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[वीडियो] क्या पानी के टाइगर महाशीर के लायक नहीं रह गया नर्मदा का पानी?

महाशीर सर्वे के दौरान नदी से एक महाशीर को निकाला गया। परिक्षण के बाद उसे वापस नदी में छोड़ दिया गया। तस्वीर-ए जे टी जॉनसिंह, डब्ल्यूडब्ल्यूएफ-इंडिया और एनसीएफ/विकिमीडिया कॉमन्स

महाशीर सर्वे के दौरान नदी से एक महाशीर को निकाला गया। परिक्षण के बाद उसे वापस नदी में छोड़ दिया गया। तस्वीर-ए जे टी जॉनसिंह, डब्ल्यूडब्ल्यूएफ-इंडिया और एनसीएफ/विकिमीडिया कॉमन्स

  • रेत खनन ने नर्मदा नदी की इकोलॉजी को बुरी तरह प्रभावित किया है। इस वजह से नर्मदा नदी के जलीय जीवों की कई प्रजातियां विलुप्ति के कगार पर है। इसमें इस नदी की एक बड़ी मछली महाशीर भी शामिल है।
  • नदी पर अवैध रेत खनन रोकने के लिए हाइकोर्ट और नेशनल ग्रीन ट्रीब्यूनल, भोपाल के हस्तक्षेप के बाद भी धार और बड़वानी जैसे स्थानों पर नर्मदा नदी पर बड़े पैमाने में अवैध रेत खनन हो रहा है।
  • रेत खनन की वजह से न सिर्फ मछलियों और पक्षियों पर असर हुआ है बल्कि इससे मछलीपालन पर निर्भर लोगों का रोजगार भी छिन रहा है।

मध्यप्रदेश में बड़वानी जिले के नर्मदा नदी के किनारे मछली पकड़ रहीं द्वारकी, पास पड़ी टोकरी की तरफ, इशारा करती हैं। दिन भर की मशक्कत के बाद भी उनकी यह टोकरी आधी ही भर पाई है। द्वारकी इस इलाके के पिछोड़ी गांव में रहती हैं और मछली पकड़कर अपना गुजारा करती हैं। वह कहती हैं, “अब नर्मदा नदी में बड़ी और अच्छी मछलियां नहीं मिलतीं। मछलियों की संख्या में भी काफी कमी आई है। इसके कारण हमारे रोजगार पर संकट बना हुआ है। अब तो मछली के काम से घर चलाना भी बहुत कठिन हो रहा है।”  

द्वारकी पुराने वक्त को याद करते हुए कहती हैं कि हम कई पीढ़ियों से यही काम कर रहे हैं। 15 साल पहले तक इसमें अच्छी कमाई हो जाती थी। नदी के भरोसे ही हम आराम से घर चला लेते थे, घर में शादी-ब्याह के खर्चों का इंतजाम भी हो जाता था और कुछ शौक भी पूरे हो जाते थे। मछली पकड़ने का काम इतने जोरों पर था कि पहले तो दिसंबर से मार्च तक हम नदी किनारे ही रहते थे। उस दौरान घर आना तक नहीं होता था। 

द्वारकी के जीवन में यह बदलाव नर्मदा नदी के दोहन की कहानी बयां करती है। 

द्वारकी ने बताया कि नर्मदा किनारे मछली पकड़ने के साथ वह रेत पर तरबूज की खेती भी करती थी। खनन की वजह से उनकी खेती भी चौपट हो गई है।  

द्वारकी बाई। इनका परिवार कई पीढ़ियों से नर्मदा की मछली पर निर्भर है, लेकिन अब कमाई तेजी से कम हो रही है। तस्वीर- रोहित शिवहरे
द्वारकी बाई का परिवार कई पीढ़ियों से नर्मदा की मछली पर निर्भर है, लेकिन अब इनकी कमाई तेजी से कम हो रही है। तस्वीर- रोहित शिवहरे

नदी के बदहाल स्थिति का असर अब जीव-जंतुओं के साथ रोजगार के ह्रास के तौर पर इंसानों पर भी दिखने लगा है। बड़वानी जिले के बीजासेन गांव के जितेंद्र माझी कहते हैं कि पिछले कुछ सालों में नर्मदा नदी में भयंकर परिवर्तन देखने को मिले हैं।

नदी में कभी बाड़स (महाशीर) मछली बहुतायत में देखी जाती थी, लेकिन अब यह नजर नहीं आती। महाशीर नर्मदा में पाई जाने वाली बड़ी मछलियों में से एक है। सुनहरे रंग की वजह से इसे नदी का रानी और आकार और ताकत की वजह से पानी का टाइगर भी कहते हैं।

वर्ल्ड वाइड फंड फॉर नेचर की वेबसाइट पर दी गई जानकारी के मुताबिक अब तक सबसे वजनी महाशीर 50 किलो का देखा गया है। हालांकि, इसका औसत वजन 20 किलो तक होता है। अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (आईयूसीएन) ने इसे विलुप्तप्राय के रूप में सूचीबद्ध किया है। 

महाशीर का वैज्ञानिक नाम टोर-टोर है। मध्य प्रदेश जैवविविधता बोर्ड ने भी इसे विलुप्तप्राय माना है। प्रदेश की 15 विलुप्तप्राय मछलियों की सूची में महाशीर को दूसरे स्थान पर रखा गया है। इसके संरक्षण के लिए बोर्ड ने साल 2011 में महाशीर को राज्य मछली का दर्जा भी दिया। 

शोधकर्ता श्रीपर्णा सक्सेना ने महाशीर की संख्या पर एक शोध में पाया कि 1963 से लेकर 2015 के दौरान 52 वर्षों में महाशीर की संख्या में 76 फीसदी तक की कमी हुई। 

महाशीर मछली। फाइल तस्वीर- चार्ल्स जे. शार्प/विकिमीडिया कॉमन्स
महाशीर मछली। फाइल तस्वीर- चार्ल्स जे. शार्प/विकिमीडिया कॉमन्स

सक्सेना मध्य प्रदेश सरकार के साथ मिलकर महाशीर के संरक्षण और कृत्रिम प्रजनन पर शोध कर रही हैं। सक्सेना बताती हैं कि अभी नर्मदा नदी में महाशीर मछली 1% भी नहीं है जो कभी 30% हुआ करती थी। 

वह कहती हैं, “महाशीर साफ पानी की मछली है और इन्हें लगातार बहते हुए पानी में रहना पसंद है। बांध और खराब पानी की वजह से नर्मदा अब महाशीर मछली की ब्रीडिंग के अनुकूल नहीं है, इसीलिए महाशीर लगातार कम हो रही हैं।”

नर्मदा वैली डेवलपमेंट ऑथोरिटी के मुताबिक नर्मदा नदी में प्रति हेक्टेयर 40 से 60 किलो मछली उत्पादन होता है। मध्य प्रदेश मत्स्य पालन विभाग के रिकॉर्ड्स के अनुसार नर्मदा में मछली की 46 प्रजातियां पाई जाती हैं। 

महाशीर के साथ कई और प्रजातियों पर विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है। अब नर्मदा की देसी मछलियां जैसे कामनकार, घोघरा, गुरमुछ अब नदी में बहुत कम दिखती हैं।

पेशे से मछुआरे जितेंद्र माझी कहते हैं कि कभी नदी किनारे सारस, बगुलों का झुंड देखने को मिलता था। अब वह भी काफी कम हो गए हैं। टिटहरी नामक पक्षी भी अब कम ही दिखती है। 

बड़वानी में नर्मदा नदी के किनारे अंधाधुंध खनन हो रहा है। इससे नदी की पारिस्थितिकी प्रभावित हो रही है। तस्वीर- मुकेश भगोरिया, नर्मदा बचाओ आंदोलन
बड़वानी जिले में नर्मदा नदी के किनारे अंधाधुंध खनन हो रहा है। इससे नदी की पारिस्थितिकी प्रभावित हो रही है। तस्वीर- मुकेश भगोरिया, नर्मदा बचाओ आंदोलन

हांलाकि, नर्मदा किनारे कुछ ऐसे पक्षी भी दिखने लगे हैं जो पहले नहीं होते थे। विभिन्न प्रकार की जलमुर्गी (गलीनुला क्लोरोपस) नदी में दिख रही हैं। स्थानीय लोगों के मुताबिक पानी की गुणवत्ता खराब होने पर जलमुर्गी दिखती है।

भोपाल स्थित पक्षी विशेषज्ञ मोहम्मद खालिक कहते है अन्य जीवों की तरह पक्षियों को भी खाना और सुरक्षित शेल्टर की जरूरत होती है। रहने और प्रजनन के लिए। रेत खनन से जहां एक ओर अन्य जलीय जीव-जंतु जो कि पक्षियों का भोजन होते हैं वे नष्ट होते हैं साथ ही पक्षियों की प्रजनन और शेल्टर की जगह भी प्रभावित होती है। इसका सीधा असर पक्षियों पर पड़ता है।

रेत खनन का असर नदी के कुदरती बहाव पर

मोंगाबे-हिन्दी से बातचीत में नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेत्री मेधा पाटकर कहती हैं कि खनन से नदी के विलुप्त होने का खतरा भी बढ़ जाता है। नदी की अपनी इकोलॉजी होती है। मछलियां, जलीय जीव जंतु और इन पर आश्रित अन्य जीव होते हैं। 

सामाजिक कार्यकर्ता विनायक परिहार कहते हैं, “पहले तो रेत खनन कर नर्मदा की सारी सहायक नदियों को बरसाती नदी बना दिया है।  वह दिन दूर नही जब नर्मदा का भी यही हाल होगा। दुधी, तवा, करजन जैसी सहायक नदियां खनन और अतिक्रमण की वजह से सूख रही हैं।

वे आगे बताते हैं कि बारिश या जो ग्राउंड वाटर होता हैं वह नदी में सीधा नही आ सकता उसके लिए रेत या पत्थर की जरूरत होती है। रेत खनन से वो भी पूरी तरह बर्बाद हो रहा हैं। इससे भी नर्मदा के फ्लो पर भी असर पड़ा है। 

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बीते कुछ दशक में रेत खनन से लेकर विकास की परियोजनाओं की वजह से नदी की पारिस्थितिकी पर बुरा असर हुआ है।  रेत खनन की वजह से नर्मदा नदी का बहाव बाधित हो रहा है। एक के बाद एक बांधों के निर्माण की वजह से भी नदी का कुदरती बहाव प्रभावित हुआ है।

नदी की पारिस्थितिकी को खत्म करने में बड़ी बांध परियोजनाओं, पनबिजली परियोजनाओं, बैराज आदि को बड़ी वजह मानते हैं। नर्मदा पर 281 छोटे-बड़े बांध बने हैं और नदी पर छह पनबिजली परियोजनाएं हैं। हालांकि, साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम्स, रिवर्स एंड पीपुल (एसएएनडीआरपी) के सहयोग से हुए एक अध्ययन में सामने आया कि रेत खनन भी एक बड़ी वजह हो सकती है।

बड़वानी और धार जिले में अवैध रेत खनन का काम बहुत ही बड़े पैमाने पर चलता है। ड़वानी और धार जिले से रोजाना 6000 टन से ज्यादा रेत नर्मदा नदी से अवैध रूप से निकाली जाती है। तस्वीर- रोहित शिवहरे
बड़वानी जिले में अवल्दा की तस्वीर। बड़वानी और धार जिले में अवैध रेत खनन का काम बहुत ही बड़े पैमाने पर चलता है। बड़वानी और धार जिले से रोजाना 6000 टन से ज्यादा रेत नर्मदा नदी से अवैध रूप से निकाली जाती है। तस्वीर- रोहित शिवहरे/मोंगाबे

अध्ययन के मुताबिक रेत खनन से नदी की वनस्पति, मछलियों, कछुओं, मगरमच्छों, पक्षियों और अन्य स्तनधारियों का आवास खत्म होता है। इसका अर्थ है उनका प्रजनन स्थल कम होना, खाने का खत्म होना। 

रेत खनन और बजरी हटाने के बाद पानी में गंदगी पनपती है, पानी का तापमान बढ़ता है और जल में ऑक्सीजन की मात्रा भी कम होती है। 

अध्ययन का मानना है कि इन-स्ट्रीम माइनिंग यानी नदी के बीच से रेत निकालने का प्रभाव सबसे अधिक है। जबकि फ्लडप्लेन या टैरेस माइनिंग का अप्रत्यक्ष प्रभाव होता है। इससे नदी में गाद जमा होता है। 

बड़वानी और धार में भी अंधाधुंध रेत खनन

जिस गांव में मछली न मिलने से द्वारकी जैसे मछुआरों का रोजगार खत्म हो रहा है वहीं अवैध खनन करने वालों की चांदी हो रही है। 

इसी गांव में नर्मदा किनारे एक ऊंची जगह से रेत के टापू की तरफ इशारा करते हुए सरदार सरोवर विस्थापित मछली संघ के सदस्य बच्चूराम बताते हैं कि यहां से उस रेत के टापू तक पूरी जमीन समतल और आपस में जुड़ी हुई थी। लेकिन अब बीच की सारी रेत माफियाओं ने निकाल ली। कुछ समय पहले नर्मदा बचाओ आंदोलन के कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर ग्रामीणों ने यहां एकसाथ 150 रेत से भरे ट्रैक्टरों को पकड़ कर पुलिस के हवाले किया, तब जाकर केवल इतना सा हिस्सा बच पाया है, जो अब रेत के टापू जैसा दिखता हैं। हालांकि, कार्यकर्ताओं का आरोप है कि इस कार्रवाई से नाराज होकर रेत माफिया ने उनपर हमला भी किया।   

अवैध रेत खनन के खिलाफ काम करने वाले नर्मदा बचाओ आंदोलन के कार्यकर्ता मुकेश भगोरिया बताते हैं कि बड़वानी और धार जिले में अवैध रेत खनन का काम बहुत ही बड़े पैमाने पर चलता है।

“कार्यकर्ताओं और स्थानीय ग्रामीणों के साथ मिलकर किए हमारे एक अध्ययन के अनुसार बीते दो सालों में बड़वानी और धार जिले से रोजाना 6000 टन से ज्यादा रेत नर्मदा नदी से अवैध रूप से निकाली जाती है,” वे आगे बताते हैं। इस अध्ययन को नर्मदा बचाओ आंदोलन के कार्यकर्ताओं ने दो साल की अवधि में किया है। ये आंकड़े स्थानीय लोगों और रेत खदानों के आधार पर जुटाए गए हैं।

बड़वानी जिले में अवल्दा, छिपाखेड़ी, बगुदा, खेड़ी, पिपलुद, उतावड़, छोटा बडदा, पिछोडी और धार जिले में लसनगांव, बलवाडा, पिपल्दा गाड़ी, निमोला, धरमपुरी, गुलाटी, खुजवा, मान नर्मदा संगम, रतवा, बड़ा बडदा, उरदना, पेरखाड़, भावरिया, खराजना में बड़े पैमाने में रेत खनन होता है।  

रेत के टापू तक पूरी जमीन समतल और आपस में जुड़ी हुई थी। लेकिन अब बीच की सारी रेत माफियाओं ने निकाल ली। तस्वीर- रोहित शिवहरे/मोंगाबे
रेत के टापू तक पूरी जमीन समतल और आपस में जुड़ी हुई थी। लेकिन अब बीच की सारा रेत माफियाओं ने निकाल ली। तस्वीर- रोहित शिवहरे/मोंगाबे

बड़वानी के पवन सोलंकी बताते हैं कि यहां रेत खनन के लिए पोकलेन मशीन, जेसीबी मशीन, कंप्रेसर मशीन के साथ बड़े हाइवा, डंपर, ट्रक और ट्रैक्टरों का बड़े पैमाने पर उपयोग होता है। ग्रामीणों ने कुछ जगहों पर इन मशीनों और वाहनों को पुलिस से जब्त भी कराया, लेकिन खनन माफियों पर इसका कोई खास फर्क देखने को नहीं मिलता।

रेत खनन रोकने में कितना सफल है प्रशासन

जबलपुर हाईकोर्ट ने 6 मई 2015 को सामाजिक कार्यकर्ता और नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेत्री मेधा पाटकर वर्सेस गवर्नमेंट ऑफ मध्य प्रदेश की रिट पिटीशन पर सुनवाई करते हुए सरदार सरोवर बांध के क्षेत्र में रेत खनन पर रोक लगाने का निर्णय दिया था। वहीं, 30 मई 2017 को एनजीटी भोपाल ने मेधा पाटकर की पिटीशन पर सुनवाई करते हुए सरदार सरोवर बांध के डूब क्षेत्र में रेत खनन पर रोक लगाई थी।  

पाटकर बताती हैं, “बड़ी मशीनों की मदद से गहराई तक से रेत निकाली जाती है, जिससे नदी के तल पर 50-50 फीट के गड्ढे हो गए हैं। इन्हीं कारणों के चलते 2016 – 2017 में नर्मदा नदी बड़वानी के आसपास पूरी तरह सूख गई थी और लोग इसे पैदल ही पार करने लगे थे। वो आगे कहती हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने 27 फरवरी 2012 के दीपक कुमार वर्सेस स्टेट ऑफ हरियाणा के निर्णय में ये माना कि रेत खनन से नदी को बहुत नुकसान होता हैं। 


और पढ़ेंः नर्मदा के उद्गम से ही शुरू हो रही है नदी को खत्म करने की कोशिश


पर्यावरणविद और नदी विशेषज्ञ केजी व्यास कहते हैं कि आपको सबसे पहले यह समझना होगा कि नदी क्या होती हैं, नदी सिर्फ उसमें बहने वाला पानी नहीं है बल्कि पानी और रेत के साथ ही उसके अंदर पलने वाले जीवन की संपूर्णता है। इनमें से अगर कोई एक घटक भी असंतुलित होगा तो पूरी नदी पर संकट पैदा हो जायेगा। वे कहते हैं कि इसी वजह से नर्मदा नदी 50-60 साल पहले जैसी थी अब नहीं हैं। रेत खनन के नर्मदा को बहुत नुकसान पहुंचाया हैं। रेत नदी में पानी के फ्लो को बना कर रखती हैं जितना पानी नदी में बह रहा होते है उसका कुछ हिस्सा नदी के दोनों ओर समानांतर फैले रेत में बहता है, रेत का काम बहाव के साथ नदी को बैलेंस करने का भी है। इससे इतर रेत में बहुत से जलीय जीवों का बसेरा होता हैं, जो नदी के अंदर जीव और बाहर नदी पर आश्रित जीवों के फूड चेन का हिस्सा होता है। यह सब मिल कर नदी को साफ रखने का काम करते हैं। 

स्थानीय लोगों के विरोध और अदालतों के दखल के बाद रेत माफिया पर कई बार कार्रवाई की गई है, लेकिन अवैध रेत खनन अब भी जारी है। तस्वीर- बड़वानी में नर्मदा नदी के किनारे अंधाधुंध खनन हो रहा है। इससे नदी की पारिस्थितिकी प्रभावित हो रही है। तस्वीर- मुकेश भगोरिया, नर्मदा बचाओ आंदोलन
स्थानीय लोगों के विरोध और अदालतों के दखल के बाद रेत माफिया पर कई बार कार्रवाई की गई है, लेकिन अवैध रेत खनन अब भी जारी है। तस्वीर- मुकेश भगोरिया, नर्मदा बचाओ आंदोलन

नदी से रेत निकाल लेने पर रेत के साथ पानी भी निकल आता है और इस तरह भारी मात्रा में पानी की भी बर्बादी होती है। जिसका नदी के बहाव पर तो गंभीर असर होता ही है, साथ ही रेत पर आश्रित जीव भी खत्म हो जाते हैं और नदी के अंदर का सारा पारिस्थितिक तंत्र बिगड़ जाता है। ऐसे में नदी के अस्तित्व पर खतरा भी बढ़ जाता हैं।

केजी व्यास इस समस्या के लिए सुझाव देते हुए कहते हैं कि सरकार को रेत के विकल्प तलाशने के साथ साथ वन विभाग की तर्ज पर ही पहल करनी चाहिए। इसके तहत माइनिंग डिपार्टमेंट नदी से वैज्ञानिक तरीके से रेत निकालने का जिम्मा ले, जिससे नदी और उसमें पलने वाले जीवन को नुकसान ना हो। माइनिंग डिपार्टमेंट ही के डिपो बनाकर उसे बेच सकता है। अलग अलग चेकिंग स्पॉट बनाकर रेत के अवैध खनन को भी रोका जा सकता है। ऐसे में सरकार को पूरा रेवेन्यू भी मिलेगा और नदी को भी सुरक्षित रहेगी।

 

[यह स्टोरी स्वतंत्र पत्रकारों के लिए नेशनल फाउंडेशन फ़ॉर इंडिया की मीडिया फेलोशिप के तहत रिपोर्ट की गई है।]

 

बैनर तस्वीरः महाशीर सर्वे के दौरान नदी से एक महाशीर को निकाला गया। परिक्षण के बाद उसे वापस नदी में छोड़ दिया गया। तस्वीर-ए जे टी जॉनसिंह, डब्ल्यूडब्ल्यूएफ-इंडिया और एनसीएफ/विकिमीडिया कॉमन्स

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