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राजस्थान: क्या सही है कुंभलगढ़ में बाघों के वापसी की योजना?

राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण की रिपोर्ट कहती है कि सर्वेक्षण में शामिल 575 स्थानीय लोगों में से अधिकांश बाघ को लाने को लेकर सकारात्मक थे। तस्वीर- डेविड राजू/विकिमीडिया कॉमन्स

राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण की रिपोर्ट कहती है कि सर्वेक्षण में शामिल 575 स्थानीय लोगों में से अधिकांश बाघ को लाने को लेकर सकारात्मक थे। तस्वीर- डेविड राजू/विकिमीडिया कॉमन्स

  • अरावाली पहाड़ियों में स्थित कुंभलगढ़ के जंगल में आखिरी बार पचास साल पहले बाघ देखा गया था। भेड़, बकरियों और ऊंटों के चारागाह की पहचान रखने वाले इस क्षेत्र में अब बाघों को दोबारा लाने की तैयारी हो रही है।
  • राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण की एक सर्वेक्षण के मुताबिक इसमें शामिल 575 स्थानीय लोगों में से अधिकांश बाघ के आमद को लेकर सकारात्मक हैं। हालांकि, इसके उलट स्थानीय चरवाहों ने कहा कि वे ऐसी किसी योजना से अनजान हैं।
  • वन्यजीव विशेषज्ञ इस तरह के संरक्षण को किलेबंदी वाला मॉडल मानते हैं और इसपर सवाल उठाते हैं। इस मॉडल के तहत जंगल से मानव आबादी को खाली कराया जाता है।
  • वन्यजीव विशेषज्ञ चेतावनी देते हुए कहते हैं कि गांवों को विस्थापित करने से योजना उलटी पड़ सकती है। चरवाहे जंगल की आग को रोकने और जैव विविधता के संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं।

जुलाई 2021 में जब कोविड 19 महामारी का कहर अपने चरम पर था तब भाजपा नेता और राजस्थान के राजसमंद की सांसद दीया कुमारी ने केंद्र सरकार को एक पत्र लिखा। पांच जुलाई को लिखे इस पत्र में मांग की गई कि राजस्थान के कुंभलगढ़ और टॉडगढ़ रावली वन्यजीव अभयारण्य को बाघ अभयारण्य बनाया जाए। पत्र मिलते ही सरकार ने तुरंत कार्रवाई की, और राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) ने रिपोर्ट बनाने के लिए पांच सदस्यीय विशेषज्ञ समिति का गठन कर दिया। बाद में जुलाई में मीडिया में आई खबरों ने संकेत दिया कि बाघों को इस पारिस्थितिकी तंत्र में लाया जा सकता है।  

इस रिपोर्ट के सामने आने के बाद से क्षेत्र के पारिस्थितिकीविद और प्रकृतिप्रेमी आश्चर्य में हैं। लोगों को घोड़ों पर शैक्षणिक भ्रमण के लिए जंगल घुमाने वाले खेम सिंह राठौर इस क्षेत्र में वन्य जीवन का अध्ययन करते हैं। उन्होंने कहा, “मैं 30 वर्षों से भी अधिक समय से ऐसे शैक्षिक भ्रमणों का नेतृत्व कर रहा हूं। अगर बाघों को अभयारण्य में लाया गया, तो ऐसी यात्राएं समाप्त हो जाएंगी।” 

राजस्थान के मुख्य वन्यजीव वार्डन अरिंदम तोमर ने कहा, “राज्य सरकार अभी भी रिपोर्ट की जांच कर रही है। फिजिबिलिटी रिपोर्ट में भी कहा गया है कि बाघों को लाने में कुछ साल लगेंगे। अभी हमलोग शुरुआती चरण में हैं।”

कर्ण राम और उनके मित्र इस क्षेत्र में ऊंटों को पालते हैं। वे अपने पशुओं को इस क्षेत्र के विशाल भूभाग में चराने ले जाते हैं। ऊंट, भेड़, और बकरी चराने वाले रायका समुदाय का पहनावा काफी खास है। वे गहरी लाल पगड़ी और सफेद कपड़े पहनते हैं। पुरुषों द्वारा पहने जाने वाले आभूषणों से दूर से ही पहचाने जा सकते हैं। चरवाहे अपने जानवरों को तेंदुओं सहित अन्य जंगली जानवरों के हमलों से बचाते रहते हैं। हालांकि, जब कभी शिकारियों की वजह से उनके पशु मरते हैं तो वे इस बात को भी बिना द्वेश, आसानी से स्वीकार करते हैं। हालांकि, जंगल में बाघ के आने से उनका खानाबदोश जीवन और पशु चराने की परंपरा खत्म होती जाएगी। 

कुंभलगढ़ के पास ऊंटों का झुंड। तस्वीर- रोसम्मा थॉमस
कुंभलगढ़ के पास ऊंटों का झुंड। तस्वीर- रोसम्मा थॉमस

एनटीसीए की रिपोर्ट में कहा गया है कि पाली, उदयपुर और राजसमंद जिलों के 18 गांवों के 1,60,000 से अधिक निवासियों की मदद से बाघ अभयारण्य का रास्ता साफ होगा। इसके लिए स्वैच्छिक स्थानांतरण यानी खुद से अपना स्थान छोड़ने की सिफारिश की गई है। रिपोर्ट में कहा गया है कि 575 स्थानीय निवासियों से इसके लिए प्रतिक्रिया ली गई जिसमें से अधिकांश लोग इस क्षेत्र को टाइगर रिजर्व घोषित करने को लेकर सकारात्मक हैं।

हालांकि, लंबे समय से इस क्षेत्र में रहने वाले लोगों ने कहा कि उन्हें इन घटनाओं के बारे में कोई जानकारी नहीं है। उन्होंने कहा कि यह स्पष्ट नहीं था कि किसका सर्वेक्षण किया गया था, और जो लोग सर्वेक्षण पर अपना अंगूठा निशान लगा रहे थे उन्हें पता ही नहीं था कि वास्तव में वे किस बात की सहमति दे रहे थे। 

एनटीसीए रिपोर्ट अभी सार्वजनिक नहीं हुआ है और इसकी वेबसाइट पर भी मौजूद नहीं हैं। यह रिपोर्ट मोंगाबे-हिन्दी को एक विश्वसनीय स्रोत के माध्यम से उपलब्ध कराया गया है। 

इसमें 12 प्रमुख अवलोकनों की एक सूची है – जिसमें अभ्यारण्य का मौजूदा आकार और उसकी स्थिति दिखाई गई है। इसे क्षेत्र को स्थानीय लोग गोडवार के रूप में जानते हैं। यह अरावली रेंज की एक पट्टी में स्थित है जहां एक ओर पहाड़ियां, थार रेगिस्तान से मिलती हैं। इस स्थान को बाघों के लिए अनुकूल नहीं माना गया है। इसके  सबसे बड़े हिस्से में अभयारण्य केवल 15 किमी चौड़ा है, और इसकी औसत चौड़ाई केवल 6.5 किमी है। रिपोर्ट में कहा गया है कि लैंडस्केप कनेक्टिविटी यानी एक स्थान से दूसरे स्थान तक आने-जाने की सुविधा में कमी है। ऐसे कनेक्टिविटी का उपयोग वयस्क बाघ पलायन के लिए करते हैं। घना जंगल न होने के कारण उन्हें दिक्कत आएगी। 

महाराजा गंगा सिंह विश्वविद्यालय, बीकानेर में पर्यावरण विज्ञान विभाग के प्रमुख प्रोफेसर अनिल कुमार छंगानी कहते हैं कि अगर देश में चीता दोबारा लाया जा सकता है तो कोई कारण नहीं है कि बाघ को कुंभलगढ़ में फिर से नहीं लाया जा सकता। उन्होंने एनटीसीए की रिपोर्ट में दावा किया है कि क्षेत्र में आखिरी बाघ 1961 में मारा गया था – उनका कहना है कि 1969 तक इस क्षेत्र में बाघों को देखे जाने के अभिलेखीय रिकॉर्ड हैं।

छंगानी कहते हैं, “भारत में अन्य राष्ट्रीय उद्यानों और अभयारण्यों के किनारों पर चरवाहे हैं। जब क्षेत्र और रिजर्व की चौड़ाई की बात आती है, तो उनकी भी देश के अन्य बाघ अभयारण्यों के कोर एरिया से तुलना की जा सकती है। बाघों के लिए रिजर्व की सीमाओं से बाहर भटकना और पशुओं का शिकार करना काफी आम है।”

“जिन शोधकर्ताओं के काम का मैंने पर्यवेक्षण किया है, उन्होंने पाया है कि राजस्थान के बाघ अभयारण्यों की सीमाओं से परे कई बाघ हैं; यह रिजर्व के बाहर वन्यजीव है जिसके लिए हमें नीतिगत उपायों की आवश्यकता है। भारत में हम पश्चिमी मॉडलों से संरक्षण की धारणाओं की नकल करते हैं, जबकि उन मॉडलों ने पश्चिम में बहुत अच्छी तरह से काम नहीं किया है,” छंगानी ने कहा। 

कुम्भलगढ़ वन क्षेत्र। तस्वीर- हेमलता पैनरी/विकिमीडिया कॉमन्स
कुम्भलगढ़ वन क्षेत्र। तस्वीर– हेमलता पैनरी/विकिमीडिया कॉमन्स

वह देश की परंपरा का जिक्र करते हुए आगे  कहते हैं, “भारत में जंगली जानवरों की उपस्थिति के अनुकूल समुदायों की एक समृद्ध परंपरा है। ये पारिस्थितिकी के स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण समुदाय हैं – उदाहरण के लिए, राजस्थान में परंपरा द्वारा संरक्षित ओरन या पवित्र उपवन अपेक्षाकृत स्वस्थ और जैव विविधता में समृद्ध हैं। इसलिए नहीं कि सशस्त्र गार्ड उनकी रक्षा करते हैं, बल्कि इसलिए कि स्थानीय मान्यताएं अभी भी दृढ़ता से कायम हैं, और ये परंपरा उनके विनाश की अनुमति नहीं देती हैं” 

वह आगे कहते हैं, “उदाहरण के लिए, जब भी खनन क्षेत्रों की खबरें आती हैं तो अक्सर लोग बाहरी ताकतों द्वारा चल रहे विनाश का विरोध करते दिखते हैं। स्थानीय लोग अपनी पवित्र भूमि को लूटने का विरोध करते हैं,” छंगानी कहते हैं।

अमेरिका में विस्कॉन्सिन-मैडिसन विश्वविद्यालय में नेल्सन इंस्टीट्यूट फॉर एनवायरनमेंटल स्टडीज के डीन प्रोफेसर पॉल रॉबिंस ने पहले राजस्थान में व्यापक फील्डवर्क किया है। उन्होंने उल्लेख किया कि कुंभलगढ़ रिजर्व में लुप्तप्राय भेड़ियों की आबादी रहती है। वह आशंका जताते हैं कि हो सकता है भेड़ियों का बाघ के साथ अपना घर साझा करना पसंद न आए। 

वह कहते हैं, “इसके अलावा, रिजर्व कुछ स्थान 8 किमी चौड़ा है, जिसमें जंगल से सटे क्षेत्रों में बड़ी कृषि और गांव की आबादी है। यहां मानव-वन्यजीव संघर्ष गंभीर रूप ले सकते हैं। यह क्षेत्र बाघों के लिए व्यवहार्य नहीं है। यह क्षेत्र आस-पास के बाघ क्षेत्रों से अलग है और राष्ट्रीय राजमार्गों, रेलवे और अन्य बुनियादी ढांचे से घिरा हुआ है।”

उन्होंने एक ईमेल का जवाब देते हुए बताया कि इस क्षेत्र में जब बाघ रहे होंगे तब यहां इस तरह के बुनियादी ढांचा मौजूद नहीं था और संभवत: अधिक वन कवर भी मौजूद था। 

सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी एमके रंजीतसिंह ने 1972 के वन्यजीव संरक्षण अधिनियम का मसौदा तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। वे कहते हैं कि बाघ की शुरूआत अक्सर जंगली आवासों को संरक्षित करने का एक तरीका है। वह इस तर्क से असहमत हैं जिसमें कहा जाता है कि यहां के जंगल आपस में मिले हुए नहीं हैं। वह टोडगढ़ अभयारण्य और दक्षिण में जंगलों के आपस में जुड़ते गलियारों का उदाहरण देते हैं। उन्होंने एक पुराना किस्सा याद करते हुए कहा कि जिला कलेक्टर के रूप में उन्होंने 20 से अधिक गांवों में निवासियों के पुनर्वास की देखरेख की थी। उस वक्त मध्य प्रदेश में कान्हा टाइगर रिजर्व की स्थापना की गई थी। वह दोहराते हैं कि जबरन बेदखली नहीं होनी चाहिए, लेकिन ग्रामीणों को स्थानांतरित करने का मुख्य विरोध कार्यकर्ताओं से आता है। वे ऐसे कार्यकर्ताओं को झोलावाला कहकर संबोधित करते हैं। वह कहते हैं कि अक्सर लोग जंगल से बाहर निकलना चाहते हैं।

रायका चरवाहे के साथ एक ऊंट बछड़ा। इस क्षेत्र में बाघ लाने से पारिस्थितिकी तंत्र में परिवर्तन से चराई का काम जोखिम में आ जाएगा। तस्वीर- ऑगस्टा डि लिसी
रायका चरवाहे के साथ एक ऊंट बछड़ा। इस क्षेत्र में बाघ लाने से पारिस्थितिकी तंत्र में परिवर्तन से चराई मुश्किल हो जाएगी। तस्वीर- ऑगस्टा डि लिसी

अपनी 2002 की पुस्तक फॉर्ट्रेस कंजर्वेशनः द प्रिजर्वेशन ऑफ मकोमाजी गेम रिजर्व में, डैन डी ब्रोकिंगटन ने अफ्रीका में प्रकृति के संरक्षण के लिए स्थानीय आबादी को बाहर करने के नकारात्मक प्रभावों का दस्तावेजीकरण किया। उन्होंने सवाल उठाया कि प्रकृति और लोगों को अलग किया जाना चाहिए। यह एक ऐसा विषय है जिसे राजस्थान के पाली जिले में भारत की पहली ऊंट डेयरी के सह-संस्थापक इल्से कोहलर रोलफसन ने अपनी पुस्तक हर्डिंग (आने वाली किताब) में लिखा है।

2012 में कुम्भलगढ़ क्षेत्र के कई गांव के निवासियों ने राज्य सरकार को वन अधिकार अधिनियम, 2006 के तहत अपने वन अधिकारों की मान्यता के लिए आवेदन प्रस्तुत दिया। उन अनुरोधों को स्वीकार नहीं किया गया है।

वकील ऋतुराज सिंह राठौर ने कुंभलगढ़ वन्यजीव अभयारण्य के एक किलोमीटर के दायरे में बड़े और आलीशान पर्यटन लॉज के निर्माण के खिलाफ राजस्थान उच्च न्यायालय में मुकदमा दायर किया था। उनका तर्क है कि यह देखते हुए कि सरकार वन भूमि में स्कूल या अस्पताल नहीं बनाती है, लोगों को वन क्षेत्रों से बाहर ले जाना एक अच्छी बात हो सकती है। 

वह कहते हैं,”वे बेहतर सरकारी प्रावधान का आनंद ले सकते हैं यदि वे वहां से निकलते हैं। हालांकि, उन्हें बेदखल न करके उनको स्वैच्छिक रूप से वहां से हटाने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। उन्हें मजबूर नहीं किया जाना चाहिए।” 

इस बीच बाघ को इस पारिस्थितिकी तंत्र से परिचित कराने की तैयारी जोर-शोर से हो रही है। स्थानीय समाचार पत्रों की रिपोट्स के अनुसार, अभयारण्य में बाघों के लिए शिकार बढ़ाने के लिए राज्य वन विभाग द्वारा संचालित 211 हेक्टेयर शाकाहारी संवर्धन केंद्र ने चिंकारा और नीलगाय को जंगल में छोड़ना शुरू कर दिया है। फरवरी 2022 में इस केंद्र के दौरे से पता चला कि लगभग 20 चिंकारा और नीलगाय को पाला जा रहा है।

एनटीसीए समिति की रिपोर्ट में कर्मचारियों की भारी कमी को भी नोट किया गया है। इसके मुताबिक वन विभाग में आवंटित पदों में से 57% खाली हैं। राष्ट्रीय और राज्य राजमार्गों का नेटवर्क, और प्रस्तावित बाघ अभयारण्य के क्षेत्र में एक रेलवे ट्रैक वन्यजीवों की मृत्यु का कारण बन सकता है।


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इन सभी प्रतिकूल टिप्पणियों के बावजूद, समिति इस क्षेत्र को बाघों के लिए आवास बनाने के लिए आवश्यक कदम उठाने की सिफारिश करती है। समिति का सुझाव है कि राज्य सरकार “कुंभलगढ़ और टोडगढ़ रावली वन्यजीव अभयारण्य दोनों के क्षेत्रों को शामिल करके कम से कम 800-1,000 वर्ग किमी का एक अनियंत्रित कोर क्षेत्र बना सकती है।” 

इसमें बाघों के शिकार के लिए शाकाहारी जीव की वृद्धि और आवास बहाली की सिफारिश की जाती है। इसमें कहा गया है कि जब तक बाघ अभयारण्य को कानूनी रूप से समेकित नहीं किया जाता है और महत्वपूर्ण क्षेत्रों के गांवों का पुनर्वास नहीं किया जाता है, तब तक क्षेत्र में भूमि-उपयोग परिवर्तन को निलंबित कर दिया जाना चाहिए।

टीम ने सितंबर 2021 में केवल दो दिनों में अपना सर्वेक्षण किया। इसमें पाया गया कि क्षेत्र में पर्याप्त पानी है। यह अवलोकन मानसून के तुरंत बाद किया गया। मानसून से पहले गर्मियों के महीनों में अगर सर्वेक्षण होता तो समिति को पानी की उपलब्धता की अलग तस्वीर दिखती। क्षेत्र के खानाबदोश चरवाहे विशेष रूप से परिस्थितियों के अनुकूल होते हैं, और पानी की कमी होने पर उन जगहों पर चले जाते हैं जहां चारा मिल सकता है। 

समिति इस धारणा के साथ आगे बढ़ती है कि जनजातीय बस्तियों को आसानी से स्थानांतरित किया जा सकता है। रिपोर्ट के मुताबिक वर्तमान में प्रस्तावित बाघ अभयारण्य सीमा के अंदर  कम आबादी है। उनमें से ज्यादातर आदिवासी बस्तियां हैं, और वर्तमान में वे स्वास्थ्य देखभाल जैसी बुनियादी आवश्यक सुविधाओं से वंचित हैं।

समिति स्वीकार करती है कि स्थानीय समुदाय ने पारिस्थितिकी के संरक्षण का एक उचित काम किया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि कुंभलगढ़ और टोडगढ़ रावली के जंगल अरावली पर अंतिम बचा हुआ उष्णकटिबंधीय वन है। 

लगभग एक साल पहले राजस्थान के मुख्य वन्यजीव वार्डन के रूप में सेवानिवृत्त हुए जीवी रेड्डी का कहना है कि यह क्षेत्र धारीदार लकड़बग्घे और भेड़िये के लिए जाना जाता है, जो लुप्तप्राय हैं। बाघ अभयारण्यों के बजाय, राज्य को अभयारण्यों की आवश्यकता है। इससे कम प्रसिद्ध प्रजातियों का संरक्षण होगा। इन प्रजातियों पर बड़े पैमाने पर पत्थर के खनन से खतरा है। 

राजस्थान बाघ पर्यटन के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध है। पर्यटकों के राजस्व का लालच कुंभलगढ़ में बाघों को लाने के पीछे एक बड़ी वजह हो सकती है। हालांकि, कुछ लोगों का मानना है कि रणथंभौर जैसे अधिक स्थापित बाघ अभयारण्यों से लाभ लेने वाले लोग ऐसा नहीं होने देना चाहते। वे बाघ देखने के लिए पर्यटकों के पास अधिक विकल्प नहीं होने देना चाहते। सरकारी अधिकारियों के साथ मिलकर काम करने वाले एक व्यक्ति ने नाम न जाहिर करने की शर्त पर बताया कि कुंभलगढ़ में बाघ लाने का प्रतिरोध रणथंभौर में बाघ पर्यटन में शामिल लोग भी कर रहे हैं। 

राज्य सरकार भी बाघों को क्षेत्र में ले जाने के प्रति उदासीन नजर आ रही है। राजस्थान में कोटा में मुकुंदरा हिल्स रिजर्व में बाघों को स्थानांतरित करने का प्रयास किया गया था, लेकिन बाघों की मौत को देखते हुए यह अनुभव उत्साहजनक नहीं था। इस परियोजना में विफलता मिली, जबकि इस क्षेत्र में सरिस्का और रणथंभौर के बाघ पलायन कर आते रहे हैं।

2016 और 2021 के बीच जंगल की आग की संख्या को सूचीबद्ध करने वाली एनटीसीए रिपोर्ट में बड़ी वृद्धि दिखती है। 2016-17 में पांच आग की घटनाओं से शुरू होकर यह आंकड़ा 2020-21 में 32 तक पहुंच गया है। दुनिया के अन्य हिस्सों में, चरवाहों को जंगल की आग के खिलाफ पहली पंक्ति में खड़े रक्षक के तौर पर देखा जाता है। उनके जानवर पत्तों को खाकर साफ करते हैं और आग की लपटों में ऊपर जाने वाले सूखे खासफूस को हटाते हैं। पशु के गोबर से खाद बनता है और मिट्टी की उर्वरता को बढ़ाती है। जानवर बीज के फैलाव में भी मदद करते हैं। हालांकि, बाघ लाने के साथ  पारिस्थितिकी तंत्र में परिवर्तन और चराई का काम प्रभावित हो सकता है।

 

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बैनर तस्वीरः राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण की रिपोर्ट कहती है कि सर्वेक्षण में शामिल 575 स्थानीय लोगों में से अधिकांश बाघ को लाने को लेकर सकारात्मक थे। तस्वीर– डेविड राजू/विकिमीडिया कॉमन्स

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