- बिहार में पूर्वी चंपारण की धनौती नदी को राष्ट्रीय जल पुरस्कार 2020 सर्वश्रेष्ठ जिला (पूर्वी जोन) सम्मान मिला है।
- धनौती को ये सम्मान उसके कायाकल्प के लिए मिला है, लेकिन मोतिहारी शहर में नदी गंदगी से पटी पड़ी है।
- नदी पर आश्रित मल्लाह और किसानों की आजीविका पर आफत है, जिसका नतीजा ये कि ज्यादातर लोग पलायन को मजबूर है।
- बिहार में छोटी नदियों को बचाने के लिए आंदोलन चल रहे हैं, लेकिन प्रशासन की रवैया ढीला ढाला है।
बिहार के मोतिहारी शहर के बीचोंबीच होकर बहती धनौती एक बड़े नाले में तब्दील हो गई है। नदी के ऊपर बने रघुनाथपुर पुल से, गंदगी से बजबजाती इस नदी से आ रही बदबू को आप महसूस कर सकते है। इस पुल के पास से एक कच्चा रास्ता नदी के पास उतरता है, जहां एक मंदिर है।
मंदिर के पुजारी 80 साल के राजेश्वर दास कहते है, “हमने जब नदी को देखा तब ये यहां 250 फीट चौड़ी थी, अब महज 40 फीट रह गई है। पानी से बदबू आती है। दोनों तरफ खाली लोग मकान भरवा रहे है और कोई सरकार कुछ नहीं कर रही।” उनके पास खड़े वीरेन्द्र साह निराशा से भरी आवाज में कहते है, “हमने तो इस पुल से कूद -कूद कर नदी में नहाया है। कपड़ा धोया है लेकिन अब तो इसका पानी छू भी नहीं सकते।”
पूरे बिहार में बहने वाली अधिकतर नदियों की लगभग यहीं तस्वीर है। ऐसे में धनौती का खास जिक्र क्यों? दरअसल यह वही धनौती नदी है जिसको लेकर बीते 12 जनवरी को बिहार के सूचना जनसंपर्क विभाग ने एक ट्वीट कर अपनी पीठ थपथपाई है। ट्वीट के मुताबिक, “80 किलोमीटर लंबी धनौती नदी का सफल कायाकल्प किया गया है जिसके लिए पूर्वी चंपारण को राष्ट्रीय जल पुरस्कार 2020 के सर्वश्रेष्ठ जिले (पूर्वी जोन) के तौर पर राष्ट्रीय जल शक्ति मंत्रालय ने सम्मानित किया है।”
इस सम्मान मिलने पर खुशी की बजाय स्थानीय लोग असमंजस की स्थिति में हैं। जैसे नदी को अतिक्रमण से मुक्त कराने के लिए बीते एक दशक से संघर्ष कर रहे रंजीत गिरी कहते है, “नदी क्षेत्र के अतिक्रमण की शिकायत करने पर प्रशासन हमें परेशान कर रहा है। लेकिन इतनी गंदी नदी को कायाकल्प का कोई सम्मान केन्द्र सरकार कैसे दे सकती है?”
मोंगाबे-हिन्दी ने इस संबंध में संबंधित अधिकारियों से बातचीत करने की कोशिश की, लेकिन बात नहीं हो पाई। इस संबंध में हमने पूर्वी चंपारण के जिलाधिकारी और बिहार सरकार के सूचना जनसंपर्क विभाग को ईमेल किया है। जवाब मिलने पर स्टोरी अपडेट की जाएगी।
धनौती उत्तर बिहार में बहने वाली बूढ़ी गंडक की सहायक नदी है। बिहार की राजधानी पटना से तकरीबन 250 किलोमीटर दूर स्थित पश्चिमी चंपारण का बेतिया इस नदी का उद्गम स्थल है। बेतिया से निकलकर ये पूर्वी चंपारण के पकड़ीदयाल अनुमंडल में बूढ़ी गंडक नदी में मिल जाती है। हवलदार त्रिपाठी ‘सहृदय’ की किताब ‘बिहार की नदियां’ के पृष्ठ 230 पर इसका जिक्र मिलता है। इसके मुताबिक, “मोतिहारी जो पूर्वी चंपारण जिले का मुख्यालय है वहां दो झीलनुमा बड़े तालाब धनौती के जल से भरे रहते है।”
चंपारण की यह नदी अब काम की नहीं रही
मोतिहारी शहर से कुछ किलोमीटर दूर बंजरिया प्रखंड में चैलाहा नाम की एक जगह है। चैलाहा ही वो जगह है जहां प्रशासन ने साल 2020 में तकरीबन दो किलोमीटर में नदी की सफाई करवाई है। सूचना जनसंपर्क विभाग के ट्वीट के मुताबिक 80 किलोमीटर लंबी धनौती नदी का सफल कायाकल्प मनरेगा के माध्यम से हुआ है। फिलहाल चैलाहा के पास नदी में पानी कम है और जगह जगह जलकुंभी दिखाई देती है।
यहीं के मलाही टोला के वार्ड नंबर 13 जहां से ज्यादातर मजदूरों ने नदी की सफाई की थी। इनमें से एक उर्मिला देवी बताती है, “नदी के पास पंडाल लगा था, सारे सरकारी आदमी आए थे और हम लोगों ने कोरोना लॉकडाउन में एक महीना काम किया था। हम लोगों ने पानी में दिन भर खड़े होकर जलकुंभी निकाली थी लेकिन उसका पूरा पैसा आज तक नहीं मिला। नदी भी हमारे काम की नहीं रह गई अब।”
वार्ड नंबर 13 की आबादी का पारंपरिक पेशा मछली पकड़ना और खेती किसानी रहा है। राजकुमारी देवी की शादी देवलाल सहनी से 21 साल पहले हुई थी। वो बताती है, “जब शादी होकर आई थी तब पति मछली मारते थे, अब नदी में नाव ही नहीं चलती तो मछली क्या मिलेगी? बाद में पति – बेटा सब तमिलनाडु कमाने के लिए चले गए।”
सिर्फ राजकुमारी ही नहीं बल्कि गांव में ऐसी कई महिलाएं हैं जिनके घर की स्थिति ऐसी ही है। इनमें कुछ नाम है चुनरी देवी, महाजनी देवी, अहिल्या देवी, जयकिशुन देवी, और सिकली देवी। नदी में जब नाव चलना मुश्किल हुई तो इन महिलाओं के पति रोजगार की तलाश में पंजाब, बंगाल, हरियाणा, दिल्ली जैसे बड़े शहर चले गए।
शहर वाले मकान बना रहे, फसल किसानों की बर्बाद हो रही
23 साल के मेघनाथ सहनी इस वार्ड के पढ़े लिखे नौजवानों में से एक है। वो बताते है कि उनके परिवार का किसानी और मछली मारने का काम नष्ट हो गया है।
मेघनाथ कहते है, “हमारे इलाके को नदी ने दोनों तरफ से घेर रखा है। गांव में देखिए धनौती के आसपास कोई मकान नहीं बना है, लेकिन शहर के लोग नदी भरवा कर मकान बनवा रहे है। इससे बाढ़ का पानी जो पहले आता था वो निकल जाता था, अब उसे निकलने का रास्ता नहीं मिल रहा है। हमारी धान की फसल लगभग हर साल बर्बाद हो जाती है।”
उन्हीं के पास खड़े अधेड़ उम्र के सुरेश साहनी बताते है, “पहले हम लोग जाल लगाकर छोड़ देते थे। इस बीच खेती भी करते रहते थे। खाने पीने की कभी दिक्कत नहीं रही। लेकिन अब ऐसा नहीं है।”
मोतिहारी के मुख्य शहर से सटे रघुनाथपुर से भी मल्लाह शहर के अंदर से बह रही धनौती से मछली पकड़ने आते थे। 45 साल के खजांची सहनी 10 साल पहले मल्लाह थे लेकिन अब वो दिल्ली में गार्ड का काम करने लगे।
वो बताते है, “पहले सुबह तीन –चार बजे आते थे और जाल लगाकर खेती करने चले जाते थे। नदी में रोहू, नैनी, कुरसा मांगुर मछलियां थी, लेकिन अब कुछ नहीं रहा। हम लोग चार भाई थे, सब यहां से बाहर जाकर कमाने लगे। सरकार अगर यहां नदी साफ करा दें तो हम लोग फिर से यहीं आकर मछली मारेंगें और पैसा कमाएगें।”
धनौती नदी की सफाई के लिए पूर्वी चंपारण प्रशासन ने एक कमिटी बनाई थी। उस कमिटी के एक सदस्य ललन चौधरी भी थे जो बंजरिया प्रखंड के पूर्व प्रमुख रहे है।
ललन चौधरी बताते है, “शहर में नदी पर अतिक्रमण है। प्रशासन के द्वारा इस नदी को अतिक्रमण मुक्त कराया जाना है। लेकिन यहां चैलाहा के पास उड़ाही के बाद पहले जो नदी बहुत पतली बहती थी अब वहां आपको नदी दिखती है। नदी की अगर ठीक से उड़ाही हो जाए तो सब्जी की खेती बहुत अच्छी हो जाएगी। अभी चार प्रखंड बंजरिया, सुगौली, मोतिहारी, तुरकौलिया प्रभावित हो रहे है, जहां नदी में गाद की वजह से पानी खेत में ही ठहर जा रहा है और फसल बर्बाद हो रही है।”
बिहार की छोटी नदियों का यही हाल
बिहार को गंगा नदी दो भागों में बांटती है, उत्तर और दक्षिण बिहार। हिमालय से नेपाल के रास्ते उत्तर बिहार में सैकड़ों नदियां गुजरती हैं।
लेखक हवलदार त्रिपाठी सहृदय अपनी किताब ‘बिहार की नदियां’ में लिखते है “उत्तर बिहार की भूमि स्वर्ग का वह खंड है जो हिमालय से पिघलकर पृथ्वी के रूप में परिणत हुई है। सरयू, झरही, दाहा, बूढ़ी गंडक, गंडक, बागमती, लखनदेई, कमला बलान, काली कोसी, मेजी, महानंदा आदि नदियां उत्तर बिहार की भूमि पर बिछी हुई है और ये सब गंगा की गोद को भरती है।”
नदी विशेषज्ञ दिनेश मिश्र के मुताबिक, नेपाल से 206 छोटी–बड़ी नदियां बिहार में प्रवेश करती है। बिहार के कई हिस्सों में इन छोटी नदियों को बचाने के लिए लड़ाई चल रही है।
बिहार की छोटी नदियां धनौती की तरह ही कराह रही है। पूर्णिया की सौरा, जहानाबाद में दरधा, गया में फल्गू, बांका की चांदन, सुपौल की गजना, किशनगंज की रमजानी नदी सहित सभी छोटी नदियां गाद और अतिक्रमण की शिकार है।
बांका के स्थानीय पत्रकार मनोज उपाध्याय बताते है, “कई नदियां जो मैने खुद 50 साल बहते देखी जैसे भागलपुर – बांका के बार्डर पर पड़ने वाली अंधरी और महमूदा नदी, दोनों ही नदी अब खत्म हो गईं हैं।”
सीतामढ़ी जिले में लखनदेई नदी को वापस लाने की कोशिशें साल 2014 से ही स्थानीय नागरिक कर रहे है। बागमती की ये सहायक नदी पड़ोसी देश नेपाल से सीतामढ़ी जिले के दुलारपुर घाट के पास भारत में प्रवेश करती है।
बिहार सरकार के जल संसाधन विभाग द्वारा दिसंबर 2021 में किए गए एक ट्वीट के मुताबिक, “लखनदेई धार को पुनर्जीवित करने के लिए 21 किलोमीटर में से 18 किलोमीटर में उड़ाही का कार्य पूरा कर लिया गया है।”
लखनदेई बचाओ नागरिक समिति के राम शरण अग्रवाल बताते है, “हम लोगों ने सरकारी मदद से 18 किलोमीटर का उड़ाही का काम करवा लिया है, लेकिन तीन का अधिग्रहण अब तक सरकार नहीं कर पाई है। जब तक सरकार इस तीन किलोमीटर पर चैनल नहीं बनाएगी, नदी में पानी नहीं आएगा।”
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साल 2020 में ‘पानी रे पानी’ नाम के एक समूह ने धनौती, सौरा, बाया, नाटी नदी की यात्रा की थी। धनौती नदी की यात्रा करने वालों में से एक विनय कुमार कहते है, “सरकार कहती है कि धनौती नदी का कायाकल्प हो गया है। अगर ऐसा होता तो ग्राउंड वॉटर रिचार्ज हो गया होता, लेकिन मोतिहारी में तो ऐसा हुआ नहीं। उल्टे ग्राउंड वॉटर का लेवल नीचे चला गया।”
नदियों पर कसता शिकंजा
इन सबके बीच ये सवाल अहम है कि आखिर उत्तर बिहार जहां नदियां अपने साथ उपजाऊ मिट्टी लाकर इलाके को समृध्द करती थी, वहां उनकी ऐसी स्थिति क्यों है?
छोटी नदियों पर काम करने वाले भगवान पाठक बताते है, “नदियों के सहज प्रवाह को तटबंध बनाकर रोका गया जिससे छोटी और बड़ी नदी का जो कनेक्शन या संपर्क था वो टूट गया। इससे हुआ ये कि जो छोटी नदियां सालों भर रहती थी, वो अब सूख गई। जब ये सूखी तो भूमाफिया और आम लोगों ने इसमें मिट्टी भरकर बिल्डिंग बनानी शुरू कर दी।”
बिहार के जल संसाधन विभाग की वेबसाइट के मुताबिक राज्य में 3745 किलोमीटर में तटबंध बने है।
नदी विशेषज्ञ दिनेश मिश्र बताते है, “उत्तर बिहार में रेल लाइन का बहुत विस्तार नहीं हुआ लेकिन सड़कों का नेटवर्क तैयार हुआ। इस नेटवर्क ने पानी के रास्ते पर बाधा पहुंचाई। साल 2007 में आई बाढ़ में 34 जगह तटबंध, 54 जगह मुख्य सड़कें और 829 जगह गांव की सड़कें टूटी। आंकड़े देखें तो 1952 में हमारी 25 लाख हेक्टेयर जमीन क्षेत्र में बाढ़ आती थी जो अब बढ़कर 73 लाख हेक्टेयर हो गया है। साफ है कि पानी अपना रास्ता चाहता था लेकिन हम पानी को बांधना चाहते हैं।”
इस बीच राज्य सरकार बाढ़ की भयावहता से निपटने के लिए गाद नीति का राग अलापती रहती है। पर्यावरण विशेषज्ञ अनिल प्रकाश कहते है, “हिमालय से आने वाली नदियों में गाद आने की रफ्तार बहुत ज्यादा है। लेकिन आप कितनी गाद निकालिएगा? इसलिए सबसे जरूरी है कि नदियों को अविरल बहने दो। इसी से नदियां बचेगी और पूर्व में बाढ़ के साथ सामंजस्य बैठा चुके हमारे समाज का न्यूनतम नुकसान होगा।”
बैनर तस्वीरः मोतिहारी शहर स्थित रघुनाथपुर पुल से धनौती नदी कुछ इस तरह की दिखती है। इस शहर में नदी पर जगह-जगह अतिक्रमण है। तस्वीर- सीटू तिवारी