- भारत सरकार ने हाल ही में देश में वन क्षेत्र की स्थिति को लेकर ‘इंडिया स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट 2021’ जारी की है। इसमें दावा किया गया है कि देश में जंगल का इलाका बढ़ा है। हालांकि, रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि पूर्वोत्तर राज्यों में जैवविविधता से भरे जंगल का ह्रास हुआ है और 2009 के बाद से यहां वन क्षेत्र लगातार कम होता जा रहा है।
- वन क्षेत्र में वृद्धि के सरकारी दावे पर कई सवालिया निशान भी लग रहे हैं। जानकार, गणना के तरीकों पर सवाल उठाते हुए कहते हैं कि इस रिपोर्ट के लिए सड़क के किनारे लगे पेड़, रबर, कॉफी और चाय बगानों की हरियाली को भी वन क्षेत्र के तौर पर शामिल कर लिया गया है।
- इस रिपोर्ट में बताया गया है कि अगले दस साल से कम समय में 45 से 64 फीसदी जंगल क्षेत्र क्लाइमेट चेंज हॉटस्पॉट यानी जलवायु परिवर्तन की जद में आ जाएगा। 2050 तक देश का समूचा जंगल ही इसकी चपेट में होगा।
भारत सरकार ने हाल ही में वन सर्वेक्षण रिपोर्ट 2021 (आईएसएफआर) जारी किया। रिपोर्ट में दावा किया गया है कि दो साल पहले की तुलना में देश के वन क्षेत्र में 2,261 वर्ग किलोमीटर (किमी) की बढ़ोतरी हुई है। हालांकि, यह दावा कठघरे में हैं और इस विषय के जानकार रिपोर्ट बनाने के तरीके पर सवाल उठा रहे हैं। इन जानकारों का आरोप है कि वन क्षेत्र में वृद्धि दिखाने के लिए शहरों के लगे पेड़ और पौधरोपण को भी जंगल में शामिल कर लिया गया है।
जानकारों का मानना है कि देश के वनों को लेकर बनी यह रिपोर्ट वानिकी जैसे विषय से अनभिज्ञ दिखती है। जैसे इसमें जिन इलाकों को जंगल माना गया है, अगर वहां वन संरक्षण कानून 1980 को लागू करने की कोशिश की जाए तो ऐसे इलाके ‘जंगल’ होने के मापदंड पर खरे नहीं उतरेंगे।
इस रिपोर्ट की चले तो कई अन्य चीजों की भी परिभाषा बदलनी पड़ेंगी। पर्यावरण मामलों पर काम करने वाले वकील ऋत्विक दत्ता इसको उदाहरण देकर समझाते हैं। अगर वन सर्वेक्षण के हिसाब से वनों की पहचान की जाए तो शहरी लोग और कॉफी बगानों में रहने वाले लोग भी वनवासी कहे जाएंगे।
मोंगाबे-हिन्दी से बात करते हुए दत्ता जोर देकर कहते हैं कि यह वन विभाग का दोहरा मानदंड है। वन संरक्षण कानून की बात हो या सड़कों के लिए वन भूमि को गैर वन संबंधी काम के लिए इस्तेमाल करना हो, तब सरकार सड़क किनारे लगे पेड़ों को फॉरेस्ट कवर नहीं मानती। वहीं जब फॉरेस्ट कवर की कोई रिपोर्ट बनानी हो तो इन पेड़ों को भी फॉरेस्ट कवर में शामिल कर लिया जाता है। दत्ता दिल्ली स्थित संस्था लीगल इनिशियटिव फॉर फॉरेस्ट एंड एनवायरनमेंट से जुड़े हैं। इस संस्था को 2021 का राइट लाइवीहुड अवॉर्ड मिला है जिसे नोबेल पुरस्कार का विकल्प भी माना जाता है।
“वन सर्वेक्षण में ऐसे क्षेत्र को जंगल मान लिया गया जो कि न वन विभाग के द्वारा जंगल माना गया है न ही वन संरक्षण कानून के शब्दकोश के तहत वन की श्रेणी में आता है। दरअसल, 20 साल होने को आए लेकिन सरकार वन को पारिभाषित नहीं कर पाई है। इस रिपोर्ट का बारीकी से विश्लेषण करने पर भारत में वनों की जटिल स्थिति का पता चलता है,” वह कहते हैं।
वह आगे कहते हैं कि अगर सरकार इसी तरह से रिपोर्ट बनाती रही तो किसी बगीचे में अच्छी संख्या में पेड़ हों तो आने वाले दिनों में उसे भी जंगल मान लिया जाएगा।
पूर्वोत्तर में लगातार कम हो रहे जंगल
भारतीय वन सर्वेक्षण (एफएसआई) या ‘इंडिया स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट 2021’ को पर्यावरण, वन और जलनायु परिवर्तन मंत्रालय ने इस साल 13 जनवरी को जारी किया। रिपोर्ट के मुताबिक इसमें सामुदायिक और निजी जमीन पर पौधरोपण, सड़क, रेल और नहर किनारे लगे पेड़, रबर, चाय और कॉफी बगानों में हुए पौधरोपण को भी शामिल कर लिया गया है।
वन सर्वेक्षण के लिए रिमोट सेंसिंग उपग्रह के आंकड़ों से वन का पता लगाया गया। रिपोर्ट के विश्लेषण से पता चलता है कि जैव विविधता से संपन्न पूर्वोत्तर राज्यों में जंगल लगातार कम हो रहे हैं। रिपोर्ट के मुताबित पूर्वोत्तर में 1,69,521 वर्ग किमी जंगल है, जो कि पिछली सर्वेक्षण रिपोर्ट 2019 के मुताबले 1,020 वर्ग किमी कम है।
जनवरी 2019 में जब पिछली वन सर्वेक्षण की रिपोर्ट जारी हुई थी, तब मोंगाबे-इंडिया ने पूर्वोत्तर में कम होते जंगल पर एक रिपोर्ट की थी। उस समय इस क्षेत्र के वनों के दायरे में पिछले दस साल (2009 से 2019) के दौरान 3,199 वर्ग किमी कमी दर्ज हुई थी।
यह चिंताजनक है क्योंकि भारत का पूर्वोत्तर क्षेत्र – अरुणाचल प्रदेश, असम, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड, सिक्किम और त्रिपुरा – दुनिया के 17 जैव विविधता वाले हॉटस्पॉट में से एक है। देश के भौगोलिक क्षेत्र का सिर्फ 7.98 प्रतिशत का यह हिस्सा भारत के वन क्षेत्र में लगभग 25 प्रतिशत का योगदान देता है।
वन सर्वेक्षण 2021 के अनुसार, भारत का कुल वन क्षेत्र 713,789 वर्ग किमी है जो कि भारत के भौगोलिक क्षेत्रफल का 21.71 प्रतिशत है। वहीं वृक्षों का आच्छादन 95,748 वर्ग किमी होने का अनुमान है जो कि देश के भौगोलिक क्षेत्रफल का 2.91 प्रतिशत है। नवीनतम रिपोर्ट में इन दोनों को जोड़कर यह कहा गया है कि देश का कुल वन और वृक्ष आवरण 809,537 वर्ग किमी है। यह देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 24.62 प्रतिशत हो गया। इस तरह देश के वन क्षेत्र में 2019 की तुलना में 2,261 वर्ग किलोमीटर (0.28 प्रतिशत) की वृद्धि दिखाई गई है। इस नए रिपोर्ट में से वनावरण में 1,540 वर्ग किमी और वृक्षों से भरे क्षेत्र में 721 वर्ग किमी की वृद्धि पाई गई है।
वन क्षेत्र में वृद्धि दिखाने वाले शीर्ष पांच राज्य आंध्र प्रदेश (647 वर्ग किमी), तेलंगाना (632 वर्ग किमी), ओडिशा (537 वर्ग किमी), कर्नाटक (155 वर्ग किमी) और झारखंड (110 वर्ग किमी) हैं। वन क्षेत्र में कमी दर्ज करने वाले शीर्ष पांच राज्य पूर्वोत्तर के हैं, जिनमें अरुणाचल प्रदेश (257 वर्ग किमी), मणिपुर (249 वर्ग किमी), नागालैंड (235 वर्ग किमी), मिजोरम (186 वर्ग किमी) और मेघालय (73 वर्ग किमी) शामिल हैं।
रिपोर्ट में सामने आया है कि देश के 104 पहाड़ी जिलों में 902 वर्ग किमी जंगल कम हुआ है।
सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च की पर्यावरण शोधकर्ता कांची कोहली ने कहा, “यह रिपोर्टें जितना बताती है उससे कहीं ज्यादा छिपाती है।”
“वन क्षेत्र पर तैयार की जाने वाली किसी भी रिपोर्ट में वनों के विस्तार के साथ-साथ वनों के संकट को भी शामिल किया जाना चाहिए। देश के वनों को समझने के लिए यह दोनों पक्ष बहुत महत्वपूर्ण है। मौजूदा वन सर्वेक्षण में कई आंकड़ें शामिल किये गए हैं जो न तो वनों की गुणवत्ता और उनके सामाजिक-आर्थिक उपयोग और न ही वृक्षों के आवरण की स्पष्ट समझ देते हैं। ऐसे रिपोर्ट तैयार करते वक्त वनों के सामाजिक पक्ष की अनदेखी की जाती है। ऐसी रिपोर्ट में कभी यह बताने का प्रयास नहीं किया जाता कि पेड़ न होने की वजह से वन भूमि खाली है। या हरियाली वाली भूमि दरअसल खेती की भूमि है जो फलों का बाग भी हो सकता है और जिसकी कटाई होने वाली है,” कोहली ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया।
वन सर्वेक्षण की रिपोर्ट का क्यों हो रहा विरोध
आईएसएफआर की कार्यप्रणाली पर टिप्पणी करते हुए रिमोट सेंसिंग विशेषज्ञ राज भगत ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया कि समस्या यह है कि रिपोर्ट के तहत जिन क्षेत्रों को वन दिखाया गया है, हो सकता है कि वे वन हों ही नहीं।
“रिमोट सेंसिंग तकनीक के साथ, एक शहरी इलाका जहां छिटफुट पेड़ लगे हों उसे भी वन आवरण में गिन जा सकता है। लेकिन पेड़ या कुछेक पेड़ों के समूह का मतलब जंगल नहीं होता है। मुझे लगता है कि पारिस्थितिकी तंत्र के आधार पर वन क्षेत्र तय किया जाना चाहिए। रिमोट सेंसिंग के उपयोग और जमीन पर उस आंकड़े की जांच के बीच संतुलन होना चाहिए,” भगत ने कहा।
उदाहरण के लिए, आईएसएफआर 2021 जारी होने के बाद भगत ने कुछ तस्वीरें ट्वीट की। इसमें दिल्ली के एक क्षेत्र का गूगल मैप से ली गई एक तस्वीर और उसी स्थान के लिए आईएसएफआर 2021 की एक तस्वीर शामिल है। इसमें यह दिखता है कि आईएसएफआर रिपोर्ट ने नई दिल्ली में सड़क के किनारे और बड़े सरकारी जमीनों को मध्यम घने और खुले जंगल के रूप में शामिल किया है। तस्वीरों में दिखाया गया कि यह क्षेत्र मुख्य रूप से लुटियंस दिल्ली है जो राष्ट्रीय राजधानी में एक वीआईपी क्षेत्र है। यहां भारत सरकार के शीर्ष मंत्रियों और अधिकारियों का घर है।
“रिमोट सेंसिंग डेटा का उपयोग किया जाना चाहिए, लेकिन फॉरेस्ट कवर या वनावरण को परिभाषित करने के लिए एकमात्र स्रोत के रूप में इसका उपयोग करना उचित नहीं है। इसकी मदद से पेड़ों की मौजूदगी की निगरानी की जा सकती है। एक बार पेड़ों के पैच की पहचान हो जाए फिर स्थानीय टीमों को सर्वेक्षण करना चाहिए। इसके बाद एक साथ आंकड़ों की व्याख्या की जानी चाहिए। अन्यथा, दिल्ली में हमारी संसद के आसपास के क्षेत्र सहित पूरे शहर, नारियल के पेड़, और कॉफी/रबर के बागानों को वन कवर के तहत गिना जाता रहेगा,” उन्होंने कहा।
रिपोर्ट में यह भी दावा किया गया है कि सात महानगरों – दिल्ली, मुंबई, हैदराबाद, बेंगलुरु, अहमदाबाद, चेन्नई और कोलकाता- में वन कवर का मानचित्रण किया गया है। इन शहरों का कुल वनावरण 509.72 वर्ग किमी है, जो देश के कुल वनावरण का लगभग 10.21 प्रतिशत है। इन शहरों के वन क्षेत्र में एक दशक में परिवर्तन की गणना की गई और पिछले 10 वर्षों में कुल 68 वर्ग किमी की वृद्धि दर्ज की गई। यह दिलचस्प है क्योंकि भारत के बड़े शहरों की आबादी लगातार बढ़ रही है और संसाधनों पर दबाव भी बढ़ रहा है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि वनावरण के मामले में हैदराबाद में 48.66 वर्ग किमी और दिल्ली में 19.91 वर्ग किमी की वृद्धि हुई है। वहीं अहमदाबाद और बेंगलुरु ने क्रमशः 8.55 वर्ग किमी और 4.98 वर्ग किमी वन क्षेत्र को खो दिया है।
पारिस्थितिकी विज्ञानी एमडी मधुसूदन ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ट्विटर पर आईएसएफआर 2021 की विसंगतियों पर सार्वजनिक रूप से टिप्पणी की। उन्होंने इस बात पर प्रकाश डाला कि भारत के शहरों में घनी आबादी वाले क्षेत्रों और नारियल के पेड़ों के नीचे के क्षेत्रों को वन के रूप में वर्गीकृत किया गया है। “आईएसएफआर के वनों में विस्तार के दावों के बावजूद, ऐसा कोई संकेत नहीं है जो यह बताए कि देश में वन क्षेत्र का विस्तार हो रहा है। बल्कि इसकी पूरी संभावना है कि वन क्षेत्र में कमी आई हो। यह कथित बढ़ोतरी काफी हद तक एफएसआई की ‘जंगल’ की विकृत परिभाषा की वजह से है,” उन्होंने ट्वीट किया।
अपने ट्वीट्स की श्रृंखला में, मधुसूदन ने आरोप लगाया कि रिपोर्ट में वनावरण में वृद्धि दिखाने के बाद सरकारी महकमा वास्तविक वन क्षेत्रों को दूसरे काम के लिए परिवर्तित करता रहेगा। खनन, बुनियादी ढांचा या उद्योग परियोजनाओं के नाम पर।
पहले भी मोंगाबे-इंडिया ने ऐसे कई मामले को रिपोर्ट किया है जिसमें देश के प्राचीन और महत्वपूर्ण वन क्षेत्र को तमाम आपत्ति के बावजूद भी उद्योगों के हवाले कर दिया गया।
“सरकार वनों को उद्योंगों को सौंपती रहेगी। अगर यह दिखाया जाए कि वन क्षेत्र बढ़ रहे हैं तो इसके खिलाफ कोई भी क्यों बोलेगा?” उन्होंने ट्वीट किया।
पर्यावरणविद् कांची कोहली ने कहा, “आईएसएफआर 2021 में ऐसे आंकड़ों को इकट्ठा किया गया है जिससे राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सरकार, जलवायु परिवर्तन से जुड़ी अपनी सक्रियता दिखा सके।”
“सैटेलाइट रडार पर जो कुछ भी वन आवरण के रूप में दिखता है उससे इस रिपोर्ट का मुख्य उद्देश्य पूरा हो जाता है। उधर केंद्र सरकार और राज्य सरकारें निवेश लाने के नाम पर वास्तविक वन क्षेत्र का बढ़ाती जा रही हैं। वन संरक्षण के नाम पर वनाधिकार देने में भी कोताही बरती जा रही है,” उन्होंने जोर देकर कहा।
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इस रिपोर्ट में कंप्यूटर आधारित मॉडल के सहारे जलवायु परिवर्तन का पूर्वानुमान भी लगाया गया है। इसमें तापमान और वर्ष के आंकड़ों का इस्तेमाल कर 2030, 2050 और 2085 के संभावित स्थिति की कल्पना की गयी है। इसमें भारतीय जंगलों में जलवायु परिवर्तन हॉटस्पॉट की मैपिंग भी की गई है।
इसमें कहा गया है कि 2030 तक भारत का लगभग 45-64 प्रतिशत वन क्षेत्र जलवायु हॉटस्पॉट के अंतर्गत आ जाएगा, जबकि 2050 तक देश के पूरे वनावरण के जलवायु परिवर्तन हॉटस्पॉट के अंतर्गत आने का अनुमान है। 2085 तक भारत के 20 प्रतिशत वन कवर “जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभाव के कारण बर्बाद’ हो रहे होंगे। ऐसे अनुभव जम्मू और कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, असम, मणिपुर, मिजोरम, मेघालय, त्रिपुरा और मध्य भारत और गुजरात के कुछ हिस्सों में देखने को मिलेंगे।
रिपोर्ट में भारत के टाइगर रिजर्व और शेर संरक्षण क्षेत्र में वन कवर का भी आकलन किया गया है। कहा गया है कि बाघ अभयारण्य लगभग 74,710 वर्ग किमी में फैला है जो कि भारत के क्षेत्रफल का लगभग 2.27 प्रतिशत है। आकलन से पता चलता है कि बाघ अभयारण्यों में वन क्षेत्र 55,666 वर्ग किमी है। यह बाघ अभयारण्यों के कुल क्षेत्रफल का लगभग 74.51 प्रतिशत और भारत के कुल वन क्षेत्र का 7.8 प्रतिशत है।
इस रिपोर्ट के अनुसार पिछले दस सालों में 20 बाघ अभयारण्य में वन क्षेत्र बढ़ा है वहीं 32 बाघ अभयारण्य में वन क्षेत्र का ह्रास हुआ है। दूसरी तरफ, शेर के आवास के मामले में 33.43 वर्ग किमी की कमी आई है।
ऋत्विक दत्ता ने सवाल किया कि जब भारत सरकार दावा कर सकती है कि वह देश में मौजूद सभी बाघों का तस्वीर उतार लेती है। ऐसे में वन रिपोर्ट जैसे गंभीर करया के लिए संपूर्ण जमीनी सच्चाई का पता क्यों नहीं लगाया जा सकता?
बैनर तस्वीरः दार्जिलिंग में चाय के बगान। तस्वीर– व्याचेस्लाव अर्जेनबर्ग/विकिमीडिया कॉमन्स