- भारत इस्पात (स्टील) का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश है। यह माना जा रहा है कि देश की अर्थव्यवस्था आगे बढ़ेगी तो स्टील का उत्पादन भी बढ़ेगा।
- स्टील के उत्पादन की प्रक्रिया में पर्यावरण के लिहाज से नुकसानदायक गैसों का उत्सर्जन काफी होता है। देश के कुल औद्योगिक कार्बन उत्सर्जन का लगभग एक तिहाई स्टील क्षेत्र में ही होता है।
- वैश्विक स्तर के मुकाबले भारत में प्रति व्यक्ति स्टील की खपत कम है। देश के अंदर शहरी और ग्रामीण क्षेत्र में भी कुछ ऐसा ही अंतर देखने को मिलता है।
- सरकार एक तरफ स्टील की खपत बढ़ाने की कोशिश कर रही है तो दूसरी तरफ इस क्षेत्र से होने वाले उत्सर्जन को कम करना भी एक बड़ी चुनौती है।
हाल ही में टाटा स्टील के प्रबंध निदेशक ने कहा था कि भारत में ग्रीन स्टील के उत्पादन के लिए जरूरी गैस और स्क्रैप उपलब्ध नहीं है। इसके एक महीने बाद भारत सरकार ने दुबई में ‘स्टील सप्ताह’ मनाया। इससे दो बातें स्पष्ट होती हैं कि एक तरफ स्टील क्षेत्र के विकास के लिए सरकार विदेशी निवेश लाने की कोशिश कर रही है तो दूसरी तरफ ग्रीन स्टील को प्रोत्साहित करने का दबाव भी है। ग्रीन स्टील का तात्पर्य है कि स्टील उत्पादन के ऐसे तरीके अपनाए जाएं जिससे कम से कम कार्बन उत्सर्जन हो।
स्टील उत्पादन के मामले में भारत, दुनिया के सबसे बड़े उत्पादक देशों में शुमार है। 2021 के जनवरी से दिसंबर तक देश में 11.81 करोड़ टन या कहें 118.1 मिलियन टन (एमटी) स्टील का उत्पादन हुआ। स्टील उत्पादन के मामले में चीन सबसे आगे है और बीते साल वहां 103.28 करोड़ टन स्टील का उत्पादन हुआ।
भविष्य में भारत में इस्पात उत्पादन बढ़ना ही है। 2020 में अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (आईईए) ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की और बताया कि भारत उन कुछ देशों में शामिल है जहां स्टील उत्पादन में वृद्धि होनी है। कच्चे इस्पात का उत्पादन 2019 में 11.1 करोड़ टन से बढ़कर 2030 में 18 करोड़ टन हो जाने का अनुमान है। वहीं 2050 में 35 करोड़ टन उत्पादन होने की संभावना है। उक्त रिपोर्ट में भविष्यवाणी की गयी है।
हालांकि, जब कार्बन उत्सर्जन को कम करने या ग्लोबल वार्मिंग जैसी चिंताएं सामने आती हैं तो इस क्षेत्र की चमक फीकी पड़ने लगती है। इस्पात मंत्रालय की अतिरिक्त सचिव रसिका चौबे ने 2021 में भारतीय वाणिज्य एवं उद्योग महासंघ (फिक्की) द्वारा आयोजित एक वेबिनार में बोलते हुए इस तथ्य को स्वीकार किया था।
यही चिंता तब भी दिखी जब टाटा स्टील जैसी बड़ी कंपनी के प्रबंध निदेशक टीवी नरेन्द्रन ने मुखर होकर कहा कि भारत में स्क्रैप और गैस की कमी है। इस कमी की वजह से स्टील बनाने वाली कंपनियां लौह अयस्क पर निर्भर हैं। स्क्रैप से तात्पर्य पुराने स्टील के कचरे से है जिसका इस्तेमाल पहले हो चुका है।
हालांकि, कार्लटन यूनिवर्सिटी, कनाडा में स्कूल ऑफ पब्लिक पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन में एसोसिएट प्रोफेसर, एलेक्जेंड्रा मैलेट ने एक दूसरे संकट की तरफ इशारा किया। मोंगाबे-हिन्दी के सवालों के जवाब में वह कहती हैं, “भारत में ‘ग्रीन स्टील’ को लेकर पर्याप्त मांग नहीं है।” स्क्रैप के साथ अधिकतम गैस या नवीकरणीय ऊर्जा का उपयोग करने से ‘ग्रीन स्टील’ के उत्पादन में मदद मिलती है। क्योंकि इसमें कार्बन उत्सर्जन कम होता है।
स्टील उद्योग से कार्बन उत्सर्जन अधिक होता है
2020 में प्रकाशित अपनी आयरन एंड स्टील टेक्नोलॉजी रोड मैप रिपोर्ट में, अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी ने बताया कि भारत के औद्योगिक ऊर्जा खपत का पांचवा हिस्सा लौह और इस्पात क्षेत्र के खाते में जाता है। वहीं औद्योगिक क्षेत्र से होने वाले कुल कार्बन उत्सर्जन का लगभग एक तिहाई, इसी क्षेत्र से होता है।
मोंगाबे-हिन्दी के एक सवाल के जवाब में, एलेक्जेंड्रा मैलेट ने भारत में इस्पात उद्योग की कुछ इस तरह व्याख्या की। वह कहती हैं, “अन्य स्टील उत्पादक देशों के मुकाबले भारत इसलिए अलग है क्योंकि यहां कोयले पर निर्भरता काफी अधिक है। दूसरे, यहां स्क्रैप का इस्तेमाल भी बहुत कम होता है। इसलिए कच्चे माल के बतौर लौह अयस्क पर निर्भरता काफी अधिक है।” द एनर्जी एंड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट (टीईआरआई) के प्रोसेंटो पाल के साथ, एलेक्जेंड्रा मैलेट ने पिछले दिसंबर में संक्षिप्त पॉलिसी ब्रीफ़ प्रकाशित किया था।
कोयले पर निर्भरता और स्क्रैप का कम इस्तेमाल होना एक बड़ी चुनौती है। इसके अलावा, भारतीय इस्पात उद्योग की अन्य विशेषताएं भी हैं। जैसे स्टील उत्पादन में कई छोटी-बड़ी कंपनियां सक्रिय हैं और विभिन्न तकनीकी का इस्तेमाल करती हैं। कुछ ऐसी भी तकनीकी का इस्तेमाल होता है जो बहुत पुरानी हो चुकी हैं। इनके इस्तेमाल से अधिक प्रदूषण होता है।
भारतीय इस्पात क्षेत्र का एक और चिंताजनक पहलू यह है कि इनपुट के रूप में उपयोग किए जाने वाले स्क्रैप का अनुपात बहुत कम है।
बावजूद इसके, फरवरी में संसद में सवालों के जवाब में, केन्द्रीय इस्पात मंत्री राम चंद्र प्रसाद सिंह ने कहा कि पिछले कुछ वर्षों में भारतीय इस्पात उद्योग ने अपनी ऊर्जा खपत और कार्बन उत्सर्जन में काफी कमी की है। भारतीय इस्पात उद्योग की औसत कार्बन उत्सर्जन तीव्रता 2005 में लगभग 3.1 टन प्रति टन कच्चे स्टील (T/tcs) से घटकर 2020 तक लगभग 2.6 T/tcs हो गई है। कार्बन उत्सर्जन को मापने के लिए टन प्रति टन क्रूड स्टील (T/tcs) इकाई का इस्तेमाल होता है, जिसका मतलब हुआ कि एक टन कच्चा स्टील उत्पादन में पूरे प्लांट से कार्बन की कितनी मात्रा उत्सर्जित हुई।
केन्द्रीय मंत्री ने बताया कि ऊर्जा दक्षता को लेकर चलाई गयी सरकार की योजना- प्रदर्शन, उपलब्धि और व्यापार (पीएटी) में इस्पात क्षेत्र ने हमेशा अपने लक्ष्य हासिल किए हैं। 2012 से 2020 तक, पीएटी के तीन चक्र पूरे हो चुके हैं। पीएटी, राष्ट्रीय संवर्धित ऊर्जा दक्षता मिशन (एनएमईईई) के तहत एक प्रमुख योजना है।
पीएटी ऊर्जा दक्षता बढ़ाने के लिए एक बाजार आधारित तंत्र है। इसके तहत सरकार ऊर्जा बचत के लक्ष्य निर्धारित करती है और कंपनियों को उन्हें हासिल करना होता है।
स्टील खपत बढ़ाने के साथ करना है उत्सर्जन में कमी
नब्बे के दशक में उदारीकरण के बाद से, भारतीय अर्थव्यवस्था का विकास उल्लेखनीय रहा है। ऐसा ही विकास भारत में स्टील खपत में भी देखने को मिलता है। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि बढ़ती अर्थव्यवस्था के ढांचे को एक साथ जोड़े रखने का काम स्टील की मदद से ही होता है। 1991-92 में, भारत की कुल इस्पात खपत केवल 1.483 करोड़ टन थी। इसमें सात गुना वृद्धि दर्ज हुई और 2019-20 में 10.017 करोड़ टन पर पहुंच गई। इसी अवधि में, भारतीय अर्थव्यवस्था नौ गुना बढ़ी। इससे यह जाहिर होता है कि अर्थव्यवस्था का विकास और स्टील की खपत कैसे आपस में जुड़ी है।
इस वृद्धि के बावजूद, भारत में प्रति व्यक्ति इस्पात खपत चिंता का विषय है। 2019-20 में, भारत की प्रति व्यक्ति स्टील खपत 74.7 किलोग्राम थी। वहीं 2020 में वैश्विक प्रति व्यक्ति स्टील खपत 230 किलोग्राम रही। इसके मुकाबले भारत में स्टील की प्रति व्यक्ति खपत काफी कम है।
भारत में भी ग्रामीण और शहरी इलाकों में ऐसी ही खाई देखने को मिलती है। 2020-21 में ग्रामीण क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति स्टील की खपत सिर्फ 21.5 किलोग्राम थी वहीं जबकि शहरी क्षेत्रों में 176 किलोग्राम थी।
भारत में नीति निर्माताओं के लिए यह एक अजीबोगरीब स्थिति है। एक तरफ, देश अपनी प्रति व्यक्ति इस्पात खपत बढ़ाने के लिए संघर्षरत है तो दूसरी तरफ, यह इस क्षेत्र से होने वाले कार्बन उत्सर्जन को कम करने का भी दबाव है।
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इस्पात मंत्री ने दिसंबर में लोकसभा में ये जानकारी दी। उन्होंने कहा कि उनका मंत्रालय ग्रामीण क्षेत्रों में स्टील के उपयोग को लेकर जागरूकता बढ़ाने के लिए ग्रामीण विकास मंत्रालय और कृषि मंत्रालय के साथ मिलकर काम कर रहा है। गृह निर्माण में स्टील के इस्तेमाल को लेकर केंद्र ने एक संयुक्त कार्य समूह (जेडब्ल्यूजी) का भी गठन किया है। स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड (सेल) और राष्ट्रीय इस्पात निगम लिमिटेड (आरआईएनएल) जैसी सार्वजनिक क्षेत्र की स्टील कंपनियां ग्रामीण जनता के साथ जुड़ने और उन्हें स्टील का उपयोग करने के फायदे समझाने की कोशिश कर रही हैं।
इस बीच, सरकार जलवायु परिवर्तन जैसी वैश्विक चुनौतियों का सामना करने के लिए कई नीतिगत हस्तक्षेप भी कर रही है।
एक दशक पहले, तत्कालीन योजना आयोग ने समावेशी विकास के अनुरूप कम कार्बन उत्सर्जन के रास्तों को अपनाने का सुझाव देने के लिए एक विशेषज्ञ समूह का गठन किया था। डॉ. किरीत पारिख की अध्यक्षता में, समूह ने 2014 में अपनी अंतिम रिपोर्ट प्रस्तुत की जिसमें इस्पात क्षेत्र को काफी तवज्जोह दी गयी।
इसके बाद राष्ट्रीय इस्पात नीति-2017 जारी की गई। इस नीति यह अनुमान लगाया गया कि भारत की इस्पात उत्पादन क्षमता 2030 तक 30 करोड़ टन तक पहुंच जाएगी। इसके अतिरिक्त इसमें यह भी कहा गया कि देश में प्रति व्यक्ति स्टील की खपत 160 किलोग्राम तक चली जाएगी। 2030-31 तक औसत कार्बन उत्सर्जन तीव्रता को भी लगभग 2.4 t / tcs तक कम करने की बात की गयी है।
2019 में, सरकार ने स्टील स्क्रैप रीसाइक्लिंग नीति को अधिसूचित किया। इसमें देश में जगह जगह मेटल स्क्रैपिंग सेंटर खोलने की बात की गयी। हालांकि, जब दो सांसद जयंत सिन्हा और केसिनेनी श्रीनिवास ने जुलाई 2021 में लोकसभा में इस नीति की उपलब्धियों को लेकर सवाल पूछा तो मंत्री ने बस इतना कहा कि स्क्रैप केंद्र स्थापित करने का निर्णय उद्यमियों को लेना है।
अब, सरकार हाल ही में देश में ग्रीन हाइड्रोजन के उपयोग को बढ़ावा देने के लिए ग्रीन हाइड्रोजन मिशन लेकर आई है। इसमें लोहा और इस्पात क्षेत्र की बड़ी भूमिका रहने वाली है। वैश्विक स्तर पर, उत्सर्जन को कम करने के उद्देश्य से स्टील का उत्पादन करने के लिए ग्रीन हाइड्रोजन पर बहुत अधिक ध्यान दिया जा रहा है।
जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कॉप 26 में नेट जीरो हासिल करने की घोषणा की, इसके बाद स्टील एसोसिएशन ऑफ इंडिया (साई) ने सरकार को कुछ नीतियां सुझाई। इनके अनुसार इन नीतियों की मदद से देश में ग्रीन स्टील को प्रोत्साहित किया जा सकता है। इसमें ग्रीन स्टील की सार्वजनिक खरीद, ग्रीन स्टील के लिए मानकों की शुरूआत और बहुत कुछ शामिल है।
घरेलू इस्पात उत्पादन में वृद्धि होना ही है। इसका जिक्र 2017 की राष्ट्रीय इस्पात नीति में भी किया गया है। यह स्वाभाविक है क्योंकि स्टील उत्पादन वहीं होता है जहां इसकी मांग अधिक होती है। इसे देखते हुए अगर सरकार वास्तव में कार्बन उत्सर्जन को कम करना चाहती है तो इसके तरीकों पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है, एलेक्जेंड्रा मैलेट कहती हैं।
वह आने वाले भविष्य की एक और संभावित चुनौती को रेखांकित करती है- एनर्जी ट्रांजिशन का सामाजिक निहितार्थ। भारत में, इस्पात उत्पादन कुछ क्षेत्र तक ही सीमित है। भारत के इस स्टील बेल्ट में ओडिशा, पश्चिम बंगाल, झारखंड और छत्तीसगढ़ राज्य शामिल हैं। यह क्षेत्र में जो भी विकास हुआ है वह लौह अयस्क और कुछ हद तक कोयले के भंडार के साथ-साथ बंदरगाहों के कारण ही हुआ है। इसलिए, भारत में पारंपरिक स्टील बनाने की प्रक्रियाओं से दूरी इन क्षेत्रों के लिए भारी पड़ सकता है।
इसे विडंबना कहें या कुछ और, पर अब तक के एनर्जी ट्रांजिशन की दौड़ में यही राज्य है जो पिछड़ रहे हैं।
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बैनर तस्वीरः औद्योगिक क्षेत्र से होने वाले कुल कार्बन उत्सर्जन का लगभग एक तिहाई लौह और इस्पात क्षेत्र से होता है। तस्वीर– जॉन ब्यूफोर्ट/Publicdomainpictures.net