- जून में रियो समिट के 30 साल पूरे हो रहे हैं, हालांकि संयुक्त राष्ट्र इस बार इस अवसर पर कोई आयोजन नहीं कर रहा है।
- जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता पर सम्मेलनों के कार्यान्वयन पर भारत की प्रगति, कई अन्य स्थानीय बदलाव से, जुड़ी रही है।
- जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता से संबंधित सबसे पहले आयोजित दोनों सम्मेलनों के अस्तित्व में आने के बाद से दुनिया गर्म हुई है और जैव विविधता का ह्रास हुआ है। फिर भी कुछ उम्मीद की किरणें तो दिखती ही हैं।
इस गर्मी में रियो अर्थ समिट के तीस साल पूरे हो जाएंगे। इस समिट के हरेक दशक के पूरा होने पर संयुक्त राष्ट्र एक बड़ा आयोजन करता रहा है। पर इस बार ऐसा कोई आयोजन नहीं हो रहा। अभी दुनिया एक महामारी की गिरफ्त में है जिसकी पकड़, झिझक के साथ ही सही, पर कमजोर होती दिख रही है। फिर इधर यूक्रेन और रूस के बीच युद्ध भी छिड़ गया है जिसकी वजह से वैश्विक व्यवस्था में कई बदलाव होने की संभावना है।
1992 में जब रियो शिखर सम्मेलन का आयोजन हुआ था या कहें पर्यावरण और विकास के मुद्दे पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन आयोजित किया गया था, तब भारत और चीन की गिनती विकासशील देशों के तौर पर होती थी। इन्हें उन देशों की सूची में शामिल नहीं किया गया था, जिन्हें जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कमी को लेकर कोई लक्ष्य निर्धारित करने की आवश्यकता थी। आज स्थिति बदल गई है और पूरी दुनिया की नजर इन दोनों देशों के शीर्ष नेतृत्व पर टिकी है कि उत्सर्जन की कमी को लेकर क्या निर्णय लेते हैं।
2002 में रियो शिखर सम्मेलन के दस साल पूरा होने जोहानसवर्ग घोषणापत्र आया था जिसमें अमीर और गरीब देशों की बात की गयी थी। इसे रियो+10 के नाम से भी जाना जाता है जहां “वैश्विक असमानताओं” का भी जिक्र किया गया था। इसे, जब वैश्वीकरण के साथ जोड़ा जाए जहां “लाभ और लागत असमान रूप से वितरित हैं,” तो यह नई स्थिति “वैश्विक समृद्धि, सुरक्षा और स्थिरता के लिए एक बड़ा खतरा” हो सकती है।
इसके भी एक दशक बाद यानी 2012 में जब रियो शिखर सम्मेलन को 20 साल पूरा हुआ तो रियो डी जनेरियो में एक बड़ा आयोजन हुआ। इस रियो+20 समिट के समय तक विश्व व्यवस्था बदल चुकी थी। 2008 में आए वैश्विक आर्थिक संकट ने विकसित देशों की विकास गाथा पर विराम लगा दिया। अमेरिका में बड़े स्तर पर लोन डिफ़ॉल्ट होने से शुरू हो गए थे। इस समस्या ने दुनिया के आर्थिक महाशक्ति की बैंकिंग व्यवस्था की पोल खोल दी जहां पर्याप्त सावधानी (कोलैटरल) के बिना खूब कर्ज दिए गए थे। इस आर्थिक संकट ने अमेरिका और यूरोप की आपस में जुड़ी अर्थव्यवस्था को संकट में ला दिया था। दूसरी तरफ चीन और भारत इससे से अछूते रहे और तेजी से विकास करते रहे।
रियो+20 बैठक में विकसित देश ‘ग्रीन जॉब’ पर चर्चा कर रहे थे और इसका मुख्य विषय था “स्थायी विकास और गरीबी उन्मूलन के संदर्भ में एक हरित अर्थव्यवस्था।” ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कमी के लक्ष्य के निर्धारण को लेकर चीन और भारत पर दबाव बढ़ रहा था। अपने राष्ट्रीय संदेश में भारत ने शिखर सम्मेलन के लिए समानता और सामान्य लेकिन अलग-अलग जिम्मेदारियों का सिद्धांत, वाले दृष्टिकोण पर जोर दिया था। इससे “नीति निर्माताओं को अपने देश की मौजूदा स्थिति और प्राथमिकता के आधार पर तमाम मौजूद विकल्प में चुनने की सहूलियत होगी और इसके आधार पर सतत विकास का रास्ता इख्तियार करने की सहूलियत होगी।”
हालांकि, 2015 के पेरिस समझौते के साथ ही समानता और सामान्य लेकिन अलग-अलग जिम्मेदारियों की अवधारणा कहीं पीछे छूट गयी। और इस तरह सभी देशों ने अपने राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान के आधार पर अपने उत्सर्जन में कमी के रास्ते तय किए। भारत में भी देश के प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने 2015 के बाद नवीन ऊर्जा को लेकर दो-दो बार महत्वाकांक्षी फैसले लिए और पूर्व के लक्ष्य का विस्तार किया। इस तरह भारत भी उत्सर्जन में कमी से संबंधित वैश्विक बहस में अब पूरी तरह उतर चुका है।
दो सम्मेलन और दो रास्ते
वैसे तो संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसीसी), जिसे आमतौर पर क्लाइमेट चेंज कन्वेंशन के रूप में जाना जाता है और साथ ही कन्वेंशन ऑन बायोलॉजिकल डायवर्सिटी (सीबीडी), दोनों 1992 के रियो शिखर सम्मेलन की ही उपज हैं, पर देश में दोनों की प्रगति एकदम जुदा रही। अंतरराष्ट्रीय वार्ता में समानता के मुद्दे पर भारत ने काफी मुखर स्थिति इख्तियार की थी पर देश के भीतर इसपर बहुत मंथर गति से काम हुआ। जब तत्कालीन प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने जून 2008 में जलवायु परिवर्तन पर प्रधान मंत्री परिषद का गठन किया तब जाकर इसपर सक्रियता बढ़ी। उसी महीने में, जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना की शुरुआत की गयी जिसके आठ घटक थे। यानी आठ मिशन।
बाद के वर्षों में इन नीतियों पर काम होना शुरू हुआ। 2010 तक राज्यों को अपनी जलवायु परिवर्तन संबंधित कार्य योजना बनाने के लिए मदद दी जाती रही। फलस्वरूप कुछ सालों में लगभग सभी राज्यों की खुद की कार्य योजना तैयार हो पाई। तत्कालीन योजना आयोग ने समावेशी विकास के लिए कम कार्बन उत्सर्जन की रणनीति विकसित करने की दिशा में कदम उठाया और सही तरीकों की सिफारिश करने के लिए एक विशेषज्ञ समूह का गठन किया। इस समूह ने अपनी रिपोर्ट 2014 में प्रस्तुत की थी।
जलवायु परिवर्तन पर प्रारंभिक अस्पष्टता के बावजूद, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार ने 2 अक्टूबर, 2015 को भारत के राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान की घोषणा कर दी। इसमें अर्थव्यवस्था की ऊर्जा तीव्रता को कम करने की बात की गयी थी। साथ में जीवाश्म ईंधन से गैर-जीवाश्म ईंधन की तरफ जाने के लिए महत्वाकांक्षी लक्ष्य तय किये गए थे। इसका एक और लक्ष्य था पेड़ और वन आवरण की वृद्धि के माध्यम से कार्बन सोखना। हाल ही में प्रधान मंत्री ने इस पथ पर देश की महत्वाकांक्षा को और उड़ान दी जब उन्होंने 2070 तक नेट जीरो का लक्ष्य हासिल कर लेने की घोषणा की। नेट जीरो से तात्पर्य वातावरण में कार्बन उत्सर्जन करने को शून्य करने से है।
वहीं सीबीडी को लेकर गति काफी मंथर रही। यह तब है जब जैव विविधता सम्मेलन में किये गए प्रतिबद्धताओं को लागू करने से संबंधित कानून बनाने में भारत अग्रणी देशों में शुमार है। रियो शिखर सम्मेलन के लगभग तुरंत बाद, देश में वृहत्तर चर्चा शुरू हुई कि इससे संबंधित कानून बने। यही वजह था कि 2002 में ही जैविक विविधता अधिनियम तैयार हो पाया। इस अधिनियम के तहत राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण की स्थापना हुई जो चेन्नई में स्थित है। अब देश में कुल 28 राज्य जैव विविधता बोर्ड हैं। इसके साथ ही आठ जैव विविधता परिषद और 276,836 जैव विविधता प्रबंधन समितियां, पंचायत स्तर की संस्थाओं से जुड़ी हैं।
दिलचस्प यह है कि भले ही जैव विविधता संरक्षण के लिए देश में संस्थागत व्यवस्था जल्दी शुरू की गई पर मीडिया और अन्य सार्वजनिक बहसों में जलवायु परिवर्तन को अधिक स्थान मिला। अभी भी जैव विविधता पर काफी कम चर्चा होती है और शायद यही वजह है कि विकास की परियोजनाओं के समक्ष जैव विविधता संरक्षण से संबंधित चिंताओं को अधिक महत्व नहीं मिल पाता।
इस यात्रा के दो और पड़ाव
पिछले तीन दशक में, वर्ष 1991 और 1992 का अलहदा स्थान है। जब वैश्विक स्तर पर 1992 में रियो शिखर सम्मेलन का आयोजन हुआ और जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता सम्मेलनों की शुरुआत हुई, उसी वर्ष भारत सरकार ने संविधान में 73वें और 74वें संशोधन को भी पारित किया। इस तरह ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के स्थानीय निकायों को निर्णय लेने की शक्ति दी गयी।
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एक साल पहले यानी 1991 में जब देश की अर्थव्यवस्था चरमरा गयी तो भारत में आर्थिक सुधारों की नींव रखी गई। इसमें उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण के साथ औद्योगिक क्षेत्र में संरचनात्मक सुधारों पर जोर दिया गया। देश की केन्द्रीय सत्ता में 1984 और 1989 के बीच कांग्रेस के नेतृत्व वाली बहुमत की सरकार रही। फिर गठबंधन वाली सरकारों का दौर चला। यह सिलसिला 2014 तक रहा जब तक भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की बहुमत की सरकार सत्ता में नहीं आ गयी। ऐसे में देश की केन्द्रीय सत्ता एक छोर से दूसरे छोर में घूमती रही। इतने सालों तक केंद्र में गठबंधन की सरकारों की वजह से उठापटक की स्थिति बनी रही। कोई भी छोटी क्षेत्रीय पार्टी बड़े राष्ट्रीय महत्व के निर्णय को प्रभावित कर लेती थी। तो दूसरी तरफ ऐसी बहुमत की सरकार आई जहां एक ही पार्टी के कुछ लोग मिलकर बड़े निर्णय ले लेते हैं।
इन सबके प्रभाव से पर्यावरण भी अछूता न रहा। आर्थिक सुधारों की शुरुआत के बाद के वर्षों में औद्योगीकरण और बुनियादी ढांचे के विकास पर पूरा जोर था। एक दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा में अधिकतर राज्यों ने विकास संबंधित परियोजनाओं को खूब प्रोत्साहित किया। सनद रहे कि अधिकतर राज्यों में क्षेत्रीय दलों की सरकार थी। जब इन परियोजनाओं को लेकर पर्यावरण या सामाजिक चिंता जाहिर हुई तो इसे संघीय ढांचे पर हमला करार दिया जाता था। 2014 के बाद स्थिति एकदम बदल गयी है जिसमें बड़े निर्णय केंद्र ही लेता है और उसको लागू करता है। इस व्यवस्था में स्थानीय चिंताओं की उपेक्षा होती है। दशकों पहले देश में ऐसी ही स्थिति थी।
आर्थिक सुधारों ने देश की आकांक्षाओं को नया आयाम दिया। उदारीकरण ने विनिर्माण क्षेत्र और सेवा क्षेत्र में नई जान फूंक दी। इन दोनों क्षेत्र ने भारतीय मध्यम वर्ग के उपभोग के लिए वस्तुओं और सेवाओं की लंबी फेहरिस्त तैयार की। पर्यावरण की दृष्टि से देखा जाए तो पुराने शहरों का दायरा बढ़ता जा रहा था। पिछले 30 वर्षों में नए शहरी क्षेत्र का अभूतपूर्व विकास हुआ। इससे प्राकृतिक आवास का दायरा प्रभावित हुआ। औद्योगिक सम्पदा और विशेष आर्थिक क्षेत्रों के विकास ने संवेदनशील और सामूहिक भूमि को लील लिया। तटीय बुनियादी ढांचे के विकास से समुद्र तट तहस-नहस हो गए। उधर राजमार्ग और रेलवे लाइनों को संरक्षित क्षेत्रों से निकाला जाने लगा।
जब देश में कोविड-19 महामारी आई तो विकास के इस मॉडल की सामाजिक-आर्थिक कीमत स्पष्ट तौर पर सामने दिखी। इस महामारी की पहली लहर उनलोगों के लिए कष्टदायक रही जो अपना घर-बार छोड़कर रोजी-रोटी की तलाश में शहरों में संघर्ष कर रहे थे। वहीं दूसरी लहर ने उनलोगों को भी अपनी चपेट में ले लिया जो खुद को ऐसी समस्या से अछूते मानते थे।
संविधान के 73वें और 74वें संशोधन के प्रावधानों को बनाने के लिए प्रत्येक राज्य को अपना कानून बनाना था। जहां कुछ राज्यों ने इस पर पूरी तत्परता से काम किया, वहीं अन्य ने इसमें हीला-हवाली जारी रखा। हालांकि, 1990 के दशक के अंत तक अधिकांश राज्यों में इससे संबंधित कानून अस्तित्व में आ गए थे। पंचायतों के प्रावधान (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम के माध्यम से 1996 में आदिवासी बहुल क्षेत्रों में भी इसके प्रावधानों का विस्तार किया गया था। वन अधिकार अधिनियम 2006 के माध्यम से वनवासी समुदायों के अधिकारों को और संरक्षित किया गया था।
भले ही विभिन्न राज्यों में पंचायत अधिनियम का कार्यान्वयन अलग-अलग हो, स्थानीय समुदायों ने इसके प्रावधानों का उपयोग कर कुछ परियोजनाओं को रोका जिससे उन्हें डर था कि इससे उनका पर्यावरण नष्ट हो जाएगा। 1995 में, गोवा में एक पंचायत ने थापर ड्यूपॉन्ट लिमिटेड के नायलॉन 6,6 कारखाने को अनुमति देने से इनकार कर दिया। इस संयंत्र को तब तमिलनाडु जाना पड़ा। इसके बाद एक और बड़ी घटना हुई जिसने सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। ओडिशा में कई ग्राम सभाओं ने 2013 में नियमगिरी में बॉक्साइट खनन परियोजना को खारिज कर दिया था।
त्रि-स्तरीय संरचनाओं के अस्तित्व में आने से जैव विविधता और जलवायु परिवर्तन सम्मेलन के प्रावधानों को जमीनी स्तर पर ले जाने के लिए एक मंच मिला। पंचायत स्तर पर 275,000 से अधिक जैव विविधता प्रबंधन समितियों और जैव विविधता रजिस्टरों के विकास में स्थानीय समुदायों की भागीदारी से गांवों और शहरी क्षेत्रों के आसपास जैव विविधता को लेकर जागरूकता बढ़ी है। केरल जैसे राज्यों ने पंचायत स्तर के नेताओं को जलवायु परिवर्तन के मुद्दों को लेकर प्रशिक्षित किया है। इसी का नतीजा है कि मीनांगडी जैसी पंचायतों ने कार्बन तटस्थ होने की प्रक्रिया शुरू कर दी है।
प्रकृति के तेवर
हालांकि, पर्यावरण पर सबसे बड़ा आघात प्रकृति की तरफ से ही आया है। अभी भारत का उत्तरी हिस्सा, भीषण गर्मी और लू की चपेट में है। यहां का तामपान 45 डिग्री सेल्सियस और 50 डिग्री सेल्सियस के बीच रह रहा है। विशेषज्ञ इन हीटवेव को जलवायु परिवर्तन से जोड़ कर देख रहे हैं और मांग कर रहे हैं कि देश में एक नेशनल हीट कोड बनाया जाए। उधर अर्बन हीट आईलैंड इफेक्ट की वजह से शहरों में गर्मी का प्रकोप और बढ़ा है। अन्य क्षेत्रों की तरह यहां भी गरीबों को अधिक मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। जलवायु संबंधित मुश्किलें उनके लिए अधिक चुनौती लेकर आती है।
पर बढ़ती गर्मी और लू का यह रूप जो दिख रहा है वह कहानी का एक हिस्सा भर है। समुद्री जीवन में भी इसका असर दिखने लगा है। पिछले चार दशक में पश्चिमी हिंद महासागर में प्रति दशक 1.5 घटनाओं की दर से, समुद्री हीटवेव की संख्या में, वृद्धि हुई है। बंगाल की खाड़ी के उत्तरी हिस्से में प्रति दशक 0.5 घटनाओं की संख्या में वृद्धि हुई है। इन हीटवेव से अरब सागर में पहले से ही बढ़ते तापमान में और वृद्धि हो सकती है। इससे समुद्री चक्रवातों की संख्या में वृद्धि होने की संभावना है। यहां तक कि दक्षिण-पश्चिम मानसून भी चरम मौसम की घटनाओं में तब्दील हो सकता है।
भविष्यवाणी भी कुछ अच्छी नहीं दिख रही है। इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज इन वर्किंग ग्रुप 1 की रिपोर्ट में कहा गया है कि 21वीं सदी में भारतीय उपमहाद्वीप और दक्षिण एशिया में हीटवेव अधिक तीव्र होगी और लगातार होगी। गर्मी और मानसून में होने वाली वर्षा बढ़ेगी और अधिक तीव्र हो जाएगी। यही नहीं, एक साथ मिश्रित चरम मौसम की घटनाएं होने की संभावनाएं हैं जिसे भीषण क्षति होने की संभावना बनी रहेगी।
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पिछले कुछ वर्षों में चरम मौसम की घटनाओं के दौरान लोगों की भागीदारी और साथ ही जागरूकता भी बढ़ी है। दिसंबर 2015 में आए, चेन्नई बाढ़ के दौरान राज्य सरकार के उच्च अधिकारियों ने आम लोगों को उनके हालात पर लगभग छोड़ दिया था, तब आम लोगों ने अपने स्वयं के संचार और अल्पकालिक पूर्वानुमान नेटवर्क का नवाचार किया। अगस्त 2018 में केरल में आए बाढ़ के दौरान भी इसी तरह की सामाजिक एकता दिखी। केरल की बाढ़ में 310 अरब रुपये का आर्थिक नुकसान होने का अनुमान लगा था।
क्लीन टेक्नॉलजी को लेकर फंडिंग में हो रहा बदलाव
इन्हीं क्रूर वास्तविकताओं के मद्देनजर भारत में हो रहा एनर्जी ट्रांजिशन एक स्वागत-योग्य कदम है। एनर्जी ट्रांजिशन से तात्पर्य ऊर्जा जरूरतों के लिए जीवाश्म ईंधन पर अपनी निर्भरता कम करने और नवीन ऊर्जा का अधिक से अधिक इस्तेमाल करने से है। हालांकि इसकी भी अपनी पर्यावरण और सामाजिक तौर पर न्यायसंगत होने की अपनी चुनौतियां हैं। वैश्विक तस्वीर में सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा जब दुनिया की 17% आबादी जीवाश्म ईंधन से दूर हो जाएगी।
बड़े कॉरपोरेट घरानों अक्षय ऊर्जा के क्षेत्र को लेकर अपनी योजनाओं की घोषणा कर रहे हैं। इस क्षेत्र में विदेशी और भारतीय निवेश की उम्मीद बनी है। यह भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए शुभ संकेत है क्योंकि कुछ गलत फैसलों और फिर महामारी के आने से राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था मुश्किल दौर में है। 1990 के दशक में क्योटो प्रोटोकॉल के तहत हरित कूटनीति और स्वच्छ विकास तंत्र (सीडीएम) पर रुझान था। अब ग्रीन व्यापार और निवेश संबंधों पर अधिक ध्यान दिया जा रहा है..
भारत देश में अक्षय ऊर्जा के विस्तार के उद्देश्य से वित्त जुटाने के लिए 240 अरब रुपये के सॉवरेन ग्रीन बांड जारी करने की योजना बना रहा है। 1 फरवरी, 2022 को दिए गए अपने बजट भाषण में, वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा था कि ग्रीन इन्फ्रस्ट्रक्चर के लिए धन जुटाने के उद्देश्य से ग्रीन बॉन्ड जारी किया जाएगा। इसे सार्वजनिक क्षेत्र की परियोजनाओं में अर्थव्यवस्था की कार्बन तीव्रता को कम करने के लिए इस्तेमाल किया जाएगा। कार्बन तीव्रता कम करने से तात्पर्य उसी काम को करने पर कम कार्बन उत्सर्जन हो, यह लक्ष्य हासिल करने से है।
सौ दिन चले ढाई कोस
रियो शिखर सम्मेलन के बाद के 30 साल, दुनिया में सबसे तेज बदलाव का दौर रहा। चीन और भारत जलवायु परिवर्तन शमन के लिए महत्वपूर्ण देश बन गए हैं। वैश्वीकृत दुनिया में लगातार नए नए परिवर्तन हो रहे हैं और राष्ट्रवादी संस्थाओं का उभार हो रहा है। दूसरी तरफ जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता के नुकसान ने अपना प्रतिकूल प्रभाव दिखाना शुरू कर दिया है।
जैसे-जैसे भारत में नवीन ऊर्जा उत्पादन बढ़ेगा, देश की अर्थव्यवस्था कम कार्बन उत्सर्जन करेगी। जीवाश्म ईंधन पर देश की निर्भरता भी कम होगी जो दूसरे देशों से आयात होती है और इसको लेकर तमाम व्यवधान का डर भी बना रहता है।
यूक्रेन युद्ध ने फिर से सबका ध्यान इस तरफ खींचा है कि कैसे जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता आपको कमजोर बनाती है। युद्ध और फिर पश्चिमी देशों के द्वारा लगाए गए आर्थिक प्रतिबंध से बड़ी मात्रा में पेट्रोलियम ईंधन बाजार से बाहर हो गया है। अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (आईईए) के अनुसार, 2021 में रूस ने कुल वैश्विक कच्चे तेल की आपूर्ति में 14% योगदान दिया। रूस अमेरिका के बाद प्राकृतिक गैस उत्पादक देशों में दूसरे नंबर पर है।
अगर दुनिया भर के देशों में, खासकर एशियाई देशों में अक्षय ऊर्जा का विस्तार होता है तो इसका एक फायदा और भी है। इससे महासागरों में जीवाश्म ईंधन को ढोने के लिए भारी यातायात में कमी होगी। युएनसीटीएडी द्वारा तैयार समुद्री परिवहन 2021 की समीक्षा में कहा गया है कि 2020 में वैश्विक स्तर पर जहाजों के द्वारा ढोए गए माल में 10,63.1 करोड़ टन में से 186.3 करोड़ टन कच्चा तेल था। वहीं 122.2 करोड़ टन अन्य टैंकर व्यापार था और साथ ही116.5 करोड़ टन कोयला था। भौगोलिक रूप से, इसमें से 106 करोड़ टन कच्चा तेल और 60.9 करोड़ टन अन्य टैंकर व्यापार एशिया में आया। कोयले के संबंध में, चीन ने 20% आयात किया और भारत ने विश्व व्यापार का 19% आयात किया। दूसरे शब्दों में कहें तो जीवाश्म ईंधन का वैश्विक शिपिंग डिस्चार्ज में 40% हिस्सेदारी है और इनमें से अधिकांश एशिया में आयात करने वाले देशों की ओर बढ़ रहे हैं।
इस तरह जलवायु परिवर्तन और जैव-विविधता से जुड़ी समस्या से निपटने के लिए पहले वैश्विक सम्मेलन के बाद से पृथ्वी गर्म हुई है, जलवायु जोखिम का खतरा बढ़ा है और जैव विविधता प्रभावित हुई है। बावजूद इसके, आने वाले दशकों में कुछ सकारात्मक कदम उठेंगे ऐसी उम्मीद दिखती है।
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बैनर तस्वीरः इंडियन स्किमर पक्षी का एक झुंड। जैव विविधता सम्मेलन में किये गए प्रतिबद्धताओं को लागू करने से संबंधित कानून बनाने में भारत अग्रणी देशों में शुमार रहा है। तस्वीर– वाइल्डमिश्रा/विकिमीडिया कॉमन्स