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एक फौजी की कोशिश से दोबारा आबाद हुए उत्तराखंड के ‘भुतहा गांव’

भुवनेश्वरी चंदोला, रावतगांव की आखिरी बची हुई ग्रामीणों में से एक हैं। वह अपने पति ओमप्रकाश चंदोला और मेजर गोर्की के साथ ऐसे फल और सब्जियां उगाने की कोशिश कर रहीं हैं जो अब उनके गांव में नहीं उगती हैं। तस्वीर- अर्चना सिंह

भुवनेश्वरी चंदोला, रावतगांव की आखिरी बची हुई ग्रामीणों में से एक हैं। वह अपने पति ओमप्रकाश चंदोला और मेजर गोर्की के साथ ऐसे फल और सब्जियां उगाने की कोशिश कर रहीं हैं जो अब उनके गांव में नहीं उगती हैं। तस्वीर- अर्चना सिंह

  • ग्लोबल वार्मिंग की मार से उत्तराखंड में पानी की किल्लत, फसल चक्र का बदलना और उपज में कमी जैसी समस्याएं बढ़ती जा रही हैं। इन गावों में बढ़ती दिक्कतों की वजह से लोग यहां से पलायन करने पर मजदूर हो रहे हैं। इन खाली गावों को अंग्रेजी में घोस्ट विलेज बुलाया जाता है।
  • कोरोना महामारी के दौरान पलायन कर चुके लोग रोजगार की कमी की वजह से घरों की तरफ लौटे। राज्य में ही रोजगार देने के लिए 2020 में सरकार ने कई योजनाएं भी चलाई, लेकिन इसका कोई लाभ नहीं दिख रहा।
  • पलायन को रोकने के लिए गांवों के सतत विकास की जरूरत है। इसके लिए जलवायु में हो रहे बदलावों के अनुकूल आजीविका के विकल्प तैयार करने की जरूरत है।
  • इन परिस्थितियों में पौड़ी गढ़वाल के एक गांव में उम्मीद की किरण दिख रही है। मेजर गोर्की चंदोला जैसे लोग अपने पैतृक गांव लौट आए हैं और कृषि, निर्माण और पर्यटन से रोजगार सृजन में लगे हैं।

उत्तराखंड को देव भूमि के नाम से जाना जाता है, लेकिन हाल के वर्षों में यह राज्य जलवायु परिवर्तन, कुदरती हादसों और उसकी वजह से हो रहे पलायन को लेकर चर्चा में रहा है। ग्लेशियर का फटना, अचानक आई बाढ़, बिन मौसम भीषण बारिश, जंगल की आग और भूस्खलन की वजह से राज्य में काफी  विध्वंस हो रहे हैं। इन सब के बीच यहां से बड़ी संख्या में लोगों का पलायन भी चिंता का विषय है।

उत्तराखंड में ऐसे कई गांव हैं जहां की पूरी आबादी पलायन कर गई। ऐसे गावों को भुतहा गांव या घोस्ट विलेज के नाम से जाना जाता है। 

चार साल पहले इन समस्याओं को समझते हुए फौज में रहे मेजर गोर्की चंदोला शहर छोड़कर अपने पुश्तैनी गांव रावत गांव लौट आए और कुछ नया करने की कोशिश की। गोर्की चंदोला का गांव पौड़ी गढ़वाल जिले में स्थित है। यह उत्तराखंड का सबसे शिक्षित जिला है लेकिन यहां पलायन भी सबसे अधिक होता है।

वह गांव लौटने की वजह बताते हैं, “मैं गांव में पैदा हुआ, लेकिन अगर यहां नहीं रहा तो मेरे बच्चों को साफ हवा नहीं  मिलेगी। उन्हें शहर में रहने की वजह से गांव का शुद्ध खाना भी नहीं मिल पाएगा। इसलिए हम अपने गांव लौट आए। जब हम गांव लौटे तो यह कमोबेश खाली हो चुका था। गांव में मात्र 10 से 15 लोग रहे रहे थे और यहां जमीने खाली पड़ी थीं।”

गांव वापसी के बाद मेजर चंदोला के लिए यह बड़ा परिवर्तन था। उन्होंने अपनी 12 साल की बेटी का एडमिशन उसी स्कूल में कराया जहां से वे पढ़े थे। अब वे अपने 6 साल के बेटे के साथ कई घंटों तक पहाड़ों के चढ़ाई वाले रास्तों पर टहल सकते थे। उनके परिवार ने गांव का स्वसहायता वाला मॉडल अपनाया यानी जो खाते हैं वही उगाओ और जो उगता है वही खाओ। 

उनके शहरी जीवन में हर सुख सुविधा मौजूद थी, जैसे घर में इंटरनेट का कनेक्शन था, नेटफ्लिक्स का सब्सक्रिप्शन था, लेकिन ग्रामीण जीवन में इसकी कमी थी। पर दूसरी तरफ गांव में कुदरत के बीच समय बिताना का मौका था जिसे उन्होंने दोनों हाथों से लपक लिया।  

 मेजर गोर्की चंदोला अपने गांव को स्थायी रूप से विकसित करने के लिए कृषि, निर्माण और पर्यटन में पारंपरिक प्रथाओं को पुनर्जीवित कर रहे हैं। तस्वीर- अर्चना सिंह
मेजर गोर्की चंदोला अपने गांव को स्थायी रूप से विकसित करने के लिए कृषि, निर्माण और पर्यटन में पारंपरिक प्रथाओं को पुनर्जीवित कर रहे हैं। तस्वीर- अर्चना सिंह

मेजर चंदोला ने न सिर्फ अपना और अपने परिवार की जीवनशैली बदली, बल्कि इससे कभी भुतहा गांव कहे जाने वाले उनके गांव का भी कायाकल्प हुआ। उन्होंने गांव तक पहुंचने वाले रास्तों और टूट रहे घरों की मरम्मत की। खाली पड़े खेतों को दोबारा फसल उगाने लायक बनाया और पेड़ों की छंटाई की। 

गांव वालों ने पानी की व्यवस्था के लिए वर्षा जल संरक्षण का प्लांट लगाया और क्यारियों के द्वारा पानी खेतों तक पहुंचाया। ग्रामीणों ने मिलकर रोजगार पैदा करने के लिए रोजगार सृजन केंद्र खोले। इससे आसपास के युवा और पलायन करने वाले मजदूरों को रोजगार देने की कोशिश हुई। 

यह बदलाव आसान नहीं था। मेजर चंदोला के लिए सबसे मुश्किल काम पलायन कर चुके लोगों को वापस गांव बुलाना था। 

“मैं जानता हूं कि पलायन की समस्या बड़ी है और उसे सुलझा मेरे अकेले के बूते की बात नहीं है। पहाड़ों पर केंद्रित और जलवायु परिवर्तन के लिहाज से अनुकूल कुछ रोजगार पैदा कर मैं सिर्फ अपने हिस्से की कोशिश कर सकता हूं। अगर लोगों को रोजगार मिले तो वे पलायन नहीं करेंगे। इस बात को ध्यान में रखकर, मैंने कृषि, निर्माण और पर्यटन के पारंपरिक तरीकों पर काम करना शुरू किया,” वह कहते हैं। 

निर्माण, पर्यटन और कृषि में पहाड़ केंद्रित रोजगार के विकल्प 

चंदोला ने परिवर्तन की शुरुआत अपने एक सदी पुराने मकान से की और उसकी मरम्मत, पत्थर और गिली मिट्टी की मदद से की। उन्होंने अपने खेतों को खेती के लायक बनाया। 

फौज में रह चुके मेजर चंदोला रातोंरात किसान, प्लंबर, मिस्री से लेकर, न जाने कितने तरह की भूमिका निभाने लगे। चार साल की मेहनत से उन्होंने गांव में कई तरह के फसल उगाए। इन फसलों में प्याज, लहसुन, लेमनग्रास, दाल, मटर, भिंडी, अमरूद, आम और कई तरह की सब्जियां और कई किस्म के फल शामिल हैं। 

जलवायु परिवर्तन का असर खेती पर हुआ है। पानी की कमी और फसल चक्र के बदलने से यहां के किसान परेशान हैं और पलायन करने को मजबूर हैं। तस्वीर- अर्चना सिंह
जलवायु परिवर्तन का असर खेती पर हुआ है। पानी की कमी और फसल चक्र के बदलने से यहां के किसान परेशान हैं और पलायन करने को मजबूर हैं। तस्वीर- अर्चना सिंह

वैज्ञानिक तरीकों का इस्तेमाल कर उन्होंने लिची, कीनू, सेब, और आलूबुखारा जैसे फल भी उगाए जो तापमान बढ़ने की वजह से 10-15 साल पहले ही इलाके से खत्म हो चुके थे। 

वैज्ञानिक और पारंपरिक तरीकों का इस्तेमाल कर उन्होंने गांव में कई पॉली हाउस बनाए जिसमें सब्जी और औषधीय पौधे उगाए। उन्होंने खेती में रासायनिक खाद की बजाए सिर्फ गाय के गोबर से बने खाद का इस्तेमाल किया। 

मेजर चंदोला का प्रयास सफल रहा और गांव के लोगों को रोजगार मिलने लगा। 

जैविक खेती के अलावा उन्होंने रोजगार के लिए होमस्टे का काम भी शुरू किया। इस माध्यम से लोगों के घरों में पर्यटकों को ठहराकर ग्रामीण पर्यटन की शुरुआत हुई।

होमस्टे के लिए मकान बनाने में लोकल मटेरियल का इस्तेमाल किया गया, जैसे लकड़ी, पत्थर, मिट्टी इत्यादि। 

मेजर चंदोला की पत्नी दीप्ति चंदोला पेशे से इंटिरियर डिजाइनर हैं। साथी ही उन्हें पेंटिंग और गार्डनिंग की समझ भी है। उन्होंने मेजर चंदोला के साथ अपने पूर्वजों के मकानों को पारंपरिक तरीकों से संवारा। 

उत्तराखंड पर जलवायु परिवर्तन की मार

उत्तराखंड पर जलवायु परिवर्तन का असर देखने को मिल रहा है, खासकर ऊंचाई वाले इलाकों में। यहां तापमान तेजी से बढ़ रहा है। जर्मनी स्थित पॉट्सडैम इंस्टीट्यूट फॉर क्लाइमेट रिसर्च और द एनर्जी एंड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट (टेरी) द्वारा किए गए एक हालिया अध्ययन के अनुसार, उत्तराखंड का वार्षिक औसत अधिकतम तापमान 2021 और 2050 के बीच 1.6-1.9 डिग्री सेल्सियस बढ़ सकता है। जैसा कि जलवायु परिवर्तन पर राज्य सरकार की कार्य योजना (क्लाइमेट एक्शन प्लान) में उल्लेख किया गया है, उत्तराखंड पहले से ही जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का अनुभव कर रहा है जैसे कि बदलता मौसम, सर्दियों के दौरान कम बर्फबारी, ग्लेशियरों का गायब होना और अप्रत्याशित वर्षा इत्यादि।

पौड़ी में उगाए गए कीटनाशक मुक्त मौसमी फल। तस्वीर- अर्चना सिंह
पौड़ी में उगाए गए कीटनाशक मुक्त मौसमी फल। तस्वीर- अर्चना सिंह

इन कारकों के संयोजन ने भूस्खलन, हिमस्खलन, चट्टान गिरने की तीव्रता को बढ़ा दिया है। राज्य में पानी की कमी बढ़ रही है और  फसल चक्र बदल रहा है। कई फसलों के लिए खेती के क्षेत्र बदल गए हैं और फसल की पैदावार में कमी आई है। उत्तराखंड एक ऐसा राज्य है जहां अधिकांश आबादी पूरी तरह से वर्षा आधारित कृषि पर निर्भर है। ऐसी स्थिति में पलायन को रोकना एक मुश्किल काम है।

2011 में हुए भारत की जनगणना के अनुसार, 40 लाख से अधिक लोग उत्तराखंड से पलायन कर चुके हैं। यह संख्या उत्तराखंड की आबादी का लगभग 40% है। इसके कारण उत्तराखंड में निर्जन या भुतहा गांवों की संख्या बढ़ रही है। कुछ जिले जैसे पौड़ी, गढ़वाल और अल्मोड़ा में नकारात्मक जनसंख्या वृद्धि देखी जा रही है। उत्तराखंड प्रवासन आयोग के 2018 के एक सर्वेक्षण के अनुसार, 2011 के बाद से राज्य के 734 गांव निर्जन हो गए हैं। अगले 30 वर्षों में उत्तराखंड के लिए जलवायु परिवर्तन और पलायन का यह दोहरा संकट और गहराने की आशंका है। 

महामारी के दौरान रिवर्स माइग्रेशन: एक उम्मीद की किरण या सिर्फ एक भ्रम?

कोविड-19 महामारी के दौरान रिवर्स माइग्रेशन यानी पलायन कर शहर जा चुके लोगों के वापस लौटते हुए देखा गया। उत्तराखंड प्रवास आयोग द्वारा सितंबर 2020 में जारी आंकड़ों के अनुसार, 2020 में लगभग 327,000 प्रवासी राज्य में लौट आए। उत्तराखंड राज्य सरकार ने मई 2020 में प्रवासियों के लिए रोजगार के अवसर पैदा करने के लिए मुख्यमंत्री स्वरोजगार योजना शुरू की। इस योजना का उद्देश्य स्व-रोजगार के लिए नई सेवाएं, व्यवसाय और सूक्ष्म उद्योग शुरू करने के इच्छुक प्रवासियों को 15-25% निवेश सब्सिडी प्रदान करना है। हालांकि, राज्य सरकार की पहल के बावजूद, महामारी की स्थिति में सुधार के बाद एक लाख (100,000) से अधिक प्रवासी शहरों में लौट आए।

मोंगाबे-हिन्दी ने कुछ प्रवासियों के साथ बातचीत की जो हाल के दिनों में अपने गांव लौटे हैं। पौड़ी निवासी धीरज रावत कहते हैं, “मैं अपना खुद का व्यवसाय स्थापित करने के लिए पिछले साल अक्टूबर में 15 साल बाद पौड़ी लौटा था। लेकिन महीनों की कोशिश के बाद मैंने यह विचार छोड़ दिया। मुख्यमंत्री स्वरोजगार योजना के तहत स्वीकृत ऋण प्राप्त करना बहुत कठिन था, इसमें बहुत अधिक कागजी कार्रवाई, कभी न खत्म होने वाली नौकरशाही शामिल थी और बैंकों को ऋण देने के लिए कुछ गिरवी भी रखना जरूरी था। सभी झंझटों से गुजरने की तुलना में महानगरों में नौकरी ढूंढना आसान लग रहा था।”

पौड़ी के परित्यक्त घर जिन्होंने सदियों से हर प्राकृतिक आपदा को झेला है लेकिन पलायन का सामना नहीं कर सके। तस्वीर- अर्चना सिंह
पौड़ी के परित्यक्त घर जिन्होंने सदियों से हर प्राकृतिक आपदा को झेला है लेकिन पलायन का सामना नहीं कर सके। तस्वीर- अर्चना सिंह

पौड़ी के सत्यखाल गांव के एक प्रवासी राकेश रावत ने इस योजना का लाभ उठाकर अपना खुद का पोल्ट्री व्यवसाय स्थापित किया, लेकिन कोई लाभ नहीं उठा सके। वह अपना अनुभव साझा करते हैं, “यह योजना अदूरदर्शी है और बस कागज पर अच्छी दिखती है।  क्योंकि इसके तहत केवल कुछ चुनिंदा लोगों को सब्सिडी वाले ऋण मिल पाता है। इसमें ज्यादातर आर्थिक रूप से संपन्न लोग हैं। हम जैसे लोगों को सरकार से कोई खास मदद नहीं मिलती और हमारे जैसे छोटे व्यवसायी, पहले से स्थापित व्यापारियों के आगे टिक नहीं पाते।”

बहरहाल, सभी लोग ने राज्य नहीं छोड़ा। कुछ ने सरकार की मदद के बिना ही राज्य में अपना जीवन फिर से शुरू कर दिया है।

“जब हम चार साल पहले यहां पहुंचे, तो हमने महसूस किया कि पत्थर-मिट्टी-लकड़ी के घर बनाने की पुरानी निर्माण प्रथा भूकंप भी झेल सकती थी। हालांकि, आधुनिक सीमेंट और ईंट के घरों की वजह से पुराने घर खत्म हो रहे हैं। हमें ऐसे राजमिस्त्री नहीं मिले जो अभी भी पुरानी तकनीकों का इस्तेमाल करते हों। इसलिए हमने खुद पुरानी तकनीक से घर बनाना शुरू किया। पारंपरिक तकनीक में सीमेंट की जगह उड़द की दाल का इस्तेमाल होता है। उड़द की दाल में प्राकृतिक रूप से बांधने की शक्ति होती है और इससे घर सर्दियों के दौरान गर्म और गर्मियों के दौरान ठंडा रहते हैं। होमस्टे की दीवारों पर जो भी पेंटिंग टंगी हैं, वे पारंपरिक रंगों और डिजाइनों का उपयोग कर मैंने बनाई है,” दीप्ति चंदोला बताती हैं।


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रावत गांव के मूल निवासी 56 वर्षीय ओमप्रकाश चंदोला ने सभी ग्रामीणों की सामूहिक राय बताते हुए कहा, “हमने बहुत सारे ग्रामीणों को कुछ दिनों के लिए गांव लौटते देखा है  पर यहां स्थायी रूप से बसने की बात कोई नहीं करता। इसलिए जब गोर्की ने दिलचस्पी दिखाना शुरू किया तो हमें भरोसा नहीं हुआ। उन्होंने जो किया है वह काबिले तारीफ है और चार-पांच साल में ही वे गांव के सबसे अहम सदस्य बन गए हैं। जब भी कोई बीमार होता है या किसी मदद की जरूरत होती है तो वह सबसे पहले मदद के लिए आगे आते हैं।”

हालांकि, यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि मेजर गोर्की चंदोला के पास अपने सपने को हकीकत में बदलने की इच्छाशक्ति और साधन, दोनों मौजूद था। हर किसी के पास ऐसी पहुंच और क्षमता नहीं होती। उत्तराखंड सरकार को लोगों की क्षमता निर्माण में निवेश करना चाहिए और संकटग्रस्त प्रवास को रोकने के लिए गांवों के सतत विकास के लिए जलवायु के अनुकूल आजीविका के विकल्प पैदा करने चाहिए। 

 

बैनर तस्वीरः भुवनेश्वरी चंदोला, रावतगांव की आखिरी बची हुई ग्रामीणों में से एक हैं और बाकी लोग पलायन कर चुके हैं। वह अपने पति ओमप्रकाश चंदोला और मेजर गोर्की के साथ ऐसे फल और सब्जियां उगाने की कोशिश कर रहीं हैं जो अब उनके गांव में नहीं उगती हैं। तस्वीर- अर्चना सिंह

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