- अध्ययन से पता चलता है कि बाघ की कम से कम चार प्रजातियां पाई जाती हैं जो कि एक दूसरे से आनुवंशिक तौर पर अलग होती हैं। यह जानकारी बाघ संरक्षण के प्रयासों के लिए बेहद महत्वपूर्ण है।
- शोध के मुताबिक भारतीय बाघों में सबसे अधिक विविधता है, पर उनके बीच भी परिवर्तन दिखने लगा है।
- ओडिशा के सिमलीपाल के जंगल में इस विविधता और एक रही प्रजाति के बीच प्रजनन की वजह से काले बाघ देखे जा रहे हैं। यहां के बाघों की काली पट्टी गहरी और चौड़ी हो रही है।
- इन आंकड़ों को देखकर कहा जा सकता है कि बाघों को लेकर आनुवंशिक आंकड़ों की जरूरत है ताकि उन्हें उनकी जरूरत के मुताबिक संरक्षण मिल सके।
कभी बाघ की बादशाहत पश्चिम में तुर्की से पूरब में अमुर नदी घाटी तक और दक्षिण पूर्व एशिया में बाली से लेकर इंडोनेशिया तक हुआ करती थी। विस्फोटक रूप से बढ़ी इंसानी आबादी ने 20वीं सदी में इनमें से कई स्थानों से बाघ को खत्म ही कर दिया। आज दुनिया के 90 फीसदी बाघ खत्म हो चुके हैं और विश्वभर में मात्र 3900 ही बचे हैं। अपने ऐतिहासिक इलाके की तुलना में अब बाघ मात्र 4 फीसदी इलाके में सिमट गए हैं।
विश्व स्तर पर चले बाघ बचाने के प्रयासों के सामने कई रोड़ा हैं। इनमें बाघों का विकासवादी और आनुवांशिक इतिहास पता न होना एक बड़ी समस्या है। अगर इन जानकारियों को हासिल किया जाए तो संरक्षण की कोशिशों को बल मिल सकेगा।
हालांकि, अब जाकर बाघों के बारे में इस तरह की जानकारी हासिल की जा रही है, विशेषकर भारतीय बाघों के बारे में।
उदाहरण के लिए भारतीय वैज्ञानिकों ने बाघों की आनुवंशिक जानकारी हासिल करने के क्रम में पाया कि उनके जीन्स में भी बदलाव हुआ है। ऐसा ओडिशा के सिमलीपाल के जंगल में देखा गया। यहां के बाघ दूसरे जंगल के बाघों के संपर्क में नहीं है। यहां बाघों के ऊपर काली पट्टी अधिक काली और चौड़ी होती दिख रही है। संभावना है कि यह बदलाव, बाघों के एक ही प्रजाति के बीच प्रजनन की वजह से, आ रहा है।
जानकार मानते हैं कि अगर पुख्ता आनुवंशिक जानकारी हासिल की जाए तो बाघों को बेहतर संरक्षण हो सकेगा। साथ ही, उनमें आनुवंशिक विविधता लाने के लिए दूसरी प्रजाति के बाघों से प्रजनन कराया जा सकेगा।
दुनिया में बाघ की कितनी उप प्रजातियां?
आणविक आनुवांशिक तथ्यों के आधार पर बाघ की छह उप प्रजातियों का पता चला है। ये हैं पैंथेरा टाइग्रिस टाइग्रिस (बंगाल टाइगर्स), पी. टी. अल्ताइका (अमूर टाइगर्स), पी.टी. अमोयन्सिस (दक्षिण चीन के बाघ), पी.टी. सुमात्रा (सुमात्रा टाइगर्स), पी.टी. कॉर्बेटी (इंडोचाइनीज टाइगर्स), और पी.टी. जैक्सन (मलयाई बाघ)।
वर्ष 2015 में विशुद्ध तौर पर बाघों की शारीरिक बनावट और पारिस्थितिकी के विश्लेषण से बाघ को दो उप प्रजातियों में बांटने का प्रस्ताव दिया गया। ये हैं एशिया में पीटी टाइग्रिस और सुंडा द्रीप पर पीटी सोंडाइका। इस तरह की विरोधाभाषी जानकारी से बाघों के संरक्षण संबंधी गतिविधियां बेहद प्रभावित होती है।
हालांकि, इस विवाद को दो नए शोध के नतीजों के आधार पर सुलझा लिया गया। ये शोध बाघ के विकासवादी इतिहास की पड़ताल करते हैं। दोनों ही शोध में पाया गया कि बाघ की विश्व में दो से अधिक उप प्रजाति मौजूद हैं। एक शोध चीनी समूह द्वारा 2018 में किया गया था और दूसरा शोधकर्ताओं के अंतरराष्ट्रीय समूह ने 2020 में किया।
दोनों शोध में पाया गया कि ऐसे कई कारक हैं जिससे पता चलता है कि बाघों की कई उप प्रजातियां हैं। ये कारक या तो प्राकृतिक या मानव निर्मित आपदाएं हो सकती हैं, जिससे बाघों की सख्या काफी कम हो गई हो। या फिर बाघ किसी भूभाग से कटकर अलग-थलग हो गए होंगे। नेचुरल सेलेक्शन या जीन के लिए अपने आप को प्रकृति के अनुरूप ढालने की प्रक्रिया की वजह से भी बाघों के जीन्स में परिवर्तन संभव है।
बाघों में प्रकृति के अनुरूप बदलाव जारी
आनुवंशिक आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि अमूर और सुमात्रा के बाघों में नेचुरल सेलेक्शन की वजह से बदलाव हुए हैं।
अमूर बाघ के जीन्स फैट मेटाबॉलिज्म यानी वसा वाले चयापचय हैं जिससे पता चलता है कि अमूर बाघ ठंडे वातावरण के लिए खुद को विकसित कर रहे हैं। सुमात्रा बाघ के जीन्स के विश्लेषण से पता चलता है कि ये बाघ छोटा शरीर और गहरा रंग पाने की कोशिश में हैं। चूंकि सुमात्राण बाघ आमतौर पर छोटे शिकार वाले गहरे जंगलों में रहते हैं, इसलिए ऐसा लगता है कि वे अपने आवासों के लिए स्थानीय अनुकूलन से गुजर रहे हैं।
यहां इस बात पर भी गौर करना चाहिए कि कैसे स्थानीय पर्यावरण ने बाघों के जीन्स को प्रभावित किया है। इन बातों का ध्यान रख बाघों के संरक्षण के लिए जरूरी कदम अधिक प्रभावी तरीके के उठाए जा सकेंगे।
बंगाल टाइगर में सबसे अधिक विविधता
पॉपुलेशन जेनेटिक एनालिसिस यानी जनसंख्या की अनुवांशिकी कहती है कि भारत में बंगाल टाइगर में सबसे अधिक अनुवांशिकी विविधता है। इसलिए इस बात में कोई ताज्जुब नहीं कि देश में बाघों की 70 फीसदी आबादी बंगाल टाइगर की है। मलयन बाघ की विविधता इसके बाद आती है और फिर अमूर और सुमात्रा के बाघ। विविधता में कमी की वजह संभवतः इनकी कम आबादी हो सकती है।
हालांकि, अमूर और बंगाल के बाघों की जनसंख्या आनुवंशिक संरचनाओं में कुछ दिलचस्प अंतर हैं। अमूर बाघ की आबादी भौगोलिक स्थिति के अनुसार बहुत कम या न के बराबर आनुवंशिक विविधता दिखाती है।
इसके विपरीत भारत में बंगाल टाइगर की चार उप प्रजातियां दक्षिण, पूर्व, मध्य, पूर्वोत्तर और उत्तर पश्चिम में देखी जा सकती है। रणथंभौर जैसे कुछ स्थानों पर कम संख्या और अलग-थलग पड़ने की वजह से बाघों की एक ही प्रजाति के बीच प्रजनन हो रहा है।
अमूर बाघ और बंगाल टाइगर के रहन-सहन और आवास की तुलना करने पर उनके बीच आनुवंशिक अंतर भी स्पष्ट हो जाता है।
भारत में, बाघ बहुत ही बदलते आवासों में रहते हैं जो अक्सर अत्यधिक मानव जनसंख्या घनत्व वाले क्षेत्रों में पाए जाते हैं। अध्ययनों से पता चलता है कि अधिक मानव उपस्थिति, बाघ के बीच जीन प्रवाह के लिए, एक प्रमुख बाधा हो सकती है।
यही कारण है कि भारत में बाघों की अच्छी खासी संख्या और घनत्व के बावजूद, इनकी आबादी अलग-थलग है। अमूर बाघ अपेक्षाकृत बहुत कम मानव घनत्व वाले जंगल में रहते हैं। इसका मतलब यह है कि उनकी कम संख्या और घनत्व के बावजूद, अमूर बाघ अलग-थलग नहीं हैं, और आबादी में प्रजनन की विविधता है।
भारत की स्थिति
भारत में, संरक्षणवादी और बाघ विशेषज्ञ बाघों के आवासों के विखंडन के बारे में चिंता जताते हैं।
साल 2019 में, भारतीय वन्यजीव संस्थान (डब्ल्यूआईआई) के एक अध्ययन ने जोर दिया कि बाघों की संख्या को अंधाधुंध रूप से दोगुना करने के बजाय आवास बहाली और आनुवंशिक विविधता की व्यवस्था की जाए।
एक नए अध्ययन में दिखता है कि देश में दक्षिण और मध्य के जंगलों में अच्छा संपर्क होने की वजह से आनुवंशिक विविधता है। वहीं सरिस्का और रणथंभौर के जंगल में बाघ आपस में ही प्रजनन कर रहे हैं। बाघ के जोड़े एक ही परिवार से वास्ता रखते हैं। ऐसे में उनके ऊपर आपसी प्रजनन से होने वाले खतरे अधिक हैं।
“हालांकि बंगाल के बाघों में उच्च आनुवंशिक भिन्नता होती है और उन्हें सबसे बड़ी आबादी के रूप में जाना जाता है, लेकिन वे जरूरी नहीं कि इनब्रीडिंग के प्रभावों से सुरक्षित हों। हम देखते हैं कि ज्यादातक बंगाल टाइगर को जनन वाले जोड़े एक ही उप प्रजाति के होते हैं। इसकी वजह बाघ का आवास विखंडन या एक जंगल से दूसरे जंगल के बीच संपर्क कटना है,” अनुभव खान कहते हैं जो नेशनल सेंटर फॉर बायोलॉजिकल साइंसेज (एनसीबीएस), बैंगलोर में उमा रामकृष्णन समूह से जुड़े शोधकर्ता हैं।
एक शोध में भविष्यवाणी की गयी थी कि छोटी अलग-थलग आबादी में हानिकारक म्यूटेशन की संख्या कम हो सकती है। हालांकि कम संख्या में भी हानिकारक म्यूटेशन होता है तब बीमारी पैदा होने की आशंका रहती है। इसका मतलब यह है कि भले ही छोटी अलग आबादी में कम हानिकारक म्यूटेशन हों,फिर भी वह आबादी के अस्तित्व के लिए एक गंभीर खतरा बन जाता है।
इसी तरह का एक शोध सिमलीपाल के जंगल में मौजूद बाघों की आबादी पर हुआ। ये दुर्लभ काले बाघ हैं। कभी कहा जाता था कि ऐसे बाघ मौजूद ही नहीं हैं और सिर्फ इसकी कल्पना की जाती थी।
इन बाघों की काली धारी अधिक चौड़ी होती है। सिमलीपाल के सभी काले बाघों में जीन ट्रांसमेम्ब्रेन एमिनोपेप्टिडेज़ क्यू (ताकपेप) नामक एक म्यूटेशन हुआ है। इससे अजीब पैटर्न बनता है।
किंग चीता और कैलिफोर्निया में जंगली टैब्बी बिल्लियों में धब्बेदार चिह्नों सहित कई अन्य बिल्लियों की प्रजातियों में कोट पैटर्न में परिवर्तन का कारण इस जीन में म्यूटेशन को माना जाता है।
सिमलीपाल में हुआ म्यूटेशन या तो बहुत दुर्लभ है या भारत के किसी अन्य बाघों की आबादी में नहीं हुआ है। भारत में सिमलीपाल के बाहर केवल दो ही जहाग ऐसे बाघ दिखते हैं। भुवनेश्वर के नंदनकानन चिड़ियाघर और चेन्नई के अरिग्नार अन्ना जूलॉजिकल पार्क में। पर ये ऐसे बाघ हैं जो पिंजड़ो में ही जन्मे हैं। इन दोनों मामले में बाघ का संबंध सिमलीपाल से है। अभी तक सिमिलीपाल में पहचाने गए 12 बाघों में से केवल 3 काले बाघों को फोटो ट्रैपिंग के जरिए देखा गया है।
सिमलीपाल के बाघों की आबादी अलग-थलग है। इनसे 800 किमी दूर बाघों की अलग कोई आबादी पाई जाती है।
इनब्रीडिंग यानी आपस में प्रजनन और आनुवंशिक बहाव की वजह से ही सिमलीपाल के बाघ इस तरह काले हो गए।
“हमने सिमिलिपाल बाघों में आनुवंशिक बहाव और इनब्रीडिंग की भूमिका को समझना शुरू किया। कुछ आबादी में अजीबोगरीब धारी बाघों में विकासवादी परिवर्तन का संकेत देती है। ऐसी आबादी का आनुवंशिक दृष्टिकोण से अध्ययन किया जाना चाहिए। इससे उन्हें बचाए रखने के लिए संरक्षण के नए प्रयास किए जा सकेंगे,” एनसीबीएस में रामकृष्णन के साथ काम करने वाले विनय सागर कहते हैं।
संरक्षण में आनुवंशिक अध्ययन के निहितार्थ
चीता, गोफर (गिलहरी का करीबी रिश्तेदार), शेर, और यहां तक कि गौरैया और व्हेल से सीखे गए सबक एक ही संदेश को प्रतिध्वनित करते हैं: वर्तमान जनसंख्या आनुवंशिकी और लुप्तप्राय प्रजातियों के आनुवंशिक इतिहास का पता लगाना सार्थक संरक्षण प्रयासों के लिए जरूरी है। पिछले दो दशकों में, यह तेजी से स्पष्ट हुआ है कि आनुवंशिकी को अनदेखा करने से बड़ी समस्या हो सकती हैं।
संरक्षण आनुवंशिकी पर काम करने वाले जीवविज्ञानी फ्रेड एलेंडॉर्फ कहते हैं, “भारत के बाघों पर यह आनुवंशिक अध्ययन दुनिया के सर्वोत्तम उदाहरण में से एक है जिसमें जीनॉमिक्स को संरक्षण के साथ जोड़ा गया है। यह करया उमा रामकृष्णन के समूह की तरफ से किया गया है।”
यू.एस.ए. के मोंटाना विश्वविद्यालय में जीव विज्ञान एमेरिटस के रीजेंट्स प्रोफेसर एलेंडॉर्फ बताते हैं कि जीनोमिक अध्ययन से पता चलता है कि किसी जीव के विभिन्न आबादी को एक के रूप में मानकर उनका प्रबंधन किया जाए या उन्हें अलग-अलग आबादी के रूप में प्रबंधित करने की आवश्यकता है।
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“संरक्षण में आनुवंशिक बचाव प्रयासों के लिए यह आवश्यक है। पहले, आनुवंशिक बचाव यह समझे बिना किया जा रहा था कि यह आबादी को कैसे प्रभावित करेगा। लेकिन अब आनुवंशिक आंकड़ों के साथ आनुवंशिक, संरक्षण के प्रयासों को बल मिलेगा। हम इस आधार पर पहचान सकते हैं कि कौन सी आबादी आनुवंशिक तौर पर परेशानी में है। उदाहरण के लिए, अब हम जानते हैं कि स्थानीय अनुकूलन के कारण, साइबेरियाई बाघों को भारत में रखने से काम नहीं चलेगा,” उन्होंने आगे कहा।
एलेनडॉर्फ आगे बताते हैं कि ये जानवर कई कारणों से असाधारण हैं, लेकिन संरक्षण की समस्याएं काफी हद तक उनकी आबादी के छोटे, खंडित और अक्सर अलग-थलग होने पर केंद्रित हैं। जब ऐसा होता है, तो संयोग और इनब्रीडिंग प्राकृतिक चयन को प्रभावित करता है।
एलेनडॉर्फ कहते हैं, “मेलेनिस्टिक बाघों की आबादी पर किया गया यह काम स्पष्ट करता है कि कैसे आनुवंशिक अध्ययन कर एक बाघ की आबादी को पहचान की जा सकती है और उसके संरक्षण की कोशिशों में तेजी लायी जा सकती है।”
बैनर तस्वीरः नंदनकानन बायोलॉजिकल पार्क, भुवनेश्वर, भारत में एक कैप्टिव ब्लैक (स्यूडोमेलैनिस्टिक) बाघ और अपने भाई के साथ। तस्वीर- राजेश कुमार महापात्रा/नंदनकानन बायोलॉजिकल पार्क