसान हुआ। अब प्लान्ट बन्द कर दूसरा व्यवसाय शुरू करने की सोच रहा हूं।”
पहले का भी अनुभव कड़वा
जैविक खाद के इस्तेमाल को बढ़ावा देने के लिए सरकार के ‘जैविक खाद प्रोत्साहन योजना’ के तहत 2018 में सुपौल जिला के वीरपुर अनुमंडल के बसंतपुर प्रखंड के पिपरानी नाग गांव में कृषि विभाग की ओर से लगभग 200 यूनिट पिट बनवाकर वर्मी कम्पोस्ट का उत्पादन शुरू किया।
इस दौरान गांव एक बुजुर्ग मोहन चौधरी ने अपने 3 बीघा खेत की पूरी खेती जैविक खाद की मदद से की। चौधरी बताते हैं, “2018 में जब हमारे गांव का जैविक ग्राम के रूप में चयन हुआ था। उस वक्त गांव में काफी उत्साह था। हालांकि शुरुआत में गांव के 10-12 किसान ही पूर्ण रुप से जैविक कृषि के लिए तैयार हुए थे। हम भी उनमें से एक थे और गेहूं बुवाई के समय पूरी खेती जैविक खाद की मदद से की थी। अगर लागत की बात की जाए तो रासायनिक खेती के मुकाबले जैविक खेती महंगी है। लगभग प्रति कट्ठा 50 रुपये ज्यादा लगता है और पैदावार भी 5-7 किलो घट ही जाता है। हालांकि इस बात की संतुष्टि थी कि शुद्ध आहार खा रहा हूं।”
मोहन चौधरी के अनुसार उनको जैविक खाद से 3 बीघा गेहूं की खेती करने में रसायन खाद की तुलना में 3000 रुपये ज्यादा लागत आई और लगभग 300 किलो कम गेहूं की उपज हुई।
हालांकि विषय के विशेषज्ञ कुछ और ही कहते हैं। कृषि विज्ञान केंद्र के शोधकर्ता आशुतोष यादव और कृषि वैज्ञानिक शंकर झा के अनुसार रासायनिक खेती और जैविक खेती में लागत लगभग बराबर है और उपज में भी कोई खास अंतर नहीं होता।
चौधरी के पिपरानी नाग गांव में 2019 में लगभग 30 से 35 किसान पूर्ण रुप से जैविक खेती के रूप में जुड़ चुके थे। फिर सरकार ने 2019 में जैविक खाद प्रोत्साहन योजना बंद कर दी। अब इस गांव में एक भी किसान जैविक खाद से खेती नहीं करता है।
जैसे राजकुमार मेहता जैविक खाद रहने के बावजूद अभी तक रासायनिक खाद का उपयोग करते थे और अभी भी कर रहे हैं। भविष्य में जैविक खाद के इस्तेमाल को लेकर पूछने पर राजकुमार कहते हैं कि जैविक उत्पाद की गुणवत्ता बहुत अच्छी होने के कारण इसकी कीमत ज्यादा होती है जो हर वर्ग के लोग खरीद नहीं पाते। ये भी एक खास वजह है हम किसानों को जैविक खेती की और कम झुकाव का। अगर सरकार के द्वारा शुरूआत में किसानों को आर्थिक सहायता दी जाए और आसानी से उपलब्ध हो सके। साथ ही इस बात का भरोसा दिया जाए कि अगर जैविक कृषि से किसानों को जो नुकसान होगा, सरकार उसकी भरपाई के लिए आर्थिक मदद करेगी तो हमें क्या गुरेज होगा।
जैविक खाद में भी पीछे छूटता बिहार
“भारत में कृषि योग्य भूमि 15.9 करोड़ हेक्टेयर हैं जिसमें देश में अब तक कुल 38 लाख हेक्टेयर क्षेत्र जैविक खेती के तहत कवर कर लिया गया है। 2015-21 के दौरान 6.19 लाख हेक्टेयर नया क्षेत्र इसमें कवर कर लिया गया है। मतलब 15.47 लाख किसान रसायनिक खेती को छोड़कर जैविक खेती पर निर्भर हुए हैं। लेकिन इसमें बिहार का स्थान टॉप टेन में भी नहीं है। बिहार में कृषि योग्य भूमि में सिर्फ दो से तीन फीसदी खेती जैविक खाद पर निर्भर हैं” कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक डॉ. शंकर झा आगे बताते हैं।
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देश में जैविक खेती का रकबा पिछले छः-सात सालों में दोगुना हो गया है। वर्ष 2014 में जहां 11.83 लाख हेक्टेयर में जैविक खेती होती थी वहीं 2020 में 29.17 हेक्टेयर में होने लगी। भारत जैविक किसानों की कुल संख्या के मामले में ‘नंबर वन’ है और जैविक खेती के तहत कुल रकबे की दृष्टि से नौवें स्थान पर है। अगर राज्य-वार आंकड़े देखें जाएं तो बिहार का स्थान टॉप टेन सूची में शामिल नहीं है।
इस पर प्रतिक्रिया देते हुए बिहार के कृषि विभाग के निदेशक राजीव रौशन बताते हैं, “कृषि विभाग की ओर से जैविक खेती प्रोत्साहन योजना के तहत सुखेत और केडिया गांव की तरह कई जगह वर्मी कम्पोस्ट की इकाई स्थापित की गई है। आगे बिहार के दूसरे जिलों जैसे सिवान, गोपालगंज, पूर्वी चंपारण, पश्चिमी चंपारण, वैशाली व पटना के गावों में भी शुरू किया जाएगा।”
सरकार का उद्देश्य आने वाले समय में रासायनिक उर्वरकों की खपत को 40-50 प्रतिशत तक कम करना है। इसलिए सरकार ने इसे प्रमोट करने के लिए परंपरागत कृषि विकास योजना के तहत 1,576.65 करोड़ रुपये की मदद जारी की है, राजीव आगे बताते हैं।
(यह स्टोरी सोल्यूशन जर्नलिज्म नेटवर्क ‘लीड’ फेलोशिप के सहयोग से की गयी है। इस फेलोशिप का उद्देश्य वैश्विक स्तर पर सोल्यूशन जर्नलिज़म का विस्तार करना है।)
बैनर तस्वीरः सुखेत मॉडल के तहत गांव के किसानों से 1200 किलो गोबर और खेतों-घरों से निकलने वाला कचरा लिया जाता है। इन किसानों को बदले में रसोई गैस सिलेंडर के लिए पैसे दिए जाते हैं। तस्वीर- राहुल कुमार गौरव