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जलवायु परिवर्तन का असर जैवविविधता से लेकर समाज तक, नई आईपीसीसी रिपोर्ट में आया सामने

प्रयागराज स्थित संगम का एक दृष्य। आईपीसीसी की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक आने वाले समय में गर्मी की वजह से मौसम की चरम घटनाओं में वृद्धि होगी। इससे स्थलीय, मीठे पानी, तटीय और समुद्री पारिस्थितिक तंत्र के जैव विविधता का नुकसान होगा। तस्वीर- प्रियम/विकिमीडिया कॉमन्स

प्रयागराज स्थित संगम का एक दृष्य। आईपीसीसी की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक आने वाले समय में गर्मी की वजह से मौसम की चरम घटनाओं में वृद्धि होगी। इससे स्थलीय, मीठे पानी, तटीय और समुद्री पारिस्थितिक तंत्र के जैव विविधता का नुकसान होगा। तस्वीर- प्रियम/विकिमीडिया कॉमन्स

  • यूनाइटेड नेशन इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज यानी आईपीसीसी की ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन से मानव जाति के साथ पृथ्वी का स्वास्थ्य भी बिगड़ रहा है। यह रिपोर्ट जलवायु, जैवविविधता और मानव समाज पर केंद्रित है।
  • रिपोर्ट में कहा गया है कि अगर पृथ्वी का तापमान बढ़ना (ग्लोबल वार्मिंग) इसी तरह जारी रहा तो मानसिक स्वास्थ्य संबंधित चुनौतियां बढ़ेंगी। विशेषतौर पर बच्चों, किशोर और बुजुर्ग व्यक्तियों में स्वास्थ्य संबंधी परेशानी बढ़ती दिखेगी।
  • रिपोर्ट में क्लाइमेट जस्टिस (जलवायु न्याय), स्थानीय लोग के साथ-साथ स्थानीय ज्ञान को महत्व दिया गया है और जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए इनके इस्तेमाल की सिफारिश की गयी है। साथ ही, रिपोर्ट में समाधान के उन तरीकों से बचने की सलाह भी दी गयी है जिससे फायदा कम और पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान अधिक पहुंचेगा।

इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज या आईपीसीसी की ताजा रिपोर्ट बता रही है कि जलवायु परिवर्तन की वजह से लोगों के स्वास्थ्य के साथ पृथ्वी की सेहत भी खराब हो रही है। रिपोर्ट में सामने आया है कि अगर समय रहते इसे ठीक नहीं किया गया तो पृथ्वी का भविष्य अनिश्चित है। रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन से बचने के लिए एडॉप्टेशन और मिटिगेशन पर ध्यान केंद्रित करने की सलाह दी गयी है। 

एडॉप्टेशन (अनुकूलन) के तहत जलवायु परिवर्तन के कुप्रभावों से लड़ने के लिए हमें क्षमता विकसित करना होता है। वहीं मिटिगेशन (शमन) के तहत जलवायु परिवर्तन की रफ्तार को कम करने की कोशिश होती है। आईपीसीसी की रिपोर्ट का कहना है कि ऐसे प्रयासों के लिए अब काफी कम समय बचा है, यानी जो भी करना है, जल्दी ही करना होगा। 

रिपोर्ट में सामने आया है कि मौसम की अनिश्चितता की वजह से प्रकृति और इंसानों के शरीर में कुछ ऐसे बदलाव हुए हैं जिन्हें अब ठीक करना संभव नहीं है। इन परिवर्तनों के अनुकूल खुद को ढालने की क्षमता न तो अब हमारे पृथ्वी में है, न ही हमारे शरीर में। इसका मतलब इन परिवर्तनों के प्रति हम खुद को जितना बदल सकते थे, बदल चुके हैं। अब पृथ्वी के गर्म होने के साथ-साथ हमारी यह क्षमता कम होती जा रही है। 

यह आईपीसीसी के छठे असेसमेंट रिपोर्ट (एआर 6)की दूसरी किस्त है। आईपीसीसी दुनिया भर के हजारों वैज्ञानिकों का एक समूह है जो विश्व भर के नीति-निर्माताओं को ध्यान में रखकर जलवायु परिवर्तन से संबंधित रिपोर्ट जारी करता है। नवीनतम वैज्ञानिक समझ के आधार पर तैयार इस रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन का आकलन और इसके संभावित परिणाम की व्याख्या की जाती है। पूरी दुनिया, खासकर सयुक्त राष्ट्र के 195 सदस्य देशों को ध्यान में रखकर यह रिपोर्ट तैयार की जाती है। 

इस रिपोर्ट को क्लाइमेट चेंज इंपैक्ट 2022, एडॉप्टेशन एंड वल्नेराबिलिटी शीर्षक से  एआर 6 की वर्किंग ग्रुप दो ने जारी किया है। 

आकलन रिपोर्ट की प्रक्रिया में तीन कार्य समूहों की रिपोर्ट प्रकाशित होती है। पहले, वर्किंग ग्रुप का फोकस जलवायु परिवर्तन के भौतिक विज्ञान आधारित समझ पर होता है। दूसरा वर्किंग ग्रुप, इसके प्रभाव, निपटने की तैयारी और हमारी कमजोरी पर बात करता है। तीसरा वर्किंग ग्रुप जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए किये जा रहे प्रयास पर बात करता है तथा जरूरी प्रयास पर भी बल देता है। 

हिमाचल प्रदेश के किनौर से गुजरने वाली सतलुज नदी। हाल के वर्षों में किनौर में भूस्खलन और अचानक आने वाले बाढ़ के मामले बढ़े हैं। तस्वीर- मनोज खुराना/विकिमीडिया कॉमन्स
हिमाचल प्रदेश के किन्नौर से गुजरने वाली सतलुज नदी। हाल के वर्षों में किन्नौर में भूस्खलन और अचानक आने वाले बाढ़ के मामले बढ़े हैं। तस्वीर- मनोज खुराना/विकिमीडिया कॉमन्स

उक्त रिपोर्ट वर्किंग गुप II (डब्लूजी II) के द्वारा जारी की गयी है। 

रिपोर्ट के मुख्य लेखक आईआईएएसए के रेनहार्ड मेक्लर ने अध्याय 17 में कहा, “जलवायु परिवर्तन के जोखिमों से निपटने के लिए दुनियाभर में काम चल रहा है। तकनीकी, आर्थिक और संस्थागत दिक्कतों की वजह से तमाम कोशिशें या तो विफल हो रही हैं या जोखिमों को रोकना मुश्किल होता जा रहा है।”

उन्होंने आगे कहा कि उदाहरण के लिए तमाम कोशिशों के बाद भी बाढ़ का खतरा पूरी तरह से टाला नहीं जा सकता है। अचानक या कभी कभार आने वाली बाढ़ को रोकना काफी खर्चीला भी होता है। जैसे दुनिया के कई हिस्सों में बाढ़ से बचने के लिए जो तैयारी की गई है वह अमूमन पचास साल तक ही कारगर होती है। अगर उससे भी अधिक समय के लिए बाढ़ से सुरक्षा चाहिए तो यह काफी खर्चीला होगा। हालांकि, जलवायु परिवर्तन की वजह से यह खतरा जिस कदर बढ़ रहा है, उसे देखकर कई देश बजट बढ़ाने पर भी विचार कर रहे हैं।  

वह कहते हैं कि पृथ्वी के तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक नहीं बढ़ने दिया जाना चाहिए। अगर पृथ्वी इससे अधिक गर्म हुई तो इसका असर ऐसा होगा जिसे बाद में ठीक नहीं किया जा सकता। 

यह रिपोर्ट में इंसानों की वजह से हो रहे जलवायु परिवर्तन और लोगों के शारीरिक स्वास्थ्य और मानसिक स्वास्थ्य पर इसके प्रभावों के बीच संबंधों पर अधिक विस्तार से चर्चा की गयी है। पिछली किसी भी रिपोर्ट की तुलना में इस रिपोर्ट में जलवायु, पारिस्थितिक तंत्र, जैव विविधता और मानव समाज के बीच परस्पर संबंधों पर अधिक दृढ़ता से ध्यान केंद्रित किया गया है। 

“जलवायु परिवर्तन को लेकर काफी कम संख्या में लोग परेशान दिखते हैं। हालांकि, युवाओं में इस मुद्दे पर जागरूकता बढ़ रही है,” कॉलेज ऑफ वूस्टर, यूएसए में मनोविज्ञान और पर्यावरण अध्ययन के प्रोफेसर और आईपीसीसी एआर 6 डब्ल्यूजी II के मुख्य लेखक सुसान क्लेटन ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया। 

डब्लूजी II की रिपोर्ट में क्लाइमेट जस्टिस (जलवायु न्याय), भागीदारी, पारंपरिक और स्थानीय ज्ञान जैसे मुद्दों पर बात हुई है। इस रिपोर्ट में पारंपरिक ज्ञान के सहारे सबको साथ लेकर जलवायु परिवर्तन के कुप्रभावों से बचने की जरूरत पर बल दिया गया है। रिपोर्ट में इस बात की आशंका भी जताई गई है कि जलवायु परिवर्तन से लड़ाई में जो कदम उठाए जा रहे हैं वह गलत दिशा में भी उठ सकते हैं, जिससे फायदा कि जगह नुकसान हो सकता है। 


और पढ़ेंः [व्याख्या] क्या है आईपीसीसी एआर-6 और भारत के संदर्भ में इसकी प्रासंगिकता?


ऐसे गलत कदम से ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन बढ़ने की आशंका है और जलवायु परिवर्तन का एक असर समाज में असमानता के रूप में सामने आ सकता है।

रिपोर्ट असमानता के इतिहास और वर्तमान पर भी बात करती है। इसमें उपनिवेशवाद का और पारिस्थितिकी तंत्र पर इसके असर का जिक्र भी है। रिपोर्ट के एशिया चैप्टर की प्रमुख लेखिका चांदनी सिंह ने ट्वीट किया, “हमारे पास यह दिखाने के लिए पर्याप्त सबूत हैं कि उपनिवेशवाद, अब तक कि विकासयात्रा, संसाधनों तक देशों की पहुंच का संबंध वर्तमान समय में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से जूझने से भी है।”

“इसके अलावा, वर्तमान में जो काम किए जा रहे हैं उसका असर भविष्य में जलवायु परिवर्तन से बचने की कोशिशों पर भी होगा। इस वक्त जो कोशिशें हो रही है उससे या तो हम आगे बढ़ेंगे और जलवायु परिवर्तन की मुश्किलों के सामने टिके रह सकेंगे। या फिर हमारे गलत कदमों से और नुकसान होगा,” सिंह ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया।

रिपोर्ट के लेखकों में शामिल और भारतीय वन्यजीव संस्थान के वैज्ञानिक गौतम तालुकदार कहते हैं, “जब भी आप किसी योजना को बड़े पैमाने पर और विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में विस्तार करते हैं तो अक्सर परिणाम वैसा नहीं होता जिसकी अपेक्षा रहती है। एक भौगोलिक क्षेत्र के लिए जो तरीके कारगर हैं, संभव है कि वे अन्य भौगोलिक क्षेत्रों के लिए कारगर न हों। 

“एक तरह का उपाय सभी के लिए ठीक नहीं हो सकता है। इसका एक समाधान यह है कि उपलब्ध विकल्पों को अन्य समझौतों और नीतियों को ध्यान में रखकर अपनाया जाना चाहिए।  भारत, कई अंतर्राष्ट्रीय सहमति का हिस्सा है, जैसे जैविक विविधता पर कन्वेंशन और पेरिस समझौता पर हस्ताक्षर किया हुआ है,”  तालुकदार ने मोंगाबे-हिन्दी को कहा। 

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इस रिपोर्ट में समाधान पर भी ध्यान केंद्रित किया गया है। इसके लिए जो समाधान का ढ़ांचा सुझाया गया है उसे क्लाइमेट रेजिलिएंड डेवलपमेंट यानी जलवायु के अनुकूल विकास कहते हैं। इसमें ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन कम करने के उपाय शामिल हैं ताकि प्रकृति और लोगों की स्थिति में सुधार हो।  

एशिया के लिए ऐसे विकल्पों में क्लाइमेट स्मार्ट एग्रीकल्चर यानी जलवायु के अनुकूल खेती, पारिस्थितिकी तंत्र के अनुरूप आपदा के खतरों से निपटने की योजना, शहरी ब्लू-ग्रीन बुनियादी ढ़ाचा में निवेश आदि शामिल है। यहां ब्लू ढ़ाचे का मतलब पानी से संबंधित सुविधाओं से है और ग्रीन मतलब पेड़-पौधों की हरियाली। 

इन विकल्पों को अपनाकर जलवायु परिवर्तन को झेलने की शक्ति हासिल करने के साथ इसे कम करने का प्रयास भी हो सकेगा। इन सभी उपायों के लिए पूंजी की आवश्यकता होगी। रिपोर्ट में सुझाया गया है कि सार्वजनिक क्षेत्र से पूंजी लेने के साथ निजी भागीदारी को बढ़ाकर लक्ष्य हासिल किया जा सकता है। इस वक्त पूंजी का अभाव है विशेषकर विकासशील देशों में। 

नेचर बेस्ड सॉल्यूशन या प्रकृति आधारित समाधान भी जलवायु परिवर्तन से जूझने का एक कारगर उपाय हो सकता है। उदाहरण के लिए मध्य प्रदेश के भोपाल में भोजताल का कायाकल्प प्रकृति आधारित समाधानों से ही हुआ। इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि प्रकृति आधारित समाधानों के ऊपर भी जलवायु परिवर्तन का खतरा है। 

भारत सरकार ने एक प्रेस विज्ञप्ति में रिपोर्ट के जारी होने का स्वागत किया है। 

केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री भूपेन्द्र यादव ने ट्वीट कर कहा, “यह रिपोर्ट समानता और जलवायु न्याय के विषय में भारत के आह्वान की पुष्टि करती है। रिपोर्ट बताती है कि विकसित देशों को अनुकूलन, हानि और क्षति के वित्तपोषण तथा उन्हें तुरंत कम करने की दिशा में नेतृत्व करना चाहिये।”

रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत समुद्र के स्तर में वृद्धि, बाढ़, गर्मी और आर्द्रता, पानी की कमी और फसल उत्पादन सहित नुकसानों को झेल रहा है। जलवायु परिवर्तन और मौसम की चरम घटनाओं की वजह से एशिया में पहले से ही पलायन की समस्या है। जलवायु परिवर्तन की समस्या के वृहत होते जाने की वजह से पलायन में वृद्धि की आशंका है। 

जलवायु परिवर्तन से होने वाली मानसिक बीमारियों पर सोचने का वक्त

वर्किंग ग्रुप II की रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन से प्रभावित आबादी में चिंता और तनाव सहित अन्य मानसिक स्वास्थ्य संबंधित चुनौतियों पर भी ध्यान देने पर जोर दिया गया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि आगे ग्लोबल वार्मिंग से विशेष रूप से बच्चों, किशोरों, बुजुर्गों और खराब स्वास्थ्य स्थितियों वाले लोगों के बीच घबराहट, चिंता और अन्य परेशानियां बढ़ने की आशंका है।  इस रिपोर्ट में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन से संबंधित मानसिक स्वास्थ्य को बेहतर जांच-पड़ताल, इलाज की व्यवस्था से नियंत्रित किया जा सकता है। 

आईपीसीसी लेखक सुसान क्लेटन बताते हैं कि मानसिक स्वास्थ्य पर चरम मौसम की घटनाओं के प्रभाव स्पष्ट हैं। “दशकों तक हुए शोध में तूफान, जंगल की आग या बाढ़ से प्रभावित लोगों के बीच पोस्ट-ट्रॉमैटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर, चिंता और अवसाद में बढ़ोतरी देखी गई है। अलग-अलग लोगों पर इसका प्रभाव अलग-अलग हो सकता है। यह जोखिम का स्तर, मिलने वाली स्वास्थ्य और अन्य सुविधाएं और तनाव के स्रोत पर निर्भर करता है,” क्लेटन ने समझाया।

उदाहरण के लिए, पूर्वी भारत में 1999 में ओडिशा में आए सुपर साइक्लोन के एक साल बाद, भारतीय शोधकर्ताओं ने अच्छी खासी संख्या में किशोर लड़कियों में पोस्ट-ट्रॉमैटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर पाया। उन्होंने कहा कि 2019 में अत्यंत गंभीर चक्रवात फानी के बाद, ओडिशा में प्रभावित तटीय क्षेत्रों में लोगों में मानसिक बीमारी के लक्षण देखे गए। 


और पढ़ेंः आईपीसीसी की ताजा रिपोर्ट ने सुझाया, समय रहते क्लाइमेट एक्शन जरूरी


क्लेटन कहती हैं कि मानसिक स्वास्थ्य पर जलवायु परिवर्तन का धीरे-धीरे प्रभाव पड़ता है। बढ़ते तापमान के होने वाले प्रभाव को बताने के लिए कई उदाहरण उपलब्ध हैं। शोध से पता चलता है कि जो लोग बार-बार आपदाओं का अनुभव करते हैं, उनके मानसिक स्वास्थ्य पर अधिक प्रभाव दिखता है। वे सुझाव देते हैं कि मानसिक स्वास्थ्य को नीतिगत बातचीत का हिस्सा बनाया जाना चाहिए, ताकि लोगों को मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध हों। 

“लोगों के साथ काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं को मनोवैज्ञानिक प्राथमिक चिकित्सा प्रदान करने के लिए प्रशिक्षित किया जा सकता है। अगर सरकारें पहले से ही तैयारी में लग जाए तो लोगों के बीच भरोसा बढ़ेगा,” उन्होंने सुझाव दिया। 

गलत दिशा में कदम उठाने से होगा नुकसान

इस रिपोर्ट में ऐसे अध्ययन का भी जिक्र है जो जैवविविधता और जीव-जंतुओं के आवास खत्म होने पर केंद्रित है। ये अध्ययन एशिया के कुछ हिस्सों में किए गए हैं। उदाहरण के लिए भारत के दार्जिलिंग जिले में लाइकेन नामक वनस्पति के आकार-प्रकार में बदलाव देखने को मिला। प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन से निपटने की कोशिशों में यह बदलाव हुआ। गर्मी की वजह से हिमालय स्थित सिक्किम में भी विलुप्तप्राय पौधों में कई परिवर्तन देखे गए। साल 2100 तक एशिया में गर्मी से अन्य जीव-जंतु और वनस्पतियां प्रभावित होंगी। 

गर्मी की वजह से मौसम की चरम घटनाओं में वृद्धि होगी। इससे स्थलीय, मीठे पानी, तटीय और समुद्री पारिस्थितिक तंत्र के जैव विविधता का नुकसान होगा। जलवायु संबंधी तनाव पहले से ही मैंग्रोव वनों और प्रवाल भित्तियों (शैवाल) को प्रभावित कर रहे हैं। ऐसा सुंदरबन और अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में देखा जा रहा है। उष्णकटिबंधीय चक्रवात जैसी चरम घटनाएं, तटीय जल की पारिस्थितिकी को प्रभावित कर रही हैं।

इन सबसे बचने के लिए जो कदम उठाए जा रहे हैं उसे भी काफी सोच समझकर उठाना होगा। अगर ऐसा नहीं किया तो जैव विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र को उल्टा नुकसान ही होगा। आईपीसीसी के लेखक गौतम तालुकदार ने भारत में अनियोजित और अवैज्ञानिक वृक्षारोपण कार्यक्रमों के खतरों का जिक्र किया। 

“आप हर जगह वृक्षारोपण नहीं कर सकते। यदि आप समुद्र तट पर इसलिए पेड़ लगाते हैं कि वहां खाली जगह है, तो वहां रहने वाले जीवों को दिक्कत होगी। इस से जैवविविधता पर घातक असर होगा। जैसे ओडिशा के समुद्र तट पर ओलिव रिडले कछुआ का आवास खत्म हो रहा है,” उन्होंने कहा। 

थार में एक स्थानीय पौधा। रेगिस्तान फूल और जैव-विविधता का विशाल और अद्वितीय खजाना है। तस्वीर- डॉ. गोबिंद सागर भारद्वाज
थार में एक स्थानीय पौधा। रेगिस्तान फूल और जैव-विविधता का विशाल और अद्वितीय खजाना है। तस्वीर- डॉ. गोबिंद सागर भारद्वाज

उन्होंने एक अन्य नुकसान बताते हुए कहा कि जब समुद्र तटों के किनारे पेड़ लगाना शुरू होता है, तो उन क्षेत्रों में मिट्टी अधिक स्थिर हो जाती है। भारत में अधिकांश वैसी प्रजातियों के पौधे  लगाए जाते हैं जो तेजी से बढ़े, जैसे यूकेलिप्टस। इससे कार्बन का अवशोषण तो होगा लेकिन उस क्षेत्र की जैव विविधता भी प्रभावित होगी। भारत के सवाना घास के मैदानों में वृक्षारोपण के प्रयासों से ऐसी चिंता सामने आई है। वहां जैव विविधता को नुकसान हो रहा है। 

पर्यावरणविद् और मेटास्ट्रिंग फाउंडेशन के रवि चेल्लम ने इस रिपोर्ट को लेकर कहा कि इसमें आर्थिक विकास और जलवायु परिवर्तन से जूझने के नाम पर इंसानी दखल के दीर्घकालिक नुकसान का प्रमाण मौजूद है। 

“यह उन मामलों के लिए विशेष रूप से सच है जहां पारिस्थितिक और पर्यावरणीय मुद्दों से निपटने के लिए तकनीकी और सिविल इंजीनियरिंग के जरिए समाधान की कोशिश की गई। तट पर रहने वाले लोगों की रक्षा के लिए समुद्र किनारे दीवार बनाना इसका अच्छा उदाहरण है। इसमें दिखता है कि कैसे हम स्थानीय पारिस्थितिकी और यहां तक ​​कि आजीविका को नष्ट कर देते हैं।  इससे समस्या का समाधान नहीं होता बल्कि तटीय कटाव और बढ़ते समुद्र के स्तर की समस्या अन्य जगह पहुंच जाती है। 

जमीन की निरंतर सिंचाई से मिट्टी नष्ट होती है और भूजल का स्तर नीचे जाता है। इससे कई बीमारियां भी सामने आ रही हैं जो पहले लोगों में नहीं थी। 

“जंगलों को खत्म करने से प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र नष्ट होता है। इसके बाद वहां किसी एक तरह की प्रजाति के पेड़ लगाकर इसकी भारपाई की कोशिश होती है। इससे समाधान के बदले समस्या पैदा होती है। रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन को कम करने के लिए कार्यात्मक और परस्पर जुड़े प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र के मूल्य पर बहुत जोर दिया गया है। यह उस विकास मॉडल के लिए एक मजबूत संदेश है जिसका भारत अनुसरण करता है,”उन्होंने कहा।

 

बैनर तस्वीरः प्रयागराज स्थित संगम का एक दृश्य। आईपीसीसी की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक आने वाले समय में गर्मी की वजह से मौसम की चरम घटनाओं में वृद्धि होगी। इससे स्थलीय, मीठे पानी, तटीय और समुद्री पारिस्थितिक तंत्र के जैवविविधता का नुकसान होगा। तस्वीर– प्रियम/विकिमीडिया कॉमन्स

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