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एसबेस्टस खनन के बंद होने के 39 साल बाद भी क्यों हो रहें हैं झारखंड के आदिवासी बीमार

रोरो गांव के लोग खेती के अलावा जंगल के उत्पाद जैसे महुआ आदि पर निर्भर हैं। तस्वीर- मनीष कुमार/मोंगाबे

रोरो गांव के लोग खेती के अलावा जंगल के उत्पाद जैसे महुआ आदि पर निर्भर हैं। तस्वीर- मनीष कुमार/मोंगाबे

  • पश्चिमी सिंहभूम के रोरो गांव में 1983 तक एसबेस्टस का खनन हुआ करता था। खनन बंद हुए अब चार दशक हो चुके है लेकिन आज भी यहां के लोग सांस की तकलीफ के साथ कई लाइलाज बीमारियों से पीड़ित हैं।
  • विशेषज्ञों का मानना है कि एसबेस्टस एक घातक पदार्थ है जिससे कैंसर जैसे कई और बीमारी इसके संपर्क में आए लोगो को हो सकती हैं।
  • भारत सरकार ने एसबेस्टस से होने वाले प्रतिकूल प्रभावाओं के कारण इसके खनन पर 90 के दशक मे रोक लगा दी थी लेकिन इसका आयात, व्यापार और इस्तेमाल धड़ल्ले से होता है।

मोहन सूंडी झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम जिले के रोरो गांव के रहने वाले 35 वर्षीय युवक हैं। केरल के एक थिएटर में काम करते हैं और महीने भर पहले अपने गांव लौटे हैं। इनका गांव एक पहाड़ी पर स्थित है। मोहन का गांव लौटना सबके गांव लौटने जैसा नहीं है। इनके गांव लौटने में उन संघर्षों में शामिल होना भी है जो इनके गांव के लोग दशकों से करने को मजबूर हैं। कई लाइलाज बीमारियों से अपने परिवार के लोगों को जूझते देखना, इलाज के नाम पर दूर-दराज के शहरों में जाकर दर-दर की ठोकर खाना, इलाज के लिए कर्ज में डूबते जाना यहां के जीवन का हिस्सा है। 

मोहन का गांव रोरो, जिन पहाड़ियों पर बसा है, वहां 1963 से 1983 तक एसबेस्टस का खनन किया जाता था। 1983 में यह खनन बंद हो गया पर इसके कचरे से लोगों को आजतक निजात नहीं मिली है। लगभग चार दशकों तक एसबेस्टस के कचरे से निकलने वाली धूल, हवा पानी को गंदा करती रहती है। पानी के स्रोत में मिलकर यह कचरा पानी को प्रदूषित करता रहता है। इस पानी को इस्तेमाल करने वाले लोग बीमार पड़ते रहते हैं। आज भी 35 साल से ऊपर के कई लोग, सांस की तकलीफ से परेशान हैं। सालों तक कोर्ट, सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटने के बाद भी, ये लोग आज तक न्याय से वंचित हैं।

रोरो गांव में रहने वालें ज़्यादातर लोग ‘हो जनजाति’ के हैं। मोहन सूंडी ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया कि जब वे छोटे थे तो उनलोगों को एसबेस्टस के प्रतिकूल प्रभाव के बारे मे ज्यादा जानकारी नहीं थी। उन दिनों बच्चे, एसबेस्टस के ढेर में अक्सर खेलते थे। मोहन भी उन खेलने वालों में शामिल थे। 

“एसबेस्टस से होने वाले प्रतिकूल प्रभावों के कारण हमारे गांव के कई लोग आज भी सांस की समस्या से परेशान हैं। कई ऐसे लोग भी हैं जिन्हे आंख और कैंसर की समस्या है। कई बार  इन समस्याओं की वजह से गांव वालों को रांची, जमशेदपुर, हैदराबाद, दिल्ली जैसे शहरों मे इलाज के लिए जाना पड़ता है,” मोहन ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया।

बीरसिंघ सूंडी लगभग 60 साल के हैं और अपने गांव के सहायक मुंडा (ग्राम सभा के अध्यक्ष) हैं। वह कहते है कि खनन 1983 में बंद हो गया था पर इसका प्रभाव आज भी देखने को मिलता है। बीरसिंघ खुद सांस लेने की समस्या से परेशान हैं। “मुझे सांस लेने में दिक्कत होती है। मेरे पीठ पर एक गांठ भी हो गई है। यह हमारें गांव में एक आम बात है। खनन बंद होने के बाद भी एसबेस्टस का मलबा 40 साल से हमारे गांव के पास के पहाड़ों पर पड़ा हुआ है। हमारा गांव ऐसे मलबों से भरे पहाड़ों के ठीक नीचे है,” बीरसिंघ ने बताया।

इलाके में तकरीबन 13 गांवों में एस्बेस्टर से प्रदूषण का असर देखा जा सकता है। तस्वीर- मनीष कुमार/मोंगाबे
इलाके में तकरीबन 13 गांवों में एसबेस्टस से प्रदूषण का असर देखा जा सकता है। तस्वीर- मनीष कुमार/मोंगाबे

गांववालों ने बताया कि वो आज भी पास के नदी से पानी पीते हैं जो अक्सर बारिश के दिनों में पहाड़ों से आने वाले एसबेस्टेस के धूल से सन जाता है। बीरसिंघ ने बताया कि उनके गांव की कई उपजाऊ जमीन इसके कारण बंजर हो गई है।

मानकी सूंडी गांव के रहने वाले एक और ग्रामीण हैं जिनके पिता इस बंद पड़े एसबेस्टस के खान में काम किया करते थे। इनके पिता और इस खनन में काम करने वाले अधिकतर लोगों की मौत हो चुकी है। मानकी बताते हैं कि वो खुद टीबी की बीमारी से ग्रसित थे लेकिन छह महीने से ज्यादा इलाज करवाने के बाद भी उन्हे सांस की समस्या से राहत नहीं मिली। मानकी की ही तरह गांव के कई लोगो को सांस की समस्या है लेकिन वो बताते हैं कि अस्पताल में डाक्टर इसे टीबी की बीमारी कहकर दवा देते हैं। 

इस गांव की महिलाओं का भी यही हाल है। सोरो सूंडी 62 वर्ष की महिला हैं जो लंबे समय से पीठ के दर्द से परेशान हैं लेकिन उनके जैसी कई महिलाएं अक्सर इसलिए इलाज नहीं करवा पाती क्योंकि उनके पास पैसे नहीं होते। सोरो सूंडी के पति को भी सांस की समस्या है और उन्हे भी पास के अस्पताल से टीबी का मरीज बता कर दवा दे दी है। 

स्वास्थ्य विशेषज्ञों और इस समुदाय के साथ काम कर रहे स्वयं सेवी संस्थाओं का मानना हैं कि इस गांव में कई लोग एसबेस्टस के संपर्क में आने से होने वाली बीमारी- एसबेसटस्टोसिस से ग्रसित हैं। इनका गलत इलाज होता है और टीबी की दवा दी जाती है। इसलिए इनकी सेहत में सुधार भी नहीं होता। रमेश जेराई, जोहार नाम के एक संस्था से जुड़े हैं और चाईबासा में उनका निवास है। उन्होने मोंगाबे-हिन्दी को बताया कि 1996 में उनकी संस्था ने एक स्वास्थ्य सर्वेक्षण किया था जिसमे यह पाया गया कि रोरो में कथित टीबी से मरने वाले लोगो की संख्या आम तौर पर टीबी से होने वाली मौतों से ज्यादा थी। 

रोरो गांव में रहने वालें ज़्यादातर लोग ‘हो जनजाति’ के हैं। तस्वीर- मनीष कुमार/मोंगाबे
रोरो गांव में रहने वालें ज़्यादातर लोग ‘हो जनजाति’ के हैं। तस्वीर- मनीष कुमार/मोंगाबे

“इस गांव में आपको ऐसे कई लोग मिल जाएंगे जो सांस की समस्या से परेशान हैं। लेकिन उन्हें पास के अस्पताल में अक्सर टीबी का मरीज बताया जाता है।  हमने ऐसे कई मरीजो को जमशेदपुर ले जाकर जांच कराई तो पता चला कि  इनमें कई को एसबेसटस्टोसिस की बीमारी है। पास के गावों और शहरों में एसबेसटस्टोसिस के जांच और इलाज की सुविधा उपलब्द नहीं है,” घनश्याम घगराई ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया। यह भी बताया कि इस बीमारी से ग्रसित लोगों के नाम की सूची सरकार और न्यायलाय, दोनों के साथ साझा की गयी। 

एसबेस्टस और जन स्वास्थ्य 

पटना में रह रहे जन स्वास्थ्य के विशेषज्ञ भवेश झा झारखंड और चाईबासा जैसे इलाकों में स्वास्थ्य क्षेत्र में काम कर चुके हैं। झा ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया, “हमारे देश में एसबेसटस्टोसिस जैसी बीमारियों को लेकर जानकारी और इलाज की सुविधा का अभाव है। एसबेसटस्टोसिस जैसी बीमारी के लक्षण 20-30 साल के बाद भी दिखते हैं। हमारे देश में मौजूदा नीति इलाज पर ज्यादा ज़ोर देती है पर ऐसे व्यव्यसाय से जुड़े बीमारियों की जांच, संबंधित लिखा-पढ़ी को नजरंदाज कर दिया जाता है। खनन और इससे मिलते-जुलते क्षेत्र में काम करने वाले लोगों पर इस बीमारी से प्रभावित होने का खतरा हमेशा बना रहता है।” 

झा ने इस विषय के सामाजिक पहलू पर भी ध्यान देने की बात की। उन्होने बताया, “ऐसे बीमारियों से जूझने वाले लोग अक्सर आदिवासी और दूर दराज के गरीब समाज से आने वाले पिछड़े लोग होते है। रोरो गांव की कहानी को ही ले लीजिये। खनन और ऐसे खतरनाक कामों में लिप्त लोग अक्सर जंगल या गांव में रहने वाले लोग होते हैं जिनकी स्थिति पर सरकार का अधिक ध्यान नहीं होता।  ना ही ये लोग अपने आवाज शहरी लोगो की तरह उठा सकते है।”

झा ने वैश्विक स्तर के एक जर्नल लैनसेट के एक अध्ययन का भी जिक्र किया जहां भारत मे एसबेस्टस को लेकर जांच और प्रशिक्षण की कमी की बात कही गई थी।

गोपाल कृष्ण, बिहार मे रहने वाले अधिवक्ता हैं जो वातावरण से जुड़े मामलों पर नजर रखते हैं। उन्होने 2002 में एसबेस्टस और इसके  खनन को भारत में बंद करवाने के लिए बैन एसबेस्टस नेटवर्क ऑफ इंडिया (बीएएनआई) की स्थापना भी की थी। कृष्ण का मानना है कि स्वास्थ्य राज्य का विषय है और झारखंड सरकार को एसबेस्टस से बीमार होने वाले लोगो को मुआवजा देना चाहिए। उन्होने ये भी बताया कि ब्राज़ील में एसबेस्टस के प्रयोग पर रोक है लेकिन वहां से भारत में इसका निर्यात होता है। रूस, चीन और कजाकिस्तान जैसे देशों ने आज तक इसके प्रयोग और निर्यात पर रोक नहीं लगाया है। कृष्ण बताते हैं कि भारत में प्रयोग हो रहा सारा एसबेस्टस इन देशों से आयात होता है।

मोहन का गांव रोरो, जिन पहाड़ियों पर बसा है, वहां 1963 से 1983 तक एसबेस्टस का खनन किया जाता था। लगभग चार दशकों तक एसबेस्टस के कचरे से निकलने वाली धूल, हवा पानी को गंदा करती रहती है। तस्वीर- मनीष कुमार/मोंगाबे
मोहन का गांव रोरो, जिन पहाड़ियों पर बसा है, वहां 1963 से 1983 तक एसबेस्टस का खनन किया जाता था। खनन बंद होने के लगभग चार दशक बीत जाने के बाद भी एसबेस्टस के कचरे से निकलने वाली धूल, हवा पानी को गंदा करती रहती है। तस्वीर- मनीष कुमार/मोंगाबे

“एसबेस्टस एक ऐसे पदार्थ है जिससे कैंसर होने के कई प्रमाण मिले हैं। बहुत से देशों ने इसके खनन और प्रयोग पर रोक लगा रखी है लेकिन हमारे देश मे धड़ल्ले से इसका प्रयोग चल रहा है। इसके इस्तेमाल समान्यतः वाहनों में, पाउडर में, भवन निर्माण में किया जाता रहा है। इसके छोटे फाइबर के कण, फेफड़े में जाने के बाद धीरे धीरे व्यक्ति को बीमार बना देते हैं और उसके सांस लेने की क्षमता काफी कम हो जाती है,” कृष्ण ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया।

अंतरराष्ट्रीय श्रम संघटन (आईएलओ) के एक अध्ययन में इसे काम-काज के क्षेत्र का सबसे बड़ा कैंसर का स्रोत कहा गया है जिसका प्रयोग विकासशील देशों में बढ़ता जा रहा है।

लंबी कानूनी लड़ाई

कुछ संस्थाओ के साथ मिलकर रोरो के गांव वालों ने राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) में न्याय के लिए याचिका दायर की जिसे प्राधिकरण ने 2014 में सुनवाई के लिए लिया था। 2019 में राज्य सरकार ने एनजीटी को बताया कि वो ज़िला मिनरल कोष (डीएमएफ़) के पैसे से एसबेस्टस से होने वाली समस्याओं से निजात दिलाने के लिए समर्पित है। झारखंड सरकार ने इसके लिए 13.45 करोड़ रुपये की घोषणा भी की जिससे एसबेस्टस के कचरे के आस पास दीवार खड़ी करने, पेड़ इत्यादि लगाने का वादा था। लेकिन सरकार के एनजीटी के सामने 2019 में कही बातों का जमीनी पर कोई असर नहीं दिखता। एसबेस्टस के प्रदूषण के अलावा यह गांव आज भी पीने के स्वच्छ पानी, पक्की सड़क, बिजली जैसे बुनियादी समस्याओं की राह देख रहा है। 

एनजीटी में कई सुनवाई हुई और इस समस्या के कई पहलू पर चर्चा भी हुई। हैदराबाद की खनन कंपनी जिसने यहां 1963 से 1983 के बीच एसबेस्टस का खनन किया था उसने एनजीटी को अपने लिखित वकालतनामें में बताया कि 1983 में अपने खनन का काम रोरो की पहाड़ियों में बंद कर दिया था। और 1983 के बाद के बने कानून के पालन के लिए लिए वे बाध्य नहीं हैं। 

2014-2020 के बीच बहुत सी योजनाएं बनाई गईं। एनजीटी के निर्देश के मुताबिक, सरकार को एक संयुक्त जांच टीम बनाने के लिए कहा गया और एक एक्शन प्लान बनाने के लिए भी। सरकार को इस जगह पर पड़े एसबेस्टस के ढेर के लिए वैज्ञानिक तकनीक से निपटारा करने के लिए भी कहा गया।  


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भारत सरकार के मुताबिक सरकार ने 1986 मे एसबेस्टस के लिए नया लीज देने पर पाबंदी लगा दी थी। भारत के राज्य मंत्री अश्विनी कुमार चौबे ने संसद को हाल ही में एक लिखित उत्तर में बताया कि सरकार एसबेस्टस के प्रयोग और व्यापार पर पाबंदी लगाने के बारे में नहीं सोच रही है।

भारतीय खान ब्यूरो के मुताबिक, वर्ष 2019-20 में भारत ने 361,164 टन एसबेस्टस का आयात किया। सबसे ज्यादा यानी 85 प्रतिशत एसबेस्टस रूस से आया। यह ब्राज़ील, कजकिस्तान, हंगरी, पोलैंड और दक्षिण अफ्रीका से भी आयात होता है। भारत आज विश्व में सबसे ज्यादा एसबेस्टस का आयात करता है। हालांकि सरकार का कहना है कि एसबेस्टस के आयात में कमी आई है। 

देश के सर्वोच्च न्यायालय ने 1995 में एक केस में एसबेस्टस से जुड़े उद्योगों को निर्देश दिया था कि वो अस्वस्थ कर्मचारियों को मुआवाजा दें। साथ ही यह भी निर्देश दिया गया था कि इन उद्योगों में काम करने वाले लोगों के स्वास्थ्य का पहले 40 साल से लेकर काम छोड़ने के 15 साल बाद तक का लेखा-जोखा रखा जाए। कोर्ट ने यह भी आदेश दिया था कि ऐसी स्थिति में मरीजो की सटीक जांच अहमदाबाद स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ऑक्यूपेशनल हज़ार्ड्स में करवायी जाए। 

खनन के बाद क्षतिपूर्ति की समस्या   

भारत सरकार के 1988 के मिनरल कंजर्वेशन एंड डेवलपमेंट रुल्स   में खनन हो जाने के बाद खनन की जगहों को फिर से बहाल करने की बात की गयी। लेकिन यह नियम भी रोरो के पास खनन के बंद होने के बाद आया। इसलिए यहां के कचरे का निष्पादन कैसे हो, यह समस्या जटिल होती गयी। इस क्षेत्र में काम कर रहे विशेषज्ञों का कहना है कि कानून होने के बाद भी खनन सुधार का कार्यक्रम अक्सर किताबों तक सीमित रह जाता है। शंकर प्रसाद पानी, भुवनेश्वर में रह रहे एक वकील हैं जो वातावरण और खनन के मुद्दे पर एनजीटी में केस लड़ते है। उन्होने बताया कि कानून में खनन सुधार को लेकर सुधार तो हुआ पर बहुत से जगहों पर यह कार्यक्रम फ़ेल हो जाता है। 

 

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बैनर तस्वीरः रोरो गांव के लोग खेती के अलावा जंगल के उत्पाद जैसे महुआ आदि पर निर्भर हैं। तस्वीर- मनीष कुमार/मोंगाबे

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