- झारखंड में पंचायत चुनाव 2020 में होना था। एक साल की देरी के बाद भी पंचायत चुनाव को लेकर असमंजस की स्थिति है। दूसरी तरफ आदिवासियों का एक तबका संभावित पंचायत चुनाव का विरोध कर रहा है।
- आदिवासियों का यह विरोध पेसा कानून की वजह से है। झारखंड गठन के 21 साल बाद भी पेसा कानून की नियमावली नहीं बन पाई है। आदिवासी संगठन नियमावाली बनाने की मांग को लेकर हर बार की तरह इस बार भी पंचायत चुनाव का विरोध कर रहे हैं।
- पिछले सात-आठ सालों में प्राकृतिक संसाधन को लेकर राज्य में आदिवासी समाज मुखर रहा है। राज्य के पिछली सरकार के कई कदम खासकर लैंड बैंक का जबरदस्त विरोध हुआ। बड़े स्तर पर कई आंदोलन हुए।
वैसे तो झारखंड में 2020 के दिसंबर में ही पंचायत चुनाव होना था। लेकिन 2022 के जनवरी में भी पंचायत चुनाव को लेकर असमंजस की स्थिति बनी हुई है। दूसरी तरफ राज्य में फिर से पंचायत चुनाव का विरोध शुरू हो गया है। कई आदिवासी संगठन पांचवीं अनुसूची वाले क्षेत्रों में पेसा (प्रोविजन टू पंचायत एक्सटेंशन अनुसूचित एरिया एक्ट, 1996) कानून को लागू करने की मांग कर रहे हैं, जिससे आदिवासियों की स्वशासन व्यवस्था सुरक्षित रह सके।
आदिवासी संगठनों ने 12 नवंबर को रांची स्थित राजभवन के समक्ष पंचायत चुनाव के विरोध में एक दिवसीय धरना प्रदर्शन दिया। राज्य में विरोध का यह सिलसिला अब भी जारी है।
ऐसे ही विरोध में सक्रिय खूंटी जिला के कमरा बरका टोली गांव में 11 साल से ग्राम सभा की अध्यक्षता कर रहे 61-वर्षीय सेरंग पतरस गुड़िया कहते हैं, “आदिवासियों की स्वशासन प्रणाली को राज्य गठन के बाद से आज तक संवैधानिक पहचान नहीं मिल पाई है। मुखिया, गांव का मालिक बन जाता है। हम कहते हैं कि वह हमारे का गांव मालिक नहीं होगा। बिना ग्राम सभा की सहमति के मुखिया और बीडीओ गांव में योजना ला रहे हैं।”
वो आगे कहते हैं, “पांचवी अनुसूची क्षेत्र में पंचायत चुनाव नहीं होना चाहिए, ऐसा पेसा कानून कहता है। सरकार इसके प्रावधान को लागू करे, ताकि हमारा संवैधानिक अधिकार बचा रहे।” सेरंग का आरोप है कि स्थानीय प्रशासन और मुखिया उनके अधिकार और क्षेत्र में दखल दे रहे हैं। उदाहरण के तौर पर वे साल 2019 में बिना ग्राम सभा की सहमति के गांव में गैस पाइपलाइन बिछाने का जिक्र करते हैं।
पांचवी अनुसूची में पंचायत चुनाव नहीं होने का हवाला देते हुए तोरपा के ही फ्लोरेंसिस गुड़िया कहते हैं, “इस बार चुनाव होगा तो हम फिर बहिष्कार करेंगे।” झारखंड में सेरंग और फ्लोरेंसिस जैसे सैकड़ों ग्राम प्रधान हैं जो पंचायत चुनाव का विरोध कर रहे हैं। चुनाव का विरोध और पेसा के प्रावधान लागू करने की मांग राज्य में साथ-साथ हो रही है।
हालांकि चुनाव में देरी पर राज्य के पंचायती राज मंत्री आलमगीर आलम इसे कोरोना से जोड़ते हैं। उन्होंने मोंगाबे-हिन्दी से कहा, “दो बार प्रयास किया गया, लेकिन कोरोना के कारण चुनाव नहीं हो पाया। चुनाव की सारी तैयारी पूरी कर ली गई है। चुनाव आयोग का काम है घोषणा करना और चुनाव कराना। चुनाव कब होगा, ये तारीख हम नहीं बता सकते।”
21 साल बाद भी नहीं बनी पेसा की नियमावली
झारखंड पांचवी अनुसूची वाले 10 राज्यों में शामिल है। राज्य में रहने वाले आदिवासियों की तीन-चौथाई आबादी गांवों में रहती है। झारखंड सरकार के मुताबिक, 26.3 प्रतिशत आबादी यानी 86.45 लाख आदिवासी झारखंड में हैं। ऐसे गांव की संख्या 12,164 हैं जहां 50 प्रतिशत से अधिक आदिवासी निवास करते हैं। यही नहीं, राज्य के 24 में 14 जिले पांचवी अनुसूची वाले हैं, जहां 68.66 लाख आदिवासी हैं। झारखंड के पांच प्रमंडल में दक्षिणी छोटानागुपर आदिवासी आबादी में सबसे बड़ा है। खूंटी जिला इसी प्रमंडल का हिस्सा है जहां 73.25 फीसदी आदिवासी हैं।
आदिवासियों की मांग गांवों में पारंपारिक स्वशासन व्यवस्था को बचाने की है। पेसा कानून का प्रावधान इसी की वकालत करता है। झारखंड में पेसा कानून के क्रियान्वयन को लेकर उठ रही मांग और झारखंड पंचायती राज अधिनियम 2001, आदिवासियों के हित में कितना है? इसे झारखंड वन अधिकार मंच के संयोजक व पेसा कानून के जानकार सुधीर पाल विस्तार से समझाते हैं, “पांचवी अनुसूची वाले इलाके में पंचायत चुनाव का होना असंवैधानिक नहीं है। 1992 में 73वां संशोधन होता है, जिसका वास्ता त्रिस्तरीय पंचायती राज से है। इसे बनाने के समय कहा गया था कि पंचायती राज यानी 73वें संशोधन के प्रावधान अनुसूचित क्षेत्रों में लागू नहीं होंगे। तो सवाल है कि इन क्षेत्रों में कौन सी व्यवस्था लागू होगी?”
और पढ़ेंः छत्तीसगढ़ और कोयला खनन: पेसा कानून की अनदेखी पर फिर उठे सवाल, सरकार और ग्रामीण आमने-सामने
उन्होंने मोंगाबे-हिन्दी को आगे बताया, “इसी प्रश्न से जूझने के लिए दिलीप सिंह भूरिया के नेतृत्व में एक समिति बनी। जिसने आदिवासी बहुल इलाकों का अध्ययन कर 1994-95 में रिपोर्ट सौंपी। इसी रिपोर्ट के आधार पर संसद में पंचायतों के लिए पेसा कानून बना। यह कानून 73वें संशोधन का ही विस्तार है। इसके तहत 73वें संशोधन को जस-का-तस इन इलाकों में लागू नहीं करना है। यानी इसके प्रावधान बदले हुए होंगे, जो पेसा कानून में बताए गए हैं। इसी को ध्यान में रखते हुए पेसा के तहत राज्य सरकारों को अनुसूचित इलाकों में पंचायत चुनाव के लिए एक नियमावली बनानी थी। यह नियमावली झारखंड में आज तक नहीं बनी है।”
पाल कहते हैं, “झारखंड में 2001 में पंचायती राज कानून बना। इस कानून से पहले पेसा की नियमावली नहीं बनाई गई। कानून में भी इसका ध्यान नहीं रखा गया। उनके मुताबिक, “कानून के तहत हर पांच साल में चुनाव होना है। लेकिन दुर्भाग्य ये रहा कि झारखंड में पहला पंचायती चुनाव 2010 में हुआ। कानून के मुताबिक अनुसूचित इलाके में ग्राम सभाएं होंगी, उसका अध्यक्ष होगा और वो पंरपरागत व आदिवासी ही होगा। अनुसूचित इलाके में सभी त्रिस्तरीय पद आदिवासियों के लिए आरक्षित होंगे। लेकिन कानून में बहुत सारी खामियां हैं, जो बड़ा मसला है। पेसा के तहत अनुसूचित इलाके में आदिवासियों को जो ताकत और पहचान दी जानी चाहिए थी, उसे इस कानून में कम किया गया है।”
आदिवासियों के लिए पेसा का लागू होना कितना जरूरी है, इसे समझाते हुए सुधीर पाल कहते हैं, “भूमि हस्तांतरण, विकास, सूदखोरी जैसे मामलों में आप बिना ग्राम सभा की इजाजत के अनुसूचित इलाके में कुछ नहीं कर सकते हैं। लेकिन राज्य सरकार तो बिना इजाजत के यहां सबकुछ कर रही है। पेसा के प्रावधानों के हिसाब से ग्राम सभा को मान्यता मिल जाए और ग्राम सभाएं सही से काम करने लगे तो फिर पंचायतें भी ग्राम सभा के नियंत्रण में रहेगी और सरकारें भी।”
हालांकि पेसा कानून के लागू होने के सवाल पर विभागीय मंत्री आलमगीर आलम अपनी सीमा की दुहाई देने लगते हैं। वो कहते हैं, “हम इस पर कुछ नहीं बोलेंगे। आदिवासी सलाहकार परिषद (टैक) में यह मांग करनी चाहिए। टैक, आदिवासी हित और आदिवासी संरक्षण के लिए है। सरकार के माननीय मुख्यमंत्री इसके प्रमुख होते हैं। इन मुद्दों को तो वहीं रखना चाहिए।”
हालांकि झारखंड कल्याण विभाग के तहत संचालित झारखंड ट्राइबल डेवलपमेंट सोसाइटी (जेटीडीएस) का कहना है कि विभाग जिन आदिवासी बहुल 14 जिलों के 169 प्रखंडों के 1779 गांवों में सामाजिक कल्याण का काम कर रही है, उन सभी के ग्राम प्रधान, मुंडा यानी आदिवासी ही हैं।
झारखंड के गांवों में आदिवासियों की स्वशासन व्यवस्था
झारखंड के गांवों में आदिवासियों की अपनी शासन प्रणाली सदियों से चली आ रही है। मुंडा, मानकी, टाना भगत, पड़हा राजा, माझी परगना, आदिवासी गांवों में पारंपरिक पद हैं। सांस्कृतिक और धार्मिक दृष्टिकोण से इनका काफी महत्व है। इन पदों के लिए चुनाव नहीं होता है। बल्कि इस परंपरा का पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरण होता है। ग्राम सभा के प्रमुख भी यही पदधारी होते हैं।
एक गांव का एक मुंडा होता है। मानकी, मुंडा से ऊपर होता है। एक मानकी के अंदर कई गांव होते हैं। 28 गांव भी हो सकते हैं। मुंडा से किसी मामले का निपटारा नहीं हो पा रहा है तो मानकी उसे देखता है।
दक्षिणी छोटानागुपर के बाद कोल्हान और संथाल परगना आदिवासी आबादी में दूसरे व तीसरे नंबर के प्रमंडल हैं। मानकी-मुंडा संघ, कोल्हान पोड़ाहाट पश्चिमी सिंहभूम झारखंड के मुताबिक कोल्हान प्रमंडल में 75 मानकी हैं जबकि 1200 मुंडा हैं।
वहीं ‘22 पड़हा सभा’ के मुताबिक झारखंड के गुमला, खूंटी, पश्चिमी सिंहभूम, रांची, सिमडेगा को मिलाकर 22 पड़हा राजा हैं। एक पड़हा राजा कई गांवों का प्रमुख होता है, यानी कई ग्राम सभाएं इनके मातहत होती हैं।
यह पूछने पर कि क्या पेसा कानून आदिवासियों की पारंपरिक शासन व्यवस्था को सुरक्षित रखेगा, सुधीर पाल कहते हैं, “सौ फीसदी। इस कानून में स्पष्ट कहा गया है कि केंद्र या राज्य, कोई भी ऐसा कानून नहीं बनाएगा जो स्थानीय समुदाय की परंपरा, उपासना पद्धति, शासन की पारंपरिक व्यवस्था के खिलाफ हो।”
इसी को ध्यान में रखकर संभावित पंचायत चुनाव का विरोध हो रहा है। मानकी-मुंडा संघ के महासचिव चंदन होनहागा और पड़हा सभा के सदस्य रेजन गुड़िया पेसा कानून को लागू किए जाने की मांग के मद्देनजर पंचायत चुनाव का विरोध कर रहे हैं।
चंदन होनहागा ने मोंगाबे-हिन्दी से कहा, “मुंडा-मानकी का अधिकार धीरे-धीरे खत्म किया जा रहा है। हमारी मानकी मुंडा की व्यवस्था सैकड़ों सालों से चली आ रही है। ग्राम सभा बैठक की अध्यक्षता मुंडा की बजाय मुखिया करता है। सारे विवादास्पद काम को हाथ में लेकर मुखिया हस्ताक्षर कर देता है। ऐसा बहुत बार होता है। जो मुखिया बनता है वो सरकार और बीडीओ की दलाली करता है।”
वहीं रेजन गुड़िया ने बताया, “खूंटी में नॉलेज सिटी के लिए पिछली सरकार ने 400 एकड़ जमीन ली थी। अधिकतर में ग्राम सभा से सहमति नहीं ली गई।” उनका आरोप है कि ऐसा करके ग्राम सभा को कमजोर किया जा रहा है और पंचायत चुनाव से यह और कमजोर होगा।
इसी तरह का उदाहरण शोधकर्ता व आदिवासी सामाजिक कार्यकर्ता बिनीत मुण्डु भी देते हैं। उन्होंने बताया, “झारखंड में काफी सारे मामले हैं जहां बिना ग्राम सभा की इजाजत के जमीन ली गई है। जमशेदपुर के बागबेड़ा-छोटा गोविंदपुर, पश्चिमी सिंहभूम के सरजोमदा, टिकागढ़, प्रधान टोला, मोइगुट्टू, कसीडीह जबकि सरायकेला खरसावां के जरियाडीह, कुचूडीह, नारनबेरा। इन गांवों में कहीं सरना-मसना (धार्मिक स्थल) तो कहीं खेती की जमीन ग्राम सभा की बिना अनुमति के ली गई है।”
जमीन से जुड़ा है चुनाव का विरोध?
झारखंड में जमीन के मुद्दे पर आदिवासी संगठनों का संघर्ष दशकों पुराना है। आजादी से पहले भी आदिवासी अपने जल, जंगल और जमीन के संरक्षण को लेकर सड़क पर उतरते रहे हैं। इनके संघर्ष के सामने ब्रिटिश हुमकूत को मजबूर होकर सीएनटी एक्ट 1907, एसपीटी एक्ट 1949 , लाना पड़ा। आदिवासियों के लिए यह कानून ऐतिहासिक बताया जाता है। वे अपनी जमीन की सुरक्षा के लिए इसे कवच के तौर पर देखते हैं। पिछली भाजपा सरकार में हुए पत्थलगड़ी आंदोलन को भी आदिवासी संगठन जमीन के मुद्दे पर किया गया बड़ा आंदोलन बताते हैं। उनके मुताबिक पांचवी अनुसूची वाले इलाके में संविधान उन्हें ये अधिकार देता है कि बिना उनकी सहमति के जिला प्रशासन या सरकार गांव में कोई काम नहीं कर सकते हैं। हालांकि तत्कालीन सरकार ने इस आंदोलन को राज्यद्रोह मानते हुए इससे जुड़े करीबन दस हजार लोगों पर मुकदमा दायर कर दिया था।
और पढ़ेंः [वीडियो] पच्चीसवें साल में पेसा: ग्राम सभा को सशक्त करने के लिए आया कानून खुद कितना मजबूत!
पिछली भाजपा सरकार ने 2016 में झारखंड लैंड बैंक बनाने की योजना शुरू की थी तो आदिवासी-मूलवासी संगठनों ने इसका मुखर विरोध किया था। मीडिया में छपी खबरों के मुताबिक करीब 21 लाख एकड़ गैर-मजरूआ (जिस पर खेती नहीं होती है) जमीन को सरकारी जमीन के रूप में लैंड बैंक में शामिल किया गया। इसमें तीन तरह की जमीन थी। पहली आम भूमि जैसे कि खेल के मैदान, गांव के रास्ते और मवेशियों को चराने वाली जमीन। दूसरा आदिवासियों की पूजा स्थलों वाली जमीन जैसे सरना, देशाउली और जाहेरथान। तीसरी जंगल की जमीन जिसका पट्टा आदिवासियों को मिलना था।
सामाजिक कार्यकर्ता व आदिवासी-मूलवासी अस्तित्व रक्षा मंच की संयोजक दयामनी बारला कहती हैं,“पेसा कानून हमें संसाधनों पर अधिकार ही नहीं देता है, बल्कि हमारे संवैधानिक मूल्यों की भी रक्षा करता है। गांव में हमें स्वतंत्रता-समानता के साथ जीने और जमीन पर बराबरी का न्यायिक अधिकार देता है। लेकिन आप देखिए पेसा को बने 25 साल हो गया और झारखंड को 21 साल। आदिवासियों के लिए यह कानून बना, लेकिन इसका फायदा आदिवासियों को कितना पहुंचा? बताइए। जिस झारखंड का गठन आदिवासी कल्याण और उनकी सांस्कृतिक पहचान के लिए हुआ, उसके दो दशक बाद भी वो समुदाय उन मांगों को लेकर सड़क पर है।”
दयामनी बारला का कहना है कि झारखंड में जिनती भी सरकारें रही हैं, सभी का पेसा कानून की नियमावली को लेकर आदिवासी विरोधी जैसा रवैया रहा है। उनका मानना है कि पंचायत चुनाव का विरोध इसलिए हो रहा है कि क्योंकि झारखंड पंचायत राज अधिनियम 2001 के तहत यहां चुनाव हो रहा है, जो पांचवी अनुसूची वाले क्षेत्र में पूरी तरह से पेसा का उल्लंघन है।
भले ही झारखंड में पेसा कानून लागू नहीं होना आदिवासी समाज की नाराजगी का तात्कालिक कारण हो लेकिन जल,जंगल और जमीन पर अपने पारंपरिक अधिकारों को वो किसी भी कीमत पर कमजोर नहीं होने देना चाहते हैं।
बैनर तस्वीरः झारखंड के खूंटी जिले के जादुर अखाड़ा में आदिवासी अपनी मांगों को लेकर प्रदर्शन करते हुए। तस्वीर- संजय वर्मा