- अचानकमार टाइगर रिजर्व से फिर 19 गांव से लोगों को विस्थापित करने की कवायद चल रही है। एक दशक पहले भी 6 गांव को यहां से विस्थापित किया गया था।
- पहले के विस्थापित लोगों की स्थिति निराशाजनक है। ये विस्थापित लोग अपने मूलभूत जरूरतों के लिए संघर्षरत हैं। इनकी स्थिति देखकर जिन गांवों के लोगों को विस्थापित किया जाना है, वे डरे हुए हैं।
- जब अचानकमार टाइगर रिजर्व से लोगों को विस्थापित किया गया था, उसी समय मध्य प्रदेश के कान्हा टाइगर रिजर्व से भी 153 परिवारों को विस्थापित किया गया था। आज वे बेहतर स्थिति में हैं क्यों!
छत्तीसगढ़ के मुंगेली ज़िले के बोकराकछार गांव में रहने वाले 30 साल के भागबली से बचपन की बात करें तो उनकी आंखों में अभी भी अपना गांव और जंगल तैर जाता है। विस्थापन के पहले के दिनों को याद करते हुए वे कहते हैं, “यहां खाने के लिए तेंदू भी नहीं मिलता। हमारे गांव में चार, चिरौंजी, हर्रा, महुआ, बेरंगी, मुसली, माहुल सब मिलता था। खाते भी थे, बेचते भी थे। बहुत सुख था। दिन भर जंगल में यहां से वहां घूमते रहते थे। जैसे हवा घूमती रहती है। सब कुछ अब वहीं छूट गया।”
यह सब बताते हुए भागबली दुख से भर जाते हैं, जैसे वो खुद भी थोड़ा छूट गये हों, वहीं अपने पुराने गांव में। सौंता आदिवासी समुदाय के भागबली का पुराना गांव अचानकमार टाइगर रिज़र्व के भीतर था। फरवरी 2009 में अचानकमार को टाइगर रिज़र्व बनाने की घोषणा हुई और उसी साल दिसंबर में बोकराकछार गांव के 38 परिवारों को रातों-रात ट्रक में लाद कर वहां से लगभग 40 किलोमीटर दूर कारीडोंगरी पंचायत के इलाके में ला कर छोड़ दिया गया। आदिवासियों को बताया गया कि अब उन्हें यहीं रहना है। यहीं उनके लिए मकान बनाए जाएंगे, सड़कें होंगी, सबको खेत दिए जाएंगे, नौकरी दी जाएगी, बच्चों के लिए स्कूल खोले जाएंगे।
अचानकमार टाइगर रिज़र्व से विस्थापित किए जाने वाला बोकराकछार अकेला गांव नहीं था। दिसंबर 2009 में अचानकमार के 25 में से 6 गांव विस्थापित किए गए। इसके लिए न तो कोई ग्राम सभा हुई और ना ही नियमानुसार वन अधिकार पट्टों का निपटारा हुआ। विस्थापित किए गये 6 में से चार गांव बोकराकछार, बांकल, बहाउड़ और सांभरधसान को मुंगेली ज़िले के खुड़िया में एक साथ बसाया गया। वहीं कूबा को गौरेला में और जल्दा को लोरमी इलाके में बसाया गया। कुल 249 परिवारों वाले इन नये बसाये गए गांवों के नाम जस के तस रखे गये लेकिन इन गांवों का सब कुछ बदल गया। भूगोल से लेकर समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र तक।
अब पुनः सरकार 19 नए गावों को विस्थापित करने की प्रक्रिया में है। 19 गांवों में से तीन गांव तिलईडबरा, छिरहट्टा और बिरारापानी का भूमि व्यपवर्तन प्रस्ताव केंद्र के पास लंबित है, वहीं अन्य 16 गांवों की प्रक्रिया भी जारी है। इन गांव के लोगों को विस्थापित होने का डर तो सता ही रहा है पर पुराने विस्थापितों की दशा देखकर इनका डर कई गुना बढ़ जाता है।
कैसे हैं 2009 के विस्थापित लोग?
वर्ष 2009 में 914 वर्ग किलोमीटर (किमी) में अचानकमार टाइगर रिजर्व बनाने की घोषणा हुई थी। इसमें 875 वर्ग किमी आरक्षित वन था और 39 वर्ग किमी संरक्षित वन था। छत्तीसगढ़ के लिए यह उपलब्धि थी पर यह खबर, इस वन में रह रहे कुल 25 गावों के लोगों के लिए डर और परेशानी का सौगात लेकर आई। प्रशासन ने कई वादे किए पर विस्थापितों का आज का जीवन बताता है कि उनका डर जायज था।
अभी तक हुए विस्थापितों में अधिकांश आदिवासी थे। विस्थापित होने वाले परिवारों को पांच एकड़ ज़मीन और दो कमरे का पक्का मकान दिया गया था। लेकिन इन 12-13 सालों में ही मकानों की हालत ख़राब हो गई। कच्चे घरों में रहने के आदि आदिवासियों ने पक्के मकान के सामने या पीछे, नए सिरे से झोपड़ियां बना लीं और उनका अधिकांश समय इन्हीं झोपड़ियों में गुजरता है। घरों के पीछे बनाए गये आधे-अधूरे शौचालय का कभी उपयोग नहीं हुआ और वे खंडहर में बदल गए।
बोकराकछार गांव के मानसिंह तिर्की की उम्र लगभग 80 साल की है। वे अपनी पत्नी शांतिबाई के साथ रहते हैं। उनके बेटे मोतीराम अलग मकान में रहते हैं। मानसिंह की आजीविका का सबसे बड़ा स्रोत हर महीने मिलने वाला 350 रुपये का निराश्रित पेंशन और 35 किलो चावल है, जिससे किसी तरह गुजारा हो पाता है। गांव के अधिकांश लोग खेती की ज़मीन को लेकर असंतोष जताते हैं। वे अपने खेतों को दिखाते हुए बताते हैं कि विस्थापितों को जो ज़मीने दी गईं, वे लगभग बंजर जैसी हैं और आज भी इन खेतों में सिंचाई की सुविधा उपलब्ध नहीं है।
फूलबाई पनिका की उम्र 75 से अधिक है और वे अकेली रहती हैं। इस नये गांव में आने के चार साल बाद ही पति महेश साकत की मौत हो गई। 5 बेटियां थीं, सबका ब्याह हो गया। तीन बेटे हैं लेकिन वे अलग रहते हैं। फूलबाई की आजीविका भी सरकारी राशन और 350 रुपये महीने की पेंशन पर ही निर्भर है। वे कहती हैं, “जंगल के भीतर रहते थे तो तरह-तरह के वनोपज एकत्र करते थे। उससे आसानी से गुजर-बसर हो जाता था। अब यहां पास के इलाके में इमारती और जंगली पेड़ों के अलावा कुछ भी नहीं है। गांव के जो जवान हैं, वो जंगल से हर दिन सूखी लकड़ी काट कर बेचते हैं तो किसी तरह गुजारा होता है।”
बोकराकछार, बांकल और सांभरधसान में हमें एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं मिला, जिसे आज तक रोजगार गारंटी योजना में कभी सौ दिन का काम मिला हो। कुछ लोगों ने रोजगार की तलाश में बाहर का भी रुख किया लेकिन उनके अनुभव बहुत कड़वे रहे।
भागबली कहते हैं, “दरवाज़ा गांव के कुछ लोगों ने 2018 में मुझे और गांव के 20-22 लोगों को पांच-पांच सौ रुपये की पेशगी दी और हमें आंध्रप्रदेश ले कर गया। मैं अपनी पत्नी श्यामवती के साथ वहां गया। हम लोगों से 3 महीने तक दिन-रात गन्ना कटाई और दूसरे काम करवाये गये। काम खत्म हुआ तो हमे एक रुपये दिए बिना मारपीट कर भगा दिया गया। बड़ी मुश्किल से किसी तरह हम गांव लौट पाए। उसके बाद कभी बाहर जाने की सोचता भी नहीं।”
गांव के नौजवानों का कहना है कि विस्थापित गांवों के अधिकांश घरों में चोरी-चुपके शराब का निर्माण और उसकी बिक्री होती है। यह आय का साधन तो है लेकिन गांव में बाहरी लोगों की आवाजाही से अक्सर तनाव की स्थिति भी बनती रहती है।
इन विस्थापित गांवों में शिक्षा की हालत भी ख़राब है। मोंगाबे-हिंदी ने बोकराकछार, बांकल, सांभरधसान और कूबा में सभी घरों में जा कर बात की तो पता चला कि इन चारों गांव में रहने वाले लगभग 376 लोगों में से महज दो लोग ऐसे हैं, जिन्होंने कॉलेज का मुंह देखा है। इन गांवों में केवल 10 लोग ऐसे मिले, जिन्होंने हाई स्कूल तक की पढ़ाई की थी। शिक्षा के इस स्तर के कारण ही किसी बीमारी में इन विस्थापित गांवों के लोग, डॉक्टर के पास जाने के बजाय बैगा, ओझा या गुनिया के पारंपरिक इलाज पर कहीं अधिक भरोसा करते हैं। गांव में दूसरी सरकारी सुविधाओं का भी यही हाल है। गांव के कई परिवारों को उज्ज्वला योजना में गैस चुल्हा और सिलेंडर मिले थे। लेकिन इनमें से अधिकांश लोगों ने उन्हें किनारे कर दिया या आसपास के गांवों में किसी और को बेच दिया। आज भी खाना पकाने के लिए अधिकांश परिवार जंगल की लकड़ी पर ही निर्भर हैं। कूबा गांव की जोनिहा बाई कहती हैं, “गैस चुल्हा के लिए सिलेंडर कहां से लाएंगे? सिलेंडर के लिए यहां से 30-40 किलोमीटर दूर पीपरखूंटी जाना पड़ता है। किसी को मोटरसाइकिल से गैस सिलेंडर लेने भेजो तो उसे गैस सिलेंडर की क़ीमत के अलावा आने-जाने और दिन भर की मज़दूरी के रुप में 150 से 200 रुपये अतिरिक्त देना पड़ता है। इतनी महंगी गैस सिलेंडर कौन उपयोग करना चाहेगा? ”
छत्तीसगढ़ में सर्व आदिवासी समाज के सचिव विनोद नागवंशी आदिवासियों के ऐसे पुनर्वास से चिंतित हैं। उनका कहना है कि पुनर्वास नीति में विस्थापन से पहले पुनर्वास की व्यवस्था के निर्देश हैं। लेकिन 12 साल पहले विस्थापितों को ला कर बदहाली की हालत में छोड़ दिया गया। उन्हें इस बात की चिंता है कि वन विभाग ने पिछले दो सालों से अचानकमार के शेष बचे हुए 19 गांवों के विस्थापन के लिए जो कवायद शुरु की है, इन गांवों के आदिवासियों का हश्र भी ऐसा ही न हो।
हालांकि राज्य के प्रधान मुख्य वन संरक्षक राकेश चतुर्वेदी विस्थापितों की दुर्दशा के पीछे दूसरे कारण बताते हैं। उन्होंने मोंगाबे हिंदी से कहा, “विस्थापन के बाद इन गांवों को राजस्व ग्राम घोषित कर दिया गया। इसमें चूक तो हुई है क्योंकि ज़िले के कलेक्टर को विस्थापितों की सुविधा के लिए दूसरे विभागों के समन्वय से काम करना था। वह नहीं हो पाया।”
लेकिन पड़ोसी राज्य मध्य प्रदेश में विस्थापितों का हाल कुछ और ही की कहानी कहते हैं।
कान्हा टाइगर रिजर्व से भी हुआ था विस्थापन
2009-10 में जिस समय अचानकमार के इन छह गांवों के लोगों का विस्थापन हुआ, उसी समय पड़ोसी राज्य मध्य प्रदेश के कान्हा टाइगर रिजर्व के जामी गांव के 153 परिवारों का भी विस्थापन हुआ। वहां वन विभाग आज भी इन विस्थापितों के सतत संपर्क में बना हुआ है। मोंगाबे हिंदी ने ऐसे दर्जनों परिवारों से मुलाकात की, जिन्हें मध्यप्रदेश का वन विभाग किसी भी मुश्किल में आज भी मदद करता रहता है। कान्हा विकास निधि से आज भी विस्थापितों को वित्तीय मदद मिलती है।
मंडला ज़िले के इंद्री पंचायत के मुरकुटा में आ कर बसे 47 साल के गोंड आदिवासी छतरु सिंह के पास जामी में एक एकड़ खेत था। मुश्किल से गुजारा होता था। वन विभाग के अधिकारियों और कर्मचारियों की देख-रेख में उन्होंने यहां चार एकड़ ज़मीन ख़रीदी। गेहूं और चना लगाना शुरु किया। बैल खरीदे, फिर कर्ज लेकर ट्रैक्टर खरीदा। बेटे की पढ़ाई के लिए पास के कस्बे भीमडोंगरी के स्कूल में दाखिला करवाया। छतरु सकुचाते हुए कहते हैं, “महीने का देखेंगे तो 30 हज़ार रुपया हर महीने कमा लेता हूं। मेहनत तो मेरी है लेकिन वन विभाग के लोग लगातार मदद करते हैं, बताते, समझाते रहते हैं।”
इंद्री गांव में ही बसे 27 साल के फागू सिंह धुर्वे और उनके छोटे भाई 21 साल के शिव कुमार धुर्वे के माता-पिता का पहले ही निधन हो चुका था। विस्थापन की प्रक्रिया में केवल बालिगों को ही मुआवजा का प्रावधान था। लेकिन 2009-10 में वन विभाग ने विशेष मामले के रुप में इन्हें भी मुआवजा का पात्र माना। आज दोनों भाइयों के पास 7 एकड़ की खेती है, जहां मोटर पंप से सिंचाई की व्यवस्था है। घर में अपना पैसा खर्च कर शौचालय का निर्माण किया और फागू सिंह की पत्नी और दोनों बच्चों समेत पूरा परिवार उनका उपयोग करता है। घर में एक कूलर है और मोटरसाइकिल भी।
मध्यप्रदेश के प्रधान मुख्य वन संरक्षक वन्य प्राणी, जे एस चौहान बताते हैं कि टाइगर रिजर्व से विस्थापितों को एक बार 10 लाख रुपये की मुआवजा राशि देने के बाद हमने उन्हें छोड़ नहीं दिया, बल्कि स्वयंसेवी संगठन की मदद से उनके हरेक दुख-सुख पर नज़र रखते रहे। ज़मीन ख़रीदी से लेकर दूसरे कारोबार तक में हमने उन्हें सुझाव देने और मदद करने का काम किया।
जे एस चौहान उदाहरण देते हुए कहते हैं, “हमारे एक विस्थापित परिवार ने कान्हा से लगे हुए छत्तीसगढ़ के कबीरधाम ज़िले के एक शिक्षक को ज़मीन के लिए पैसे दिए। लेकिन शिक्षक ने न ज़मीन दी, न पैसे वापस किए। इसके बाद मध्यप्रदेश के वन विभाग ने मामले में हस्तक्षेप किया। छत्तीसगढ़ पुलिस से मदद मांगी और विस्थापित परिवार को रकम वापस मिली। हमने हरेक विस्थापित के हाथों को थामे रखा। शायद यही कारण है कि अधिकांश विस्थापित आज बेहतर जीवन निर्वाह कर रहे हैं।”
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इसके मुकाबले अचानकमार टाइगर रिजर्व से हुए विस्थापन की बुरी स्थिति पर जल, जंगल, ज़मीन, जीवन के मुद्दों पर पिछले तीन दशकों से भी अधिक समय से काम कर रहे गौतम बंदोपाध्याय की राय है कि गांवों को विस्थापित किए बिना किस तरह से टाइगर रिज़र्व में बेहतर वन प्रबंधन किया जा सकता है, उस पर विचार किया जाना चाहिए। विस्थापन अंतिम विकल्प हो और विस्थापन की प्रक्रिया में वहां रहने वाले लोगों की सहभागिता ज़रुरी है।
गौतम बंदोपाध्याय अचानकमार से छह गांवों के विस्थापन को, विस्थापन का असफल मॉडल बताते हुए कहते हैं कि जिस ज़मीन पर इन गांवों को बसाया गया, वो पहले से ही दूसरे गांवों की सार्वजनिक उपयोग की ज़मीन थी। जिसके कारण पुराने और नये बसाए गये गांवों के बीच द्वंद्व का शुरु हुए। विस्थापन में वन अधिकार क़ानून का पालन नहीं हुआ और विस्थापित बहुसंख्य बैगा आदिवासियों की विशिष्ठ जीवन शैली का, विस्थापन की प्रक्रिया में ध्यान नहीं रखा गया। विस्थापितों की समस्याओं को हल करने के लिए कोई जगह नहीं रखी गई।
गौतम बंदोपाध्याय कहते हैं, “जंगल के भीतर रहने वाले लोगों के ऐतिहासिक संदर्भ को समझे बिना, हम उनके बरसों-बरस मे विकसित इको सिस्टम को समझ नहीं पाएंगे और ना ही उन्हें वैसी ही परिस्थितियां उपलब्ध करा पाएंगे। जंगल में रहने वाले लोग वस्तु नहीं हैं, वे जीवंत हैं. उन्हें एक जगह से दूसरी जगह रख देने जैसी हमारी समझ, बेहतर विस्थापन की दिशा में सबसे बड़ा रोड़ा है। इसके लिए वन विभाग की समझ और उसकी संरचना में बदलाव ज़रुरी है। नहीं तो विस्थापित होने वाले 19 गांवों की हालत भी, उन्हीं 6 गांवों की तरह ही होगी।”
बैनर तस्वीर: अचानकमार टाइगर रिजर्व से विस्थापित हुए परिवारों ने अपने पक्के मकान छोड़कर कच्चा मकान बना लिए। तस्वीर-आलोक प्रकाश पुतुल