Site icon Mongabay हिन्दी

जैव विविधता संशोधन कानून का महत्व क्या है और क्यों हुआ इसका विरोध?

उत्तराखंड स्थित हिमालय के जंगल। तस्वीर- पॉल हैमिल्टन/विकिमीडिया कॉमन्स

उत्तराखंड स्थित हिमालय के जंगल। तस्वीर- पॉल हैमिल्टन/विकिमीडिया कॉमन्स

  • संसदीय संयुक्त समिति को फिलहाल यह मसौदा भेज दिया गया है। जिससे विपक्ष द्वारा उठाई जा रही आपत्तियों को विराम मिल गया है। संयुक्त संसदीय समिति ने 2 फरवरी 2022 तक संशोधन के मसौदे पर राय मांगी हैं।
  • इस मसौदे से कुछ चिंताएं पैदा होती हैं क्योंकि इसमें भारतीय चिकित्सा पद्धति को इसके दायरे से मुक्त करने की मंशा जताई गयी है जताता है। विशेषज्ञों को लगता है कि भारतीय चिकित्सा पद्धति की आड़ में कॉर्पोरेट्स के हित के लिए भारत की जैव विविधतता और इससे जुड़ी परंपरगत ज्ञान -व्यवस्था का बेजा इस्तेमाल होता रहेगा।
  • 1990 के दशक में देश में जैव विविधतता के संरक्षण को लेकर कानून बनाने की पहल हुई थी जो विभिन्न स्तरों पर गहन विचार-विमर्श की प्रक्रिया से हुआ था। इसके संशोधन को लेकर भारत सरकार जो हड़बड़ी दिखा रही है इससे कई सवाल खड़े होते हैं।

जैव विविधता संशोधन बिल (2021) फिलहाल संसदीय संयुक्त समिति के पास है। जैव विविधता कानून (2002) के कुछ प्रावधानों में संशोधन के वास्ते यह बिल अस्तित्व में आया। पूरी दुनिया में भारत एक ऐसा देश है जिसने जैव विविधता के महत्व को शुरुआत में ही संज्ञान में लिया था।

पूरी दुनिया में भारत एक ऐसा देश है जिसने जैव विविधता के महत्व को शुरुआत में ही संज्ञान में लिया था। इस कानून का मुख्य उद्देश्य जैव विविधतता पर हुए वैश्विक सम्मेलन (कन्वेन्शन) को अमल में लाना और उसका क्रियान्वयन करना था।

कन्वेन्शन ऑन बायो-डायवर्सिटी (सीबीडी) के प्रावधानों से संबन्धित जो तीन वैश्विक सम्मेलन हुए उनमें से 1992 में हुए तीसरे सम्मेलन जिसे रियो समिट (या पर्यावरण और विकास पर हुए संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन) के नाम से भी जाना जाता है उसमें भारत भी एक हस्ताक्षरकर्ता देश है।

सीबीडी और जैव विविधतता कानून, 2002 का जो बुनियादी सिद्धान्त है- एक संप्रभु देश होने के नाते इस देश में मौजूद वनस्पति और जीव जंतुओं की विविधतता और उससे जुड़े परंपरागत ज्ञान का उपयोग इस देश की संप्रभु संपदा है।

सीबीडी के तीन मुख्य घोषित उद्देश्य हैं और जिनके आधार पर जैव विविधतता संरक्षण कानून वजूद में आया था। वो हैं- जैव विविधतता के साथ-साथ इससे जुड़े पारंपरिक ज्ञान का संरक्षण, इसके टिकाऊ उपयोग को प्रोत्साहित करना और फायदे या लाभ में समान भागीदारी सुनिश्चित करना  

इस संशोधन का महत्व क्या है?

जैव विविधतता संरक्षण संशोधन अधिनियम 9 दिसंबर 2021 को संसद के पटल पर रखा गया। बताया गया कि यह वैज्ञानिक अनुसंधान और पारंपरिक चिकित्सा में जैव विविधतता के इस्तेमाल को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से लाया गया है।

इस संशोधन का एक उद्देश्यों की लंबी फेहरिस्त बताई गयी। चिकित्सकीय महत्व की वनस्पति के प्लांटेशन को प्रोत्साहित किया जा सके ताकि वन्य औषधीय वनस्पति (वाइल्ड मेडिकल प्लांट्स) पर दबाव और निर्भरता कम की जा सके। यह एक तरह से वन्य औषधीय वनस्पति के संरक्षण और औषधीय वनस्पति की खेती (उत्पादन) को बढ़ाना है ताकि देश में आयुष की व्यवस्था के दायरे को व्यापक बनाया जा सके। आयुष से तात्पर्य देश की पारंपरिक चिकित्सा पद्धति है।  

हिमालय के कुल्लू घाटी का दृष्य। तस्वीर- व्याचेस्लाव अर्जेनबर्ग/विकिमीडिया कॉमन्स
हिमालय के कुल्लू घाटी का दृश्य। तस्वीर– व्याचेस्लाव अर्जेनबर्ग/विकिमीडिया कॉमन्स

इसके अलावा शोध और अनुसंधान के क्षेत्र में पेटेंट की प्रक्रियाओं को गति देना, भारत में मौजूद जैविक संसाधनों के शोध और अनुसंधान को उपयोग के आधार पर परिणाम देना जिसमें इस बात का ख्याल रखा जाये कि नागोया प्रोटोकॉल के उद्देश्यों का हनन न हो। नागोया प्रोटोकॉल में जैव विविधतता पर स्थानीय समुदायों की पहुंच और लाभ के बंटवारे की शर्तें शामिल हैं।

यह भी कहा गया है कि परंपरगत ढंग से जो लोग अपनी स्थानीय ज्ञान व्यवस्था के आधार पर इस जैव विविधतता का इस्तेमाल चिकित्सकीय उपयोग के लिए करते आ रहे हैं उन्हें इसका इस्तेमाल करने दिया जाएगा। इसमें हकीम और वैद्य, पंजीकृत आयुष प्रेक्टिशनर्स और वे कंपनियां भी शामिल हैं जो चिकित्सकीय उत्पाद बनाती हैं। कहा गया है कि ऐसी व्यवस्था बनायी जाए जिसमें ये लोग और कंपनियां अपना काम राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण (एनबीए) से अनुमति लिए बगैर भी जारी रख सकेंगे। इसके लिए ये लोग या कंपनियां जैविक संसाधनों का उपयोग कर सकेंगी।

दूसरा बड़ा प्रस्ताव इस अधिनियम में राष्ट्रीय जैव विविधतता प्राधिकरण में बड़ी संख्या में विभिन्न केंद्रीय मंत्रालयों में शामिल अधिकारियों को बतौर एक्स-ओफिसियो शामिल किए जाना है। एक तरह से इसे स्वागत योग्य कदम माना जा सकता है। अगर ऐसा होता है तो जैव विविधतता मुख्यधारा का विषय हो जाएगा।

तीसरा पक्ष यह है कि इस मसौदे में राष्ट्रीय जैव विविधतता प्राधिकरण के सचिव को ज़्यादा अहमियत दी जा रही है। यह बदलाव कर अब सेक्रेटरी को मेम्बर सेक्रेटरी का दर्जा दिया जा सकेगा जिसके पास अधिक पावर होगा। कुछ ऐसे कि इनके या अध्यक्ष के हस्ताक्षर मात्र से आदेश जारी किया जा सके। इस कवायद से दो महत्वपूर्ण पदों के बीच, पावर को लेकर  लगातार चल रहे रस्साकसी पर भी विराम लगेगा। अब तक, वन पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय सचिव को अपना प्रतिनिधि मानता था जबकि इसका अध्यक्ष मंत्रालय से बाहर के किसी व्यक्ति को बनाया जाता था।

जैव विविधतता कानून के तहत अभी त्रि-स्तरीय संरचना चलन में है। शीर्ष पर है राष्ट्रीय जैव विविधतता प्राधिकरण जिसका मुख्यालय चेन्नई में है। फिर 29 राज्यों में राज्य जैव विविधतता बोर्ड बने हैं जो राज्य के मुख्यालयों में स्थित हैं। इसके बात 2,50,000 जैव विविधतता प्रबंधन समितियां हैं जो स्थानीय स्व-शासन की इकाइयों मसलन ग्राम पंचायत और नगर पंचायतों के स्तर पर बनी हैं।

अपनी खूबसूरती के लिए मशहूर ये तितलियां जैव-विविधता के लिए बहुत महत्वपूर्ण होती हैं। फोटो- रेट ए. बटलर/मोंगाबे
अपनी खूबसूरती के लिए मशहूर ये तितलियां जैव-विविधता के लिए बहुत महत्वपूर्ण होती हैं। फोटो- रेट ए. बटलर/मोंगाबे

इस नए मसौदे में एक विशेष प्रावधान यह भी है कि अगर किसानों के किसी समूह की ‘बीज कंपनी’ ने प्रोटेक्शन ऑफ प्लांट वैरायटी एंड फार्मर्स राइट्स कानून, 2001 के तहत अधिकार या अनुमति हासिल की है तो उस समूह को जैव विविधतता कानून के तहत दोबारा लाइसेन्स लेने की ज़रूरत नहीं होगी।

उल्लेखनीय है कि प्रोटेक्शन ऑफ प्लांट वैरायटी एंड फार्मर्स राइट्स कानून, 2001 बीज कंपनियों को उन बीजों के लिए जिन्हें उन्होंने विकसित किया है, बौद्धिक संपदा अधिकार देता है। इसी कानून के तहत किसानों को भी उनके द्वारा परंपरागत रूप से संरक्षित किए गए बीजों पर अधिकार दिया जाता है।

इस संशोधन की मुख्य चिंताएं क्या हैं?

भारत में जैव विविधतता कानून, 2002 का मूल आधार 1992 में हुए जैव विविधतता सम्मेलन के प्रस्ताव रहे हैं। 1992 के सम्मेलन के प्रावधानों को पूरा करने के लिए ही यह कानून बना था। उधर 1994 में भारत विश्व व्यापार संगठन का सदस्य बना।

विश्व व्यापार संगठन का सदस्य बनने के साथ ही यह आशंकाएं जताईं गईं कि विदेशी कंपनियां भारत में आकर यहां की जैविक संपदा और उससे जुड़े परंपरागत ज्ञान पर कब्जा कर लेंगी। ये कंपनियां इन उत्पादों का पेटेंट हासिल कर इसके जरिये पूरी तरह से अपने नियंत्रण में ले लेंगीं। यह वही समय था जब देश में हल्दी के पेटेंट को लेकर बहसें चल रहीं थीं।

मौजूदा संशोधन अधिनियम में भी यही चिंताएं सामने आ रही हैं कि कोर्पोर्रट्स या विदेशी कंपनियां पहले से मिले परंपरागत चिकित्सकीय उपयोग की अनुमतियों का फायदा लेकर इन्हें व्यावसायिक इरादों से उपयोग में ले सकती हैं। ऐसी स्थिति में जैव विविधतता के मूल संरक्षकों को कानून सम्मत लाभ का बंटवारा भी नहीं हो सकेगा।

जैव विविधता कानून इतना महत्वपूर्ण क्यों हैं?

यह इकलौता ऐसा कानून है जो देश की नैसर्गिक संपदा को संरक्षित करता है। यह एक छतनार (अम्ब्रेला) कानून है जिसके तहत भारत के प्राकृतिक संसाधन, वनस्पति और जन्तु समूह और इससे जुड़ी परंपरागत ज्ञान की व्यवस्था को संरक्षण मिला है। यह इस तरह से बनाया गया है ताकि जैव विविधतता का संरक्षण, उसका टिकाऊ उपयोग और हितग्राहियों में लाभ का समान बंटवारा सुनिश्चित किया जा सके।

इस कानून के तहत राष्ट्रीय जैव विविधतता प्राधिकरण के त्री-स्तरीय ढांचे का विकास भी किया गया। इसका मुख्य उद्देश्य था कि भौगोलिक तौर पर भारत की जैव विविधता का और उससे जुड़े पारंपरिक ज्ञान को महत्व मिल सके।

थार में एक स्थानीय पौधा। रेगिस्तान फूल और जैव-विविधता का विशाल और अद्वितीय खजाना है। तस्वीर- डॉ. गोबिंद सागर भारद्वाज
थार में एक स्थानीय पौधा। रेगिस्तान फूल और जैव-विविधता का विशाल और अद्वितीय खजाना है। तस्वीर- डॉ. गोबिंद सागर भारद्वाज

यह भारत के बौद्धिक संपदा कानून से कैसे जुड़ा है?

भारत में जैव विविधतता कानून उस समय बना जब बौद्धिक संपदा को लेकर भी नियम पुख्ता किये जा रहे थे। उल्लेखनीय है कि इस देश में विश्व व्यापार संगठन 1994 में आया और जैव विविधता कानून 1992 में।

इसके पीछे मकसद यह था कि बौद्धिक संपदा -व्यवस्था (यान्त्रिकी) के जरिये भारत के जैविक संसाधन को निजी क्षेत्र और निजी हाथों में जाने से रोका जा सके। ऐसा न होने की स्थिति में इस जैव विविधतता के जो पारंपरिक संरक्षक है वें इन संसाधनों से मिलने वाले लाभ से वंचित रह जाते। यह कानून जैव विविधतता उपयोग और लाभ के बंटवारे के बारे में भी स्पष्ट प्रावधान देता है।

जैव विविधतता के अन्य संरक्षक जैसे किसान जो सदियों से अपने बीज बचा और बना रहे हैं उनके लिए प्रोटेक्शन ऑफ प्लांट वैरायटी एंड फार्मर्स राइट्स कानून, 2001 यही वो कड़ी है जो भारत में बौद्धिक संपदा अधिकारों की व्यवस्था बनाती है और विश्व व्यापार संगठन के व्यापार संबंधी बौद्धिक संपदा व्यवस्था से अलग भी करती है।

इस संशोधन की खिलाफत क्यों हो रही है?

इसकी सबसे बड़ी वजह ये है कि इन संशोधनों पर सार्वजनिक चर्चा नहीं हुई। 90 के दशक में, मैं एक जवान रिपोर्टर की हैसियत से देश में जैव विविधतता कानून को अस्तित्व में आने का गवाह रहा हूं। उस दौरान कई स्तरों पर सार्वजनिक विचार विमर्श की प्रक्रिया चली थी।  इस कानून के मसौदे की शुरूआत 1995-96 में हुई थी। 1997 में केंद्र सरकार ने  इस कानून के मसौदे पर काम करने के लिए एक समिति भी बनाई थी। इस समिति ने देश के अलग अलग हिस्सों में भी कई बैठकें आयोजित की थीं। यहां तक कि संसदीय समिति ने भी देश के कई हिस्सों में जाकर विभिन्न हितग्राहियों से चर्चा की थी।  

उस समय यह कोशिश की जा रही थी कि कैसे इस कानून को अन्य क़ानूनों, जैसे प्रोटेक्शन ऑफ प्लांट वैरायटी एंड फार्मर्स राइट्स और पेटेंट कानून में लाए जा रहे संशोधनों के साथ किस तरह परस्पर जोड़ा जाये। यह सब कुछ विस्तृत सार्वजनिक विमर्श की प्रक्रिया के तहत हो रहा था। ऐसा विचार विमर्श अभी पूरी तरह नदारद है। और शायद यही बड़ी वजह है कि इस संशोधन का बड़े पैमाने पर विरोध हो रहा है।


और पढ़ेंः देश में वनों की स्थिति: बढ़ रहा है पौधारोपण और घट रहे हैं वन


भविष्य की राह कैसी हो?

अब जब इसे संसद की संयुक्त संसदीय समिति को भेज दिया गया है तो इसमें भागीदारी की एक प्रक्रिया होते हुए दिख रही है। हालांकि ये सवाल अभी भी बना हुआ है कि संयुक्त संसदीय समिति के बजाय इसे विज्ञान और पर्यावरण की स्थायी समिति के पास क्यों नहीं भेजा गया?

हालांकि हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जैव विविधता कानून, 2002 कि इस बात पर भी गंभीर आलोचना होती रही है कि ये कानून बहुत सख्त है और इसके सख्त प्रावधानों के कारण वैज्ञानिक अनुसन्धानों में काफी अड़चनें आती हैं। अगर वाकई अच्छी मंशा से ये संशोधन लाये जाते हैं तो इन अड़चनों को दूर किया जा सकता है और शायद अब संयुक्त संसदीय समिति में यह प्रक्रिया अपनाई जाये।

 

(अनुवाद- सत्यम श्रीवास्तव)

 

बैनर तस्वीरः उत्तराखंड स्थित हिमालय के जंगल। तस्वीर– पॉल हैमिल्टन/विकिमीडिया कॉमन्स

Exit mobile version