[फ़ोटो] गन्ने की जैविक खेती से जमीन और ज़िंदगी संवारता 74 साल का एक किसान

जनवरी 2022 में नारायण गायकवाड़ अपने खेत में। 74 साल के गायकवाड़ ने जून 2020 के बाद गन्ने की जैविक खेती की ओर रुख किया। जैविक खेती के पहले साल में उन्होंने अपने 1.5 एकड़ वाले खेत से गन्ने के दो किस्मों की 77 टन उपज मिली। हालांकि रासायनिक उर्वरकों का उपयोग अक्सर अधिक उपज प्रदान करता है और तुलनात्मक रूप से खेत में कम समय की आवश्यकता होती है, लेकिन गायकवाड़ को जैविक खेती करने के अपने फैसले पर गर्व है। तस्वीर- संकेत जैन/मोंगाबे

वहीं, उनके खेत से बारह किलोमीटर दूर कुरुंदवाद गांव में किसान बसवंत नाइक (अनुरोध पर नाम बदला गया) ने रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल करके गन्ने की खेती की। अगस्त 2019 की बाढ़ में गन्ने की 240 टन फसल खोने वाले नाइक ने सोचा कि रासायनिक उर्वरक का इस्तेमाल बढ़ाने से उनकी समस्या हल हो जाएगी। वो कहते हैं, “मैंने रसायनों का उपयोग दोगुना कर दिया और प्रति एकड़ 10 क्विंटल कृत्रिम उर्वरकों का इस्तेमाल किया।”

रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल बढ़ाने के बाद पहले साल नाइक को बंपर फसल मिली। यह पिछली उपज की तुलना में 30 टन अधिक थी। हालांकि, जब उन्होंने 2021 में उसी प्रक्रिया को दोहराया तो नतीजे इच्छा के मुताबिक नहीं आए। उन्होंने कहा, “बाढ़ ने फिर से गन्ने की फसल नष्ट कर दी। इस बार मैंने चार एकड़ के अपने खेत में उगाई जाने वाली हर चीज खो दी।” बाढ़ का पानी कम होने के बाद मिट्टी को खारा होते देख वो हैरान रह गए।”

अनुभवी किसानों से सलाह-मशविरा करने के बाद, बसवंत नाइक के पास गन्ने की खेती छोड़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। “क्या होगा अगर फिर से बाढ़ आ जाए? साथ ही, मेरे खेत में पर्याप्त पोषक तत्व नहीं हैं।”

नारायण गायकवाड़ रसायनों से मुक्त अपने खेत (बाएं) की मिट्टी की तुलना अपने पड़ोसी के खेत की मिट्टी से करते हुए, जहां कृत्रिम उर्वरकों का अत्यधिक इस्तेमाल होता था। यही नहीं कई बार कीटनाशकों व खरपतवार को खत्म करने वाले रसायन का उपयोग भी होता था। तस्वीर- संकेत जैन/मोंगाबे
नारायण गायकवाड़ रसायनों से मुक्त अपने खेत (बाएं) की मिट्टी की तुलना अपने पड़ोसी के खेत की मिट्टी से करते हुए, जहां कृत्रिम उर्वरकों का अत्यधिक इस्तेमाल होता था। यही नहीं कई बार कीटनाशकों व खरपतवार को खत्म करने वाले रसायन का उपयोग भी होता था। तस्वीर- संकेत जैन/मोंगाबे

नाइक की कहानी आज कमोबेश हर किसान की कहानी है। आंकड़े भी इस ओर इशारा करते हैं क्योंकि कृषि उर्वरकों की वैश्विक खपत 2019 में 190 मिलियन मीट्रिक टन को पार कर गई जो 1965 में महज 46.3 मिलियन टन थी।

मिट्टी में तेजी से खारापन बढ़ने की घटनाओं को देखते हुए नारायण गायकवाड़ और उनकी 67 वर्षीय पत्नी कुसुम को लगता है कि जैविक खेती ही इससे बचने का रास्ता है। कुसुम कहती हैं, “उत्पादन कम होता है, लेकिन एक बार जब आपका खेत पूरी तरह खारा हो जाता है तो आपको एक भी फसल नहीं मिलेगी।” यही नहीं, कोल्हापुर के शिरोल क्षेत्र के किसानों ने गन्ने की फसल के मुरझाने के बढ़ते मामलों के बारे में बताया है। इस स्थिति में गन्ने के ऊपरी हिस्से के पत्ते भूरे-पीले हो जाते हैं।

वो कहती हैं, “हमारे गन्ने को देखिए; आपको कोई तंबीरा (विल्ट) नहीं मिलेगा। जैविक खेती के दूसरे साल में, अब गायकवाड़ 3.25 एकड़ के अपने खेत में से दो एकड़ में जैविक खेती कर रहे हैं। गायकवाड़ कहते हैं, ”अगले साल तक हम यह सुनिश्चित करेंगे कि हमारे बेटे भी पूरी तरह से जैविक खेती को अपना लें।”

इस तरह गायकवाड़ ठीक-ठाक पैसा बचा रहे हैं लेकिन, अब हर दिन उन्हें लगभग 10-11 घंटे काम करना पड़ता है। ऐसा रासायनिक उवर्रकों की जगह जैविक खाद का इस्तेमाल करने के कारण हुआ है।

गायकवाड़ कहते हैं, “यदि आप अपने मवेशियों का इस्तेमाल महज दूध के लिए करते हैं तो ये खर्च उठा पाना नामुमकिन है। लोग गोबर जमा करने को गंदा काम कहते हैं, लेकिन मवेशी गरीबों के लिए खाद का कारखाना हैं।”

दो-तीन वर्षों में मौसम की चरम स्थितियों का अनुभव करने के बाद कोल्हापुर के शिरोल क्षेत्र के कई किसान गन्ने की फसलों में मुरझाने की बीमारी की जानकारी दे रहे हैं। इसमें ऊपरी हिस्से के पत्ते भूरे-पीले हो जाते हैं। किसान इस संक्रमण के इलाज के लिए फफूंदनाशकों का अधिकाधिक इस्तेमाल कर रहे हैं। तस्वीर- संकेत जैन/मोंगाबे
दो-तीन वर्षों में मौसम की चरम स्थितियों का अनुभव करने के बाद कोल्हापुर के शिरोल क्षेत्र के कई किसान गन्ने की फसलों में मुरझाने की बीमारी की जानकारी दे रहे हैं। इसमें ऊपरी हिस्से के पत्ते भूरे-पीले हो जाते हैं। किसान इस संक्रमण के इलाज के लिए फफूंदनाशकों का अधिकाधिक इस्तेमाल कर रहे हैं। तस्वीर- संकेत जैन/मोंगाबे
गन्ने की खेती के लिए आमतौर पर किसानों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले गन्ने के पौधों पर कीटनाशकों का छिड़काव करता नर्सरी का एक कर्मचारी। तस्वीर- संकेत जैन/मोंगाबे
गन्ने की खेती के लिए आमतौर पर किसानों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले गन्ने के पौधों पर कीटनाशकों का छिड़काव करता नर्सरी का एक कर्मचारी। तस्वीर- संकेत जैन/मोंगाबे
नारायण गायकवाड़ गन्ने के पौधे नर्सरी से नहीं खरीदते क्योंकि उन्हें कीटनाशकों का इस्तेमाल करके उगाया जाता है। इसके बजाय, वो गन्ने के डंठलों को खुद काटते हैं और उन्हें अगली खेती के लिए सुरक्षित रखते हैं। तस्वीर- संकेत जैन/मोंगाबे
नारायण गायकवाड़ गन्ने के पौधे नर्सरी से नहीं खरीदते क्योंकि उन्हें कीटनाशकों का इस्तेमाल करके उगाया जाता है। इसके बजाय, वो गन्ने के डंठलों को खुद काटते हैं और उन्हें अगली खेती के लिए सुरक्षित रखते हैं। तस्वीर- संकेत जैन/मोंगाबे

लेकिन ये सब इतना आसान नहीं है क्योंकि गोबर और गोमूत्र इकट्ठा करने में समय तो लगता ही है। इसके अलावा चूंकि गायकवाड़ खरपतवार खत्म करने वाले रसायनों का उपयोग नहीं करते हैं, इसलिए उन्हें दरांती का इस्तेमाल करके खुद से खरपतवार हटाना पड़ता है और इसमें बहुत समय खपाना पड़ता है। कई लोग खेतिहर मजदूरों का खर्चा नहीं उठा पाते हैं। इसलिए, अधिकांश किसान खरपतवार को खत्म करने वाले रसायनों का उपयोग बढ़ाना पसंद करते हैं जो मजदूरों का खर्च बचाता है।

गायकवाड़ कहते हैं, गांव के एक रसूखदार नेता ने 1960 के दशक की शुरुआत में मक्के और बाजरे के उत्पादन के साथ जंभाली में रासायनिक उर्वरकों की शुरुआत की। अपने चहेरे पर मुस्कान के साथ वो कहते हैं, “आखिरकार, मैंने 2020 में रसायनों का उपयोग करना बंद कर दिया।”

67 साल की कुसुम गायकवाड़ गन्ने के अपने खेत में सेंद्रिय खत (मराठी में 'जैविक उर्वरक') फैलाते हुए। इस मिश्रण को अन्य जैविक पदार्थों के साथ गाय के सूखे गोबर, गन्ने के सूखे पत्तों, चिकन खाद (मुर्गियों के मल से बनाया हुआ) का उपयोग करके बनाया जाता है। तस्वीर- संकेत जैन/मोंगाबे
67 साल की कुसुम गायकवाड़ गन्ने के अपने खेत में सेंद्रिय खत (मराठी में ‘जैविक उर्वरक’) फैलाते हुए। इस मिश्रण को अन्य जैविक पदार्थों के साथ गाय के सूखे गोबर, गन्ने के सूखे पत्तों, चिकन खाद (मुर्गियों के मल से बनाया हुआ) का उपयोग करके बनाया जाता है। तस्वीर- संकेत जैन/मोंगाबे
गायकवाड़ अक्सर अपने मवेशियों और कुत्ते के लिए बांसुरी बजाते हैं। जैविक खाद बनाने के लिए गोबर और गोमूत्र इकट्ठा करना एक कठिन प्रक्रिया है, लेकिन उनका मानना है कि जानवर "गरीबों के लिए खाद का कारखाना" हैं। तस्वीर- संकेत जैन/मोंगाबे
गायकवाड़ अक्सर अपने मवेशियों और कुत्ते के लिए बांसुरी बजाते हैं। जैविक खाद बनाने के लिए गोबर और गोमूत्र इकट्ठा करना एक कठिन प्रक्रिया है, लेकिन उनका मानना है कि जानवर “गरीबों के लिए खाद का कारखाना” हैं। तस्वीर- संकेत जैन/मोंगाबे

इस दौरान एक दर्जन से अधिक किसानों ने गायकवाड़ से संपर्क किया और जैविक खेती के उनके अनुभव के बारे में पूछा। हालांकि, उनका कहना है कि उनमें से किसी ने भी जैविक खेती को नहीं अपनाया है।

भारत में बड़े पैमाने पर गन्ने की खेती होती है और इसका रकबा 12.6 मिलियन एकड़ है। वह ब्राजील के बाद दुनिया में दूसरा सबसे बड़ा गन्ना उत्पादक देश है।

शिरोल के दत्ता चीनी मिल के मिट्टी रसायनविज्ञानी रवींद्र हेरवड़े कहते हैं, “जैविक खेती की जा सकती है, लेकिन कम उपज के डर से बहुत से किसान इससे बचते हैं। लेकिन, अगर खारापन बढ़ता रहता है तो कुल मिलाकर औसत उत्पादन अगले कुछ सालों में कम हो जाता है। हेरवड़े ने “शिरोल तालुका में कई खेत बंजर होने” के साथ-साथ खारेपन में बढ़ोतरी देखी है।

मिट्टी की सेहत पर जैविक खेती के प्रभाव के बारे में वो कहते हैं, “कुछ किसान जैविक खेती करने की कोशिश कर रहे हैं और नतीजे अच्छे दिख रहे हैं। वे गन्ने की बेहतर गुणवत्ता की जानकारी दे रहे हैं। यही नहीं मिट्टी के पोषक तत्वों में भी सुधार हुआ है।”

नारायण अपने नौ वर्षीय पोते वरद के साथ, जिन्होंने 2020 में जैविक खेती के बारे में जानकारी हासिल करने के लिए यूट्यूब का रुख किया, क्योंकि रासायनिक उर्वरकों के चलते उनके दादा-दादी के संकट बढ़ते जा रहे थे। तस्वीर- संकेत जैन/मोंगाबे

 

इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें। 

बैनर तस्वीर: साल 2020 में जैविक खेती अपनाने वाले नारायण गायकवाड़ 2021 में पहली फसल से हुए गन्ने को दिखाते हुए। वो कहते हैं, “अगर हम अब भी जैविक खेती को नहीं अपनाते हैं तो बहुत देर हो जाएगी।” तस्वीर- संकेत जैन/मोंगाबे

क्रेडिट्स

संपादक

विषय

कार्बन क्रेडिट: यूपी के किसानों के लिए पर्यावरण संरक्षण, आमदनी का जरिया

उम्मीद और आशंकाओं के बीच भारत में जीनोम-एडिटेड चावल की दो किस्में जारी

बढ़ते शहरीकरण में अपने आप को ढालते मुंबई के सुनहरे सियार

गिद्ध सरक्षण: सिर्फ दवाओं पर पाबंदी नाकाफी, उठाने होंगे दूसरे कदम

[वीडियो] जोजरी: समाधान की आस में बदबू, बीमारियों से बेहाल हजारों परिवार, खतरे में जैव-विविधता

तटीय इलाकों में क्यों कम हो रहे हैं समुद्री बाज के घोंसले

हिमालयी क्षेत्रों में जलवायु संबंधी आपदाओं को कम करने के लिए प्रतिबद्ध एक केंद्र

सिकुड़ते जंगल और बढ़ती मानव बस्तियां, लॉयन-टेल्ड मेकाक के लिए दोहरी चुनौती

नए लेख

सभी लेख

तेजी से होते ‘विकास’ से क्यों दूरी बना रहें हैं दक्षिण गोवा के ये गांव?

बाघों की फिर से बसाई गई आबादी में ऐसे होते हैं रिश्ते

साहिबगंज मल्टीमॉडल टर्मिनल: उदघाटन के पांच साल बाद भी क्यों अटका है परिचालन?

दिल्ली में लोगों की भागीदारी से शहरी तालाब हौज़-ए-शम्सी का कायाकल्प

ग्रीनहाउस खेती में बिना डंक वाली मधुमक्खियां से मुनाफा ही मुनाफा

बढ़ते पर्यटन से जलवायु परिवर्तन के प्रति संवेदनशील होते दक्षिण गोवा के गांव

कार्बन क्रेडिट: यूपी के किसानों के लिए पर्यावरण संरक्षण, आमदनी का जरिया

उम्मीद और आशंकाओं के बीच भारत में जीनोम-एडिटेड चावल की दो किस्में जारी