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जलवायु परिवर्तन से जूझने में कितने कारगर कार्बन पॉजिटिव गांव?

बैनर तस्वीर: बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) और भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) संस्थानों के वैज्ञानिकों द्वारा इस परियोजना की समीक्षा की गई। इसमें कर्नाटक, राजस्थान, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और बिहार के चुनिंदा गांवों का अध्ययन हुआ। तस्वीर- विजय कुट्टी /आईएलओ एशिया पैसिफिक / फ़्लिकर

बैनर तस्वीर: बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) और भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) संस्थानों के वैज्ञानिकों द्वारा इस परियोजना की समीक्षा की गई। इसमें कर्नाटक, राजस्थान, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और बिहार के चुनिंदा गांवों का अध्ययन हुआ। तस्वीर- विजय कुट्टी /आईएलओ एशिया पैसिफिक / फ़्लिकर

  • कार्बन पॉजिटिव गांव यानी ऐसा गांव जिसमें उत्सर्जन न के बराबर होने के साथ अतिरिक्त कार्बन सोखने की क्षमता भी हो। ऐसे ही गांवों पर हुए एक ताजा अध्ययन में सामने आया है कि ये गांव जलवायु परिवर्तन से लड़ाई में अहम भूमिका निभा सकते हैं।
  • ऐसे गांवों में रहने वाले लोग संरक्षण की पारंपरिक प्रथाओं को बचाए रखते हैं ताकि प्राकृतिक संपत्तियां बची रह सकें। इससे ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन में कमी आती है।
  • जलवायु परिवर्तन पर ताजा अंतर सरकारी पैनल (आईपीसीसी) की रिपोर्ट कहती है कि कृषि, वानिकी और अन्य भूमि उपयोग क्षेत्र में सब लोग साथ मिलकर निरंतर प्रयास करें तो ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन कम करने का यह बेहतरीन मौका साबित हो सकता है।

कर्नाटक के किसान महेश जब भी ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन कम करने के लिए जल और मृदा संरक्षण को लेकर चर्चा करते हैं, उनका सवाल होता कि उससे कृषि की उपज कैसे बढ़ेगी या उन्हें सीधे तौर पर क्या फायदा होगा? 

महेश एनएम कर्नाटक के गांव दुर्गादा नागनहल्ली के उन 100 किसानों में से एक हैं, जिन्होंने पर्यावरण की खातिर खेती का तरीका बदला है। लगभग एक दशक तक इन किसानों ने पेड़-आधारित खेती, शुष्क भूमि में बागवानी, खेती के लिए तालाबों का विकास और वर्षा जल संचयन का अभ्यास किया। इस तरह के बदलावों से उनकी खेती पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव कम पड़े।  भारत सरकार की एक परियोजना के तहत इन कृषि नवाचारों की शुरुआत की गयी थी। 

महेश कहते हैं कि खेती में वैज्ञानिक तरीकों को अपनाने से बेहतर पानी की उपलब्धता, मिट्टी की उर्वरता इत्यादि बढ़ी और सूखा प्रभावित क्षेत्र में भी लाभ हुआ। यहां किसानों ने कंपनी स्थापित की और आंवले, काजू, इमली और आम जैसे कृषि उत्पादों से आमदनी बढ़ाने में सफल हुए। 

महेश का गांव भारत के उन नौ गांवों में शामिल है जहां यह प्रयोग किया गया। इस अध्ययन के लिए इस गांव को कार्बन पॉजिटिव गांव के रूप में चिन्हित किया गया है। यहां मिट्टी और जल संरक्षण के नई तकनीकी को निरंतर अपनाने से ग्रीनहाउस गैस को अवशोषित करने और उत्सर्जन को कम करने में मदद मिली है। 

विशेषज्ञों का कहना है कि कार्बन-न्यूट्रल और कार्बन पॉजिटिव जैसी अवधारणा जलवायु परिवर्तन को रोकने के कोशिश के तौर पर विकसित हुई हैं। जानकार यह भी कहते हैं कि यहां छोटी जोत वाले किसानों की मुश्किलों से निपटने की जरूरत है। तेजी से लाभ के बजाय क्रमिक वित्तीय लाभ पर जोर देने की जरूरत है जिसमें पर्यावरण और भूमि कार्बन स्टॉक जैसी चिंताएं भी शामिल रहें। 

शोधकर्ताओं का कहना है कि पहाड़ी पारिस्थितिक तंत्र में झूम भूमि को बहाल करना उन उपायों में से एक है जिससे कार्बन पॉजिटिव गांव विकसित हो सकते हैं। तस्वीर- रोहित नानीवाडेकर / विकिमीडिया कॉमन्स
शोधकर्ताओं का कहना है कि पहाड़ी पारिस्थितिक तंत्र में झूम भूमि को बहाल करना उन उपायों में से एक है जिससे कार्बन पॉजिटिव गांव विकसित हो सकते हैं। तस्वीर– रोहित नानीवाडेकर / विकिमीडिया कॉमन्स

कार्बन न्यूट्रल का मतलब है कि किसी गतिविधि से जितना कार्बन डाइऑक्साइड वातावरण में उत्सर्जित हो उतनी ही मात्रा में इसे किसी गतिविधि से वातावरण से सोख लिया जाए। इस तरह वातावरण में कार्बन का संतुलन बनता है। वहीं, कार्बन पॉजिटिव से मलतब उन गतिविधियों से है जिसकी वजह से वातावरण से अतिरिक्त कार्बन डाइऑक्साइड को हटाकर उस स्थिति तक पहुंचाया जाए जहां उत्सर्जन के अपेक्षा अधिक कार्बन वातावरण से हटाया जा रहा हो। 

संयुक्त राष्ट्र की संस्था इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की नवीनतम रिपोर्ट में भी यह बात कही गयी है। रिपोर्ट इस बात को रेखांकित करता है कि कृषि, वानिकी और अन्य भूमि उपयोग (एएफओएलयू) क्षेत्र ने कुल ग्रीनहाउस गैस का 13-21% योगदान दिया है। 2010 और 2019 के बीच उत्सर्जन, “नीति निर्माताओं और निवेशकों से लेकर जमीन के मालिक और प्रबंधकों तक, सभी हितधारकों द्वारा संयुक्त, तीव्र और निरंतर प्रयास” द्वारा ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के लिए काफी अवसर प्रदान करता है।

आईपीसीसी के अनुसार, एएफओएलयू 2050 तक 1.5 या 2 डिग्री सेल्सियस तक वैश्विक तापमान रोकने में 20% से 30% का योगदान कर सकता है। हालांकि, इसका मतलब यह नहीं है कि अन्य क्षेत्रों में उत्सर्जन जारी रखा जाए। यह अन्य क्षेत्रों में उत्सर्जन कम करने का विकल्प नहीं हो सकता है। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) और भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) संस्थानों के वैज्ञानिकों ने जलवायु परिवर्तन की रफ्तार कम करने की क्षमता परखने के लिए कर्नाटक, राजस्थान, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और बिहार में गांवों की समीक्षा की। यहां के गावों में आईसीएआर के नेशनल इनोवेशन इन क्लाइमेट रेजिलिएंट एग्रीकल्चर (एनआईसीआरए) परियोजना के तहत काम किया गया था।

पहाड़ी पारिस्थितिक तंत्र में सीढ़ीदार खेत, बांध निर्माण, झूम भूमि को बहाल करना, खेत में जल भंडारण और पुनर्चक्रण के लिए तालाब निर्माण की तकनीक, पानी की टंकियों की गाद निकालना और पोषक तत्वों से भरपूर गाद को खेतों में वापस डालना और कृषि वानिकी प्रथाओं को वापस चलन में लाना कुछ प्रमुख उपाय हैं। इन उपायों को अपनाकर कार्बन पॉजिटिव गांवों को विकसित किया जा सकता है।

भूमि आधारित जलवायु शमन विशेषज्ञ इंदु मूर्ति, जो समीक्षा में शामिल नहीं थे, कार्बन पॉजिटिव गांवों की अवधारणा को “आगे बढ़ने का रास्ता” बताते हैं। 

सिक्किम का एक गांव दारप। पूर्वोत्तर भारत के कई गांव कार्बन पॉजिटिव हैं क्योंकि वे पवित्र जंगलों और आदिवासियों की प्रथाओं के आसपास केंद्रित हैं। इससे कार्बन सोखने की प्रक्रिया बढ़ती है। तस्वीर- शारदा प्रसाद / विकिमीडिया कॉमन्स
सिक्किम का एक गांव दारप। पूर्वोत्तर भारत के कई गांव कार्बन पॉजिटिव हैं क्योंकि वे पवित्र जंगलों और आदिवासियों की प्रथाओं के आसपास केंद्रित हैं। इससे कार्बन सोखने की प्रक्रिया बढ़ती है। तस्वीर– शारदा प्रसाद / विकिमीडिया कॉमन्स

“हम राष्ट्रीय स्तर पर नेट जीरो के बारे में बात कर रहे हैं। आप राष्ट्रीय स्तर पर परिवहन और ऊर्जा क्षेत्र जैसे बड़े क्षेत्रों में इसको लेकर काम कर सकते हैं। लेकिन, जलवायु परिवर्तन से लड़ाई में अत्यंत जरूरी व्यवहार परिवर्तन भी है। यह तभी हो सकता है जब आप जमीन पर यानी गांवों के स्तर पर काम करें,”  सीएसटीईपी के जलवायु, पर्यावरण और स्थिरता के सेक्टर प्रमुख इंदु मूर्ति ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया।

कार्बन सकारात्मकता या तटस्थता के अन्य उदाहरणों में केरल में मीनांगडी ग्राम पंचायत  और मणिपुर का फायेंग भी शामिल है।

असम विश्वविद्यालय, सिलचर में पारिस्थितिकी और पर्यावरण विज्ञान के एसोसिएट प्रोफेसर अरुण ज्योति नाथ ने फायेंग के पवित्र उपवन में जमीन के ऊपर बायोमास और कार्बन स्टॉक का अध्ययन किया है। उन्होंने भारत में वन-आधारित और आदिवासी समुदायों की भूमिका की ओर ध्यान आकर्षित किया जो कार्बन पॉजिटीव होने में योगदान देते हैं। 

“पूर्वोत्तर भारत के कई गांव कार्बन पॉजिटिव हैं क्योंकि वे पवित्र जंगलों और आदिवासी समुदायों की प्रथाओं के आसपास केंद्रित हैं। ये गांव कार्बन अवशोषण बढ़ाते हैं और उत्सर्जन रोकते हैं। इन क्षेत्रों में उद्योगों की अनुपस्थिति का मतलब यह भी है कि उत्सर्जन कम है,” नाथ ने समझाया।

स्थानीय स्तर पर विकास को देखने के लिए जलवायु परिवर्तन का नजरिया

अध्ययन के सह-लेखक और बीएचयू के पर्यावरण और सतत विकास संस्थान के पी.सी. अभिलाष ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया कि नेशनल इनोवेशन इन क्लाइमेट रेजिलिएंट एग्रीकल्चर (एनआईसीआरए) परियोजना के तहत गांवों की कार्बन सकारात्मकता का आकलन किया गया। शोधकर्ताओं ने उन संकेतों पर ध्यान दिया जिससे अधिक कार्बन को सोखकर और मिट्टी को मजबूत कर गांवों को जलवायु परिवर्तन के खिलाफ मजबूत बनाया। 

मृदा संरक्षण की नई तकनीकों के कारण मिट्टी के नुकसान को कम करने की सीमा 0.10 से 21.65 मेगाग्राम प्रति हेक्टेयर प्रति वर्ष हो गई। जबकि यहां न्यूनतम कार्बन उत्सर्जन 0.73 से 158.77 किग्रा/घंटा/वर्ष है। अध्ययन में कहा गया है कि संरक्षण प्रौद्योगिकियों को अपनाने से भारत के नौ गांवों में 0.05–1.23 कार्बन डायऑक्साइड एमजी/हेक्टेयर/वर्ष का शुद्ध कार्बन संतुलन बना। इससे ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कमी और कार्बन सोखने के कारण सकारात्मक कार्बन संतुलन का पता चलता है। 

अभिलाष और दूसरे सह-लेखक अध्ययन में लिखते हैं कि “गांवों को कार्बन पॉजिटिव बनाने की कार्य योजनाओं में ऐसी प्रौद्योगिकियों की पहचान होनी चाहिए जो उत्पादकता बढ़ा सकती हैं और जलवायु परिवर्तन से लड़ाई में मदद कर सकती है। साथ ही, ग्रीनहाउस गैस (जीएचजी) उत्सर्जन को कम कर सकती हैं।”

“अध्ययन में शामिल गावों की विशेषता यह थी कि यहां के किसान प्रगतिशील हैं और उन्होंने इस पूरी प्रक्रिया में सक्रिय भागीदारी निभाई। यहां के किसान पानी और भूमि संरक्षण के पुराने तरीकों का प्रयोग कर सुधार करना चाहते थे। वे असली वैज्ञानिक हैं,” अभिलाष कहते हैं।

दुर्गादा नागेनहल्ली में कृषि विज्ञान केंद्र और आईसीएआर-राष्ट्रीय मृदा सर्वेक्षण ब्यूरो की मदद से मृदा कार्बनिक कार्बन स्तर और अन्य मापदंडों पर भूमि उपयोग योजना बनाई गई। जानकारों की मदद से किसानों ने, सागौन और इमली, आम, आंवला, काजू और जामुन की सिल्वर ओक और ड्राईलैंड बागवानी फसलें सहित अन्य पौधों की 22 प्रजातियों को उगाया।

दुर्गादा नागेनहल्ली के किसानों ने इमली, आम, आंवला, काजू और जामुन सहित पौधों की 22 प्रजातियों को उगाया। तस्वीर- थमिज़प्परिथि मारी/विकिमीडिया कॉमन्स
दुर्गादा नागेनहल्ली के किसानों ने इमली, आम, आंवला, काजू और जामुन सहित पौधों की 22 प्रजातियों को उगाया। तस्वीर– थमिज़प्परिथि मारी/विकिमीडिया कॉमन्स

“पौधों के जीवित रहने की दर बेहतर करने के लिए पूरे क्षेत्र में गड्ढे खोदे गए। 100 किसानों को शामिल करके लगभग 80% क्षेत्र में वृक्षारोपण किया गया, ” पीआर, आईसीएआर-कृषि विज्ञान केंद्र, हिरेहल्ली में मृदा विज्ञान विशेषज्ञ रमेश पी. आर. ने कहा। 

“परियोजना की शुरुआत में, मिट्टी पूरी तरह से नष्ट हो गई थी और मिट्टी में ऑर्गेनिक मैटर 0.2 से 0.3% था। समय के साथ यह 0.56% हो गया है,” रमेश ने कहा।

मृदा ऑर्गेनिक पदार्थ (मिट्टी कार्बन) का उच्च स्तर मिट्टी को अधिक समय तक अधिक पानी को अवशोषित करने और बनाए रखने में मदद करता है। इससे सूखे की वजह से फसल का कम नुकसान होता है। 

अभिलाष ने कहा, “मृदा में ऑर्गेनिक पदार्थ माइक्रोबियल कॉलोनियों का निर्माण करते हैं जो फसल की वृद्धि के लिए समग्र मिट्टी प्रणाली को लाभान्वित करते हैं।”

रमेश बताते हैं कि आंवले जैसी बागवानी फसलों को उपजाने का निर्णय गांव के स्तर पर बनाई गई क्लाइमेट रिस्क मैनेजमेंट कमेटी के द्वारा लिया गया था। 


और पढ़ेंः खेती में तालाब को शामिल कर अच्छी फसल ले रहे कई किसान


किसान महेश ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया कि शुरू में समुदाय के कई लोग हस्तक्षेप करने से हिचकिचाते थे लेकिन समय के साथ जैसे-जैसे परिणाम दिखने लगे, वे आगे आ गए। 

“जैविक खेती जैसी रणनीतियां पहले वर्ष में आशाजनक परिणाम नहीं दे सकती हैं। छोटी जोत वाले किसान इस तरह के प्रयोग नहीं कर सकते,” अभिलाष ने कहा।

मूर्ति कहती हैं कि एक बार जब परियोजना की अवधि समाप्त हो जाती है, तो आदर्श रूप से समुदाय को इसे आगे बढ़ाने में सक्षम होना चाहिए। 

“एक परियोजना के साथ सोच में बदलाव लाना जरूरी है। लोगों में संवेदनशीलता लाने की आवश्यकता है, जिसके बाद वे इसे आगे ले जाने की स्थिति में होंगे,” उन्होंने कहा।

 

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बैनर तस्वीर: बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) और भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) संस्थानों के वैज्ञानिकों द्वारा इस परियोजना की समीक्षा की गई। इसमें कर्नाटक, राजस्थान, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और बिहार के चुनिंदा गांवों का अध्ययन हुआ।  तस्वीर– विजय कुट्टी /आईएलओ एशिया पैसिफिक / फ़्लिकर

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