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गिर के शेरों के नाम पर विस्थापन, 26 साल गुजरे, अब आ रहे हैं अफ्रीकी चीते

कूनो अभ्यारण्य का मुख्य द्वार। कूनो में एशियाई शेरों को लाने की योजना साल 1996 से शुरू हुई थी। तस्वीर- शहरोज़ अफरीदी

कूनो अभ्यारण्य का मुख्य द्वार। कूनो में एशियाई शेरों को लाने की योजना साल 1996 से शुरू हुई थी। तस्वीर- शहरोज़ अफरीदी

  • कूनो अभयारण्य में शेरों को बसाने के नाम पर साल 1996 में 24 गांवों के करीब 1545 परिवारों को विस्थापित किया गया था। इनमें से अधिकांश सहरिया आदिवासी थे, विस्थापन के बाद इनका खर्चा तो बढ़ गया पर आमदनी नहीं।
  • तब अधिकारियों ने शेर लाने से पर्यटन और आमदनी बढ़ने की दलील दी थी लेकिन 26 साल बाद भी सहरिया समुदाय की जिंदगी बेहतर होने की बजाय और खराब हो गई है।
  • अब कूनों में फिलहाल चीतों को बसाने की तैयारी हो रही जो 1952 में भारत से विलुप्त घोषित किए गए थे। लेकिन सबसे बड़ा सवाल है कि क्या यहां अफ्रीका से लाए गए चीते रह पाएंगे!

आदिवासी समुदाय के मदनू साल 1996 को कभी नहीं भूल सकते। तब मध्य प्रदेश सरकार ने उन्हें बेहतर जिंदगी का सपना दिखाकर शयोपुर जिले में स्थित कूनो वन्यजीव अभायरण्य से विस्थापित किया था। लेकिन इन 26 सालों में मदनू और उनके परिवार की जिंदगी बेहतर होने के बजाय और बदतर हो गई है। उस वक्त अधिकारियों ने कहा था कि बब्बर शेरों को यहां फिर से आबाद किया जाएगा लेकिन तब से कूनो को शेरों का इंतजार है। शेर तो नहीं आए पर अब मध्य प्रदेश के इस कूनो अभयारण्य में अफ्रीका से चीता लाने की बात लगभग आखिरी चरण में है। अधिकारी नामीबिया की यात्रा कर चुके हैं।  

विस्थापित होने वालों में मदनू साल की तरह हजारों लोग थे। उस वक्त कूनो से 24 गांवों के 1545 परिवारों को अपना जंगल और पुश्तैनी घर छोड़ना पड़ा था। एक शोध के मुताबिक तब इन गांवों में करीब पांच हजार लोग रहते थे। इनमें से करीब 90 फीसदी विशेष रूप से असुरक्षित जनजाति (पीवीटीजी) श्रेणी में शामिल सहरिया जनजाति से थे, जो ऐतिहासिक रूप से वनों से मिलने वाले उत्पादों से गुजर-बसर करते रहे हैं। 

कूनो से विस्थापित होने वाले मदनू आदिवासी कहते हैं, “यहां आने के बाद स्कूल और अस्पताल तो मिले लेकिन चिंताएं बढ़ गई हैं। वहां (वन में) दिन भर मछली मारने मे निकल जाता था। लौटने पर गोंद, शहद या दूसरे वन उत्पाद मिल जाते तो सोने पर सुहागा हो जाता। वहां जरूरतें बहुत कम थीं और आसानी से गुजारा होता था। लेकिन अब जंगल के अंदर जाने से रोका जाता है और अपराधी की तरह व्यवहार किया जाता है। जंगल से बाहर आकर खर्चे बढ़ गए मगर आमदनी नहीं बढ़ी।” 

अगरा ग्राम में विस्थापित कल्ला आदिवासी एक परंपरा बताते हुए भावुक हो जाते हैं। उन्होंने कहा, “पहले शादी में सहरिया परिवार अपने दामाद को वन में मौजूद पांच से दस सलाई (साल) के पेड़ उपहार में देता था। इसके बाद उन पेड़ों को बचाए रखने की जिम्मेदारी उस व्यक्ति की होती थी। उस पेड़ से निकलने वाले गोंद पर भी उसका ही हक होता था। इस तरह वह व्यक्ति और पेड़ दोनों एक-दूसरे के काम आते थे। विस्थापित होने के बाद अब वो जंगल और उन पेड़ों से दूर हो चुके है और यह परंपरा भी लगभग समाप्त हो चुकी है।“ 

आदिवासी मदनू साल को वर्ष 1996 में अपना घर-बार छोड़ना पड़ा था। तस्वीर- शहरोज़ अफरीदी
आदिवासी मदनू साल को वर्ष 1996 में अपना घर-बार छोड़ना पड़ा था। तस्वीर- शहरोज़ अफरीदी

कुनो वन से आदिवासियों के विस्थापन में कई लोगों ने अहम भूमिका निभाई थी। उनमें से एक थे कूनो में स्थित पालपुर की गढ़ी के राजा स्वर्गीय जगमोहन सिंह। उनके पोते गोपाल देव सिंह आज भी आदिवासियों के बीच काम कर रहे हैं। गोपाल देव कहते है, “जंगल में सहरिया परिवार में 50-100 गायें होती थी। अब चरवाही की जगह सीमित होने के कारण ये लोग पांच गायें भी मुश्किल से रख पाते हैं। प्रकृति से जुड़ी इनकी परंपराएं भी लगभग समाप्त हो चुकी है। जंगल में थे तो शहद, गोंद और कई तरह की जड़ी-बूटियां एकत्र करते थे। नई पीढ़ी इस ज्ञान से दूर हो चुकी है।” उनका मानना है कि जंगल से दूर होने के बाद इनका वनों से लगाव कम हो गया है जो चिंताजनक है। वो कहते हैं कि पहले जंगल सहरिया समुदाय के थे लेकिन अब सरकारी हो गए हैं।

अधिकारियों का कहना है कि कूनो से सहरिया आदिवासियों को दूसरी जगह जाने के लिए मनाया गया। विस्थापन में अहम भूमिका निभाने वाले तत्कालीन वन अधिकारी जसबीर सिंह चौहान (फिलहाल प्रमुख वन्य प्राणी सरंक्षक) ने बताया, “सहरिया समुदाय और गुर्जरों को विस्थापन के लिए तैयार करने में ज्यादा मुश्किल पेश नहीं आई। हमने उनसे कहा कि सरकार यहां गुजरात से शेर ला रही है। इस एवज में एक परिवार को खेती के लिए 2 हेक्टयर जमीन, मकान के लिए 502 वर्ग मीटर जमीन और एक लाख रुपये का सहायता पैकेज दिया जाएगा।” सहायता पैकेज में कृषि भूमि का विकास, मकान निर्माण, घरेलू सामान का परिवहन, सामुदायिक सुविधाओं का विकास, नकद भुगतान आदि शामिल था। 

विस्थापित हुए 24 गांवों में कुछ गांव गुर्जर बहुल थे, जिनकी आजीविका गाय और भैंस के दूध से होने वाली कमाई से चलती थी। जब वे जंगल में थे उन्हें जानवरों के लिए कभी चारा नहीं खरीदना पड़ा। लेकिन विस्थापन के बाद आज न तो उनके पास इतना पैसा है कि वो उतने जानवर रख सकें ना ही उन्हें खिलाने के लिए चारा। क्योंकि अब वन विभाग उन्हें जंगल में घुसने ही नहीं देता।

विस्थापन के दौरान जब गुर्जरों ने अपने मवेशियों को चराने का मुद्दा उठाया तो वन विभाग ने उन्हें कोर जोन में मौजूद बगचा गांव (तब बफर जोन में मौजूद) के पास एक जगह दी। पर आज वहां जाने पर जानवरों को बंदी बना लिया जाता है और उसके मालिक पर हजारों का जुर्माना भी लगाया जाता है। जंगल से विस्थापित होने के बाद कई गुर्जर परिवारों ने अपना घर कुनो जंगल से सटे टिकटोली गांव में इसलिए बनाया कि मवेशियों को चराने में परेशानी न हो। 

विस्थापन के दौरान जब गुर्जरों ने अपने मवेशियों को चराने का मुद्दा उठाया तो वन विभाग ने उन्हें कोर जोन में मौजूद बगचा गांव (तब बफर जोन में मौजूद) के पास एक जगह दी। पर आज वहां जाने पर जानवरों को बंदी बना लिया जाता है और उसके मालिक पर हजारों का जुर्माना भी लगाया जाता है। तस्वीर- शहरोज़ अफरीदी
विस्थापन के दौरान जब गुर्जरों ने अपने मवेशियों को चराने का मुद्दा उठाया तो वन विभाग ने उन्हें कोर जोन में मौजूद बगचा गांव (तब बफर जोन में मौजूद) के पास एक जगह दी। पर आज वहां जाने पर जानवरों को बंदी बना लिया जाता है और उसके मालिक पर हजारों का जुर्माना भी लगाया जाता है। तस्वीर- शहरोज़ अफरीदी

टिकटोली गांव के रहने वाले नरेश गुर्जर ने बताया, “मेरा गांव कुनों जंगल से सटा है। जो जगह वन विभाग ने जानवर चराने के लिए दी थी वहां से पांच किलोमीटर दूर है। आज वहां जाने पर वन विभाग के लोग हजारों रुपये का जुर्माना करते हैं, मारते हैं, जानवरों और बाइक को जब्त कर लेते हैं। कुछ दिनों पहले मैं अपने जानवरों को वहां चराने गया तो मेरी बाइक जब्त कर ली जिसे मैंने 11 हजार रुपए देकर छुड़वाया। उन्होंने किसी तरह की रसीद भी नहीं दी।” 

विस्थापित नवाब गुर्जर बताते हैं, “मेरे घर के सारे लोग विस्थापन के समर्थन में नहीं थे पर उन्होंने जब शेर आने की बात सुनी तो तैयार हो गए। चूकि मैंने सुना था कि यहां पहले शेर पाए जाते थे इसलिए मैं भी तैयार हो गया पर 20 साल बीत जाने के बाद भी शेर नहीं आया और अब कह रहे हैं कि अफ्रीका से बीलाई (बड़ी बिल्ली) ला रहे हैं।”

बड़े-बड़े विकास की परियोजनाओं के बीच इन विस्थापितों की बात अक्सर छूट जाती है। कूनो अभयारण्य में शेर लाने के नाम पर विस्थापित इन लोगों के जैसे ही पूरे देश में करोड़ों लोग विस्थापित हो चुके हैं। आंकड़ों से पता चलता है कि बड़े बांध से लेकर खनन और औद्योगिक परियोजनाओं के लिए करोड़ों आदिवासियों को अपना पुश्तैनी जंगल छोड़ना पड़ा। एक अनुमान के मुताबिक पिछले 60 सालों में भारत में करीब 6 करोड़ लोग विस्थापित हुए हैं। देश की आबादी में महज आठ फीसदी वाले आदिवासी समाज का विस्थापित होने वालों में हिस्सा करीब 40 फीसदी है। यही नहीं विस्थापितों में एक-चौथाई को ही फिर से बसाया गया। 

विस्थापन की वजह से आदिवासियों पर दोहरी मार पड़ती है। एक तो वे जंगल से दूर हो जाते हैं जो उनके खान-पान, संस्कृति, स्वास्थ्य और आजीविका की धुरी है। दूसरा जंगल से गुजर-बसर करने वाला ये समाज शहरों में मजदूर बन जाता है। जाहिर है कूनो से विस्थापित होने वाले सहरिया भी जंगलों की बजाय खेती से गुजर-बसर करने पर मजबूर हो गए। साल में महज एक या दो फसल लेने के चलते खाली समय में मजदूरी और पलायन करने लगे। सहरिया समुदाय के लोगों के लिए खेती नई थी इसलिए बड़ी संख्या में इस समुदाय के लोगों ने अपनी खेती बटाई पर दे दी।

शेर अब तक नहीं आए, अब चीतों को बसाने की तैयारी

एक वक्त उत्तरी और मध्य भारत में शेर बहुतायत में पाए जाते थे। आज के मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश के जंगलों में ये बेखौफ घूमते थे। माना जाता है कि हजारों साल पहले अफ्रीका से शेर भारत पहुंचा। फिलहाल भारत में गुजरात के गिर राष्ट्रीय उद्यान में ही बब्बर शेर हैं। 1800 वर्ग किमी में फैले इस उद्यान में 600 के करीब एशियाई शेर हैं। दरअसल, अफ्रीका के सिरेन्जटी राष्ट्रीय उद्यान में वर्ष 1994 केनाइन डिस्टेम्पर नामक महामारी से लगभग 2500 शेरों में से 30 प्रतिशत की मौत हो गई थी। 

इस आशंका को देखते हुए बब्बर शेरों को बचाने के लिए उन्हें कूनो अभयारण्य में भी बसाने का फैसला हुआ था। इसकी सिफारिश देहरादून स्थित भारतीय वन्यजीव संस्थान (डब्ल्यूआईआई) ने की थी। इसी के तहत 20 सालों में लागू होने वाली तीन चरणों की योजना बनाई गई। इसके तहत साल 1995-2000 को शेरों से फिर से यहां बसाने से पहले की अवधि घोषित की गई यानी तैयारियों की अवधि। दूसरे चरण में 2001-2005 के बीच यहां गुजरात के गिर से शेर लाए जाने थे। तीसरे चरण में 2006-2015 के बीच उनकी संख्या बढ़ाने की अवधि तय की गई। 

कूनो में एशियाई शेरों को लाने की योजना साल 1996 से शुरू हुई थी। अभयारण्य के अन्दर बसे सभी गांवों का पुनर्वास हो चुका है तथा पश्चिम पालपुर परिक्षेत्र में 20 हेक्टेयर क्षेत्रफल को चैनलिंक फैन्सिंग से घेरकर प्रीरिलीजिंग भी सेंटर बनाया गया था। जहां पहली खेप मे लाए गए चीतों को रख कर उनके स्वभाव मे परिवर्तन आदि का अध्ययन किया जाएगा। कुनो नेशनल पार्क के रेंजर अबदेश धाकड़ ने बताया की इस बाड़े को अंदर से पांच हिस्सों मे बांटा गया है। प्रत्येक हिस्से में एक या दो चीते रखे जाएंगे। नर और मादा को अलग-अलग रखना है या एक साथ, इसका फैसला चीतों के यहां पहुंचने पर डब्ल्यूआईआई के विशेषज्ञ करेंगे।  

कूनो अभयारण्य में अफ्रीका से चीता लाने की तैयारी चल रही है। इसके तहत अभयारण्य में फेंसिंग की गई है। तस्वीर- काशिफ़ ककवी
कूनो अभयारण्य में अफ्रीका से चीता लाने की तैयारी चल रही है। इसके तहत अभयारण्य में फेंसिंग की गई है। तस्वीर- काशिफ़ ककवी

कुनो नेशनल पार्क के फॉरेस्ट रेंजर अबदेश धाकड़ के मुताबिक, “पुनर्वास के फलस्वरूप अभयारण्य क्षेत्र में प्रशंसनीय ढंग से जैविक दबाव कम हुआ है। जैविक दबाव में कमी तथा वनों और वन्य प्राणियों की प्रभावी सुरक्षा के चलते अभयारण्य क्षेत्र में शाकाहारी वन्यप्राणियों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है। “वहीं डब्ल्यूआईआई ने शाकाहारी जीव-जंतुओं से उपलब्ध बायोमास के आधार पर कहा था कि साल 2007 में एशियाई शेरों का एक परिवार (पांच से आठ वयस्क शेर) कूनो अभयारण्य में छोड़े जा सकते थे। 

गिर से शेरों को कूनो भेजने पर गुजरात सरकार अब भी राजी नहीं हुई है। मध्य प्रदेश सरकार से जुड़े सूत्रों का कहना है कि गुजरात सरकार नहीं चाहती की ‘गिर का गर्व’ कहीं और भी देखने को मिले। वनप्रेमी और शेर न देने पर सुप्रीम कोर्ट में अवमानना याचिका दायर करने वाले अजय दुबे का कहना है कि गुजरात सरकार ने कोर्ट में शेर देने से मना भी नहीं किया है। लेकिन कोर्ट की ओर से मध्य प्रदेश को शेर देने के आदेश का पालन भी नहीं किया। अब अधिकारी और कोर्ट दोनों मौन है। उनका आरोप है कि चीता लाने की योजना शेरों को यहां बसाने की योजना खत्म करने के मकसद से शुरू की गई है। 

इसी बीच, एक अलग अध्ययन किया गया जिसमें अफ्रीकी चीतों को भारत में फिर से बसाने की बात की गई। वर्ष 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने कूनो अभयारण्य में गिर के शेर न लाने और अफ्रीका से चीता लाने पर काफी तल्ख टिप्पणी की थी। इसमें कोर्ट ने कहा कि पर्यावरण और वन मंत्रालय ने कुनो अभयारण्य में विदेशी विदेशी चीता लाने को लेकर पहले कोई विस्तृत अध्ययन नहीं किया है। ऐतिहासिक तौर पर कूनो के जंगल अफ्रीकी चीतों के आवास नहीं रहे हैं। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि उनकी प्राथमिकता लुप्तप्राय शेरों को दूसरा निवास देकर उनकी रक्षा करना है। केंद्र सरकार और मध्य प्रदेश सरकार की तरफ से इस मद में करोड़ों रुपये खर्च किए जा चुके हैं। इन सबको देखते हुए यह कहा जा सकता है कि मंत्रालय का पहले चीता लाने और बाद में शेरों को लाने का निर्णय तर्कसंगत नहीं है, कोर्ट ने कहा था। 

हालांकि सात साल के प्रतिबंध के बाद सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2020 में कुनो में चीतों को लाने को हरी झंडी दे दी। साल 1952 में भारत से चीतों को विलुप्त घोषित कर दिया गया था। 


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लेकिन कई विशेषज्ञ यह सवाल उठा रहे हैं कि क्या कूनो में चीते रह पाएंगे! अव्वल तो ऐतिहासिक रूप से यह बब्बर शेरों का निवास स्थान था। दूसरे, भारत में विलुप्त होने के पहले पाए जाने चीतों की नस्ल कुछ और थी और अफ्रीका से लाए जाने वाले चीतों की नस्ल कुछ और है। हालांकि कुनो नेशनल पार्क के रेंजर धाकड़ कहते हैं कि जहां से चीते लाए जा रहे हैं वहां चीते, तेंदुए और शेरों के एक साथ रहने के उदाहरण मिले हैं।    

मध्य प्रदेश वन विभाग और डब्ल्यूआईआई के अधिकारियों की एक टीम पिछले दिनों नामीबिया गई थी, जहां से चीतों को लाने की तैयारी हो रही है। हालांकि इस योजना को जमीन पर उतारने में महीनों लग सकते हैं। इसके लिए नामीबिया से अभी समझौता होना बाकी है। केंद्र सरकार की योजना 35-40 चीतों को भारत में लाने की है और इन्हें पांच साल की अवधि के दौरान यहां छोड़ा जाएगा।

 

बैनर तस्वीरः कूनो अभ्यारण्य का मुख्य द्वार। कूनो में एशियाई शेरों को लाने की योजना साल 1996 से शुरू हुई थी। तस्वीर- शहरोज़ अफरीदी

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