- गुजरात सोलर पार्क भारत का पहला यूटिलिटी-स्केल सौर ऊर्जा पार्क है जो इस बात का जीता-जागता उदाहरण है कि अगर अक्षय ऊर्जा का विकास सही तरीके से नहीं किया गया तो यह पर्यावरण को नुकसान पहुंचा सकता है।
- उत्पादन शुरू होने के 10 साल बाद भी परियोजना स्थल चारणका के लोग साफ पेयजल, मुफ्त बिजली और सिंचाई के लिए मोहताज हैं।
- वादा 1,000 स्थायी नौकरियों का था लेकिन गांव के केवल 60 लोगों को सुरक्षा गार्ड, घास कटाई और पैनल धोने के काम पर रखा गया है। महिलाओं के लिए नौकरियों की कोई गुंजाइश नहीं है। इसके चलते भूमिहीन और वैसे परिवार जिनके घर में काम करने के लिए पुरुष नहीं हैं, के लिए जीवन-यापन का संकट और बढ़ गया है।
“आपको बारिश के दिनों में यहां आना चाहिए था। तब आपको पता चलता कि हमारी गौचर (चराई भूमि) कितनी बड़ी थी।” गुजरात में रहने वाली 60 साल की नानू रबारी ये कहते हुए कहीं खो जाती हैं। वो गंडो बावल (पागल वृक्ष) पेड़ की फलियां तोड़ रही थी ताकि दूध देने वाली अपनी अकेली भैंस का पेट भर सके। रबारी भारत-पाकिस्तान सीमा के पास एक शांत गांव चारणका में रहती हैं। 10 साल पहले यह गांव अचानक सुर्खियों में आ गया था। तब यहां एशिया का सबसे बड़ा सौर ऊर्जा पार्क बना था। पाटन जिले के इस गांव में गुजरात सोलर पार्क (जीएसपी) रोजगार और विकास के वादे के साथ आया था। लेकिन रबारी की चराई की जमीन के साथ इसने पहले से ही सूखा झेल रहे गांव की उन जगहों को भी छीन लिया जहां से उसे पानी मिलता था।
जीएसपी में छत्तीस कंपनियां काम करती हैं। 5,384 एकड़ (2,178.82 हेक्टेयर) में फैले इस पार्क से 730 मेगावाट सौर ऊर्जा पैदा होती है। वहीं 20 मेगावाट की परियोजनाएं शुरू होने वाली हैं। इसमें 15 मेगावाट की एक परियोजना का गांव वाले विरोध कर रहे हैं।
सौर पार्क के लिए काम 30 दिसंबर, 2010 को शुरू हुआ था और एक साल के भीतर यहां बिजली उत्पादन होने लगा। हालांकि चारणका में घुसते ही आपका सामना उबड़-खाबड़ सड़क और खुली नालियों से होता है। यह दृश्य एक “विश्वस्तरीय” परियोजना के ठीक उलट है, जिसका प्रचार गुजरात पावर कॉर्पोरेशन लिमिटेड (जीपीसीएल) करता है।
गुजरात के पाटन जिले में बना यह पार्क 5,384 एकड़ में फैला है। मैप- टेक्नोलॉजी फॉर वाइल्डलाइफ
सरकारी बंजर भूमि के दो एकड़ पर चारे की खेती करने वाली नानू ने मोंगाबे-हिन्दी से कहा, “अगर सरकार हमारे बारे में इतनी ही चिंतित थी तो उसे हमें सोलर पार्क की जगह नहर देनी चाहिए थी। हमारे लिए पार्क का कोई उपयोग नहीं है। न तो यह हमारा पेट भरता है और न ही हमारे मवेशियों का।” इस जमीन को अब जीएसपी ने अपने कब्जे में ले लिया है। उन्होंने कहा, “सिंचाई का मतलब होता बेहतर फसल और चारा खरीदने पर कम खर्च।”
नानू की सात बेटियां हैं। उन्हें तीन साल पहले अपनी 150 भेड़ें और एक ऊंट बेचना पड़ा था, क्योंकि उनकी हरी गौचर की जगह पर अब भूरे रंग के सौर पैनल खड़े हैं।
वो घर चलाने के लिए कई जगहों से पैसे जुटाती हैं – एक बेटी आशा वर्कर है, जिसे हर महीने 2000 रुपए मानदेय मिलता है। एक और बेटी गैर सरकारी संगठन में फ्रंटलाइन कार्यकर्ता है। वो हर महीने 3,500 रुपए कमाती है। वहीं भैंस का दूध बेचने से महज चारे का खर्चा निकलता है। एक छोटी सी दुकान भी है, जहां वो बिस्कुट, चिप्स और कैंडी बेचती है। उन्होंने कहा, “कोविड महामारी में स्कूल बंद हो गए, इसलिए वहां (दुकान) से भी कमाई नहीं होती है।”
बाईस साल की उनकी बेटी माटू रबारी जिला मुख्यालय पाटन पढ़ने गई थी जो घर से 130 किलोमीटर दूर है। स्नातक तक की पढ़ाई करने वाली माटू कहती है “वहां रबारी लड़कियों के लिए एक छात्रावास है इसलिए वहां गई। इस उम्मीद में कि मुझे घर के पास ही सोलर पार्क में नौकरी मिल जाएगी। लेकिन यहां लड़कियों के लिए कोई काम नहीं है। पहले हम महीने में 1-2 बार घास काटने जाते थे। 300 रुपए दिहाड़ी मिलती थी। लेकिन अब वह काम भी नहीं है।” यहां कंपनियों में नौकरियां उप-ठेकेदारों के मार्फत ही मिलती हैं।
स्थानीय लोगों की मानें तो सोलर पार्क महिलाओं के लिए दोहरी मुसीबत लेकर आया है। एक तो उन्हें कंपनियों में नौकरी नहीं मिली, वहीं कृषि में रोजगार के अवसर भी कम हो गए। माटू ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया, “पहले भूमिहीन दूसरों के खेतों में काम करके थोड़ा-बहुत कमा लेते थे, लेकिन पार्क में जमीन जाने से यह संभावना भी कम हो गई है।”
सोलर पार्क आने से पहले चारणका एक चौरण (विशाल चारागाह) था। पशुपालकों के लिए काम करने वाले अहमदाबाद स्थित गैर-लाभकारी संगठन मालधारी रूरल एक्शन ग्रुप (एमएआरएजी) की नीता पंड्या के अनुसार, मालधारी (पशुपालक) कॉमंस (वो जगह जहां सभी अपने मवेशी चराते हैं) के विचार में विश्वास करते थे और उनके पास कभी भी बड़े हिस्से का स्वामित्व नहीं था। इस विचार की कीमत उन्हें चुकानी पड़ रही है।
पांड्या ने कहा, “जब उन्होंने जीएसपी के बारे में सुना तो कई लोगों ने ट्रैक्टर खरीदने के लिए अपने मवेशी बेच दिए। इससे पार्क के निर्माण के दौरान उन्हें कमाई हुई। लेकिन इसके बाद गरीबी के कारण कमाने के लिए पलायन करना पड़ा।” वो बताते हैं कि चारणका में 160 मालधारी परिवारों में से महज 10 के पास ही अब मवेशी बचे हैं।
अधूरे वादे
जब अप्रैल 2012 में गुजरात सोलर पार्क देश को समर्पित किया गया, तब गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने घोषणा की थी कि चारणका में मोढेरा सूर्य मंदिर की तर्ज पर ‘सूर्य तीर्थ’ और एक पिकनिक स्थल बनाया जाएगा। उन्होंने घोषणा की थी, “जीएसपी नया सूर्य मंदिर होगा, जिसमें सौर पैनलों के निर्माण के साथ रोजगार के 30,000 अवसर पैदा होंगे।”
चारणका के सरपंच (ग्राम प्रधान) सुमेरसिंह जडेजा ने कहा, “मोदीजी ने आठवीं से बारहवीं कक्षा तक एक स्कूल, एक अस्पताल, पीने का पानी और गांव को मुफ्त बिजली देने का वादा भी किया था।
जडेजा ने सोलर पार्क की ओर इशारा करते हुए मोंगाबे-हिन्दी को बताया, “जिन कंपनियों ने 2011-12 में यहां संयंत्र स्थापित किया था, वे आज भी 15 रुपये प्रति यूनिट की दर से बिजली बेच रही हैं। इस तरह ये कंपनियां प्रति दिन पैदा होने वाली एक मेगावाट बिजली पर 75,000 रुपए कमा रही हैं। इस भारी-भरकम मुनाफ़े से वे गांव में कुछ सुविधाएं दे सकती थीं। हालांकि जीपीसीएल का कहना है कि उन्होंने पाटन में कलेक्टर कार्यालय को सामाजिक उत्तरदायित्व (सीएसआर) के तहत 50 लाख रुपए दिए हैं। लेकिन आज तक हमारे हिस्से में कुछ भी नहीं आया है।”
मुफ़्त बिजली, पीने का पानी, परिवहन और स्कूल- ये सब वादे मौखिक किए गए थे और आज भी लोगों को इन वादों का इंतजार है। लेकिन ऐसा लगता है कि किसी को जवाबदेह ठहराने के लिए कोई लिखित रिकॉर्ड नहीं है। हालांकि, गांव के लोग उन सभी वादों पर नज़र रखे हुए हैं जो पूरे नहीं हुए हैं।
चारणका निवासी सामी बेन (बदला हुआ नाम) ने कहा, “पार्क से गांव तक बिजली की लाइन है। लेकिन मुफ़्त बिजली के बजाय बिजली बिल हाल के सालों में ही बढ़ा है। पहले यह 500-1000 रुपए था जो अब बढ़कर 2,500 रुपए तक पहुंच गया है।”
वो कहती हैं कि पेयजल आपूर्ति एक और अधूरा वादा है। सामी बेन ने कहा, “सरकारी आपूर्ति 5-7 दिनों में एक बार होती है और तब हम अपने 500 या 1,000 लीटर के टैंक भरते हैं। ज्यादा जरूरत पड़ी तो 1000 रुपये प्रति टैंकर के हिसाब से पानी खरीदना पड़ता है। ये टैंकर पास के फांगली गांव से आते हैं। यहां हमेशा पानी की कमी थी लेकिन कंपनी के आने से हमें कम से कम पीने के साफ पानी की उम्मीद थी।”
सामी के आरोपों की ताकीद पीएलजी फोटोवोल्टिक प्राइवेट लिमिटेड का बिना पाइपलाइन वाला एक परब (सार्वजनिक पेयजल स्टॉल) करता है। यह गांव में सीएसआर के तहत काम नहीं होने का सबसे बड़ा प्रमाण भी है।
जीपीसीएल के एक अधिकारी से जब पानी आपूर्ति के वादों के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि गांव के लिए एक आरओ सिस्टम लगाने की योजना बनाई गई थी लेकिन वन विभाग ने पहले ही ये काम कर दिया है। उन्होंने नाम न छापने की शर्त पर मोंगाबे-हिन्दी को बताया, “इसलिए हमने इसे रोक दिया है। हमने महसूस किया कि पंचायत इस व्यवस्था को चलाने में सक्षम नहीं है। इसलिए हमने नया आरओ सिस्टम लगाने का फैसला टाल दिया।”
एक और वादा है 12वीं कक्षा तक एक स्कूल। वह भी अब तक अधूरा है। चारणका में एकमात्र स्कूल आठवीं तक है और 20 किलोमीटर दूर सांतलपुर शहर तक परिवहन की कमी के चलते (चारणका से सांतलपुर के लिए एक दिन में तीन बसें चलाना वादे का हिस्सा था) ज्यादातर बच्चे खासकर लड़कियां स्कूल छोड़ने के लिए मजबूर हैं।
राजपूत समुदाय से ताल्लुक रखने वाली अंजलि (बदला हुआ नाम) कक्षा 8 से आगे की पढ़ाई नहीं कर सकी। उसने आरोप लगाया कि लड़कियों को अकेले गांव से बाहर जाने की अनुमति नहीं है। अंजलि ने मोंगाबे-हिन्दी से कहा, “अगर कंपनी ने 12वीं कक्षा तक स्कूल बनाने का अपना वादा पूरा किया होता तो आगे की शिक्षा का मेरा सपना नहीं टूटता।”
जीपीसीएल के अधिकारी ने कहा, “मैंने उपरोक्त वादों का कोई लिखित रिकॉर्ड नहीं देखा है। हालांकि, हमने गांव में एंबुलेंस और फायर ब्रिगेड के लिए टेंडर कर दिया है। यहां जल्द ही ये दोनों सुविधाएं उपलब्ध होंगी।”
जमीन सौदों ने किसानों को बनाया अमीर?
जीपीसीएल की वेबसाइट की मानें तो जीएसपी 5,384 एकड़ (2,178.82 हेक्टेयर) ‘बंजर’ भूमि पर बना है लेकिन इस दावे पर आसानी से सवाल उठाया जा सकता है। मोंगाबे-हिन्दी के पास उपलब्ध जीएसपी का नक्शा दिखाता है कि गांव से लगभग 1,900 एकड़ (768 हेक्टेयर) निजी भूमि का अधिग्रहण किया गया था, 207 एकड़ (84 हेक्टेयर) चराई भूमि थी और बाकी सरकारी बंजर भूमि। लेकिन चारणका में लगभग आधे परिवारों ने अपनी जमीन बेचकर जीएसपी से मोटी कमाई की।
चारणका डेयरी सहकारी के सचिव शंभू दान गढ़वी ने कहा कि साल 2011 में जीपीसीएल ने 6,90,000 रुपए प्रति एकड़ की दर से भुगतान किया। हालांकि, सब जमीन मालिक किस्मत के धनी नहीं थे। उदाहरण के लिए लीलाभाई रबारी के पास 10 एकड़ जमीन थी। कुछ लोगों ने 2010 में उनसे संपर्क किया और कहा कि इसे बेच दो नहीं तो सरकार अधिग्रहण कर लेगी। लीलाभाई ने बताया, “मुझे मेरी जमीन के लिए केवल 4, 00,000 रुपए मिले (10 एकड़ के लिए 50,000 प्रति एकड़ से कम)। इस पर मैं चारा और अरंडी उगाती थी। ये रकम घरेलू खर्चों को पूरा करने में खर्च हो गई।”
जडेजा का कहना है कि चारणका में साल 2006 तक जमीन की कीमत 20,000-30,000 रुपए प्रति एकड़ से ज्यादा नहीं थी। लेकिन अचानक 2009 में अहमदाबाद के व्यापारियों के साथ ही बहुत सारे बाहरी लोग गांव में जमीन खरीदने आने लगे। उन्होंने कहा, “अनपढ़ ग्रामीणों से कहा गया कि चूंकि यह जमीन खारी है, वे इससे अधिक कमाई कभी नहीं कर पाएंगे। उन्होंने लोगों से कहा कि वे जमीन बेच दें या फिर सरकार इसका अधिग्रहण कर लेगी। मैंने खुद 10 एकड़ जमीन 40,000 रुपए प्रति एकड़ की दर से बेची, क्योंकि मुझे अपने पिता के लिए अस्पताल के बिलों का भुगतान करना था।”
पास के रोजू गांव के मेरो रबारी ने कहा कि उनका भाई एक ऐसा बिचौलिया था, जिसने इन जमीन के सौदों से कमाई की थी। मेरो ने कहा, “2011 में उसने ग्रामीणों से 100,000 रुपये प्रति एकड़ की दर से जमीन खरीदी और फिर इसे दोगुनी या तिगुनी कीमत पर बेच दिया। लेकिन वह पैसा जल्द ही खत्म हो गया क्योंकि उसने एक गाड़ी खरीद ली थी। उसने इस पर सैर-सपाटा करने में सब कुछ स्वाहा कर दिया। अब वह किसी और के खेतों में मजदूरी करता है।”
कुछ अन्य लोगों ने आरोप लगाया कि अचानक आए पैसों से ग्रामीणों ने कार खरीद ली, जबकि उन्हें चलाने के लिए सड़कें नहीं थीं। जिन लोगों के पास पक्का घर नहीं था उन्होंने घर बना लिया और कुछ ने आस-पास के इलाकों में जमीन खरीद ली।
लेकिन, आजीविका के मामले में ग्रामीणों को कोई फायदा नहीं हुआ। उद्घाटन के समय पार्क से 30,000 नौकरियां पैदा होने की घोषणा की गई थी, लेकिन आज गांव के महज 60 लोग सुरक्षा गार्ड, तकनीशियन, घास कटाई और पैनल धोने का काम करते हैं। सुरक्षा गार्ड 7,000-12,000 रुपये प्रति माह की आमदनी से असंतुष्ट हैं। इसमें पीएफ भी नहीं है। यही नहीं सरकार की ओर से तय आठ घंटे की जगह 12 घंटे काम करना पड़ता है। दरअसल, कंपनियों ने सुरक्षा एजेंसियों को काम पर रखा है। इन एजेंसियों ने चारणका में लोगों की भर्ती की है। ये एजेंसियां अपना खर्चा निकालने के लिए सुरक्षा गार्डों को ठीक से भुगतान भी नहीं करती हैं, जिससे गांव के लोगों में दरार पैदा हो रही है।
भारत हेवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड के एक संयंत्र में पैनल धोने वाले मेघराज रबारी को प्रति पैनल महज 17 पैसै मिलते हैं। वो कहते हैं, “मैं 5 मेगावाट के संयंत्र में पैनल धोता हूं, जिसका मतलब है कि महीने में तीन बार 20,000 से अधिक पैनल धोना, और इससे मुझे मिलते हैं सिर्फ 10,000 रुपए।”
नॉर्दर्न मिशिगन यूनिवर्सिटी के रयान स्टॉक के एक अध्ययन के मुताबिक जीएसपी में स्थायी कर्मचारी के रूप में काम करने वाले 1,000 लोगों में से अधिकांश “एडवांस डिग्री और तकनीकी कौशल वाले गैर-स्थानीय पुरुष हैं।” स्टॉक का पेपर गुजरात सोलर पार्क में बिजली और पानी के बुनियादी ढांचे के माध्यम से अन्याय और असमानता के बारे में बताता है।
चराई भूमि तक पहुंच
गांव वालों का दावा है कि गुजरात सोलर पार्क पूरी तरह से उनकी चराई वाली जमीन पर बना है। लेकिन सरकारी रिकॉर्ड के अनुसार अधिसूचित गौचर क्षेत्र सिर्फ 207 एकड़ (84 हेक्टेयर) है।
चारणका के पूर्व सरपंच राघव दान गढ़वी ने कहा, “जिला निरीक्षक भूमि रिकॉर्ड (डीएलआईआर) कार्यालय द्वारा गौचर के स्थान को स्पष्ट रूप से चिन्हित नहीं किया गया है। गौचर की वर्तमान सर्वेक्षण संख्या 152, जीएसपी में संलग्न है। इस कारण मालधारियों के लिए यहां तक पहुंचना मुश्किल हो जाता है।”
अब चूंकि गांव की चराई की जमीन पार्क के अंदर चली गई है, इसलिए ग्रामीणों की मांग है कि गांव के पास जमीन का एक टुकड़ा गौचर के लिए दिया जाए।
हालांकि, रिकॉर्ड में भूमि को जीपीसीएल के स्वामित्व के रूप में चिह्नित किया गया है, इसलिए इसे गौचर के लिए स्थानांतरित नहीं किया जा सकता। जीपीसीएल के अधिकारी ने कहा, “गांव के अनुरोध पर हमने भूमि उपयोग में बदलाव के लिए आवेदन करते हुए पाटन कलेक्टर को चिट्ठी भेजी लेकिन जवाब आया कि यह संभव नहीं है।”
तस्वीरें- रवलीन कौर/मोंगाबे
ब्रिटेन में यूनिवर्सिटी ऑफ एक्सेटर में पीएचडी स्कॉलर सिद्धार्थ डाबी कहते हैं कि बंजर भूमि और घास के मैदान के बीच की सीमाएं स्पष्ट नहीं हैं। डाबी ने मोंगाबे-इंडिया को बताया, “बंजर भूमि’ उस भूमि के लिए विरासत में मिला एक ब्रिटिश शब्द है, जिससे वे उस समय महारानी के लिए राजस्व नहीं जुटा पाते थे। दुर्भाग्य से, स्वतंत्र भारत की सरकार ने भी इस शब्द को बरकरार रखा। पशुधन चराई के लिए महत्वपूर्ण भूमि को बंजर के रूप में रखा गया और अब इसे सभी प्रकार की परियोजनाओं के लिए अधिग्रहित किया जा रहा है।” डाबी कच्छ में पवन चक्कियों को ध्यान में रखकर यह पता लगा रहे हैं कि अक्षय ऊर्जा का पारिस्थितिकी पर क्या असर पड़ रहा है।
मोंगाबे-हिन्दी ने पाटन कलेक्टर सुप्रीत सिंह गुलाटी और जीपीसीएल के मुख्य परियोजना अधिकारी राजेंद्र मिस्त्री से संपर्क किया, लेकिन उनका पक्ष जानने में सफलता नहीं मिली।
सोलर पार्क से लोगों की पहुंच से दूर हो गए पोखर-तालाब
जैसे ही कोई चारणका से जीएसपी की सीमा के बाद बसे फांगली गांव की ओर जाता है, हरे-भरे खेत चारणका की अरंडी की फसल से अलग कहानी बताते हैं। नर्मदा बांध नेटवर्क की कच्छ शाखा नहर फांगली तक आती है जहां से इसे दूसरे गांव पाटणका की ओर मोड़ दिया जाता है।
चारणका के लोग मानते हैं कि नहर को इसलिए मोड़ दिया गया क्योंकि यह सौर पार्क वाली जगह से गुजर रही थी। चारणका में रहने वाले भरत दान गढ़वी ने दावा किया, “जब 2005 में योजना को मंजूरी दी गई थी, तब नहर को चारणका में आना था। लेकिन सिर्फ हम ही नहीं चारणका के बाद के सात गांव भी इस कीमती पानी की आपूर्ति से चूक गए।”
गांव के प्रतिनिधियों ने राज्य सरकार से अपने जलाशयों को भरने के लिए नहर से पाइपलाइन डालने की अपील की है। सरदार सरोवर नर्मदा निगम लिमिटेड (एसएसएनएल) ने कहा कि पाइपलाइन परियोजना बन सकती है कि नहीं, इसका अध्ययन चल रहा है। एसएसएनएल के निदेशक वीपी कपाड़िया ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया, “कच्छ शाखा नहर के लिए काम करने का आदेश 2005 में आया था, लेकिन एसएसएनएल को चारणका में इसे आगे बढ़ाने में टोपोग्राफिकल चुनौतियों का सामना करना पड़ा। यहां की लहरदार टोपोग्राफी 9 से 30 मीटर तक अलग-अलग है। गुरुत्वाकर्षण नौ मीटर से 30 मीटर तक पानी उठाने की अनुमति नहीं देता है इसलिए डिजाइनरों ने नहर को मोड़ने पर विचार किया।”
चरणका गांव में पांच जलाशय थे। एक गांव के अंदर और चार सरकारी बंजर भूमि पर। इन्हें अब पार्क ने अपने कब्जे में ले लिया है। 30 एकड़ का सैयनिया बांध पार्क की सीमा के अंदर आ गया। पिछले साल गौचर बचाने के लिए आंदोलन की अगुवाई करने वाले वीरम कंठड रबारी ने वो इलाका दिखाते हुए मोंगाबे-हिन्दी को बताया, “अब जबकि तीन तरफ ऊंची चारदीवारी है, जानवर वहां पानी नहीं पी सकते। जिस जमीन को वे अब चारागाह कह रहे हैं, वह पहले खेती योग्य थी। जहां लोग सैयानिया से पंपों के जरिए पानी उठाकर जीरा उगाते थे। अब यहां केवल गंडो बावल उगता है।”
हालांकि, जीपीसीएल के अधिकारी ने दावा किया कि जीएसपी के आने से पहले सैयानिया बारिश के पानी को जमा करने के लिए सिर्फ एक खेत तालौरी (छोटा तालाब) था। उन्होंने कहा, “पार्क के रण के करीब होने के कारण धूल से भरी हवाएं हर समय चलती हैं और हमें अधिकतम बिजली उत्पादन के लिए अक्सर पैनलों को धोना पड़ता है। हमने तालाब को गहरा किया और उसे बड़े जलाशय के रूप में विकसित किया जो आज दिख रहा है।”
स्टॉक ने अपने पेपर में कहा है, “गुजरात सोलर पार्क को हर दो हफ्ते में सौर पैनलों को साफ करने के लिए करीब 64 क्यूबिक मीटर पानी की आवश्यकता होती है जो कि इस सूखे इलाके में बहुत ज़्यादा है।”
वीरम ने आरोप लगाया कि जीपीसीएल ने एक और तालाब, दाना बांध को पाट दिया। इस पर एक और कंपनी ने सौर ऊर्जा परियोजना (36 कंपनियों में से एक) शुरू की । जिस भूमि पर 15 मेगावाट (एक अन्य परियोजना) प्रस्तावित है, वहां दो और तालाब हैं।
चारणका के पूर्व सरपंच राघव दान ने कहा, “17 फरवरी, 2022 के गुजरात उच्च न्यायालय के आदेश के अनुसार, सरकार को औद्योगीकरण के नाम पर जल निकायों को खत्म करने की बजाए उन्हें बनाए रखना चाहिए। हम सभी जीपीसीएल से कह रहे हैं कि इस गौचर और तालाब को रहने दिया जाए ताकि गांव वालों को कुछ राहत मिले।”
स्टॉक के शोध पत्र में कहा गया है, “कृषि क्षेत्रों में बन रहे भारत के लगभग 94% सौर पार्कों के लिए निकट भविष्य में मध्यम से बड़े स्तर वाली पानी की समस्या पैदा होगी जो सौर ऊर्जा के साथ-साथ शुष्क भूमि पर खेती करने की कोशिश को और अधिक खतरे में डालेगी।”
मोंगाबे-हिन्दी से बात करने वाले जीपीसीएल कर्मचारी ने जवाब दिया कि वे तालाब को संरक्षित और बनाए रखना चाहते हैं। उनके मुताबिक चारणका पंचायत को ये बातें लिखित में देने के लिए कहा था लेकिन अब तक कुछ भी नहीं मिला है।
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बैनर तस्वीरः उद्घाटन के समय पार्क से 30,000 नौकरियां पैदा होने की घोषणा की गई थी, लेकिन आज गांव के महज 60 लोग सुरक्षा गार्ड, तकनीशियन, घास कटाई और पैनल धोने का काम करते हैं। तस्वीर- रवलीन कौर/मोंगाबे