- किसी सौर परियोजना की उम्र 25 साल आंकी गई है, लेकिन अक्सर देखा जाता है कि देश के ग्रामीण इलाकों में लगी सौर परियोजनाएं कुछ ही समय में खराब हो जाती हैं।
- भारत सरकार की नवीन एवं नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय के नियमों के मुताबिक सोलर परियोजना लगाने वाली एजेंसी ही पांच साल तक परियोजना का रख-रखाव करेगी।
- न सिर्फ सरकारी परियोजनाएं बल्कि गैर सरकारी संस्थाओं और निजी संस्थाओं द्वारा जनहित में लगाए गए सोलर पैनल भी जल्दी खराब होते देखे गए हैं। इसकी वजह देखभाल की कमी, समय पर मरम्मत न होना, सफाई की कमी हैं।
चार साल पहले जब आप दिल्ली से मेरठ की तरफ जाते थे तो यमुना नदी पर बने पुल पर सोलर पैनल का शीशा चमकता दिखता था। इस दिल्ली-मेरठ हाइवे पर 16 लेन की सड़क का उद्घाटन वर्ष 2018 में हुआ। तब भारत सरकार द्वारा निर्मित इस परियोजना में यमुना पुल पर लगे सोलर पैनल और वर्टिकल गार्डन से इसकी खूबसूरती कई गुणा बढ़ गयी। इन सोलर पैनल की मदद से हाइवे के एक हिस्से पर स्ट्रीट लाइट के लिए बिजली की आपूर्ति करने की योजना थी।
लगभग चार साल गुजर जाने के बाद अब इन सोलर पैनलों मे मोटी धूल की परत साफ देखने को मिलती है। जानकार मानते हैं कि सफाई और देख-रेख की कमी से गंदे पड़े सोलर पैनलों कि क्षमता समय के साथ काफी कम हो जाती है। इस मामले में भी ऐसा ही हो रहा है। यहां लगे सोलर पैनल्स की क्षमता कम हो गई है।यह हाल भारत की राजधानी दिल्ली का है।
ऐसे कई उदाहरण भारत के गावों में देखने को मिलते हैं जहां खराब पड़े सौर परियोजनाओं की कोई सुध नहीं लेता। गांवों में लगे सौर स्ट्रीट लाइट और छोटे स्तर की परियोजनाओं की सबसे अधिक अनदेखी होती है। योजना सरकारी हो या गैर सरकारी संस्थाओं की ओर से जनकल्याण के लिए लगाई गई हों, देख-रेख की कमी से कई सौर परियोजनाएं धड़ातल पर असफल साबित हो रही हैं।
ओडिशा के देवगढ़ जिले के ठियानाल गांव को ही लीजिये। यहां तीन साल पहले लगभग 10 सोलर स्ट्रीट लाइट लगाए लगे थे। ये अगले दो साल में खराब हो गए और तब से खराब ही पड़े हैं। उसी तरह ओडिशा के राजधानी भुवनेश्वर से सटे एक आदिवासी गांव बारापीठा में 2015 में सरकारी उपक्रम नाल्को की सहायता से चक्रवात से लड़ने वाला एक सोलर प्रोजेक्ट लगाया गया था जो अगले दो साल में खराब हो गाया और तब से खराब पड़ा है।
इसी तरह बिहार में पहले मॉडल सौर ग्राम धरनई की परियोजना भी तीन साल में ही धरासाई हो गई। जैसे ही तीन साल में इस परियोजना की बैटरी खराब हुई, उनको कभी बदला ही नहीं गया। बाद में यहां के ग्रामीण ग्रिड से चलने वाले बिजली पर निर्भर हो गए।
बिहार के गहलौर गांव की भी यही कहानी है। गहलौर गया ज़िला का एक महत्वपूर्ण गांव है जो माउंटेन मेन के नाम से प्रसिद्ध हुए दशरथ मांझी के गांव के नाम से जाना जाता है। उन्होंने पहाड़ तोड़ कर रास्ता बनाया था। बाद में उनके जीवन पर एक फिल्म भी बनाई गई। आज मांझी के घर के बाहर लगे दो सोलर स्ट्रीटलाइट सालों से खराब पड़े हैं।
कहां है समस्या?
भारत सरकार की नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय द्वारा भारत के कई हिस्सों में सौर ऊर्जा से संबंधित छोटी-बड़ी परियोजनाएं चलाई जा रही हैं। पिछले कुछ दशकों से सौर स्ट्रीट लाइट, सोलर लालटेन इत्यादि कई योजनाओं के अंतर्गत लगाया गया। 2018 में जब भारत सरकार ने ये घोषणा की कि भारत के सारे गावों तक 100 प्रतिशत बिजली पहुंच गई है तो कई पहाड़ी इलाकों, दूर दराज के गांव को विकेंद्रित सौर ऊर्जा (ऑफ ग्रिड) के द्वारा बिजली पहुंचाई थी। इसमें बिहार का धरनई गांव भी शामिल था। यह ऊर्जा मंत्रालय के दीन दयाल उपाध्याय ग्रामीण ज्योति योजना और सौभाग्य योजना जैसी योजनाओं द्वारा पूरा किया गया। साथ ही,नक्सल और दूर दराज वाले इलाकों मे अटल ज्योति योजना के द्वारा सोलर स्ट्रीट लाइट लगाए गए।
मंत्रालय के अधिकतर योजनाओं के दस्तावेजों में ऐसे उपक्रम लगाने वाली कंपनियों को 5 साल के लिए देखरेख की जिम्मेदारी दी गई थी। ऐसा ना करने पर ब्लैक लिस्ट करने का प्रावधान भी रखा गया लेकिन इसके बावजूद कई ऐसे परियोजना देख-रेख के अभाव में असफल हो गईं।
विशेषज्ञ इन सबके पीछे लोगोंको साथ न लेकर चलने की बात करते है। जे.पी. जगदेव, पैरामीटर सलूशंस नाम की एक सॉफ्टवेर कंपनी के मैनिजिंग डायरेक्टर है। वह कुछ राज्यों में सोलर परियोजनाओं पर तकनीकी सहायता दे चुके है। उन्होंने मोंगाबे-हिन्दी को बताया, “हमारे देश में दो तरह की सौर परियोजनाएं है। एक बड़ी सरकारी परियोजनाएं जो लोगों से दूर, अच्छी देख-रेख में संचालित हैं। जबकि कुछ परियोजनाएं ग्रामीण इलाके में लोगों के बीच लगी हुई है। अगर सरकार ऐसे परियोजनाओं में लोगों को प्रशिक्षण ना दे या उन्हे विश्वास में ना ले तो परियोजनाओं के असफल होने की आशंका रहती है। सरकार को इसकी भनक भी नहीं लगती क्योंकि इसकी रिपोर्टिंग नहीं हो पाती।”
वह कहते है, “सोलर परियोजनाओं की देखभाल, मरम्मत आम मैकेनिक नहीं कर सकते। इसमें तकनीकी कुशलता की जरूरत होती है। सरकारों को चाहिए कि वो लोगों को इसके देख रेख का प्रशिक्षण दे। सोलर कंपनियां सिर्फ 5 साल तक इन परियोजनाओं की देख रेख के लिए बाध्य हैं लेकिन उसके बाद क्या? कोई भी सोलर परियोजना की आयु 15-25 साल की होती है। अगर यह सफल हो तो हम कार्बन उत्सर्जन में कमी ला सकते है अथवा कार्बन उत्सर्जन कम करने की बातें सिर्फ किताबों तक सीमित रह जाएंगी”
भारत मे कुछ राज्यों मे सौर परियोजनाओं को समय से मरम्मत और देखभाल करने के और कुछ कवायद भी हुई है। ओडिशा की ओडिशा रिन्यूएबल एवर्जी डेवलपमेंट एजेंसी (ओआरईडीए) ने 2015 में ऐसे ही एक समाधान निकाला जिसका फायदा अब मिल रहा है। यहां सोलर कंपनियों को अपने 5 वर्षों में किए जाने वाले मरम्मत और निगरानी के सबूत सरकार को फोटो के साथ ऑनलाइन देने पड़ते हैं।
“इस सिस्टम के अंतर्गत किसी भी सोलर परियोजना के शुरू के 5 साल के वारंटी काल में शैडयूल्ड मैंटेनेंस समय से करना होता है। साथ ही, उसका सबूत, ऑनलाइन सिस्टम में फोटो के साथ डालना पड़ता है। हमारे यहां 46,000 सोलर पोजेक्ट की ऑनलाइन जानकारी है। इसमें परियोजना की क्षमता, कंपनी का नाम, मरम्मत का दिनांक और समय आदि अंकित है। इसके अलावा सभी सोलर प्रोजेक्ट पर टोल फ्री नंबर लिखा है जिसका प्रयोग गांव वाले अपने शिकायत दर्ज करने के लिए कर सकते है। एक सप्ताह के अंदर उनके शिकायत पर सुनवाई होगी, ” ओआरईडीए के सयुक्त निदेशक अशोक चौधुरी ने मोंगाबे- हिन्दी को बताया।
कब आती है सोलर परियोजना में समस्या?
सोलर परियोजनाओं को विकसित करने वाले उद्योग जगत से जुड़े लोग बताते हैं कि सोलर पैनल की आयु तो 25 साल तक हो सकती है लेकिन उसके बैटरी, इंवर्टर आदि जल्दी खराब हो जाते हैं।
“सोलर पैनल की आयु लगभग 25 साल की होती है जबकि उसकी बैटरी को लगभग 5 साल में बदलने की जरूरत होती है। साथ ही, पैनलों की निरंतर सफाई भी जरूरी है। अगर ऐसा नहीं हुआ तो ये जल्दी खराब हो जाएंगे या उनकी क्षमता कम हो जाएगी। सोलर परियोजना पूरी तरह से देखभाल पर निर्भर करती है। बैटरी के पानी की जांच, तारों का निरीक्षण, लाइट के प्रकाश के तीव्रता का नाप (लुमेन) जांच से ही समझा जा सकता है कि कुछ पुर्जे बदलने है या सब ठीक है,” भुवनेश्वर स्थित सोलर कंपनी-सोलेरिस के मैनिजिंग डायरेक्टर सार्थक नायक ने मोंगाबे -हिन्दी को बताया।
और पढ़ेंः दशरथ मांझी के गांव से समझिए बिहार में सौर ऊर्जा की हकीकत
केंद्र की नीतियों में बैटरी की वारंटी कहीं 2 साल तो कहीं 5 साल रखी जाती है। जबकि सोलर पैनल की 25 साल की वारंटी रहती है। जिसके बीच कुछ भी खराब होने पर सोलर कंपनी को मुफ्त में ठीक करना होगा। ऐसी परियोजना को सुचारू रूप से चलाने के लिए यह कंपनिया सरकार से अलग से पैसे लेती हैं। राज्यों में भी सारी सौर परियोजनाएं इस नीति को अपनाया जाता है और 5 साल के वारंटी (वार्षिक देखरेख कांट्रैक्ट) को शामिल किया जाता है।
भारत सरकार के संसद में दिये गए आंकड़ों की माने तो 2016-17 से 2020-21 के बीच में केंद्र सरकार के योजनावों से 4.48 लाख सोलर स्ट्रीट लाइट देश में लगाए हैं।
बैनर तस्वीरः बिहार के गया जिले में मुख्यमंत्री सौर पंप योजना के तहत लगा सोलर पंप। तस्वीर- मनीष कुमार