- भारत में राज्य सरकारें, चाहे किसी भी पार्टी की क्यों न हों, बड़ी जलविद्युत परियोजनाओं को दोबारा शुरू कर रही हैं। कई राज्य सरकारें परियोजना के काम में तेजी भी ला रही हैं। इनमें से कुछ परियोजनाएं दशकों से लंबित रही हैं।
- छत्तीसगढ़ में बोधघाट परियोजना, केरल में अथिरापिल्ली परियोजना, झारखंड में उत्तर कोयल, अरुणाचल में दिबांग बहुउद्देशीय परियोजना सहित ऐसी कई परियोजनाएं हैं जिन्हें हाल ही में नए सिरे से बढ़ावा मिला है।
- राज्यों का बड़ी जलविद्युत परियोजनाओं की तरफ बढ़ता आकर्षण, केंद्र सरकार के रुख के अनुरूप ही है। 2019 में केंद्र सरकार ने बड़ी जलविद्युत परियोजनाओं को नवीकरणीय परियोजनाओं के रूप में घोषित किया था।
बीते कुछ सालों में, पुरानी पनबिजली परियोजनाओं में राज्य सरकारों की दिलचस्पी बढ़ी है। चाहे किसी भी दल की सरकार हो, इन परियोजनाओं के लिए कई राज्यों में एक साझा प्रयास देखने को मिला है। इनमें कुछ ऐसी भी परियोजनाएं शामिल हैं जो दशकों से लंबित रही हैं।
छत्तीसगढ़ में बोधघाट परियोजना, केरल में अथिरापिल्ली परियोजना, झारखंड में उत्तरी कोयल, दिबांग बहुउद्देशीय परियोजना और अरुणाचल परियोजना में एटालिन परियोजना, आंध्र में पोलावरम ऐसी परियोजनाओं की सूची में शामिल हैं, जिन्हें नए सिरे से बढ़ावा मिला है।
एक मोटा-मोटी अनुमान है कि आंध्र में पोलावरम परियोजना, अरुणाचल प्रदेश में एटालिन और दिबांग और छत्तीसगढ़ में बोधघाट की कुल अनुमानित लागत लगभग 1.31 लाख करोड़ रुपये के करीब है। केंद्र सरकार ने भी बीते कुछ सालों में जलविद्युत की तरफ जोर दिया है। इससे लिहाज से सबसे महत्वपूर्ण कदम था जब सरकार ने सभी तरह के हाइड्रो पावर को स्वच्छ ऊर्जा का दर्जा दे दिया।
छत्तीसगढ़ में जब कांग्रेस पार्टी की सरकार आई तो उसने बोधघाट बहुउद्देशीय सिंचाई परियोजना पर जोर दिया। इसकी प्री फिजिबिलिटी रिपोर्ट को मई 2021 में भारत सरकार के जल शक्ति मंत्रालय और केंद्रीय जल आयोग द्वारा सैद्धांतिक सहमति दी गई थी। इंद्रावती नदी पर प्रस्तावित यह परियोजना 40 साल से लंबित है। तब सरकार ने एक बयान में कहा कि इस परियोजना के सर्वेक्षण और विस्तृत परियोजना रिपोर्ट (डीपीआर) तैयार करने का काम अब तेज गति से किया जाएगा।
दो साल पहले यानी मार्च 2020 में राज्य में विधानसभा के बजट सत्र के दौरान छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने बोधघाट सिंचाई परियोजना का निर्माण कार्य शुरू करने की घोषणा की थी। बघेल ने अप्रैल 2020 में राज्य के जल संसाधन विभाग की बैठक में बोधघाट परियोजना पर चर्चा की थी और परियोजना को विभाग के 2020-21 के बजट में भी शामिल किया गया था।
सरकार के अनुसार यह परियोजना दंतेवाड़ा जिले के गीदम विकासखंड के बारसूर गांव से करीब आठ किलोमीटर और जिला मुख्यालय जगदलपुर से 100 किलोमीटर दूर है। परियोजना की अनुमानित लागत लगभग 22,653 करोड़ रुपये है। इसमें 366, 580 हेक्टेयर सिंचाई और 300 मेगावाट बिजली पैदा करने का प्रस्ताव है। इससे बस्तर संभाग के दंतेवाड़ा, सुकमा और बीजापुर जिलों में सिंचाई की संभावना है।
हालांकि, आदिवासी समुदायों के विस्थापन से जुड़े मुद्दों पर काम कर रहे जमीन से जुड़े समाससेवी कुछ और ही सोचते हैं। छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के आलोक शुक्ला सवाल करते हैं कि क्या बड़े प्रोजेक्ट की जरूरत भी है? “सरकार को इस परियोजना पर छत्तीसगढ़ के लोगों, विशेषकर बस्तर के लोगों के साथ चर्चा करनी चाहिए थी। क्योंकि इन परियोजनाओं का प्रभाव विनाशकारी है। जलवायु आपातकाल के इस समय में क्या सरकार पर्यावरण और आदिवासी समुदायों पर इसके प्रभाव को सहन करने के लिए तैयार है? बस्तर पांचवीं अनुसूची क्षेत्र में सूचीबद्ध है और इसे संविधान के तहत विशेष सुरक्षा प्राप्त है। विचार यह सुनिश्चित करने के लिए है कि आदिवासी लोग अपनी जोत की भूमि न खोएं। तो क्या सरकार उन सभी आदिवासी लोगों को जमीन उपलब्ध कराने के लिए तैयार है जो इस परियोजना के कारण विस्थापित हो जाएंगे? क्या इसके कारण हुए लोगों के भारी विस्थापन के पुनर्वास के लिए सरकार तैयार है?” शुक्ला ने सवाल किया।
उन्होंने जोर देकर कहा कि इससे भी सस्ती और अक्षय ऊर्जा के विकल्प मौजूद हैं फिर भी सरकार इस परियोजना को आदिवासी लोगों पर थोपना चाहती है।
केरल, झारखंड, आंध्र प्रदेश और अन्य राज्य जलविद्युत परियोजना की राह पर
यह केवल बोधघाट परियोजना नहीं है जिसे सरकार द्वारा नए सिरे से बढ़ावा मिल रहा है। केरल में विवादास्पद अथिराप्पिल्ली जल विद्युत परियोजना भी इस फेहरिस्त में शामिल है। इसे पहली बार 1979 में शुरू किया गया था। पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील पश्चिमी घाट क्षेत्र में परियोजना का पर्यावरण और आदिवासी समुदायों पर इसके प्रभाव के आधार पर लंबे समय से विरोध किया गया है। कुछ दिनों पहले भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व वाली केरल सरकार ने केंद्र सरकार से परियोजना के लिए एक नई पर्यावरण मंजूरी प्राप्त करने के अपने इरादे की घोषणा की।
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एक और पुरानी परियोजना जिसपर एक नए सिरे से शुरू किया जा रहा है वह है झारखंड की उत्तरी कोयल बांध परियोजना। 1970 के दशक में परिकल्पित परियोजना को एक और मौका मिला था जब 2017 में केंद्र सरकार ने परियोजना को पूरा करने के प्रस्ताव को मंजूरी दी थी। ऐसा ही अरुणाचल प्रदेश की दिबांग बहुउद्देशीय परियोजना और जैव-विविधता संपन्न और पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्र में एटालिन जलविद्युत परियोजना का मामला है, जिसे लगभग 20 साल पहले चिन्हित किया गया था, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में इसे एकबार फिर शुरू करने की कोशिश की जा रही है। आंध्र प्रदेश में पोलावरम बहुउद्देशीय परियोजना की शुरुआत 80 के दशक की है। इसे भी हाल के वर्षों में ही फिर चालू किया गया। जल क्षेत्र से संबंधित मुद्दों पर काम करने वाले संगठनों और व्यक्तियों का एक नेटवर्क साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम्स, रिवर एंड पीपल के समन्वयक, हिमांशु ठक्कर ने कहा कि यह सरकारों की एक पुरानी आदत है। जब भी अर्थव्यवस्था खराब स्थिति में होती है तो बड़े बांधों और जल विद्युत परियोजनाओं का निर्माण शुरू हो जाता है। “ऐसी परियोजनाओं की एक श्रृंखला है, जो वर्षों से अटकी हुई हैं, और अब विभिन्न सरकारों द्वारा उन्हें दोबारा शुरू करने की कोशिश हो रही है। अथिरापल्ली, बोधघाट, कावेरी (मेकेदातु) के अलावा, अरुणाचल प्रदेश में दिबांग बहुउद्देश्यीय परियोजना और एटालिन हाइड्रो परियोजना, सिक्किम में तीस्ता-6 परियोजनाएं हैं।
यह और कुछ नहीं बल्कि नई बोतल में पुरानी शराब है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि ऐसी अवयहारिक परियोजनाओं को विशेष रूप से आगे बढ़ाया जा रहा है, जब बेहतर विकल्प उपलब्ध हैं,” ठक्कर ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया।
जलविद्युत परियोजनाओं के लिए व्यवस्थित प्रयास
जनवरी 2019 में, एक संसदीय स्थायी समिति ने अपनी रिपोर्ट में जलविद्युत क्षेत्र पर बात की गयी थी। इस रिपोर्ट में कहा गया था कि 2,41,844 मेगावाट की कुल क्षमता के मुकाबले पनबिजली की केवल 45,399.22 मेगावाट की स्थापित क्षमता का होना बहुत बड़ी बात है। वर्ष 2020 के अंत में में जलविद्युत परियोजनाओं से भारत की कुल स्थापित क्षमता 45,699.22 मेगावाट थी। केंद्रीय जल आयोग के आंकड़ों के अनुसार, जून 2019 तक, भारत में लगभग 5,745 बड़े बांध निर्मित या निर्माणाधीन थे।
इसके बाद, मार्च 2019 में, प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाले केंद्रीय मंत्रिमंडल ने जलविद्युत क्षेत्र को बढ़ावा देने के उपायों को मंजूरी दी थी। मुख्य निर्णयों में से एक बड़ी जलविद्युत परियोजनाओं को नवीकरणीय ऊर्जा के रूप में घोषित करना था। इसके पहले तक तक केवल 25 मेगावाट से कम की जलविद्युत परियोजनाओं को ही नवीकरणीय ऊर्जा परियोजनाओं के रूप में माना जाता था।
फिर केंद्र सरकार ने गैर-सौर नवीकरणीय खरीद दायित्व (आरपीओ) के दायरे में हाइड्रो पावर को शामिल कर लिया।
हिमाचल प्रदेश स्थित पर्यावरण पर शोध करने वाली संस्था हिमधारा कलेक्टिव की मानशी अशर कहती हैं बड़ी जलविद्युत परियोजनाओं के पुनरुद्धार में बहुत सी छिपी हुई कीमतें हैं। जब परियोजनाओं को आगे बढ़ाने पर विचार नहीं किया जाता है तो इन सामाजिक कीटमतों की चर्चा नहीं होती। “बड़ी जलविद्युत परियोजनाओं में बहुत अधिक सामाजिक और पर्यावरणीय कीमत होती हैं जिन पर कभी ध्यान नहीं दिया जाता है। अंततः स्थानीय क्षेत्र के लोग ही इन परियोजनाओं की अधिकांश सामाजिक और पर्यावरणीय कीमत चुकाते हैं। लेकिन दुख की बात है कि इनका कभी कोई हिसाब नहीं लगाया जाता,” उन्होंने कहा।
इसका हालिया उदाहरण हिमाचल प्रदेश में देखने को मिला जब आदिवासी समाज के कुछ परिवारों को अपना घर छोड़कर अस्थायी घर में जाना पड़ा। लगातार विरोध के बावजूद भी सरकार ने बजेली-होली जल विद्युत परियोजना पर काम जारी रखा और आखिरकार स्थानीय लोगों का इसका खामियाजा भुगतना पड़ रहा है।
आलोक शुक्ला ने कहा कि सवाल यह है कि “क्या सभी सरकारें विनाश की कीमत पर अपनी प्रोफाइल बनाने के लिए बड़े बांध बना रही हैं।”
बैनर तस्वीरः छत्तीसगढ़ में इंद्रावती नदी पर चित्रकोट जलप्रपात। इंद्रावती नदी पर प्रस्तावित बोधघाट परियोजना 40 वर्षों से लंबित है और इस वर्ष इसे नए सिरे से गति मिली है। तस्वीर– इशांत 46एनटी / विकिमीडिया कॉमन्स