- सौर ऊर्जा पार्कों में प्रति मेगावाट के लिए लगे पैनल की धुलाई के लिए हर बार 7,000-20,000 लीटर पानी की जरूरत होती है। भारत में कई सौर पार्क शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में हैं जो स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र और समुदायों के लिए बड़े जोखिम पैदा करते हैं।
- स्थापना के दौरान मधुमक्खियों और तितलियों जैसे पोलीनेटर का गायब होना चिंता की बात है। करीब 13,000 एकड़ में फैले सौर पार्क वाले पावागढ़ से पक्षी और जीव-जन्तु भी कम हो गए।
- इसे लेकर चिंता है कि जब पार्क बंद हो जाएगा तब क्या होगा। एक अध्ययन में कहा गया है कि ऐसे पार्क के आखिरी चरण में अगर ठीक से न संभाला जाए तो सोलर पैनलों के निपटान से निकलने वाले जहरीले तत्व पारिस्थितिक तंत्र पर प्रतिकूल असर डाल सकते हैं।
कर्नाटक के तुमकुर जिले के पावागढ़ तालुका के किसानों के लिए सूरज की किरणों से वैसा लगाव नहीं रहा है जैसा अन्य क्षेत्र के लोगों का होता है। यह वही क्षेत्र है जो पिछले छह दशक में 54 बार सूखा झेल चुका है। हालांकि अब इन ग्रामीणों का इन किरणों के प्रति नजरिया बदलने लगा है। यह सौर पार्क के लगने से हुआ। अब वही सूरज की निष्ठुर किरणें इन किसानों को किसी उपहार जैसी लगती हैं।
“शक्ति स्थल” नाम का सौर ऊर्जा पार्क, पहले पांच सालों के लिए किसानों से 21,000 रुपये प्रति एकड़ की दर से पट्टे पर ली गई 13,000 एकड़ भूमि पर बनाया गया है। अनुबंध के अनुसार इसमें हर दो साल बाद पांच फीसदी की बढ़ोतरी होती है। बदले में यह पार्क सूरज की इन तेज रौशनी से ऊर्जा बनाता है।
इन गांवों की गलियों में घूमने पर बड़े-बड़े रंग-बिरंगे घर दिखते हैं और इससे जाहिर होता है कि इस पार्क ने यहां के कई लोगों का जीवन बेहतर बनाया है। इसका असली फायदा बड़ी जोत वाले अमीर किसानों को हुआ है। उन्होंने अपनी जमीन का छोटा हिस्सा खेती के लिए रखा और बाकी की जमीं पट्टे पर दे दी है। इससे उनकी अच्छी कमाई हो रही है। पार्क में दिहाड़ी मजदूरी करने वाले छोटी जोत के कुछ गरीब किसानों ने भी बड़े-बड़े घर बना लिए हैं।
पावागढ़ शहर से नागलामाडिके होबली (गांव का समूह जहां सोलर पार्क बना है) जाते हुए हाइवे पर बाइक या प्लॉट की बिक्री के बोर्ड हर तरफ दिखेंगे। या इन गांवों से पीले रंग की “इंटरनेशनल स्कूल” बसों में जाते बच्चे दिखते हैं। पावागढ़ के अधिकांश घरों में एक से अधिक दोपहिया वाहन हैं। यहीं के एक किसान महेश ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया कि कई किसानों ने दूसरे गांवों या कस्बों में जमीन खरीदी है और अपने बच्चों का शहर के अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में दाखिला भी कराया है।
भूमि अधिकारों पर काम करने वाली गैर-लाभकारी संस्था लांडेसा के भारत के राष्ट्रीय निदेशक पिनाकी हलदर कहते हैं, “यह व्यवस्था दोनों पक्षों के लिए फायदेमंद लग रहा था।” उन्होंने ग्रामीणों के साथ हुई बातचीत को याद करते हुए कहा कि ऐसे कम ही लोग थे जो जमीन के बदले नौकरी या अन्य ऑफर से खुश नहीं थे।” उनका मानना है कि यह एक सकारात्मक सामाजिक परिवर्तन है और युवा अब औपचारिक शिक्षा पर ध्यान लगा सकते हैं।
गहराई से पड़ताल करने पर पता चलता है कि कुछ अमीर जमींदार गरीब किसानों के लिए साहूकार भी बन गए हैं। उदाहरण के लिए लिंगन्ना (52) को ही लीजिए जो सौर पार्क में 400 रुपए की दिहाड़ी पर काम करते हैं। उनका बेटा इन सौर कंपनियों में से एक में सुरक्षा गार्ड है और उसे 14,500 रुपए वेतन मिलता है। लिंगन्ना ने 30 लाख रुपए में दो मंजिला बड़ा घर बनाने के लिए एक साहूकार से 10 लाख रुपये का कर्ज लिया है। इसके लिए उन्हें प्रति सौ रुपए पर दो रुपए का ब्याज देना पड़ता है। मुआवजा की राशि और कर्ज पर लिए पैसे से उन्होंने अपने लिए एक बड़ा सा घर बनाया है।
लिंगन्ना जैसे किसानों पर बड़ा घर बनाने का दबाव है क्योंकि उनके अधिकांश पड़ोसियों ने ऐसा ही घर बनाया है। पार्क में मिली नौकरी से इन किसानों में कर्ज लेने का भरोसा आया है।
विभिन्न ऊर्जा प्रणालियों के सामाजिक-पारिस्थितिकी असर पर काम करने वाली शोधकर्ता प्रिया पिल्लई ने जीवाश्म ईंधन क्षेत्र से इसकी तुलना करते हुए कहती हैं कि अगर गौर से देखा जाए तो अक्षय ऊर्जा क्षेत्र में हो रहे परिवर्तन खनन क्षेत्र से मिलती जुलती हैं। यह चिंताजनक है। उन्होंने कहा, “जब लोगों को बड़ा मुआवजा मिलता है तो वे इस पैसे को समझदारी से खर्च नहीं करते। बड़े-बड़े घर बनाते हैं। बड़ी गाड़ियां खरीदते हैं जिसको चलाने के लिए महंगे दर पर पेट्रोल-डीजल खरीदना होता है। ऐसे लोगों को रहने के लिए बड़े घर तो मिल जाता है पर इनके पास रोजगार नहीं होता। ऐसे में ये मुआवजे से मिली रकम खर्च करते जाते हैं।”
अक्षय ऊर्जा क्या सच में स्वाभाविक रूप से अच्छी है?
टिकाऊ विकास के क्षेत्र में काम करने वाले अंतर्राष्ट्रीय संगठन रेस्पॉंसिबल एनर्जी इनीशिएटिव, फोरम फॉर द फ्यूचर के मैनेजर सक्षम निझावन कहते हैं, “भारत में स्वच्छ ऊर्जा विकास की सबसे बड़ी चुनौतियों में एक, यह धारणा है कि यह स्वाभाविक रूप से अच्छी ही होती है।” पर्यावरण प्रभाव आकलन 2020 पर मसौदा अधिसूचना सौर पार्कों को पर्यावरण मंजूरी से छूट देती है। हालांकि, बड़े सौर पार्क से पर्यावरण पर असर पड़ना तय है।
फोरम फॉर द फ्यूचर द्वारा छह अन्य संगठनों के साथ मिलकर अक्षय ऊर्जा पर किया गया अध्ययन, सौर पैनलों की समय-समय पर सफाई के लिए बड़े पैमाने पर पानी की जरूरत की ओर इशारा करता है। अध्ययन में कहा गया है कि प्रति मेगावाट हर धुलाई के लिए 7,000-20,000 लीटर पानी की खपत का अनुमान है। अध्ययन के मुताबिक, चूंकि सभी सौर प्रतिष्ठानों का लगभग 56 प्रतिशत भारत के शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों (जैसे गुजरात और राजस्थान) में है, ये स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र और समुदायों के लिए बड़ा जोखिम पैदा करते हैं।
पावागढ़ में कई कंपनियों ने पानी बचाने के लिए मशीन से सफाई शुरू की है। लेकिन इससे नौकरियां खत्म हो रही हैं। पैनल की धुलाई ऐसा काम है, जिसमें स्थानीय लोगों को लगाया गया है। पावागढ़ में फिनलैंड स्थित सौर कंपनी फोर्टम के एक कर्मचारी ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि यह एक ऐसी दुविधा थी, जिसका कंपनी सामना कर रही थी।
एक किसान ने कहा, “इलाके में पीपीएम का स्तर बढ़ गया था जिससे पॉलीनेटरों का प्रवेश रुक गया। निर्माण रुकने पर वे लौट आए लेकिन मुझे दो साल तक बहुत कम उपज मिली।” उन्होंने कहा कि भालू, तेंदुआ और सियार जैसे बड़े स्तनधारी, जो कभी पावागढ़ में अक्सर देखे जाते थे, अब आसपास नहीं हैं। किसानों ने बताया कि पक्षियों की आबादी भी कम हुई है।”
पर्यावरण सहायता समूह की भार्गवी राव ने कहा, “यह क्षेत्र काले हिरणों के लिए प्रसिद्ध जयमंगली अभयारण्य के करीब है। यह ग्रेट इंडियन बस्टर्ड का भी आवास है, जिसे प्रकृति के संरक्षण के लिए अंतर्राष्ट्रीय संघ (आईयूसीएन) ने गंभीर रूप से लुप्तप्राय पक्षी के रूप में सूचीबद्ध किया है।” कर्नाटक राज्य जैव विविधता रणनीति और कार्य योजना, जैव विविधता के संरक्षण के लिए अहम प्रजातियों और संरक्षित क्षेत्रों से परे देखने का सुझाव देती है। भार्गवी का मानना है कि यदि राज्य इस योजना के लिए प्रतिबद्ध होता तो वे इस क्षेत्र में सख्त घेराबंदी वाले सौर पार्क की अनुमति नहीं देता।
किसानों ने वायुमंडलीय तापमान में बढ़ोतरी और बारिश में वृद्धि की ओर भी इशारा किया। यह एक बड़े जलवायु परिवर्तन का हिस्सा हो सकता है। लेकिन पर्यावरणविदों ने कहा कि पार्क से पड़ने वाले असर की बेहतर समझ के लिए बदलावों का अध्ययन करना जरूरी है।
लांडेसा के हलदर को लगता है कि कर्नाटक सौर ऊर्जा विकास निगम लिमिटेड (केएसपीडीसीएल) बदलाव को उचित और निष्पक्ष बनाने के लिए कुछ अलग कर सकता था। जैसे भूमि उपयोग परिवर्तन पर बेहतर सलाह देने के लिए बोर्ड में एक कृषि विशेषज्ञ को रखा जा सकता था जिससे किसानों को सोच-समझकर फैसला लेने में सहूलियत होती। पार्क के लिए उपयोगी कौशल विकसित करने के लिए क्षेत्र और कार्यक्रमों में जरूरी हुनर का पता लगाना दूसरा विकल्प था। उनका यह भी कहना है कि परिवर्तन पर बातचीत के दौरान महिलाओं, विशेषकर दलित महिलाओं की आवाजें गायब थीं।
पार्क के बंद होने के बाद इलाके में जीवन और आजीविका को लेकर एक अलग चिंता है। ग्रामीणों के साथ समझौते में कहा गया है कि जिस स्थिति में अधिग्रहण किया गया था, उसी स्थिति में उन्हें जमीन वापस कर दी जाएगी। पर्यावरणविद निश्चित हैं कि पैनल बनाने के लिए कंक्रीट के बेतहाशा इस्तेमाल ने भूमि के पैटर्न को बदल दिया है। हालांकि, केएसपीडीसीएल पट्टे की अवधि बढ़ाने को लेकर आशान्वित है और उसे लगता है कि यदि जमीन किसानों को वापस करनी पड़ी तो इस पर फिर से खेती की जा सकेगी। लेकिन यह सवाल बना हुआ है कि प्रक्रिया के दौरान बड़ी मात्रा में पैदा हुए कचरे का क्या होगा।
फोरम फॉर द फ्यूचर की ओर से किए गए अध्ययन में कहा गया है कि ठीक से नहीं संभाले जाने पर आखिरी चरण में पीवी पैनलों के निपटान से निकलने वाले जहरीले तत्व पारिस्थितिक तंत्र और पैनलों को अलग करने या डंप करने में शामिल लोगों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर डाल सकते हैं। पीवी मॉड्यूल के जीवनकाल (25-30 वर्ष) और शुरू से ही फिर से उपयोग या रीसाइक्लिंग के लिए डिजाइन करने में विफलता के चलते, नए और अधिक कुशल मॉड्यूल के इस्तेमाल के कारण, भारत में जल्द ही निपटाने लायक पीवी मॉड्यूल भारी मात्रा में जमा हो जाएगा। इस स्तर पर, इस बड़ी समस्या का समाधान खोजना महत्वपूर्ण है।
किसान खो रहे चारागाह और आजीविका के विकल्प
स्वच्छ ऊर्जा के क्षेत्र में काम करने वाले संगठन असर के अध्ययन से पता चलता है कि उपयोगिता-आधारित सौर परियोजनाओं के लिए भूमि सबसे महत्वपूर्ण जरूरत है। इसके लिए प्रति मेगावाट लगभग पांच से आठ एकड़ भूमि जरूरी है। यह अध्ययन अक्षय ऊर्जा परियोजनाओं के सामाजिक-आर्थिक और पर्यावरणीय प्रभावों का आकलन करने के लिए किया गया था। 2011 की जनगणना से पता चला है कि 26 करोड़ से अधिक भारतीय अपने जीवन और आजीविका के लिए सीधे खेती पर निर्भर हैं। अन्य 30 करोड़ लोग परोक्ष रूप से कृषि भूमि से जुड़ी सहायक गतिविधियों के माध्यम से अपनी आजीविका चलाते हैं। बंजर भूमि की कमी के चलते अक्सर सौर परियोजनाएं किसानों से खरीदी गई या (इस मामले में) पट्टे पर ली गई कृषि भूमि पर स्थापित कर दी जाती है।
सौर पार्क से पहले पावागढ़ में ग्रामीण कई फसलें उगाते थे। वे मवेशी भी रखते थे और अपनी आय बढ़ाने के लिए अमीर किसानों की जमीन पर खेती से जुड़े काम करते थे। पावागढ़ के अर्ध-शुष्क क्षेत्र होने के बावजूद वे काफी हद तक खेती से ही संतुष्ट थे। पावागढ़ के एक किसान महेश ने कहा, “पार्क बनने के कुछ साल पहले तक बहुत कम बारिश हुई और किसान चिंतित होने लगे थे। अगर ऐसा नहीं होता तो लोग अपनी जमीन देने के लिए इतने तैयार नहीं होते।”