- झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडिशा जैसे राज्यों में फ्लोराइड का प्रकोप कई इलाकों में देखने को मिलता है। समय से इसकी पहचान और समुचित समाधान से इसके असर को रोका जा सकता था। पर ऐसा हो नहीं रहा और इसकी वजह से ग्रामीण और आदिवासी इलाकों में हड्डी के रोग और बच्चों के दातों मे फ्लोराइड का प्रभाव भारी मात्रा में देखने को मिलता है।
- फ्लोराइड-प्रभावित ऐसे कई इलाकों में कम उम्र के वयस्क भी लाठी लेकर चलने को मजबूर हैं जो उनके परिवार के जीविकोपार्जन के लिए भी खतरा पैदा कर रहा है।
- विशेषज्ञों का मानना हैं कि सरकार की उदासीनता की वजह से ऐसे कई क्षेत्र हैं जहां जन स्वास्थ्य का संकट बढ़ता ही जा रहा है।
बुधराम भुइयां, झारखंड के लातेहार जिले के सकलकट्टा गांव के रहने वाले हैं। उनके जिले से सटा एक जिला है – पलामू, जहां फ्लोराइड की समस्या बहुत अधिक है। इसकी चर्चा होती रहती है। पर लातेहार की गिनती फ्लोराइड प्रभावित इलाकों में नहीं होती। 33-वर्ष के बुधराम बताते हैं कि उनके गांव में एक बड़ी आम समस्या है जिसका जवाब गांव में किसी के पास नहीं है। यह समस्या बच्चों से जुड़ी हुई है।
बुधराम कहते हैं कि उनके गांव में आधिकांश बच्चों के दांतों में पीले और भूरे दाग देखने को मिलते हैं। “हमारे गांव में लगभग 60-70 प्रतिशत बच्चों के दांत खराब हैं। अधिकांश बच्चों के दांतों में आप पीले और भूरे दाग आसानी से देखे सकते हैं। किसी को नहीं मालूम कि ऐसा क्यों होता है,” बुधराम ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया।
गांव के अधिकांश लोग आज भी इसे कोई रहस्यमयी बीमारी से जोड़ कर देखते हैं। इस गांव के प्राथमिक विद्यालय के शिक्षक भी इस बात को मानतें हैं कि यह समस्या यहां काफी आम है। बुधराम बताते हैं कि गांव के ज़्यादातर लोग पीने के पाने के लिए नलकूप का इस्तेमाल करते हैं।
“यहां ज़्यादातर लोग नलकूप और नदी के पानी का प्रयोग पीने के लिए करते हैं। यहां एक पानी की टंकी है जिसका उपयोग गांव के आंगनवाड़ी केंद्र को पेयजल की आपूर्ति के लिए किया जाता है,” बुधराम बताते हैं।
पूरे राज्ये में लगभग 81 ऐसे बस्तियां हैं जिसे सरकार ने माना है कि यहां फ्लोराइड की समस्या है। इन क्षेत्रों में इस मुद्दे से निपटने के लिए कई कार्यक्रम भी चलाए जा रहे हैं। अगर विशेषज्ञों की माने तो जब किसी एक क्षेत्र में ऐसी समस्या काफी आम हो तो इसका तात्पर्य यह हुआ कि वहां के पानी में मौजूद फ्लोराइड की मात्रा अधिकतम सीमा से ऊपर चली गयी है। गांव वालें कहते हैं कि यहां के पानी में फ्लोराइड की मात्रा को जांचने के लिए कभी कोई अधिकारी शायद ही कभी आया हो। हर घर जल योजना भी आज तक इस गांव के लिए एक सपना ही है।
डॉक्टर और जन स्वास्थ्य के विशेषज्ञ मानते हैं कि ऐसा फ्लोराइड की अधिक मात्रा की वजह से होता है। “अगर लोग लगातार ऐसे पानी का सेवन करें जिसमें अधिक मात्रा में फ्लोराइड हो तो बीमारी का लक्षण, सबसे पहले दांतों में ही दिखना शुरू होता है। दांतों में पीले और भूरे दाग होना सबसे सामान्य लक्षण है। अगर किसी भी गांव में ऐसे लक्षण दिखने लगे तो तुरंत सरकार को वहां के पानी की जांच करवानी चाहिए और उचित स्वास्थ सुविधा मुहैया करवानी चाहिए,” डॉ बिजया बिसवाल ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया। जन स्वस्थ्य की जानकार बिसवाल ने खनन वाले क्षेत्रों में पानी के समस्या पर काम किया है और अभी लंदन मे इस विषय पर रिसर्च कर रहें हैं।
मोंगाबे-हिन्दी ने लातेहार के सदर अस्पताल के अधिकारियों से इस मुद्दे पर बातचीत की। एक अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि चूंकि लातेहार की गिनती फ्लोराइड प्रभावित क्षेत्रों मे नहीं की जाती इसलिए इस जिले में फ्लोराइड नियंत्रण के लिए कोई कार्यक्रम नहीं चलाया जा रहा है। सरकार की इस उदासीनता की सजा सकलकट्टा जैसे गांव के लोग झेल रहे हैं।
कांकेर: सरकारी उदासीनता का जीता जागता नमूना
झारखंड से सटे छत्तीसगढ़ में भी कुछ ऐसी ही स्थिति है। यहां बहुत से इलाकें फ्लोराइड से प्रभावित हैं। यहां भी कुछ ऐसे प्रभावित क्षेत्र हैं जहां लोग सरकार की उदासीनता की वजह से फ्लोराइड की बीमारी झेलने को अभिशप्त हैं। छत्तीसगढ़ के कांकेर जिले में डुमरपानी गांव की समस्या फ्लोराइड प्रभावित कई ऐसे गावों की कहानी बताती है।
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तुलसा बाई इस गांव में रहने वाली 60-साल की बुजुर्ग महिला हैं। वो खुद लाठी के सहारे ही गांव में एक जगह से दूसरे जगह जाती हैं। गांव में ऐसी कई और महिला और पुरुष हैं जो 30 से 40 की उम्र से ही लाठी का सहारा लेने को बाध्य हो चुके हैं।
“मेरे जैसी कई और महिलाएं आपको यहां आसानी से मिल जाएंगी जो कम उम्र में भी लाठी के सहारे चलतीं हैं। इन सबकी हड्डिया कमजोर हो चुकी हैं। यहां के बच्चे भी फ्लोराइड से होने वाले बीमारी से अछूते नहीं है,” तुलसा बाई ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया।
इस गांव में रहने वाले बहुत से लोगों ने यहां की समस्याओं के लिए फ्लोराइड युक्त पानी को जिम्मेदार ठहराया। उनका कहना है कि यह समस्या इस गांव में कई दशको से हैं। लेकिन आजतक इसका समाधान नहीं हो पाया है।
“हमारें गांव में 400 घर हैं और फ्लोराइड से होने वाली बीमारी के लक्षण अधिकांश घरों मे देखने को मिल जाएगा। दांतों का पीलापन या भूरे रंग के दाग अधिकांश बच्चो के दांतों में हैं। जब हम डाक्टर को दिखाते हैं तो वो हमारें पानी में अशुद्धता की बात करते हैं,” इस गांव में रहने वाले गोबर्धन पड़ोपी ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया। इनके अनुसार गांव के लोग सामान्यतः पीने या अन्य कामों के लिए नलकूप का इस्तेमाल करते हैं।
मोंगाबे-हिन्दी के इस गांव मे निरीक्षण के दौरान लोगो ने सरकार द्वारा लगाया एक पानी का फ़िल्टर दिखाया जिसको लगे 3 साल से अधिक हो गया पर आज तक उसका उपयोग नहीं हो पाया है। उधर गांव वाले आज भी प्रदूषित जल पीकर बीमारी का शिकार होने को मजबूर हैं। बहुत कम ही ऐसे घर हैं जो फ़िल्टर का प्रयोग कर अपने परिवार को सुरक्षित रख पा रहे हैं।
फ्लोराइड की समस्या इस गांव मे ना केवल लोगों के स्वास्थ्य के लिए एक समस्या बन कर उभर रही है बल्कि उनके सामाजिक जीवन पर भी इसका बुरा प्रभाव देखने को मिलता है। फ्लोराइड से होने वाले शरीर पर इसके असर के कारण कई युवाओं की शादी होने में दिक्कत पेश आती है। कुछ लोग दूर-दराज जाकर शादी करते हैं। बाहर से आई दुल्हन भी इसका खामियाजा भुगतती हैं।
“हमनें कई बार देखा हैं कि जब दूसरे किसी गांव से बहु यहां आती है तो उस समय उसके दांत साफ होते हैं और स्वास्थ्य भी बेहतर होता है। लेकिन इस गांव में कुछ समय गुजारने के बाद उनके दांतों मे भी फ्लोराइड से होने वाले बीमारी के लक्षण दिखने लगते हैं। दूसरी ओर जब यहां के नौजवान और लड़कियां विवाह योग्य हो जाती हैं और उनकी शादी की बात चलती है तो फ्लोराइड एक बड़ी समस्या बनकर उभरती है। कई शादियां इस वजह से टूट चुकी हैं,” दुंबरपानी के कमाल देव मिश्रा ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया।
जब इन गांव वालों से पूछा गया कि ऐसे समस्याओं से निजात दिलाने के लिए सरकार क्या करती है तो लोगों ने अपनी निराशा जाहिर की। इनके अनुसार अधिकारी यहां आकर कुछ फोटो खींचते हैं, पानी के नमूने लेकर जाते हैं। लेकिन अब तक कोई समाधान देखने को नहीं मिला है।
दुंबरपानी से लगभग 50 किलोमीटर की दूरी पर स्थित इच्छापुर नाम का एक आदिवासी गांव है। यहां की भी स्थिति कुछ ऐसी ही है। इच्छापुर के नरसिंघ टेटा कहते हैं कि यहां बहुत से बच्चों के दांतों मे फ्लोराइड से होने वाली बीमारी- फ़्लोरोसिस के लक्षण हैं। सरकार यहां सौर ऊर्जा से चलने वालें एक टैंक से भूजल मुहैया करवा रही है।
सरकारी आंकड़ों के मुताबित छत्तीसगढ़ मे 154 ऐसे बस्तियां हैं जहां फ्लोराइड प्रदूषण को दर्ज किया गया है। इन गावों में लगभग 54,828 लोग रहते हैं।
ओडिशा के नुआपाड़ा में भी एक लाइलाज बीमारी
झारखंड और छत्तीसगढ़ की तरह ओडिशा के नुआपाड़ा जिला भी फ्लोराइड प्रदूषण से ग्रसित है। यह जिला ओडिशा-छत्तीसगढ़ सीमा के पास है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार यहां लगभग 903 ऐसी बस्तियां हैं जहां फ्लोराइड का प्रभाव देखने को मिलता है। नुआपाड़ा में 245 ऐसी बस्तियां हैं जो ओडिशा के किसी भी अन्य जिले की तुलना में सबसे अधिक है।
दिवाकर मांझी इस जिले के पेंडरावन पंचायत के धर्मसागर गांव में रहते हैं। अभी 37 वर्ष का होने के बावजूद वे झुक कर चलते हैं। किसी छड़ी की मदद लिए बिना चलना उनके लिए बहुत मुशकिल हो जाता है। उन्होने मोंगाबे-हिन्दी को बताया कि वो हमेशा से ऐसे नहीं थे। बल्कि 30 की उम्र तक काफी स्वस्थ थे। लेकिन धीरे धीरे उनके कमर की हड्डी में कुछ दिक्कत हुई और इस समस्या ने विकराल रूप ले लिया।
“अगर आप मेरे गांव में देखेंगे तो आपको मेरे जैसे बहुत से लोग मिलेंगे जिन्हें हड्डियों से जुड़ी शिकायत है। किसी के पैर काम नहीं करते तो किसी के हाथ काम नहीं करता,” मांझी ने बताया। जब उनसे पूछा गया कि डाक्टर क्या कहते हैं तो उन्होंने बताया कि पैसो के अभाव में वो डाक्टरी सलाह नहीं ले पाते।
बाशु मांझी, इस गांव के पास के झिंगिडोंगी गांव में रहने वाले हैं। इनको भी पीठ और पैरो के दर्द की शिकायत रहती है। ये बिना झुके और लाठी की मदद लिए बिना चलने की सोच भी नहीं सकते। इस गांव में ऐसे कई और गंभीर मामले मौजूद हैं। फ्लोराइड के सारे लक्षण यहां के लोगों में मौजूद है पर आज भी यहां के लोग नलकूप का पानी ही प्रयोग करते हैं। क्योंकि सरकार ने आजतक इस समस्या का संज्ञान नहीं लिया है।
हालांकि जिला प्रशासन का कहना है कि नुआपाड़ा में फ्लोराइड का प्रकोप लंबे समय से रहा है। नुआपाड़ा की कलेक्टर स्वधा देव सिंह ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया, “स्थिति में अब सुधार हो रहा है। यह स्पष्ट है कि भूजल में फ्लोराइड है तो अब हमारी पूरी कोशिश सतह से उठाए पानी को फ़िल्टर कर गांव में उपलब्ध कराने की है। इसलिए यहां पांच बड़ी पेयजल परियोजना चालू की गयी है जिसका 85 प्रतिशत काम हो चुका है। हमलोग इस जल को फ़िल्टर कर पाइप वॉटर सप्लाइ के माध्यम से गांव तक ले जाने की कोशिश कर रहे हैं।” सिंह ने बताया कि 1,101 फ़िल्टर इन गावों में लगाया जा चुका है।
नीतिगत समस्याएं
विशेषज्ञों का मानना है कि ऐसी कई नीतिगत और व्यवहारिक समस्याएं हैं जिस पर ध्यान देने की जरूरत है। अनुराग गुप्ता वाटेराइड नामक संस्था से जुड़े है और इस विषय को लेकर छत्तीसगढ़ और ओडिसा जैसे राज्यों में काम कर चुके हैं।
उन्होने मोंगाबे-हिन्दी को बताया, “कई जगहों पर हस्तक्षेप की जरूरत है। देश में कई जगहों की तो फ्लोराइड प्रभावित इलाकों के रूप मे पहचान कर ली गई है लेकिन उनका क्या जहां यह समस्या हाल ही में शुरू हुई है। देश में ऐसे कई जगहें हैं जहां लोग इस बीमारी से प्रभावित हो रहे हैं लेकिन उन्हें अब तक फ्लोराइड प्रभावित क्षेत्र के तौर पर पहचान नहीं की गयी है। इन जगहों पर रहने वाले लोग जो इस बीमारी की वजह से अपंग हो गए उन्हें सरकारी सर्टिफिकेट मिलने में असुविधा होती है।”
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उन्होने यह भी बताया कि सरकार को सभी घरों में सस्ते फ़िल्टर उपलब्ध कराने चाहिए। साथ में सामूहिक स्तर पर फ्लोराइड की मात्रा चेक करने के लिए किट भी देना चाहिए ताकि लोग खुद अपने स्वास्थ्य का ख्याल रख सकें। गुप्ता ने नागपुर स्थित नीरी और तेजपुर विश्वविद्यालय द्वारा बनाए गए सस्ते और उपयोगी फ़िल्टर की भी बात की जिसका प्रयोग किया जा सकता है।
तपन पढ़ी, भुवनेश्वर स्थित आरसीडीसी नाम की संस्था से जुड़े हैं जिन्होंने वर्षो तक इस विषय पर काम किया है। पढ़ी ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया, “फ्लोराइड बहुत ही बड़ी समस्या है जिससे घर मे काम करने वाले वयस्क इसके चपेट में आकार अपंग हो जाते हैं। सरकार शुरू में तो ऐसे किसी भी समस्या के होने को स्वीकार ही नहीं करती। इसका परिणाम यह होता है कि धीरे धीरे फ्लोराइड हमारे भोजन मे प्रवेश कर जाता है।”
छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव जिले के एक गांव में 2016 में एक अध्ययन हुआ। इससे पता चला कि फ्लोराइड के आधिक मात्रा के कारण इसका प्रभाव आस पास के मवेशियों में भी होता है। मानव, गाय, बकरी के मुत्र की जांच के बाद यह बात सामने आई। खगेश्वर सिंह पटेल जो इस अध्ययन में शामिल थे उन्होने मोंगाबे-हिन्दी को बताया कि फ्लोराइड का प्रभाव आर्सेनिक से ज्यादा घातक है।
बैनर तस्वीरः 30 साल के दिवाकर मांझी (बाएं) को फ्लोराइड की वजह से कई बीमारियां हो गई हैं। वह बिना छड़ी के सहारे चल नहीं सकते। तस्वीर- मनीष कुमार/मोंगाबे