- छत्तीसगढ़ का कोरबा जिला खनन और उससे संबंधित आर्थिक गतिविधियों पर निर्भर है। देश का 16 फीसदी कोयला इसी जिले से आता है।
- कोरबा के कोयला खदान पुराने हो गए हैं और इनसे होने वाला मुनाफा कम होता जा रहा है। इस वजह से इन खदानों को बंद करना पड़ सकता है। कोरबा जिले के लिए यह एक मौका हो सकता है कि यह स्वच्छ ऊर्जा का रास्ता इख्तियार करे। ऐसे में यहां भी कई चुनौतियां पेश आएंगी।
- इंटरनेशनल फोरम फॉर एनवायरनमेंट, सस्टेनेबिलिटी एंड टेक्नोलॉजी (आईफॉरेस्ट) नामक संस्था ने कोरबा पर हाल ही में एक अध्ययन प्रकाशित किया है। इसमें सामने आया है कि कोयला खदान और ताप ऊर्जा संयंत्रों की वजह से 24,364 हेक्टेयर जमीन उपयोग में है। स्वच्छ ऊर्जा अपनाने के लिए इस जमीन का दोबारा इस्तेमाल करना चाहिए जिससे पर्यावरण और लोगों का हित सुरक्षित रह सके।
- अध्ययन में सुझाव दिया गया है कि कोयला खदानों को बंद करने के लिए वैज्ञानिक तरीका अपनाना चाहिए। साथ ही, खदान बंद होने से सरकार को होने वाले नुकसान की भरपाई की योजना भी बनानी चाहिए।
भारत में एनर्जी ट्रांजिशन यानी जीवाश्म ईंधन से स्वच्छ ऊर्जा की ओर बढ़ने के रास्ते में जमीन एक बड़ी जरूरत है। साथ ही, कोयला खनन को वैज्ञानिक तरीके से बंद कर उस जमीन का ऊर्जा के लिए ही दोबारा इस्तेमाल करना एक न्यायसंगत तरीका हो सकता है।
छत्तीसगढ़ के कोरबा को लेकर एक हालिया अध्ययन सामने आया है। भारत को सबसे अधिक कोयला देने वाला यह जिला शीर्ष कोयला आधारित विद्युत उत्पादकों में से भी एक है। इस अध्ययन से पता चला है कि वर्तमान में रायपुर शहर के आकार के बराबर 24,364 हेक्टेयर भूमि कोयला और बिजली कंपनियों के पास है। इस भूमि को दोबारा किसी दूसरे काम लायक बनाने के लिए एक व्यापक नीति की जरूरत होगी। इससे ग्रीन इकोनॉमी बनाने का खाका भी तैयार हो सकता है।
द स्टडी कोरबाः प्लानिंग ए जस्ट ट्रांजिशन फॉर इंडियाज बिगेस्ट कोल एंड पावर डिस्ट्रिक्ट शीर्षक से तैयार इस अध्ययन को इंटरनेशनल फोरम फॉर एनवायरनमेंट, सस्टेनेबिलिटी और टेक्नोलॉजी (आईफॉरेस्ट) ने किया है। यह संस्था पर्यावरण और जस्ट ट्रांजिशन के मुद्दे पर थिंक टैक के रूप में काम करती है। इस अध्ययन को 16 फरवरी को जारी किया गया। इस अध्ययन में कहा गया है कि भारत के सबसे बड़े कोयला और बिजली उत्पादक जिले जस्ट ट्रांजिशन से संबंधित चुनौतियों से जूझ सकते हैं। इस बदलाव की वजह से आने वाली चुनौतियां उम्मीद के विपरीत काफी जल्दी पेश आ सकती हैं। भविष्य की इन चुनौतियों से निपटने के लिए आर्थिक और विकास से संबंधित दखल देने की जरूरत होगी।
अध्ययन में कहा गया है कि कोरबा, जो भारत के कोयले का लगभग 16 प्रतिशत उत्पादन करता है और जिसमें 6,428 मेगावाट कोयला आधारित थर्मल पावर प्लांट (टीपीपी) की क्षमता है। एनर्जी ट्रांजिशन से संबंधित हो रहे परिवर्तन की वजह से 2030 से पहले ही इस जिले में कई परिवर्तन दिखने लगेंगे। वास्तव में, कोयला खनन और थर्मल पावर का कोरबा के सकल घरेलू उत्पाद में 60 प्रतिशत से अधिक हिस्सेदारी है, जिसे अक्सर पावर हब कहा जाता है।
अध्ययन में आगे कहा गया है कि इस खनिज समृद्ध जिले में 41 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे हैं। जिले की 32 प्रतिशत से अधिक आबादी स्वास्थ्य, शिक्षा और बुनियादी सुविधाओं के मामले में ‘गरीब’ है। हालांकि इस अध्ययन में कहा गया है कि कोयला केंद्रित अर्थव्यवस्था ने कृषि, वानिकी, विनिर्माण और सेवाओं सहित अन्य आर्थिक क्षेत्रों के विकास को गति दी है। विश्लेषण में कहा गया है कि इस जिले की खराब सामाजिक-आर्थिक स्थिति और कोयला अर्थव्यवस्था पर इसकी निर्भरता को देखते हुए अगर खदानों को बंद कर दिया जाए तो दिक्कत और बढ़ेगी।
इस अध्ययन में खदान को योजनाबद्ध तरीके से बंद करने की बात कही गयी है। अध्ययन में बताया गया है कि कोरबा का लगभग 95 प्रतिशत कोयला केवल तीन बड़ी खुली खदानों – गेवरा, कुसमुंडा और दिपका से आता है। उनमें से, गेवरा और कुसमुंडा का जीवन 20 वर्ष से कम है और 2040 से पहले बंद किया जा सकता है। वहीं दिपका में 2045 तक कोयला खत्म होने का अनुमान है। शेष खदानों में दो ओपन कास्ट और आठ भूमिगत खदानें शामिल हैं जिससे कुल उत्पादन का पांच प्रतिशत कोयला आता है। ये खदान उत्पादन और लाभ दोनों मामलों में फिसड्डी हैं और बंद होने के कगार पर हैं।
अध्ययन में कहा गया है कि कोरबा में कोयला आधारित बिजली उत्पादन में जल्द ही कमी आएगी। “लगभग आधी ताप विद्युत इकाइयां 30 वर्ष से अधिक पुरानी हैं और 2027 तक इसे बंद किया जा सकता है। इसके अलावा, यदि हम बिजली संयंत्रों के जीवन को 25 वर्ष मानते हैं, तो शेष इकाइयों को भी 2040 तक बंद किया जा सकता है। इसके अलावा राज्य सरकार ने यह भी निर्णय लिया है कि कोयला आधारित नया बिजली संयंत्र नहीं लगाया जाएगा। इसलिए, अगले कुछ साल कोरबा के लिए महत्वपूर्ण होने वाले हैं। खासकर नई योजनाओं के बनाने और उन्हें लागू करने के लिहाज से। नवीकरणीय परियोजनाओं के लिए कोयला खदानों की जमीन का दोबारा उपयोग
नवीकरणीय परियोजनाओं के लिए महत्वपूर्ण है जमीन का उपलब्ध होना
कोयला खदानों के पास जो जमीन है उसका आने वाले समय में क्या उपयोग होगा इसपर जिले का बहुत कुछ निर्भर है। कोरबा अनुसूची पांच में आने वाला जिला है। भारतीय संविधान के तहत यहां अनुसूचित जनजातियों के भूमि अधिकारों को विशेष सुरक्षा प्राप्त है। कोरबा की 40 प्रतिशत से अधिक आबादी आदिवासी समुदाय की है।
अध्ययन में कहा गया है कि कोरबा सहित कोयला क्षेत्रों में औद्योगिक विकास के लिए एक प्रमुख निर्धारक “भूमि की उपलब्धता” होगी। “भूमि और सामुदायिक अलगाव और विस्थापन के इतिहास को देखते हुए, ऐसे क्षेत्रों में भूमि अधिग्रहण मुश्किल हो सकता है,” इस रिपोर्ट में कहा गया है।
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“इसलिए, कोरबा में खनन और औद्योगिक भूमि के दोबारा उपयोग में लेने का एक महत्वपूर्ण मौका है।
आईफॉरेस्ट के विश्लेषण के अनुसार, कोरबा जिले की 24,364 हेक्टेयर भूमि वर्तमान में ऊर्जा की जरूरतों को पूरा करने के लिए इस्तेमाल हो रही है है। इस हिस्से में या तो कोयला खनन (बंद खदानों सहित) होता है या कोयला आधारित ऊर्जा संयंत्र लगे हैं। इसमें से लगभग 90 प्रतिशत जमीन पर कोयला खनन (21,779 हेक्टेयर) हो रहा है। इसमें चार आगामी खदानें शामिल नहीं हैं, जिसमें अतिरिक्त 3,300 हेक्टेयर जमीन का इस्तेमाल होगा।
आईफॉरेस्ट के इस अध्ययन में कहा गया है कि इस जमीन को दोबारा उपयोग में लाया जा सकता है। विशेषकर ओपन कास्ट या खुली खदानों की जमीन का दोबारा उपयोग विभिन्न आर्थिक गतिविधियों के लिए किया जा सकता है।
कोरबा में चार खुली खदानों – गेवरा, दिपका, कुसमुंडा और मानिकपुर – के बंद होने के बाद खदान के भूमि उपयोग के बारे में बात करते हुए, अध्ययन में कहा गया है, “लगभग 8,859 हेक्टेयर भूमि विभिन्न आर्थिक गतिविधियों और निवेशों के लिए उपलब्ध होगी।” अगले कुछ वर्षों में कोरबा में सभी आठ खदानों को बंद करना उचित होगा जिनसे अब लाभ नहीं हो रहा है। इससे संसाधनों को बचाते हुए यहां स्वच्छ ऊर्जा से संबंधित संयंत्र लगाए जा सकते हैं।
आईफॉरेस्ट में जस्ट ट्रांजिशन के निदेशक श्रेष्ठा बैनर्जी का कहना है कि “कोयला खनन के लिए इस्तेमाल की जाने वाली भूमि, विशेष रूप से ओपनकास्ट खनन वाले क्षेत्र की मदद से इस क्षेत्र आर्थिक विविधता लायी जा सकती है। जस्ट ट्रांजिशन के लिहाज से यह एक बड़ी उपलब्धि होगी।
“अक्षय ऊर्जा परियोजनाओं के लिए, बागवानी के लिए, मछली पकड़ने के लिए, या पर्यटन आदि के लिए इनका दोबारा उपयोग किया जा सकता है। इस भूमि का उपयोग स्वच्छ ऊर्जा की ओर न्यायसंग बदलाव में किया जा सकता है। इससे नौकरियां पैदा होने की भी संभावना है। इससे भूमि अधिग्रहण की जरूरत कम होगी। हमें भूमि प्रबंधन के लिए व्यापक योजना की आवश्यकता है जो पर्यावरण के साथ-साथ स्थानीय समुदाय की चिंताओं को दूर करे” बैनर्जी ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया।
असर संस्था से जुड़े मुन्ना झा ने कहा, “जमीन पर जो लोग वास्तव में ऐसी परियोजनाओं से प्रभावित हैं, वे अभी भी जस्ट ट्रांजिशन की अवधारणा को नहीं समझते हैं।”असर एक पर्यावरण और सामाजिक चुनौतियों का अध्ययन करने वाली संस्था है।
मुन्ना झा आगे कहते हैं, “खनन पर निर्भर क्षेत्रों में स्वच्छ ऊर्जा लाने वाले कार्यक्रम ऐसे बनाए जाए कि उससे स्थानीय लोगों की चिंताएं दूर हों। जरूरत इस बात की है कि 30-40 साल पहले कोयला खनन या बिजली परियोजनाओं के लिए अपनी जमीन गंवाने वाले लोगों या आजीविका के लिए उसपर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से निर्भर लोगों की उचित मैपिंग की जाए। इस तरह के व्यापक अध्ययन के बाद उनकी बेहतरी के लिए एक उचित कार्यक्रम तैयार करने की आवश्यकता है, ”झा ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया। झा आईफॉरेस्ट के अध्ययन में शामिल नहीं हैं।
आईफॉरेस्ट के अध्ययन में कहा गया है कि जिले के प्रदूषण के बोझ को देखते हुए पर्यावरण का ख्याल रखकर स्वच्छ ऊर्जा की ओर कदम बढ़ाना होगा। इसमें कोयला खदानों को वैज्ञानिक रूप से बंद करने का आह्वान किया गया। वैज्ञानिक तरीके से खदान बंद करने का अर्थ है खनन क्षेत्रों की पारिस्थितिक बहाली। साथ ही, औद्योगिक संरचनाओं के निपटान के दौरान ताप विद्युत संयंत्र और अन्य औद्योगिक संरचनाओं को उचित कचरा प्रबंधन के माध्यम से फ्लाई ऐश तालाबों को बंद करना भी इसमें शामिल है।
खदानें बंद होने के बाद राजस्व गंवाने वाले राज्यों के लिए जरूरी है प्लैनिंग
कई राज्यों के लिए जहां कोयला खनन और संबद्ध उद्योग आर्थिक गतिविधियों के लिहाज से महत्वपूर्ण हैं। राजस्व के मुख्य स्रोत में रॉयल्टी और जिला खनिज फाउंडेशन (डीएमएफ) फंड शामिल हैं।
कोरबा के लिए राज्य सरकार को कोयला रॉयल्टी और डीएमएफ योगदान से सालाना लगभग 2000 करोड़ रुपए जाता है।
अध्ययन में कहा गया है कि “180 एमएमटी (मिलियन मीट्रिक टन) के कोयला उत्पादन पर, जो 2025-2030 के दौरान होगा, राज्य को लगभग 3500 करोड़ की आमदनी रॉयल्टी और डीएमएफ से होगी। कोयला उपकर से लगभग 7200 करोड़ की आमदनी होगी।
“कुल मिलाकर कोरबा में कोयला खदानों से सार्वजनिक राजस्व में लगभग 10700 करोड़ रुपए का योगदान होगा। अगले तीन दशकों में जिले में कोयला खनन गतिविधियों के चरणबद्ध तरीके से बंद होने पर, राज्य और जिले को रॉयल्टी और डीएमएफ आय का नुकसान होगा। हालांकि, 2030 तक राजस्व में वृद्धि होगी और फिर यह कम होना शुरू हो जाएगा। राजस्व हानि को जिले में नए और विभिन्न आर्थिक गतिविधियों से पुनः हासिल किया जा सकता है। इससे जिले में अन्य आर्थिक क्षेत्रों और औद्योगिक गतिविधियों से राजस्व सृजन में मदद मिलने की संभावना है , ” अध्ययन ने जोर दिया।
कोरबा को देश में डीएमएफ के तहत सबसे अधिक राशि प्राप्त होती है। लगभग 2408 करोड़ रुपए तक। डीएमएफ कानून के अनुसार, इस फंड के कम से कम 60 प्रतिशत का उपयोग ‘उच्च प्राथमिकता’ विकास और पर्यावरणीय मुद्दों के लिए किया जाना चाहिए। यह वह मुद्दे हैं जो अधिकांश खनन क्षेत्रों में लोगों की परेशानी के कारण हैं।
अध्ययन में कहा गया है कि डीएमएफ फंड में कृषि, वानिकी और मत्स्य पालन क्षेत्रों में आजीविका के अवसरों को बढ़ाने की अपार संभावनाएं हैं, जो कोरबा में आर्थिक विविधीकरण और जिले की जीडीपी में उनके योगदान में सुधार के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।
अध्ययन में कहा गया है, “डीएमएफ योजना को अगर स्वच्छ योजना के साथ जोड़ा जाए तो इस फंड के उपयोग को लोगों के साथ-साथ पर्यावरण के लिए भी फायदेमंद बनाया जा सकता है।“
राजस्व की कमी को पूरा करने के लिए राज्य और केंद्र सरकारों को जल्दी और सावधानीपूर्वक योजना बनानी चाहिए। स्वच्छ ऊर्जा का लक्ष्य हासिल करने में राज्यों की एक महत्वूर्ण भूमिका है। गिरते राजस्व आधार का मतलब सार्वजनिक सेवाओं के लिए कम फंडिंग या नागरिकों पर कर का बोझ बढ़ाना हो सकता है।
दक्षिण-पूर्वी कोलफील्ड्स लिमिटेड (एसईसीएल) और एनटीपीसी कोयला खनन और कोयला आधारित बिजली उत्पादन में शामिल जिले की दो सबसे बड़ी कंपनियां हैं। कोरबा में स्वच्छ ऊर्जा के लिए न्यायसंगत तरीके से बढ़ने में इन कंपनियों की महत्वपूर्ण भूमिका होगी।
अध्ययन में कहा गया है कि कोरबा में जो काम करने वाले लोग हैं वे उम्रदराज हैं। एसईसीएल और एनटीपीसी के कम से कम 70 प्रतिशत कर्मचारी 40-60 वर्ष की आयु के हैं। उनकी सेवानिवृत्ति को संयंत्र और खदान बंद करने के साथ तालमेल बिठाया जा सकता है। सबसे बड़ी चुनौती असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों को पुन: रोजगार देना और नए तरीके के काम के लिए कौशल विकसित करना होगा।
आईफॉरेस्ट के इस अध्ययन ने नवीकरणीय ऊर्जा क्षेत्र में इन कंपनियों के विविधीकरण का आह्वान किया। इसमें कहा गया है कि कोरबा में कंपनियों द्वारा अक्षय ऊर्जा व्यवसायों में निवेश स्थानीय रोजगार बनाने और कोयला खनन में लगे कर्मियों को नए क्षेत्र में काम देने में सहायक होगा। इसके लिए उन्हें दोबारा प्रशिक्षण देना होगा।
अक्षय ऊर्जा निवेश के लिए इन कंपनियों की भूमि संपत्ति को दोबारा उपयोग में लाने से जिले में स्वच्छ ऊर्जा संयंत्रों की स्थापना में आसानी होगी।
हालांकि, असर के मुन्ना झा ने कहा कि एक बार कोयला परियोजनाएं समाप्त हो जाने के बाद, जिन कंपनियों ने उनसे अरबों रुपये कमाए, वे अक्षय ऊर्जा परियोजनाओं के लिए दूसरे राज्यों में चले जाएंगी। क्योंकि कोयला खनन क्षेत्रों में भूमि अधिग्रहण एक समस्या है।
बैनर तस्वीरः अध्ययन में नवीकरणीय परियोजनाओं सहित विभिन्न परियोजनाओं के लिए कोयला खदानों की भूमि का उपयोग करने का आह्वान किया गया है। तस्वीर- मयंक अग्रवाल / मोंगाबे