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फेक न्यूज या गलत जानकारी से जलवायु परिवर्तन से लड़ना हो रहा मुश्किल: आईपीसीसी

आईपीसीसी की रिपोर्ट कहती है कि महज मीडिया कवरेज बढ़ाने से जलवायु परिवर्तन से लड़ाई का अधिक सटीक कवरेज नहीं होता है। गलत सूचना के प्रसार भी बढ़ सकता है। तस्वीर- स्नेहा/पिक्साहाइव

आईपीसीसी की रिपोर्ट कहती है कि महज मीडिया कवरेज बढ़ाने से जलवायु परिवर्तन से लड़ाई का अधिक सटीक कवरेज नहीं होता है। गलत सूचना के प्रसार भी बढ़ सकता है। तस्वीर- स्नेहा/पिक्साहाइव

  • इस समय दुनियाभर में जलवायु परिवर्तन को ध्यान में रखकर कई सामाजिक आंदोलनों का उदय हो रहा है। हालांकि, ठीक इसी वक्त गलत जानकारियों और फेक न्यूज का दौर भी है। रूढ़िवादी और लोकलुभावन राजनीति द्वारा पोषित ऐसे झूठ के विस्तार को आईपीसीसी ने अपनी हालिया रिपोर्ट में शामिल किया है।
  • इस रिपोर्ट में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन के खतरों को लेकर लोगों की गलत धारणाएं और ध्रुवीकरण की वजह से वाजिब समस्याओं से निपटने के जो प्रयास जरूरी है उसमें देरी हो रही है।
  • भारत के संदर्भ में देखा जाए तो गलत जानकारियों की अपेक्षा जलवायु परिवर्तन पर कम जानकारी या बिल्कुल जानकारी न होना, एक बड़ी समस्या है।

जलवायु परिवर्तन के बारे में मिसइंफॉर्मेशन या गलत सूचना से लोगों की धारणा पर गलत असर होता है। ये गलत सूचनाएं फेक न्यूज या गलत जानकारी के रूप में समाज में फैलती हैं जिससे सामाधान की दिशा में कदम उठाने में अड़चने आ सकती हैं। आईपीसीसी की छठी मूल्यांकन रिपोर्ट (एआर 6) में मिसइंफॉर्मेशन को लेकर चिंता जताई गई है। यह रिपोर्ट जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का सबसे बड़ा वैश्विक मूल्यांकन पेश करती है और इससे निपटने की रणनीतियों पर केंद्रित है। 

इस महीने जारी आईपीसीसी वर्किंग ग्रुप III (डब्ल्यूजी III) की रिपोर्ट में क्लाइमेट गवर्नेंस (जलवायु शासन) का जिक्र आया है। यह जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए सत्ता या शासन के स्तर पर नीति और कार्रवाई को दर्शाता है। रिपोर्ट में कहा गया है कि बीते कुछ सालों में इस मुद्दे की तरफ, जलवायु शासन के साथ-साथ, नागरिक और निजी जुड़ाव में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। लेकिन जलवायु शासन व्यापक समूह से प्रभावित होता है, जिसमें जलवायु-समर्थक और जलवायु-विरोधी दोनों तरह के समूहों के लोग हस्तक्षेप करने की कोशिश कर रहे होते हैं। जलवायु समर्थक वे लोग होते हैं जो परिवर्तन को समझते हैं और इसे रोकने के लिए सरकार से योजनाएं बनाने की मांग करते हैं। वहीं जलवायु-विरोधी तत्व से मतलब उन लोगों से है जो गलत सूचनाओं के आधार पर अक्सर जलवायु परिवर्तन को नकारते हैं।

रिपोर्ट में कहा गया है, “जलवायु परिवर्तन के कारणों और परिणामों के बारे में गलत सूचनाएं हर जगह मौजूद हैं वो चाहें परंपरागत मीडिया हो या सोशल या नया मीडिया। इससे नुकसान यह हो रहा है कि जलवायु परिवर्तन से संबंधित वैज्ञानिक जानकारी का जमीन पर पहुंचना काफी कम हो गया है।”

डब्ल्यूजी II में भी यह दर्ज  किया गया था कि जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन को लक्षित करने वाले सामाजिक आंदोलन बढ़ रहे हैं, राजनीतिक रूढ़िवाद और लोकलुभावनवाद के साथ-साथ गलत सूचनाओं में भी वृद्धि हो रही है। 

ग्लासगो में कॉप 26 आयोजन स्थल से सटे एक पुल पर विरोध प्रदर्शन करता एक आदमी। जलवायु परिवर्तन को रोकने संबंधित बैनर-पोस्टर के साथ ग्लासगो शहर में ऐसे कई प्रदर्शनकारी देखे जा सकते हैं। तस्वीर- सौम्य सरकार
ग्लासगो में कॉप 26 आयोजन स्थल से सटे एक पुल पर विरोध प्रदर्शन करता एक शख्स। तस्वीर- सौम्य सरकार

इससे जलवायु परिवर्तन से कार्रवाई के लिए सत्ता में बैठे लोगों की अनिच्छा दिखती है, रिपोर्ट में कहा गया है। 

शायद पहली बार गलत सूचना या फेक न्यूज की चिंता आईपीसीसी रिपोर्ट की दूसरी किस्त में शामिल की गयी थी। इसे इसी साल 27 फरवरी को अंतिम रूप दिया गया था। गलत सूचना और जलवायु कार्रवाई का जिक्र आईपीसीसी की तीसरी किस्त (डब्ल्यूजी III) में भी किया गया है। 

जलवायु परिवर्तन को कम करने में सरकार की भूमिका पर गलत सूचना और ग्रीनवाशिंग के प्रभाव पर आईपीसीसी के वर्किंग ग्रुप III के उपाध्यक्ष डायना अर्गे-वोर्साट्ज़ ने 4 अप्रैल को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में बोला। उन्होंने कहा “पारदर्शिता, रिपोर्टिंग, निगरानी और सत्यापन सभी महत्वपूर्ण हैं। हमारे लिए महत्वाकांक्षी जलवायु लक्ष्यों और महत्वाकांक्षी नीतियों को लागू करना तभी संभव होगा जब हम इन्हें नीति का हिस्सा बनाएंगे।”

जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल (आईपीसीसी), संयुक्त राष्ट्र का एक अंग है, जो जलवायु परिवर्तन और इसके प्रभावों और भविष्य के जोखिमों पर वैज्ञानिक, तकनीकी और सामाजिक-आर्थिक स्थिति के बारे में व्यापक मूल्यांकन रिपोर्ट तैयार करता है। 

आकलन रिपोर्ट की प्रक्रिया में तीन कार्य समूहों की रिपोर्ट प्रकाशित होती है। पहला, वर्किंग ग्रुप I जो जलवायु परिवर्तन के भौतिक विज्ञान आधारित समझ समेटे हुए होती है। दूसरे, वर्किंग ग्रुप II जो इसके प्रभाव, निपटने की तैयारी और हमारी कमजोरी पर बात करती है। तीसरा, वर्किंग ग्रुप III जो जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए किये जा रहे प्रयास पर बात करती है तथा जरूरी प्रयास पर भी बल दिया जाता है। 

जलवायु को लेकर गलत सूचना से ध्रुवीकरण का खतरा

आईपीसीसी वर्किंग ग्रुप II की रिपोर्ट ने गलत सूचना और जलवायु परिवर्तन के विपरीत विचार को फैलाने में आर्थिक-राजनीतिक ताकतों पर वित्तपोषण करने का आरोप लगाया। रिपोर्ट के मुताबिक अपने स्वार्थ के लिए ये ताकतें गलत जानकारी फैलाती हैं। रिपोर्ट में लिखा गया है कि जलवायु परिवर्तन पर बयानबाजी और गलत सूचना और विज्ञान को जानबूझकर कम आंकने की वजह से वैज्ञानिक सहमति, अनिश्चितता, नीतियों पर कार्रवाई न करने का जोखिम और असंतोष को बढ़ाया है।

इस रिपोर्ट में कहा गया है कि ऐसी स्थिति में जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए तत्काल जो कार्रवाई होनी चाहिए, उसमें देरी हो रही है। 

विशेष रूप से उत्तरी अमेरिका का एक उदाहरण वर्किंग ग्रुप II  रिपोर्ट में पेश किया गया है। मानवों की गलतियों से जलवायु परिवर्तन होने की बात का वैज्ञानिक प्रमाण है लेकिन गलत सूचनाओं की वजह से लोगों की गलत धारणा बन गई। गलत सूचना और राजनीतिकरण की वजह से उत्तरी अमेरिका में सार्वजनिक और नीति बनाने वाले क्षेत्र में ध्रुवीकरण पैदा हुआ, इससे नीतियां प्रभावित हुईं। 

डब्ल्यूजी III की रिपोर्ट ने ध्रुवीकरण को बढ़ावा देने में गलत सूचना की भूमिका को स्वीकार करते हुए कहा,”कई देशों में एक साथ ‘फर्जी समाचार’ और ‘पोस्ट-ट्रुथ’ के संदेह के प्रसार के साथ, कुछ पारंपरिक और सोशल मीडिया सामग्री ने ध्रुवीकरण और जलवायु परिवर्तन पर पक्षपातपूर्ण विभाजन को बढ़ावा दिया है।”

23-वर्षीय एलिस बरवा ने शनिवार को विरोध प्रदर्शन में आदिवासी युवाओं का प्रतिनिधित्व किया। उनके नेतृत्व में गांव छोड़ब नहीं और हसदेव अरण्य बचाओ जैसे पोस्टर्स प्रदर्शनी में शामिल किए गए। तस्वीर- प्रियंका शंकर/मोंगाबे
ग्लासगो में संयुक्त राष्ट्र के जलवायु सम्मेलन के दौरान प्रदर्शन करते युवा। तस्वीर- प्रियंका शंकर/मोंगाबे

यूके स्थित इंस्टीट्यूट फॉर स्ट्रैटेजिक डायलॉग (आईएसडी) में सिविक एक्शन एंड एजुकेशन के प्रमुख जेनी किंग ने डब्ल्यूजी II रिपोर्ट जारी होने के बाद एक बयान में कहा, “नवीनतम आईपीसीसी रिपोर्ट (डब्ल्यूजी II रिपोर्ट) ने स्पष्ट तरीके से बता दिया कि गलत सूचनाएं और दुष्प्रचार जलवायु कार्रवाई में देरी की वजह बनते हैं। सार्वजनिक स्वास्थ्य और चुनावी अखंडता के मामले में हमने पहले देखा है कि गलत सूचनाएं कैसे समाज को प्रभावित कर रही हैं। हालांकि जलवायु क्षेत्र में काम करने वाले लोग बहुत पहले से इस मुद्दे को उठाते रहे हैं पर आईपीसीसी, जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (यूएनएफसीसीसी) और सीओपी (कांफ्रेंस ऑफ़ पार्टीज) प्रेसीडेंसी जैसी प्रमुख संस्थाओं ने अब तक इसका संज्ञान नहीं लिया था।” 

भारत के संदर्भ में कम जानकारी होना बड़ी दिक्कत

भारत के मामले में जलवायु परिवर्तन को लेकर गलत सूचना बड़ी चिंता है जानकारी का अभाव। जब हम कुछ जलवायु कार्रवाई कार्यक्रमों को लागू होते देखते हैं तो पाते हैं कि जानकारी के अभाव से मुश्किलें आ रही हैं। यह कहना है आईसर-पुणे में जल अनुसंधान केंद्र के मानविकी और सामाजिक विज्ञान के एसोसिएट प्रोफेसर बिजॉय के थॉमस का। उन्होंने आईपीसीसी वर्किंग ग्रुप II रिपोर्ट में योगदान भी दिया था। 

उन्होंने मोंगाबे-हिन्दी से बातचीत में बताया कि उदाहरण के लिए आप पूरे भारत में सक्रिय वृक्षारोपण परियोजनाओं को देखते हैं। हम सभी को सिखाया गया है कि वृक्षारोपण एक अच्छा विचार है। लेकिन इसमें ध्यान यह रखना है कि आप किस स्थान पर पेड़ लगा रहे हैं। साथ ही, आप किस तरह की प्रजातियां लगाते हैं, यह जैव विविधता को कैसे प्रभावित करने वाला है, ये सभी कारक हैं जिन पर ध्यान देने की आवश्यकता है।

थॉमस कहते हैं कि यह गलत सूचना से नहीं जुड़ा है, लेकिन शायद आंशिक या जानकारी की कमी से अधिक जुड़ा है।

आईपीसीसी डब्ल्यूजी II रिपोर्ट, अध्याय 18 में एक और वनों के रखरखाव के उदाहरण का जिक्र आता है। वनों के रखरखाव और उन्हें बढ़ाने से अन्य लाभों के बीच खाद्य, ईंधन (लकड़ी), कार्बन अवशोषण के साथ-साथ सांस्कृतिक लाभ भी मिल सकते हैं। वहीं अगर गैर-देसी प्रजाति के एक ही तरह के पेड़ लगाए जाएं तो इसका असर विपरीत भी हो सकता है। इससे जैव विविधता में हानि और पानी की अधिक खपत सहित भूस्खलन में वृद्धि हो सकती है। 

यूकेलिप्टस की प्रतीकात्मक तस्वीर। जयराम रमेश कहते हैं, "मैंने कहा था कि कैंपा फंड का इस्तेमाल जंगल को पुनर्जीवित करने में होना चाहिए। वृक्षारोपण में पौधों के बचने की संभावना काफी कम होती है। हमने यह भी पाया कि पौधा लगाने के नाम पर बबूल और यूकेलिप्टस के पेड़ लगा दिए जाते हैं। भारतीय जंगल खोकर हम न सिर्फ पेड़ बल्कि जमीन भी खराब कर रहे हैं।" तस्वीर- आनंद उरुस/विकिमीडिया कॉमन्स
एक ही तरह के पेड़ लगाए जाएं तो इससे जैव विविधता में हानि और पानी की अधिक खपत सहित भूस्खलन में वृद्धि हो सकती है। तस्वीर– आनंद उरुस/विकिमीडिया कॉमन्स

“जलवायु परिवर्तन कार्रवाई और परियोजनाओं के मूल्यांकन में आंशिक जानकारी और वैज्ञानिक विशेषज्ञता की कमी है। कई सामान्य विकास परियोजनाओं को जलवायु परिवर्तन से जुड़ी योजना का नाम दे दिया जाता है। ये परियोजनाएं वैसे भी जलवायु परिवर्तन के लोकप्रिय होने से पहले से चल रही थीं,” थॉमस कहते हैं। 

“इन सूचनात्मक चुनौतियों को दूर करने के लिए, जमीन पर काम करने वाले लोगों और वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों को सक्रियता बढ़ानी चाहिए,” उन्होंने कहा। 

मीडिया में जलवायु परिवर्तन की जानकारी 

वर्किंग ग्रुप III की रिपोर्ट में जलवायु शासन को आकार देने के लिए संचार मंच के रूप में मीडिया पर भी  चर्चा की गयी है। इस पर एक पूरा अध्याय शामिल किया गया है। महज मीडिया कवरेज बढ़ाने से जलवायु परिवर्तन से लड़ाई का अधिक सटीक कवरेज नहीं होता है। गलत सूचना के प्रसार भी बढ़ सकता है। 

“इसके अलावा कुछ मीडियाकर्मी विवाद के दोनों पक्षों से बात करते हैं। इस वजह से जलवायु परिवर्तन के वैज्ञानिक पक्ष का प्रतिनिधित्व कम होने का एक खतरा रहता है। यह जलवायु परिवर्तन की बुनियादी वैज्ञानिक समझ के संबंध में पत्रकारों के बीच बढ़ती आम सहमति के बावजूद हो रहा है,” रिपोर्ट ने कहा। 

“इसकी वजह से कई लोग भ्रम पैदा करने के लिए आजमाया हुआ तरीका इस्तेमाल करते हैं। जलवायु परिवर्तन को कम करने की कोशिशों को संस्कृति से जोड़कर विवाद पैदा करने की कोशिश होती है। इस विवाद का एक उदाहरण कोविड-19 लॉकडाउन और वैक्सिन की अनिवार्यता को भू-राजनीति और मानव अधिकारों से जोड़कर देखा जाना है,” किंग ऑफ आईएसडी ने एक बयान में कहा।

“यह जरूरी है कि हम सोशल मीडिया के साथ-साथ ऑफलाइन भी गलत सूचना फैलाने से रोकें और बुरे लोगों के लिए किसी भी मीडिया प्लेटफॉर्म की उपलब्धता कम करें।”

उत्तरी अमेरिका में चुनौतियों के संदर्भ में, आईपीसीसी डब्ल्यूजी II रिपोर्ट ने इस बात पर प्रकाश डाला कि “पारंपरिक मीडिया जैसे प्रिंट और ब्रॉडकास्ट मीडिया जलवायु परिवर्तन की जानकारी को प्रसारित करता है और सार्वजनिक धारणाओं को एक आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।”


और पढ़ेंः [व्याख्या] क्या है आईपीसीसी एआर-6 और भारत के संदर्भ में इसकी प्रासंगिकता?


भारतीय मीडिया सहित मीडिया के बारे में इसी तरह की खोज 2021 में एक अलग अध्ययन में सामने आई है। यह अध्ययन आईपीसीसी रिपोर्ट से जुड़ी नहीं थी। अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के अध्ययन में पाया गया था कि जलवायु परिवर्तन के मीडिया प्रतिनिधित्व सार्वजनिक धारणाओं और जलवायु परिवर्तन के ज्ञान को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। शोधकर्ता रंजिनी मुरली, ऐश्वर्या कुंवर और हरिनी नागेंद्र ने ग्लोबल साउथ और ग्लोबल नॉर्थ का प्रतिनिधित्व करने के लिए भारत, नाइजीरिया, ऑस्ट्रेलिया और संयुक्त राज्य अमेरिका में अंग्रेजी मीडिया के नैरेटिव को देखा।

अपने भारतीय मीडिया से संबंधित निष्कर्षों के संबंध में, शोधकर्ताओं ने लिखा कि भारतीय मीडिया में जलवायु परिवर्तन के अस्तित्व पर रिपोर्टिंग ने हमेशा वैज्ञानिक सहमति को दर्शाया है। लेकिन भारतीय मीडिया द्वारा जिम्मेदारी तय करने में सबसे आम स्टोरी यह थी कि वैश्विक उत्तर देश अपने ऐतिहासिक उत्सर्जन और अधिक खपत के कारण उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार हैं। 

“ऑस्ट्रेलियाई और भारतीय मीडिया, जलवायु उत्सर्जन के उत्पादन में देश की अपनी जिम्मेदारी को नहीं दिखाते। इसकी वजह मुख्य रूप से राजनीतिक है जो किसी विशिष्ट समूहों पर जलवायु परिवर्तन की जिम्मेदारी थोपते हैं। इस तरह वे जनता के दिमाग को भी भ्रमित कर सकते हैं, गलत सूचना फैला सकते हैं जिससे जलवायु कार्रवाई के लिए सार्वजनिक समर्थन कम हो सकता है,”अध्ययन में कहा गया है।

 

इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें। 

बैनर तस्वीरः आईपीसीसी की रिपोर्ट कहती है कि महज मीडिया कवरेज बढ़ाने से जलवायु परिवर्तन से लड़ाई का अधिक सटीक कवरेज नहीं होता है। गलत सूचना का प्रसार भी बढ़ सकता है। तस्वीर– स्नेहा/पिक्साहाइव

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