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झारखंड: खनन से हाथियों का गमन क्षेत्र हो रहा बाधित, बढ़ रही है सबकी मुश्किल

रांची और रामगढ जिले के बीच सिकदिरी घाटी में सड़क किनारे ऐसे बोर्ड लगे हुए हैं। तस्वीर- राहुल सिंह

रांची और रामगढ जिले के बीच सिकदिरी घाटी में सड़क किनारे ऐसे बोर्ड लगे हुए हैं। तस्वीर- राहुल सिंह

  • झारखंड में पिछले 11 सालों में 800 लोगों की मौत हाथियों के कारण हुई है वहीं बीते आठ सालों में करीब 60 हाथियों ने भी अपनी जान गंवाई है।
  • हाल ही में माइनिंग मैप बनाने के दौरान पता चला है कि खनन की गतिविधियों की वजह से हाथियों का गमन क्षेत्र बाधित हो रहा है। कंपनियां खनन कर उस क्षेत्र को ऐसे ही छोड़ देती हैं। इससे हाथियों का झुंड अपने रास्ते से भटक जाता है और नतीजन मानव-हाथी टकराव बढ़ रहा है।
  • देश में हाथियों की आवाजाही के लिए 108 गलियारे चिन्हित किए गए हैं लेकिन इन्हें अब तक अधिसूचित नहीं किया जा सका है। अधिकारियों के मुताबिक गलियारे की कोई मान्य परिभाषा नहीं है।

झारखंड के चेड़गा उरांव अब इस दुनिया में नहीं हैं। 55 साल के उरांव 9 नवंबर, 2021 को गुमला जिले के रायकेरा गांव के अपने घर से धान कटाई की बात कह निकले थे। देर शाम तक नहीं लौटे तो घरवालों ने तलाश शुरू की। अगले दिन सुबह परिजनों को रायकेरा जंगल के बीच उनकी साइकिल व मानव शरीर के बिखरे टुकड़े मिले। बाद में शव की पुष्टि चेड़गा उरांव के रूप में हुई। चेड़गा उरांव के 22 वर्षीय बेटे शंकर उरांव ने मोंगाबे हिंदी से कहा, “मेरे पिता उस दोपहर धान काटने के बाद उसे बांधने के लिए जंगल से लारंग (रस्सी के रूप में काम आने वाली चीज) लाने गए थे, इसी दौरान हाथी ने उन पर हमला किया।”

झारखंड में हाथी के हमले से होने वाली मौत का ये पहला मामला नहीं है। भारत के तीन राज्य झारखंड, ओडिशा और छ्त्तीसगढ़ में यह संघर्ष बढ़ता ही जा रहा है। सनद रहे कि इन तीन राज्यों से होकर वह गलियारा गुजरता है जहां से हाथियों का समूह एक जगह से दूसरी जगह आता-जाता है। वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया (डब्ल्यूटीआई) की 2017 में आई रिपोर्ट राइट टू पैसेज इस समस्या का स्याह पक्ष सामने रखती है। रिपोर्ट के अनुसार झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़ और दक्षिणी पश्चिम बंगाल का 21 हजार वर्ग किलोमीटर इलाका हाथियों का आवास/गमन क्षेत्र है। 2017 की जनगणना के अनुसान इस क्षेत्र में महज 3128 हाथी थे यानी महज 10 फीसदी। लेकिन मानव-हाथी संघर्ष के चलते देशभर में जितने लोगों की जान जाती है उनमें से 45 फीसदी इसी इलाके से हैं।

चेड़गा उरांव के चचेरे भाई 55 वर्षीय करमा उरांव ने मोंगाबे हिंदी से कहा, “15 साल पहले हमारे गांव व इलाके में हाथी इतना नुकसान नहीं पहुंचाता था, उस समय हमें डर नहीं लगता था, लेकिन अब लोग डरे रहते हैं।” उनके अनुसार हाथी तैयार फसलों के मौसम में अधिक आते हैं।

मृतक चेड़गा उरांव के बेटे शंकर उरांव व उनकी बेटी। तस्वीर- राहुल सिंह।
मृतक चेड़गा उरांव के बेटे शंकर उरांव व उनकी बेटी। तस्वीर- राहुल सिंह।

आंकड़ों से भी इनके डर की पुष्टि होती है। झारखंड में हाथी और मनुष्य के बीच टकराव की घटनाएं पिछले एक दशक में तेजी से बढ़ी हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार, सिर्फ झारखंड में पिछले 11 सालों में 800 लोगों की मौत हाथियों के कारण हो चुकी है। विभिन्न वजहों से राज्य में  पिछले आठ सालों में 60 हाथियों की मौत हुई है।

चेड़गा उरांव के परिवार वालों से बात करने पर वे अपने साथ हुए इस त्रासदी के लिए कभी हाथी, कभी कम होते जंगल और कभी अपनी नियति को जिम्मेदार बताते हैं। हालांकि हाल ही में आई एक जानकारी की मानें तो बेतरतीब खनन का भी ऐसे हादसों में काफी योगदान रहा है।  

माइनिंग मैप बनाने के दौरान आई बेतरतीब खनन की बात

झारखंड, उत्तर भारत में हाथियों के लिए सदियों से अहम आवास क्षेत्र रहा है। लेकिन पिछली एक सदी में इस राज्य में बेतरतीब और अवैज्ञानिक खनन के अलावा विकास परियोजनाओं के कारण दूसरे वन्य जीवों के साथ हाथियों के कुदरती क्षेत्र को खासा नुकसान हुआ है।

नाम न छपने की शर्त पर झारखंड वन विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया, “कोयला खनन के कारण हाथियों का आवास क्षेत्र काफी प्रभावित हुआ है। मध्य झारखंड में स्थित सात कोल माइनिंग क्षेत्र के कारण हाथियों के आवास क्षेत्र में काफी कमी आई है। इन एरिया में सरकारी व निजी कंपनियां दोनों उत्खनन का काम करती हैं। उत्खनन के कारण उन क्षेत्रों में गैप एरिया यानी वन रिक्त क्षेत्र बन गया है, इस कारण हाथी जब उधर से गुजरते हैं तो या तो वे मानव बसावट की ओर चले जाते हैं या खदानों-गड्ढों में गिरकर खुद का नुकसान करते हैं।

यह बात हाल ही में खनन के माइनिंग मैप तैयार करने के दौरान सामने आई है। दरअसल जब कोयला खनन कंपनियों को खनन क्षेत्र आवंटित हो जाता है तो वे खनन के लिए माइनिंग मैप बनाती हैं। वे इस संबंध में वेस्ट लैंड डेवलपमेंट बोर्ड को रिपोर्ट देती हैं। फिर बोर्ड इस रिपोर्ट को राज्य सरकार के पास और फिर केंद्र सरकार के पास भेजता है।

मध्य झारखंड में स्थित बोकारो जिले के बेरमो में एक खुली कोयला खदान, ऐसे खदान हाथियों के लिए खतरनाक होते हैं। तस्वीर- राहुल सिंह
मध्य झारखंड में स्थित बोकारो जिले के बेरमो में एक खुला कोयला खदान, ऐसे खदान हाथियों के लिए खतरनाक होते हैं। तस्वीर- राहुल सिंह

उक्त अधिकारी ने आगे बताया, “इसी प्रक्रिया की समीक्षा के दौरान हाथियों के संदर्भ में कुछ प्रमुख तथ्य सामने आए हैं। इसमें कोयला कंपनियों का गैर वैज्ञानिक ऑपरेशन, खनन के प्रभाव का उचित आकलन नहीं होना, गैप एरिया बनना हाथियों व मनुष्यों के टकराव की प्रमुख वजहें हैं।” 

इसमें यह चेतावनी भी शामिल है कि अगर इसी तरह खनन कार्य होता रहा तो कुछ सालों बाद हाथियों का कॉरिडोर खत्म हो जाएगा। उक्त अधिकारी ने बाकी के ब्योरे देने में अपनी असमर्थता जताई क्योंकि वे इसके लिए अधिकृत नहीं हैं।

इसे विस्तृत तौर समझने के लिए मोंगाबे-हिन्दी ने पर्यावरणविद और रांची यूनिवर्सिटी में भूगर्भशास्त्र के सहायक प्राध्यापक नीतीश प्रियदर्शी से बात की। वे कहते हैं, “हजारीबाग, धनबाद व बोकारो जिले मध्य झारखंड में आते हैं, जहां कोयले का खूब खनन होता है और उसने हाथियों को बहुत नुकसान पहुंचाया है।” उनके अनुसार, “हाथियों की याददाश्त बहुत अच्छी होती है और पीढ़ीगत रूप से वे अपने आवागमन मार्ग को याद रखते हैं। तालाबों का खत्म होना भी हाथियों के संकट को बढ़ा रहा है।”

कोयला क्षेत्र के जानकार और कोलफील्ड्स मजदूर यूनियन के महासचिव राघवन रघुनंदन भी कुछ ऐसी ही कहानी साझा करते हैं। इनका कहना है, “खनन लीज में यह शर्त होती है कि आपको उस जमीन को पूर्व की अवस्था में लाना है, लेकिन सामान्यतः कंपनियां ऐसा करती नहीं है। जहां कंपनियों को उस जगह पर आगे खनन करना होता है, वहां वे पीछे की जमीन को भर देती हैं, लेकिन जहां आगे खनन नहीं करना होता है, वहां भराव कार्य नहीं कराया जाता है और वह खदान तालाबनुमा आकृति में बदल जाती है।”

पूर्व में एकीकृत बिहार व झारखंड में स्टेट वाइल्डलाइफ बोर्ड के सदस्य रहे डॉ दयाशंकर श्रीवास्तव भी इस शिकायत को जायज मानते हैं। पलामू में रहने वाले वन्यजीव एक्सपर्ट श्रीवास्तव ने मोंगाबे-हिंदी से बातचीत करते हुए कहा, “झारखंड में बेतहाशा खनन का परिणाम है कि हमारे यहां के हाथी छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश तक पहुंच गए हैं। हाथी यहां के हमसे पहले के बाशिंदे हैं। इसलिए उनके इलाके में खनन कर रहे हैं तो उन्हें मुआवजा दीजिए, उनके रहने की जगह बताइए और उन्हें जाने का रास्ता भी दीजिए।“

डॉ श्रीवास्तव के अनुसार, भारत में चार प्रकार के हाथी मिलते हैं। पहले तराई वाले हाथी जो मूल रूप से नेपाल व हिमाचल में होते हैं। दूसरे असमिया और तीसरे दक्षिणी हाथी। चौथे मयूरभंजी हाथी जो मध्य भारत में पाए जाते हैं। इनका मुख्य घर झारखंड का सिंहभूम क्षेत्र और ओडिशा का मयूरभंज क्षेत्र है। ये दोनों क्षेत्र तीन-तीन जिलों में बंटे हैं। झारखंड के सिंहभूम क्षेत्र में प्रसिद्ध सारंडा का जंगल है जो ओडिशा तक फैला हुआ है। यह इलाका सदियों से हाथियों का प्रमुख आवास/गमन क्षेत्र रहा है, लेकिन लौह अयस्क खनन के कारण हाथियों के प्राकृतिक आवास क्षेत्र को काफी नुकसान हुआ है।

 देवघर में वन विभाग के कार्यालय के बाहर लगा हाथियों से बचाव के संबंध में सूचना देने वाला बोर्ड। तस्वीर- राहुल सिंह।
देवघर में वन विभाग के कार्यालय के बाहर लगा हाथियों से बचाव के संबंध में सूचना देने वाला बोर्ड। तस्वीर- राहुल सिंह

शायद यही वजह है कि देशभर में भी हाथियों के हालात बेहतर नहीं हैं। डब्ल्यूटीआई के अनुसार, मानव-हाथी संघर्ष से हर साल 400 लोगों की मौत होती है। आठ लाख से लेकर 10 लाख हेक्टेयर फसलों को नुकसान होता है।

 इस पर प्रतिक्रिया देते हुए, डॉक्टर श्रीवास्तव कहते हैं कि हाथियों के लिए तत्कालीन और दीर्घकालिक योजना बनाने की जरूरत है। तात्कालिक योजना के तहत झारखंड के सारंडा जंगल, कोल्हान, पोड़ाहाट जंगल, सरायकेला-खरसांवा क्षेत्र में बांस के पेड़ लगाएं जाएं। यह हाथियों का प्रिय भोजन है और वह खत्म हो गया है। वहीं दीर्घकालिक योजना तैयार करने की जिम्मेदारी अधिकारियों की जगह वन्यजीव विशेषज्ञों को जिम्मेवारी सौंप देनी चाहिए।

झारखंड में नहीं है हाथियों के लिए अधिसूचित कॉरिडोर

दरअसल, मानव-हाथी संघर्ष से बचने के लिए हाथियों के लिए खास गलियारा बनाने की योजना बनाई गई। लेकिन यह योजना अब तक सिरे नहीं चढ़ पाई है। डब्ल्यूटीआई की 2017 की रिपोर्ट राइट टू पैसेज के अनसुार, ऐलीफेंट कॉरिडोर रैखिक, संकीर्ण और प्राकृतिक आवास मार्ग है जो हाथियों को मनुष्यों द्वारा परेशान किए बिना उन्हें सुरक्षित आवासों के बीच आवाजाही की अनुमति देता है। भारत में हाथियों के 108 कॉरिडोर चिन्हित किए गए हैं। इनमें से 14 झारखंड में हैं, लेकिन एक भी अधिसूचित नहीं है

एशियाई हाथियों पर कई किताबों के लेखक एवं इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के मानद प्रोफेसर रमन सुकुमार ने मोंगाबे-हिंदी को बताया, “देश के कई क्षेत्रों में ऐसे विशिष्ट मार्ग हैं जिसे हाथी एक हिस्से से दूसरे हिस्से में जाने के लिए इस्तेमाल करते हैं। डब्ल्यूटीआई ने देश भर में ऐसे 101 हाथी गलियारों का मानचित्रण और वर्णन किया है। पूर्व मध्य भारत (ओडिशा और झारखंड जैसे राज्यों) में स्थिति बहुत अस्थिर और भ्रमित करने वाली है, क्योंकि बड़े पैमाने पर हाथियों को उनकी पारंपरिक सीमा से नए आवास और राज्यों (जैसे पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ एवं मध्यप्रदेश) में फैलाया जा रहा है।”


और पढ़ेंः [वीडियो] हसदेव अरण्य और लेमरु हाथी रिजर्व: कोयले की चाह, सरकारी चक्र और पंद्रह साल का लंबा इंतजार


इस पर झारखंड के प्रधान मुख्य वन संरक्षक (वन्य जीव) राजीव रंजन ने मोंगाबे-हिंदी से कहा, “झारखंड ही नहीं पूरे देश में हाथियों के लिए कहीं भी अधिसूचित कॉरिडोर नहीं है। हाथियों के कॉरिडोर की कोई परिभाषा ही नहीं है।” उन्होंने कहा, “भारत में हाथियों के लिए कॉरिडोर की पहचान करनी है। इस संबंध में कमेटी बनी लेकिन उसका कोई परिणाम अब तक नहीं आया है।” राजीव रंजन यह स्वीकार करते हैं कि झारखंड में उत्खनन और विकास गतिविधियों के कारण हाथियों के परंपरागत आवास क्षेत्र को नुकसान हुआ है। उत्खनन की वजह से झारखंड के हाथियों के छत्तीसगढ व मध्यप्रदेश तक चले जाने संबंधी सवाल पर वे कहते हैं, “ऐसा कह सकते हैं।” वहीं, डॉ श्रीवास्तव का कहना है कि हाथी कॉरिडोर को इसलिए अधिसूचित नहीं किया जा रहा है, क्योंकि इससे बेतहाशा और अवैज्ञानिक खनन में अड़चनें आएंगी।

22 नवंबर 2018 को प्रोजेक्ट ऐलीफेंट की 15वीं स्टेयरिंग कमेटी ने हाथी क्षेत्र वाले राज्यों को पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम 1986 के तहत इको सेंसेटिव जोन के रूप में या वन्य जीव संरक्षण अधिनियम 1972 के तहत कम्युनिटी रिजर्व या कंजर्वेसन रिजर्व के रूप में कॉरिडोर को अधिसूचित करने को कहा था।

 

बैनर तस्वीरः रांची और रामगढ जिले के बीच सिकदिरी घाटी में सड़क किनारे ऐसे बोर्ड लगे हुए हैं। तस्वीर- राहुल सिंह

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